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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 137 - Khand 4, Adhyaya 137

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मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन

सूतजी कहते हैं— महर्षियो। एक समयकी बात हैं, देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् सदाशिव यमुनाजीके तटपर बैठे हुए थे। उस समय नारदजीने उनके चरणोंमें प्रणाम करके कहा-'देवदेव महादेव! आप सर्वज्ञ, जगदीश्वर, भगवद्धर्मका तत्त्व जाननेवाले तथा श्रीकृष्ण मन्त्रका ज्ञान रखनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। देवेश्वर ! यदि मैं सुननेका अधिकारी हो तो कृपा करके मुझे वह मन्त्र बताइये, जो एक बारके उच्चारण मात्रसे मनुष्योंको उत्तम फल प्रदान करता है।

शिवजी बोले- महाभाग ! तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। क्यों न हो, तुम सम्पूर्ण जगत्के हितैषी जो ठहरे। मैं तुम्हें मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश दे रहा हूँ। यद्यपि वह बहुत ही गोपनीय है तो भी मैं तुमसे उसका वर्णन करूँगा। कृष्णके दो मन्त्र अत्यन्त उत्तमहैं, उन दोनोंको तुम्हें बताता हूँ; मन्त्र-चिन्तामणि, युगल, द्वय और पंचपदी-ये इन दोनों मन्त्रोंके पर्यायवाची नाम हैं। इनमें पहले मन्त्रका प्रथम पद हैं- गोपीजन', द्वितीय पद है—'वल्लभ', तृतीय पद है-'चरणान्', चतुर्थ पद है—'शरणम्' तथा पंचम पद हैं- 'प्रपद्ये।' इस प्रकार यह ('गोपीजनवल्ल भचरणान् शरणं प्रपद्ये) मन्त्र पाँच पदका है। इसका नाम मन्त्र- चिन्तामणि है। इस महामन्त्रमें सोलह अक्षर हैं। दूसरे मन्त्रका स्वरूप इस प्रकार है- 'नमो गोपीजन' इतना कहकर पुनः 'वल्लभाभ्याम्' का उच्चारण करना चाहिये। तात्पर्य यह कि 'नमो गोपीजनवल्लभाभ्याम्' के रूपमें यह दो पदका मन्त्र हैं, जो दस अक्षरोंका बताया गया है। जो मनुष्य श्रद्धा या अश्रद्धासे एक बार भी इस पंचपदीका जप कर लेता है, उसे निश्चय ही श्रीकृष्णके प्यारे भक्तोंका सान्निध्य प्राप्त होता है इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इस मन्त्रको सिद्ध करनेके लिये न तो पुरश्चरणकी अपेक्षा पड़ती है और न न्यास विधानका क्रम ही अपेक्षित है। देश-कालका भी कोई नियम नहीं है। अरि और मित्र आदिके शोधनकी भी आवश्यकता नहीं है। मुनीश्वर ! ब्राह्मणसे लेकर चाण्डालतक सभी मनुष्य इस मन्त्रके अधिकारी हैं। स्त्रियाँ, शूद्र आदि, जड़, मूक, अन्ध, पंगु, हूण, किरात, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, यवन, कंक एवं खश आदि पापयोनिके दम्भी, अहंकारी, पापी, चुगलखोर, गोवती, हत्यारे महापातकी, उपपातकी, ज्ञान-वैराग्यहीन, श्रवण आदि साधनोंसे रहित तथा अन्य जितने भी निकृष्ट श्रेणीके लोग हैं, उन सबका इस मन्त्रमें अधिकार है। मुनिश्रेष्ठ ! यदि सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें उनकी भक्ति है तो वे सब के-सब अधिकारी हैं, अन्यथा नहीं; इसलिये भगवान्में भक्ति न रखनेवाले कृतघ्न, मानी, श्रद्धाहीन और नास्तिकको इस मन्त्रका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो सुनना न चाहता हो अथवा जिसके हृदयमें गुरुके प्रति सेवाका भाव न हो उसे भी यह मन्त्र नहीं बताना चाहिये। जो श्रीकृष्णका अनन्य भक्त हो, जिसमें दम्भ और लोभका अभाव हो तथा जो काम और क्रोधसेसर्वथा मुक्त हो, उसे यत्नपूर्वक इस मन्त्रका उपदेश देना चाहिये। इस मन्त्रका ऋषि मैं ही हूँ। बल्लवी वल्लभ श्रीकृष्ण इसके देवता हैं तथा प्रियासहित भगवान् गोविन्दके दास्यभावकी प्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है। यह मन्त्र एक बारके ही उच्चारणसे कृतकृत्यता प्रदान करनेवाला है।

द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं इस मन्त्रका ध्यान बतलाता हूँ। वृन्दावनके भीतर कल्पवृक्ष मूला रत्नमय सिंहासनके ऊपर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिया श्रीराधिकाजीके साथ विराजमान हैं। श्रीराधिकाजी उनके वामभागमें बैठी हुई हैं। भगवान्का श्रीविग्रह मेघके समान श्याम है। उसके ऊपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। उनके दो भुजाएँ हैं। गलेमें वनमाला पड़ी हुई है। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट शोभा दे रहा है। मुख मण्डल करोड़ों चन्द्रमाओंकी भाँति कान्तिमान् है। वे अपने चंचल नेत्रोंको इधर-उधर घुमा रहे हैं। उनके कानोंमें कनेर पुष्पके आभूषण सुशोभित हैं। ललाटमें दोनों ओर चन्दन तथा बीचमें कुंकुम-विन्दुसे तिलक लगाया गया है, जो मण्डलाकार जान पड़ता है। दोनों कुण्डलोंकी प्रभासे वे प्रातः कालीन सूर्यके समान तेजस्वी दिखायी दे रहे हैं। उनके कपोल दर्पणकी भाँति स्वच्छ हैं, जो पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदोंके कारण बड़े शोभायमान प्रतीत होते हैं। उनके नेत्र प्रियाके मुखपर लगे हुए हैं। उन्होंने लीलावश अपनी भाँहें ऊँची कर ली हैं। ऊँची नासिकाके अग्रभागमें मोतीकी बुलाक चमक रही है। पके हुए कुँदरूके समान लाल ओठ दाँतोंका प्रकाश पड़नेसे अधिक सुन्दर दिखायी देते हैं। केयूर, अंगद, अच्छे-अच्छे रल तथा मुँदरियोंसे भुजाओं और हाथोंकी शोभा बहुत बढ़ गयी है। वे बायें हाथमें मुरली तथा दाहिनेमें कमल लिये हुए हैं। करधनीकी प्रभासे शरीरका मध्यभाग जगमगा रहा है नूपुरोंसे चरण सुशोभित हो रहे हैं। भगवान् क्रीड़ा-रसके आवेश चंचल प्रतीत होते हैं। उनके नेत्र भी चपल हो रहे हैं। वे अपनी प्रियाको बारंबार हँसाते हुए स्वयं भी उनके साथ हँस रहे हैं। इस प्रकार श्रीराधाके साथ श्रीकृष्णका चिन्तन करना चाहिये।तदनन्तर श्रीराधाकी सखियोंका ध्यान करे। उनकी अवस्था और गुण श्रीराधाजीके ही समान हैं। वे चँवर और पंखी आदि लेकर अपनी स्वामिनीकी सेवामें लगी हुई हैं।

नारदजी! श्रीकृष्णप्रिया राधा अपनी चैतन्य आदि अन्तरंग विभूतियोंसे इस प्रपंचका गोपन संरक्षण करती हैं; इसलिये उन्हें 'गोपी' कहते हैं। वे श्रीकृष्णकी आराधनामें तन्मय होनेके कारण 'राधिका' कहलाती हैं। श्रीकृष्णमयी होनेसे ही वे परादेवता हैं। पूर्णत: लक्ष्मीस्वरूपा हैं। श्रीकृष्णके आह्लादका मूर्तिमान् स्वरूप होनेके कारण मनीषीजन उन्हें 'ह्लादिनी शक्ति' कहते हैं। श्रीराधा साक्षात् महालक्ष्मी हैं और भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् नारायण हैं। मुनिश्रेष्ठ! इनमें थोड़ा-सा भी भेद नहीं है। श्रीराधा दुर्गा हैं तो श्रीकृष्ण रुद्र। वे सावित्री हैं तो ये साक्षात् ब्रह्मा हैं। अधिक क्या कहा जाय, उन दोनोंके बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता नहीं है। जड़-चेतनमय सारा संसार श्रीराधा कृष्णका ही स्वरूप है। इस प्रकार सबको उन्हीं दोनोंकी विभूति समझो। मैं नाम ले-लेकर गिनाने लगूँ तो सौ करोड़ वर्षोंमें भी उस विभूतिका वर्णन नहीं कर सकता। तीनों लोकोंमें पृथ्वी सबसे श्रेष्ठ मानी गयी है। उसमें भी जम्बूद्वीप सब द्वीपोंसे श्रेष्ठ है। जम्बूद्वीपमें भी भारतवर्ष और भारतवर्ष मेंभी मथुरापुरी श्रेष्ठ है। मथुरामें भी वृन्दावन, वृन्दावनमें भी गोपियोंका समुदाय, उस समुदायमें भी श्रीराधाकी सखियोंका वर्ग तथा उसमें भी स्वयं श्रीराधिका सर्वश्रेष्ठ हैं। श्रीकृष्णके अत्यधिक निकट होनेके कारण श्रीराधाका महत्त्व सबकी अपेक्षा अधिक है। पृथ्वी आदिकी उत्तरोत्तर श्रेष्ठताका इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है। वही ये श्रीराधिका हैं, जो 'गोपी' कही गयी हैं; इनकी सखियाँ ही 'गोपीजन' कहलाती हैं। इन सखियोंके समुदायके दो ही प्रियतम हैं, दो ही उनके प्राणोंके स्वामी हैं- श्रीराधा और श्रीकृष्ण। उन दोनोंके चरण ही इस जगत्में शरण देनेवाले हैं। मैं अत्यन्त दुःखी जीव हूँ, अतः उन्हींका आश्रय लेता हूँ-उन्हींकी शरणमें पड़ा हूँ। शरणमें जानेवाला मैं जो कुछ भी हूँ तथा मेरी कहलानेवाली जो कोई भी वस्तु है, वह सब श्रीराधा और श्रीकृष्णको ही समर्पित है— सब कुछ उन्हींके लिये है, उन्हींकी भोग्य वस्तु है। मैं और मेरा कुछ भी नहीं है। विप्रवर! इस प्रकार मैंने थोड़ेमें 'गोपीजनवल्लभचरणान् शरणं प्रपद्ये' इस मन्त्रके अर्थका वर्णन किया है। युगलार्थ, न्यास, प्रपत्ति, शरणागति तथा आत्मसमर्पण - ये पाँच पर्याय बतलाये गये हैं। साधकको रात-दिन आलस्य छोड़कर यहाँ बताये हुए विषयका चिन्तन करना चाहिये।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान