महादेवजी कहते हैं— नारद! इस विषयमें विज्ञ पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। यह इतिहास अत्यन्त पुरातन, पुण्यदायक सब पापको हरनेवाला तथा शुभकारक है। देवर्षे ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारने लोक पितामह ब्रह्माजीको नमस्कार करके मुझे यह उपाख्यान सुनाया था।
सनत्कुमार बोले- एक दिन मैं धर्मराजसे मिलने गया था। वहाँ उन्होंने बड़ी प्रसन्नता और भक्तिकेसाथ नाना प्रकारकी स्तुतियोंद्वारा मेरा सत्कार किया। तत्पश्चात् मुझे सुखमय आसनपर बैठनेके लिये कहा। बैठनेपर मैंने वहाँ एक अद्भुत बात देखी। एक पुरुष सोनेके विमानपर बैठकर वहाँ आया। उसे देखकर धर्मराज बड़े वेग से आसनसे उठ खड़े हुए और आगन्तुकका दाहिना हाथ पकड़कर उन्होंने अर्घ्य आदिके द्वारा उसका पूर्ण सत्कार किया। तत्पश्चात् वे उससे इस प्रकार बोले ।
धर्मने कहा— धर्मके द्रष्टा महापुरुष! तुम्हारा स्वागत है! मैं तुम्हारे दर्शनसे बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे पास बैठो और मुझे कुछ ज्ञानकी बातें सुनाओ। इसके बाद | उस धाममें जाना, जहाँ श्रीब्रह्माजी विराजमान हैं।
सनत्कुमार कहते हैं— धर्मराजके इतना कहते ही एक दूसरा पुरुष उत्तम विमानपर बैठा हुआ वहाँ आ पहुँचा। धर्मराजने विनीत भावसे उसका भी विमानपर ही पूजन किया तथा जिस प्रकार पहले आये हुए मनुष्यसे सान्त्वनापूर्वक वार्तालाप किया था, उसी प्रकार इस नवागन्तुकके साथ भी किया। यह देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ मैंने धर्मसे पूछा-' इन्होंने कौन-सा ऐसा कर्म किया है, जिसके ऊपर आप अधिक संतुष्ट हुए हैं? इन दोनोंके द्वारा ऐसा कौन-सा कर्म बन गया है, जिसका इतना उत्तम पुण्य है? आप सर्वज्ञ हैं, अतः बताइये किस कर्मके प्रभावसे इन्हें दिव्य फलकी प्राप्ति हुई है?' मेरी बात सुनकर धर्मराजने कहा- 'इनदोनोंका किया हुआ कर्म बताता हूँ, सुनो। पृथ्वीपर वैदिश नामका एक विख्यात नगर है। वहाँ धरापाल नामसे प्रसिद्ध एक राजा थे, जिन्होंने भगवान् विष्णुका मन्दिर बनवाकर उसमें उनकी स्थापना की। उस नगरमें जितने लोग रहते थे, उन सबको उन्होंने भगवान्का दर्शन करनेके लिये आदेश दिया। गाँवके भीतर बना हुआ श्रीविष्णुका वह सुन्दर मन्दिर लोगोंसे ठसाठस भर गया। तब राजाने पहले ब्राह्मण आदिके समुदायका पूजन किया, फिर उन महाबुद्धिमान् नरेशने इतिहास - पुराणके ज्ञाता एक श्रेष्ठ द्विजको, जो विद्यामें भी श्रेष्ठ थे, वाचक बनाकर उनकी विशेष रूपसे पूजा की। फिर क्रमशः गन्ध-पुष्प आदि उपचारोंसे पुस्तकका भी पूजन करके राजाने वाचक ब्राह्मणसे विनयपूर्वक कहा - 'द्विजश्रेष्ठ ! मैंने जो यह भगवान् विष्णुका मन्दिर बनवाया है, इसमें धर्म श्रवण करनेकी इच्छासे चारों वर्णोंका समुदाय एकत्रित हुआ है अतः आप पुस्तक बाँचिये। इस समय ये सौ स्वर्णमुद्राएँ उत्तम जीविकावृत्तिके रूपमें ग्रहण कीजिये और एक वर्षतक प्रतिदिन कथा कहिये। वर्ष समाप्त होनेपर पुनः औरधन दूँगा।'
मुनिश्रेष्ठ इस प्रकार राजाके आदेशसे वहाँ पुण्यमय कथा - वार्ताका क्रम चालू हो गया। वर्ष बीतते-बीतते आयु क्षीण हो जानेके कारण राजाकी मृत्यु हो गयी। तब मैंने तथा भगवान् विष्णुने भी इनके लिये द्युलोकसे विमान भेजा था। ये जो दूसरे ब्राह्मण यहाँ आये थे, इन्होंने सत्संगके द्वारा उत्तम धर्मका श्रवण किया था श्रवण करनेसे श्रद्धावश इनके हृदयमें परमात्माकी भक्तिका उदय हुआ। मुनिश्रेष्ठ! फिर इन्होंने उन महात्मा बाचककी परिक्रमा की और उन्हें एक माशा सुवर्ण दान दिया। सुपात्रको दान देनेसे इन्हें इस प्रकारके फलकी प्राप्ति हुई है। मुने! इस प्रकार यह कर्म, जिसे इन दोनोंने किया था, मैंने कह सुनाया।
महादेवजी कहते हैं— जो मनीषी पुरुष इस पुण्य-प्रसंगका माहात्म्य श्रवण करते हैं, उनकी किसी जन्ममें कभी दुर्गति नहीं होती। देवर्षिप्रवर! अब दूसरी बात सुनाता हूँ, सुनो। गोपीचन्दनका माहात्म्य जैसा मैंने देखा और सुना है, उसका वर्णन करता हूँ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शुद्र-कोई भी क्यों न हो, जो विष्णुका भक्त होकर उनके भजनमें तत्पर रहकर अपने अंगोंमें गोपीचन्दन लगाता है, वह गंगाजल से नहाये हुएकी भाँति सब दोषोंसे मुक्त हो जाता है। कल्याणकी इच्छा रखनेवाले वैष्णव ब्राह्मणोंके लिये गोपीचन्दनका तिलक धारण करना विशेष रूपसे कर्तव्य है। ललाटमें दण्डके आकारका, वक्ष:स्थलमें कमलके सदृश, बाहुओंके मूलभागमें बाँसके पत्तेके समान तथा अन्यत्र दीपकके तुल्य चन्दन लगाना चाहिये अथवा जैसी रुचि हो, उसीके अनुसार भिन्न भिन्न अंगोंमें चन्दन लगाये, इसके लिये कोई खास नियम नहीं है। गोपीचन्दनका तिलक धारण करनेमात्रसे ब्राह्मणसे लेकर चाण्डालतक सभी मनुष्य शुद्ध हो जाते हैं जो वैष्णव ब्राह्मण भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर हो, उसमें तथा विष्णुमें भेद नहीं मानना चाहिये; वह इस लोकमें श्रीविष्णुका ही स्वरूप होता है। तुलसीके पत्र अथवा काष्ठकी बनी हुई मालाधारण करनेसे ब्राह्मण निश्चय ही मुक्तिका भागी होता है।" मृत्युके समय भी जिसके ललाटपर गोपीचन्दनका तिलक रहता है, वह विमानपर आरूढ हो विष्णुके परम पदको प्राप्त होता है। नारद ! कलियुगमें जो नरश्रेष्ठ गोपीचन्दनका तिलक धारण करते हैं, उनकी कभी दुर्गतिनहीं होती। ब्रह्मन् ! इस पृथ्वीपर जो शराबी, स्त्री और बालकोंकी हत्या करनेवाले तथा अगम्या स्त्रीके साथ समागम करनेवाले देखे जाते हैं, वे भगवद्भक्तोंके दर्शनमात्रसे पापमुक्त हो जाते हैं। मैं भी भगवान् विष्णुकी भक्तिके प्रसादसे वैष्णव हुआ हूँ।