सूतजी कहते हैं— महर्षियो। एक समयकी बात हैं, देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् सदाशिव यमुनाजीके तटपर बैठे हुए थे। उस समय नारदजीने उनके चरणोंमें प्रणाम करके कहा-'देवदेव महादेव! आप सर्वज्ञ, जगदीश्वर, भगवद्धर्मका तत्त्व जाननेवाले तथा श्रीकृष्ण मन्त्रका ज्ञान रखनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। देवेश्वर ! यदि मैं सुननेका अधिकारी हो तो कृपा करके मुझे वह मन्त्र बताइये, जो एक बारके उच्चारण मात्रसे मनुष्योंको उत्तम फल प्रदान करता है।
शिवजी बोले- महाभाग ! तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। क्यों न हो, तुम सम्पूर्ण जगत्के हितैषी जो ठहरे। मैं तुम्हें मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश दे रहा हूँ। यद्यपि वह बहुत ही गोपनीय है तो भी मैं तुमसे उसका वर्णन करूँगा। कृष्णके दो मन्त्र अत्यन्त उत्तमहैं, उन दोनोंको तुम्हें बताता हूँ; मन्त्र-चिन्तामणि, युगल, द्वय और पंचपदी-ये इन दोनों मन्त्रोंके पर्यायवाची नाम हैं। इनमें पहले मन्त्रका प्रथम पद हैं- गोपीजन', द्वितीय पद है—'वल्लभ', तृतीय पद है-'चरणान्', चतुर्थ पद है—'शरणम्' तथा पंचम पद हैं- 'प्रपद्ये।' इस प्रकार यह ('गोपीजनवल्ल भचरणान् शरणं प्रपद्ये) मन्त्र पाँच पदका है। इसका नाम मन्त्र- चिन्तामणि है। इस महामन्त्रमें सोलह अक्षर हैं। दूसरे मन्त्रका स्वरूप इस प्रकार है- 'नमो गोपीजन' इतना कहकर पुनः 'वल्लभाभ्याम्' का उच्चारण करना चाहिये। तात्पर्य यह कि 'नमो गोपीजनवल्लभाभ्याम्' के रूपमें यह दो पदका मन्त्र हैं, जो दस अक्षरोंका बताया गया है। जो मनुष्य श्रद्धा या अश्रद्धासे एक बार भी इस पंचपदीका जप कर लेता है, उसे निश्चय ही श्रीकृष्णके प्यारे भक्तोंका सान्निध्य प्राप्त होता है इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इस मन्त्रको सिद्ध करनेके लिये न तो पुरश्चरणकी अपेक्षा पड़ती है और न न्यास विधानका क्रम ही अपेक्षित है। देश-कालका भी कोई नियम नहीं है। अरि और मित्र आदिके शोधनकी भी आवश्यकता नहीं है। मुनीश्वर ! ब्राह्मणसे लेकर चाण्डालतक सभी मनुष्य इस मन्त्रके अधिकारी हैं। स्त्रियाँ, शूद्र आदि, जड़, मूक, अन्ध, पंगु, हूण, किरात, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, यवन, कंक एवं खश आदि पापयोनिके दम्भी, अहंकारी, पापी, चुगलखोर, गोवती, हत्यारे महापातकी, उपपातकी, ज्ञान-वैराग्यहीन, श्रवण आदि साधनोंसे रहित तथा अन्य जितने भी निकृष्ट श्रेणीके लोग हैं, उन सबका इस मन्त्रमें अधिकार है। मुनिश्रेष्ठ ! यदि सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें उनकी भक्ति है तो वे सब के-सब अधिकारी हैं, अन्यथा नहीं; इसलिये भगवान्में भक्ति न रखनेवाले कृतघ्न, मानी, श्रद्धाहीन और नास्तिकको इस मन्त्रका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो सुनना न चाहता हो अथवा जिसके हृदयमें गुरुके प्रति सेवाका भाव न हो उसे भी यह मन्त्र नहीं बताना चाहिये। जो श्रीकृष्णका अनन्य भक्त हो, जिसमें दम्भ और लोभका अभाव हो तथा जो काम और क्रोधसेसर्वथा मुक्त हो, उसे यत्नपूर्वक इस मन्त्रका उपदेश देना चाहिये। इस मन्त्रका ऋषि मैं ही हूँ। बल्लवी वल्लभ श्रीकृष्ण इसके देवता हैं तथा प्रियासहित भगवान् गोविन्दके दास्यभावकी प्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है। यह मन्त्र एक बारके ही उच्चारणसे कृतकृत्यता प्रदान करनेवाला है।
द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं इस मन्त्रका ध्यान बतलाता हूँ। वृन्दावनके भीतर कल्पवृक्ष मूला रत्नमय सिंहासनके ऊपर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिया श्रीराधिकाजीके साथ विराजमान हैं। श्रीराधिकाजी उनके वामभागमें बैठी हुई हैं। भगवान्का श्रीविग्रह मेघके समान श्याम है। उसके ऊपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। उनके दो भुजाएँ हैं। गलेमें वनमाला पड़ी हुई है। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट शोभा दे रहा है। मुख मण्डल करोड़ों चन्द्रमाओंकी भाँति कान्तिमान् है। वे अपने चंचल नेत्रोंको इधर-उधर घुमा रहे हैं। उनके कानोंमें कनेर पुष्पके आभूषण सुशोभित हैं। ललाटमें दोनों ओर चन्दन तथा बीचमें कुंकुम-विन्दुसे तिलक लगाया गया है, जो मण्डलाकार जान पड़ता है। दोनों कुण्डलोंकी प्रभासे वे प्रातः कालीन सूर्यके समान तेजस्वी दिखायी दे रहे हैं। उनके कपोल दर्पणकी भाँति स्वच्छ हैं, जो पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदोंके कारण बड़े शोभायमान प्रतीत होते हैं। उनके नेत्र प्रियाके मुखपर लगे हुए हैं। उन्होंने लीलावश अपनी भाँहें ऊँची कर ली हैं। ऊँची नासिकाके अग्रभागमें मोतीकी बुलाक चमक रही है। पके हुए कुँदरूके समान लाल ओठ दाँतोंका प्रकाश पड़नेसे अधिक सुन्दर दिखायी देते हैं। केयूर, अंगद, अच्छे-अच्छे रल तथा मुँदरियोंसे भुजाओं और हाथोंकी शोभा बहुत बढ़ गयी है। वे बायें हाथमें मुरली तथा दाहिनेमें कमल लिये हुए हैं। करधनीकी प्रभासे शरीरका मध्यभाग जगमगा रहा है नूपुरोंसे चरण सुशोभित हो रहे हैं। भगवान् क्रीड़ा-रसके आवेश चंचल प्रतीत होते हैं। उनके नेत्र भी चपल हो रहे हैं। वे अपनी प्रियाको बारंबार हँसाते हुए स्वयं भी उनके साथ हँस रहे हैं। इस प्रकार श्रीराधाके साथ श्रीकृष्णका चिन्तन करना चाहिये।तदनन्तर श्रीराधाकी सखियोंका ध्यान करे। उनकी अवस्था और गुण श्रीराधाजीके ही समान हैं। वे चँवर और पंखी आदि लेकर अपनी स्वामिनीकी सेवामें लगी हुई हैं।
नारदजी! श्रीकृष्णप्रिया राधा अपनी चैतन्य आदि अन्तरंग विभूतियोंसे इस प्रपंचका गोपन संरक्षण करती हैं; इसलिये उन्हें 'गोपी' कहते हैं। वे श्रीकृष्णकी आराधनामें तन्मय होनेके कारण 'राधिका' कहलाती हैं। श्रीकृष्णमयी होनेसे ही वे परादेवता हैं। पूर्णत: लक्ष्मीस्वरूपा हैं। श्रीकृष्णके आह्लादका मूर्तिमान् स्वरूप होनेके कारण मनीषीजन उन्हें 'ह्लादिनी शक्ति' कहते हैं। श्रीराधा साक्षात् महालक्ष्मी हैं और भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् नारायण हैं। मुनिश्रेष्ठ! इनमें थोड़ा-सा भी भेद नहीं है। श्रीराधा दुर्गा हैं तो श्रीकृष्ण रुद्र। वे सावित्री हैं तो ये साक्षात् ब्रह्मा हैं। अधिक क्या कहा जाय, उन दोनोंके बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता नहीं है। जड़-चेतनमय सारा संसार श्रीराधा कृष्णका ही स्वरूप है। इस प्रकार सबको उन्हीं दोनोंकी विभूति समझो। मैं नाम ले-लेकर गिनाने लगूँ तो सौ करोड़ वर्षोंमें भी उस विभूतिका वर्णन नहीं कर सकता। तीनों लोकोंमें पृथ्वी सबसे श्रेष्ठ मानी गयी है। उसमें भी जम्बूद्वीप सब द्वीपोंसे श्रेष्ठ है। जम्बूद्वीपमें भी भारतवर्ष और भारतवर्ष मेंभी मथुरापुरी श्रेष्ठ है। मथुरामें भी वृन्दावन, वृन्दावनमें भी गोपियोंका समुदाय, उस समुदायमें भी श्रीराधाकी सखियोंका वर्ग तथा उसमें भी स्वयं श्रीराधिका सर्वश्रेष्ठ हैं। श्रीकृष्णके अत्यधिक निकट होनेके कारण श्रीराधाका महत्त्व सबकी अपेक्षा अधिक है। पृथ्वी आदिकी उत्तरोत्तर श्रेष्ठताका इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है। वही ये श्रीराधिका हैं, जो 'गोपी' कही गयी हैं; इनकी सखियाँ ही 'गोपीजन' कहलाती हैं। इन सखियोंके समुदायके दो ही प्रियतम हैं, दो ही उनके प्राणोंके स्वामी हैं- श्रीराधा और श्रीकृष्ण। उन दोनोंके चरण ही इस जगत्में शरण देनेवाले हैं। मैं अत्यन्त दुःखी जीव हूँ, अतः उन्हींका आश्रय लेता हूँ-उन्हींकी शरणमें पड़ा हूँ। शरणमें जानेवाला मैं जो कुछ भी हूँ तथा मेरी कहलानेवाली जो कोई भी वस्तु है, वह सब श्रीराधा और श्रीकृष्णको ही समर्पित है— सब कुछ उन्हींके लिये है, उन्हींकी भोग्य वस्तु है। मैं और मेरा कुछ भी नहीं है। विप्रवर! इस प्रकार मैंने थोड़ेमें 'गोपीजनवल्लभचरणान् शरणं प्रपद्ये' इस मन्त्रके अर्थका वर्णन किया है। युगलार्थ, न्यास, प्रपत्ति, शरणागति तथा आत्मसमर्पण - ये पाँच पर्याय बतलाये गये हैं। साधकको रात-दिन आलस्य छोड़कर यहाँ बताये हुए विषयका चिन्तन करना चाहिये।