सूतजी कहते हैं— महर्षियो ! जो सृष्टिरूप मूल प्रकृतिके ज्ञाता तथा इन भावात्मक पदार्थोंके द्रष्टा हैं, जिन्होंने इस लोककी रचना की है, जो लोकतत्त्वके ज्ञाता तथा योगवेत्ता हैं, जिन्होंने योगका आश्रय लेकर सम्पूर्ण चराचर जीवोंकी सृष्टि की है और जो समस्त भूतों तथा अखिल विश्वके स्वामी हैं, उन सच्चिदानन्द परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। फिर ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, अन्य लोकपाल तथा सूर्यदेवको एकाग्रचित्तसे नमस्कार करके ब्रह्मस्वरूप वेदव्यासजीको प्रणाम करता हूँ। उन्होंसे इस पुराण विद्याको प्राप्त करके मैं आपके समक्ष प्रकाशित करता हूँ। जो नित्य सदसत्स्वरूप, अव्यक्त एवं सबका कारण है, वह ब्रह्म ही महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त विशाल ब्रह्माण्डकी सृष्टि करता है। यह विद्वानोंका निश्चित सिद्धान्त है। सबसे पहले हिरण्यमय (तेजोमय) अण्डमें ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ। वह अण्ड सब ओर जलसे घिरा है। जलके बाहर तेजका घेरा और तेजके बाहर वायुका आवरण है। वायु आकाशसे और आकाश भूतादि (तामस अहंकार) से घिरा है।अहंकारको महत्तत्त्वने घेर रखा है और महत्तत्त्व अव्यक्त - मूल प्रकृतिसे घिरा है। उक्त अण्डको ही सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्तिका आश्रय बताया गया है। इसके सिवा, इस पुराणमें नदियों और पर्वतोंकी उत्पत्तिका बारम्बार वर्णन आया है। मन्वन्तरों और कल्पोंका भी संक्षेपमें वर्णन है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने महात्मा पुलस्त्यको इस पुराणका उपदेश दिया था। फिर पुलस्त्यने इसे गंगाद्वार (हरिद्वार)- में भीष्मजीको सुनाया था। इस पुराणका पठन, श्रवण तथा विशेषतः स्मरण धन, यश और आयुको बढ़ानेवाला एवं सम्पूर्ण पापका नाश करनेवाला है। जो द्विज अंगों और उपनिषदोंसहित चारों वेदोंका ज्ञान रखता है, उसकी अपेक्षा वह अधिक विद्वान् है जो केवल इस पुराणका ज्ञाता है। 2 इतिहास और पुराणोंके सहारे ही वेदकी व्याख्या करनी चाहिये; क्योंकि वेद अल्पज्ञ विद्वान्से यह सोचकर डरता रहता है कि कहीं यह मुझपर प्रहार न कर बैठे-अर्थका अनर्थ न कर बैठे। [तात्पर्य यह कि पुराणोंका अध्ययन किये बिना वेदार्थका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता ।] 3यह सुनकर ऋषियोंने सूतजीसे पूछा-'मुने! भीष्मजी के साथ पुलस्त्य ऋषिका समागम कैसे हुआ ? पुलस्त्यमुनि तो ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं। मनुष्योंको। उनका दर्शन होना दुर्लभ है। महाभाग ! भीष्मजीको जिस स्थानपर और जिस प्रकार पुलस्त्यजीका दर्शन हुआ, वह सब हमें बतलाइये।"
सूतजीने कहा- महात्माओ! साधुओंका हित करनेवाली विश्वपावनी महाभागा गंगाजी जहाँ पर्वत मालाओंको भेदकर बड़े वेगसे बाहर निकली हैं, वह महान् तीर्थ गंगाद्वारके नामसे विख्यात है। पितृभक्त भी वहीं निवास करते थे ये ज्ञानोपदेश सुननेको इच्छासे बहुत दिनोंसे महापुरुषोंके नियमका पालन करते थे। स्वाध्याय और तर्पणके द्वारा देवताओं और पितरोंकी तृप्ति तथा अपने शरीरका शोषण करते हुए भीष्मजीके ऊपर भगवान् ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए। वे अपने पुत्र मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजीसे इस प्रकार बोले 'बेटा! तुम कुरुवंशका भार वहन करनेवाले वीरवर देखतके, जिन्हें भीष्म भी कहते हैं समीप जाओ। उन्हें तपस्यासे निवृत्त करो और इसका कारण भी बतलाओ। महाभाग भीष्म अपनी पितृभक्तिके कारण भगवानुका ध्यान करते हुए गंगाद्वारमें निवास करते हैं। उनके मनमें जो-जो कामना हो, उसे शीघ्र पूर्ण करो; विलम्ब नहीं होना चाहिये।'
पितामहका वचन सुनकर मुनिवर पुलस्त्यजी गंगाद्वारमें आये और भीष्मजीसे इस प्रकार बोले- 'वीर! तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो तुम्हारी तपस्यासे साक्षात् भगवान् ब्रह्माजी प्रसन्न हुए हैं। उन्होंने ही मुझे यहाँ भेजा है। मैं तुम्हें मनोवांछित वरदान दूँगा।' पुलस्त्यजीका वचन मन और कानको सुख पहुँचानेवाला था उसे सुनकर भीष्म आँखें खोल दी और देखा पुलस्त्यजी सामने खड़े हैं। उन्हें देखते ही भीष्मजी उनके चरणोंपर गिर पड़े। उन्होंने अपने सम्पूर्ण शरीरसे पृथ्वीका स्पर्श करते हुए उन मुनिश्रेष्ठको साष्टांग प्रणाम किया और कहा "भगवन्! आज मेरा जन्म सफल हो गया। यह दिन बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि आज आपके विश्वन्यचरणोंका मुझे दर्शन प्राप्त हुआ है। आज आपने दर्शन दिया और विशेषतः मुझे वरदान देनेके लिये गंगाजीके तटपर पदार्पण किया; इतनेसे ही मुझे अपनी तपस्याका सारा फल मिल गया। यह कुशकी चटाई है, इसे मैंने अपने हाथों बनाया है और [ जहाँतक हो सका है] इस बातका भी प्रयत्न किया है कि यह बैठनेवालेके लिये आराम देनेवाली हो; अतः आप इसपर विराजमान हों। यह पलाशके दोनेमें अर्घ्य प्रस्तुत किया गया है; इसमें दूब, चावल, फूल, कुश, सरसों, दही, शहद, जौ और दूध भी मिले हुए हैं। प्राचीन कालके ऋषियोंने यह अष्टांग अर्घ्य ही अतिथिको अर्पण करनेयोग्य बतलाया है।'
अमिततेजस्वी भीष्मके ये वचन सुनकर ब्रह्माजीके पुत्र पुलस्त्यमुनि कुशासनपर बैठ गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ पाद्य और अर्ध्य स्वीकार किया। भीष्मजीके शिष्टाचारसे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ। वे प्रसन्न होकर बोले 'महाभाग ! तुम सत्यवादी, दानशील और सत्यप्रतिज्ञ राजा हो। तुम्हारे अंदर लज्जा, मैत्री और क्षमा आदि सद्गुण शोभा पा रहे हैं। तुम अपने पराक्रमसेशत्रुओंको दमन करनेगें समर्थ हो साथ ही धर्मज्ञ, कृतज्ञ दयालु, मधुरभाषी, सम्मानके योग्य पुरुषोंको सम्मान देनेवाले, विद्वान् ब्राह्मणभक्त तथा साधुऑपर स्नेह रखनेवाले हो। वत्स तुम प्रणामपूर्वक मेरी शरण आये हो; अतः मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो चाहो, पूछो मैं तुम्हारे प्रत्येक प्रश्नका उत्तर दूंगा।'
भीष्मजीने कहा- भगवन्। पूर्वकालमें भगवान् ब्रह्माजीने किस स्थानपर रहकर देवताओं आदिकी सृष्टि की थी, यह मुझे बताइये। उन महात्माने कैसे ऋषियों तथा देवताओंको उत्पन्न किया? कैसे पृथ्वी बनायी ? किस तरह आकाशकी रचना की और किस प्रकार इन समुद्रोंको प्रकट किया? भयंकर पर्वत, वन और नगर कैसे बनाये ? मुनियों, प्रजापतियों, श्रेष्ठ सप्तर्षियों और भिन्न-भिन्न वर्गोंको वायुको, गन्धवों, वक्षों, राक्षसों, तीथों, नदियों, सूर्यादि ग्रहों तथा तारोंको भगवान् ब्रह्माने किस तरह उत्पन्न किया? इन सब बातोंका वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजीने कहा- पुरुषश्रेष्ठ! भगवान् ब्रह्मा साक्षात् परमात्मा हैं। वे परसे भी पर तथा अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। उनमें रूप और वर्ण आदिका अभाव है। वे यद्यपि सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि ब्रह्मरूपसे इस विश्वकी उत्पत्ति करनेके कारण विद्वानोंके द्वारा ब्रह्मा कहलाते हैं। उन्होंने पूर्वकालमें जिस प्रकार सृष्टि रचना की, वह सब मैं बता रहा हूँ सुनो, सृष्टिके प्रारम्भकालमें जब जगत्के स्वामी ब्रह्माजी कमलके आसनसे उठे तब सबसे पहले उन्होंने महत्तत्त्वको प्रकट किया; फिर महत्तत्त्वसे वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) तथा भूतादिरूप तामस तीन प्रकारका अहंकार उत्पन्न हुआ, जो कर्मेन्द्रियसहित पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा पंचभूतका कारण है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-ये पाँच भूत हैं। इनमेंसे एक एकके स्वरूपका क्रमशः वर्णन करता हूँ। [ भूतादि नामक तामस अहंकारने विकृत होकर शब्द तन्मात्राको उत्पन्न किया, उससे शब्द गुणवाले आकाशका प्रादुर्भाव हुआ।] भूतादि (तामस अहंकार) ने शब्द तन्मात्रारूपआकाशको सब ओरसे आच्छादित किया। [तब शब्दतन्मात्रारूप आकाशने विकृत होकर स्पर्श-तन्मात्राकी रचना की।] उससे अत्यन्त बलवान् वायुका प्राकट्य हुआ, जिसका गुण स्पर्श माना गया है। तदनन्तर आकाशसे आच्छादित होनेपर वायु तत्त्वमें विकार आया और उसने रूप तन्मात्राकी सृष्टि की। वह वायुसे अग्निके रूपमें प्रकट हुई रूप उसका गुण कहलाता है। तत्पश्चात् स्पर्श तन्मात्रावाले वायुने रूप तन्मात्रावाले तेजको सब ओरसे आवृत किया। इससे अग्नि तत्त्वने विकारको प्राप्त होकर रस- तन्मात्राको उत्पन्न किया। उससे जलकी उत्पत्ति हुई, जिसका गुण रस माना गया है। फिर रूप तन्मात्रावाले तेजने रस तन्मात्रारूप जल तत्त्वको सब ओरसे आच्छादित किया। इससे विकृत होकर जलतत्त्वने गन्ध-तन्मात्राकी सृष्टि की, जिससे यह पृथ्वी उत्पन्न हुई। पृथ्वीका गुण गन्ध माना गया है। इन्द्रियाँ तेजस कहलाती हैं [ क्योंकि वे राजस अहंकारसे प्रकट हुई हैं]। इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता वैकारिक कहे गये हैं [ क्योंकि उनकी उत्पत्ति सात्विक अहंकारसे हुई है। इस प्रकार इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवाँ मन ये वैकारिक माने गये हैं। त्वचा, चक्षु, नासिका, जि और श्रोत्र - ये पाँच इन्द्रियाँ शब्दादि विषयोंका अनुभव करानेके साधन हैं। अतः इन पाँचोंको बुद्धियुक्त अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं गुदा, उपस्थ, हाथ, पैर और वाक् – ये क्रमशः मल त्याग, मैथुनजनित सुख, शिल्प निर्माण (हस्तकौशल), गमन और शब्दोच्चारण इन कमोंमें सहायक हैं। इसलिये इन्हें कर्मेन्द्रिय माना गया है।
वीर आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वीवे क्रमशः शब्दादि उत्तरोत्तर गुणोंसे युक्त हैं अर्थात् आकाशका गुण शब्दः वायुके गुण शब्द और स्पर्श; तेजके गुण शब्द, स्पर्श और रूपः जलके शब्द, स्पर्श, रूप और रस तथा पृथ्वीके शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध-वे सभी गुण हैं। उक्त पौधों भूत शान्त, घोर और मूद हैं। अर्थात् सुख, दुःख और मोहसे युक्त हैं। अतःये विशेष कहलाते हैं। ये पाँच भूत अलग-अलग रहनेपर भिन्न-भिन्न प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्न हैं। अतः परस्पर संगठित हुए बिना पूर्णतया मिले बिना ये प्रजाकी सृष्टि करनेमें समर्थ न हो सके। इसलिये [परमपुरुष परमात्माने संकल्पके द्वारा इनमें प्रवेश किया। फिर तो ] महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी तत्त्व पुरुषद्वारा अधिष्ठित होनेके कारण पूर्णरूपसे एकत्वको प्राप्त हुए। इस प्रकार परस्पर मिलकर तथा एक-दूसरेका आश्रय ले उन्होंने अण्डकी उत्पत्ति की । भीष्मजी ! उस अण्डमें ही पर्वत और द्वीप आदिके सहित समुद्र, ग्रहों और तारोंसहित सम्पूर्ण लोक तथा देवता, असुर और मनुष्यसहित समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं। वह अण्ड पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा दसगुने अधिक जल, अग्नि, वायु, आकाश और भूतादि अर्थात् तामस अहंकारसे आवृत है। भूतादि महत्तत्त्वसे घिरा है तथा इन सबके सहित महत्तत्त्व भी अव्यक्त (प्रधान या मूल प्रकृति) के द्वारा आवृत है।
भगवान् विष्णु स्वयं ही ब्रह्मा होकर संसारकी सृष्टिमें प्रवृत्त होते हैं तथा जबतक कल्पकी स्थिति बनी रहती है, तबतक वे ही युग-युगमें अवतार धारणकरके समूची सृष्टिकी रक्षा करते हैं। वे विष्णु सत्त्वगुण धारण किये रहते हैं; उनके पराक्रमकी कोई सीमा नहीं है। राजेन्द्र ! जब कल्पका अन्त होता है, तब वे ही अपना तमः प्रधान रौद्र रूप प्रकट करते हैं और अत्यन्त भयानक आकार धारण करके सम्पूर्ण प्राणियोंका संहार करते हैं। इस प्रकार सब भूतोंका नाश करके संसारको एकार्णवके जलमें निमग्न कर वे सर्वरूपधारी भगवान् स्वयं शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं। फिर जागनेपर ब्रह्माका रूप धारण करके वे नये सिरे से संसारकी सृष्टि करने लगते हैं। इस तरह एक ही भगवान् जनार्दन सृष्टि, पालन और संहार करनेके कारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव नाम धारण करते हैं। * वे प्रभु स्रष्टा होकर स्वयं अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक होकर पालनीय रूपसे अपना ही पालन करते हैं और संहारकारी होकर स्वयं अपना ही संहार करते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-सब वे ही हैं; क्योंकि अविनाशी विष्णु ही सब भूतोंके ईश्वर और विश्वरूप हैं। इसलिये प्राणियों में स्थित सर्ग आदि भी उन्हींके सहायक हैं।