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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 8 - Khand 1, Adhyaya 8

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मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन

भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! दितिके पुत्र मरुद्गणकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? वे देवताओंके प्रिय कैसे हो गये? देवता तो दैत्योंके शत्रु हैं, फिर उनके साथ मरुद्गणोंकी मैत्री क्योंकर सम्भव हुई? पुलस्त्यजीने कहा- भीष्म ! पहले देवासुर संग्राममें भगवान् श्रीविष्णु और देवताओंके द्वारा अपने पुत्र पौत्रोंके मारे जानेपर दितिको बड़ा शोक हुआ। वे आर्त होकर परम उत्तम भूलोकमें आय और सरस्वतीके तटपर पुष्कर नामके शुभ एवं महान् तीर्थमें रहकर सूर्यदेवकी आराधना करने लगीं। उन्होंने बड़ी उग्र तपस्या की। दैत्य- माता दिति ऋषियोंके नियमोंका पालन करतीं और फल खाकर रहती थीं। वे कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि कठोर व्रतोंके पालनद्वारा तपस्या करने लगीं। जरा और शोकसे व्याकुल होकर उन्होंने सौ वर्षोंसे कुछ अधिक कालतक तप किया। उसके बाद वसिष्ठ आदि महर्षियोंसे पूछा—'मुनिवरो! क्या कोई ऐसा भी व्रत है, जो मेरे पुत्रशोकको नष्ट करनेवाला तथा इहलोक और परलोकमें भी सौभाग्यरूप फल प्रदान करनेवाला हो ? यदि हो तो, बताइये।' वसिष्ठ आदि महर्षियोंने ज्येष्ठकी पूर्णिमा व्रत बताया तथा दितिने भी उस व्रतका सांगोपांग वर्णन सुनकर उसका यथावत् अनुष्ठान किया। उस व्रतके माहात्म्यसे प्रभावित होकर कश्यपजी बड़ी प्रसन्नताके साथ दितिके आश्रमपर आये। दितिका शरीर तपस्यासे कठोर हो गया था। किन्तु कश्यपजीने उन्हें पुनः रूप और लावण्यसे युक्त कर दिया और उनसे वर माँगनेका अनुरोध किया। तब दितिने वर माँगते हुए कहा- 'भगवन्! मैं इन्द्रका वध करनेके लिये एक ऐसेपुत्रकी याचना करती हूँ, जो समृद्धिशाली, अत्यन्त तेजस्वी तथा समस्त देवताओंका संहार करनेवाला हो।"

कश्यपने कहा- 'शुभे ! मैं तुम्हें इन्द्रका घातक एवं बलिष्ठ पुत्र प्रदान करूँगा। तत्पश्चात् कश्यपने दितिके उदरमें गर्भ स्थापित किया और कहा-'देवि! तुम्हें सौ वर्षोंतक इसी तपोवनमें रहकर इस गर्भकी रक्षाके लिये यत्न करना चाहिये। गर्मिणीको सन्ध्याके समय भोजन नहीं करना चाहिये तथा वृक्षकी जड़के पास न तो कभी जाना चाहिये और न ठहरना ही चाहिये। वह जलके भीतर न घुसे, सूने घरमें न प्रवेश करे। बाँबीपर खड़ी न हो कभी मनमें उद्वेग न लाये। T सूने घरमें बैठकर नख अथवा राखसे भूमिपर रेखा न खींचे, न तो सदा अलसाकर पड़ी रहे और न अधिक परिश्रम ही करे, भूसी, कोयले, राख, हड्डी और खपड़ेपर न बैठे। लोगोंसे कलह करना छोड़ दे, अँगड़ाई न ले, बाल खोलकर खड़ी न हो और कभी भी अपवित्र न रहे। उत्तरकी ओर अथवा नीचे सिर करके कभी न सोये नंगी होकर, उद्वेगमें पड़कर और बिना पैर धोये भी शयन करना मना है। अमंगलयुक्त वचन मुँहसे न निकाले, अधिक हँसी-मजाक भी न करे गुरुजनोंके साथ सदा आदरका बर्ताव करे, मांगलिक कार्योंमें लगी रहे, सर्वौषधियोंसे युक्त जलके द्वारा स्नान करे। अपनी रक्षाका प्रबन्ध रखे। गुरुजनोंकी सेवा करे और वाणीसे सबका सत्कार करती रहे। स्वामीके प्रिय और हितमें तत्पर रहकर सदा प्रसन्नमुखी बनी रहे किसी भी अवस्थामें कभी पतिकी निन्दा न करे।'

यह कहकर कश्यपनी सब प्राणियोंके देखते-देखतेवहाँसे अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर पतिकी बातें सुनकर दिति विधिपूर्वक उनका पालन करने लगीं। इससे इन्द्रको बड़ा भय हुआ ये देवलोक छोड़कर दितिके पास आये और उनकी सेवाकी इच्छासे वहाँ रहने लगे। इन्द्रका भाव विपरीत था, वे दितिका छिद्र ढूँढ रहे थे। बाहरसे तो उनका मुख प्रसन्न था, किन्तु भीतरसे वे भयके मारे विकल थे। वे ऊपरसे ऐसा भाव जताते थे, मानो दितिके कार्य और अभिप्रायको जानते ही न हों। परन्तु वास्तवमें अपना काम बनाना चाहते थे। तदनन्तर जब सौ वर्षको समाप्तिमें तीन ही दिन बाकी रह गये, तब दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपनेको कृतार्थ मानने लगीं तथा उनका हृदय विस्मयविमुग्ध रहने लगा। उस दिन वे पैर धोना भूल गयीं और बाल खोले हुए ही सो गयीं। इतना ही नहीं, निद्राके भारसे दबी होनेके कारण दिनमें उनका सिर कभी नीचेकी ओर हो गया। यह अवसर पाकर शचीपति इन्द्र दितिके गर्भमें प्रवेश कर गये और अपने वज्रके द्वारा उन्होंने उस गर्भस्थ बालकके सात टुकड़े कर डाले। तब वे सातों टुकड़े सूर्यके समान तेजस्वी सात कुमारोंके रूपमें परिणत हो गये और रोने लगे। उस समय दानवशत्रु इन्द्रने उन्हें रोनेसे मना किया तथा पुनः उनमेंसे एक-एकके सात-सात टुकड़े कर दिये। इस प्रकार उनचास कुमारोंके रूपमें होकर वे जोर-जोरसे रोने लगे। तब इन्द्रने 'मा रुदध्वम्' (मत रोओ) ऐसा कहकर उन्हें बारम्बार रोनेसे रोका और मन-ही-मन सोचा कि ये बालक धर्म और ब्रह्माजीके प्रभावसे पुनः जीवित हो गये हैं। इस पुण्यके योगसे ही इन्हें जीवन मिला है, ऐसा जानकर वे इस निश्चयपर पहुँचे कि 'यह पौर्णमासी व्रतका फल है। निश्चय ही इस व्रतका अथवा ब्रह्माजीकी पूजाका यह परिणाम है कि वज्रसे मारे जानेपर भी इनका विनाश नहीं हुआ। ये एकसे अनेक हो गये, फिर भी उदरकी रक्षा हो रही है। इसमें सन्देह नहीं कि ये अवध्य हैं, इसलिये ये देवता हो जायें। जब ये रो रहे थे, उस समय मैंने इन गर्भके बालकोंको 'मा रुदः' कहकर चुप कराया है, इसलिये। ये 'मस्तु' नामसे प्रसिद्ध होकर कल्याणके भागी बनें।'ऐसा विचार कर इन्द्रने दितिसे कहा- 'माँ ! मेरा अपराध क्षमा करो, मैंने अर्थशास्त्रका सहारा लेकर यह दुष्कर्म किया है।' इस प्रकार बारम्बार कहकर उन्होंने दितिको प्रसन्न किया और मरुद्गणों को देवताओंके समान बना दिया। तत्पश्चात् देवराजने पुत्रसहित दितिको विमानपर बिठाया और उनको साथ लेकर वे स्वर्गको चले गये। मरुद्गण यज्ञ-भागके अधिकारी हुए उन्होंने असुरोंसे मेल नहीं किया, इसलिये वे देवताओंके प्रिय हुए।

भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! आपने आदिसर्ग और प्रतिसर्गका विस्तारके साथ वर्णन किया। अब जिनके जो स्वामी हों, उनका वर्णन कीजिये।

पुलस्त्यजी बोले- राजन्। जब पृथु इस पृथ्वीके सम्पूर्ण राज्यपर अभिषिक्त होकर सबके राजा हुए, उस समय ब्रह्माजीने चन्द्रमाको अन्न, ब्राह्मण, व्रत और तपस्याका अधिपति बनाया। हिरण्यगर्भको नक्षत्र, तारे, पक्षी, वृक्ष, झाड़ी और लता आदिका स्वामी बनाया। वरुणको जलका, कुबेरको धनका, विष्णुको आदित्योंका और अग्निको वसुओंका अधिपति बनाया। दक्षको प्रजापतियोंका, इन्द्रको देवताओंका प्रह्लादको दैत्यों और दानवोंका, यमराजको पितरोंका, शूलपाणि भगवान् शंकरको पिशाच, राक्षस, पशु, भूत, यक्ष और वेतालराजोंका, हिमालयको पर्वतोंका, समुद्रको नदियाँकार, चित्ररथको गन्धर्व विद्याधर और किन्नरोंका, भयंकर पराक्रमी वासुकिको नागका, तक्षकको सर्पोका, गजराज ऐरावतको दिनकर गरुड़को पक्षियोंका उच्चैःश्रवाको घोड़ोंका, सिंहको मृगोंका, साँड़को गौओंका तथा लक्ष (पाकड़ को सम्पूर्ण वनस्पतियोंका अधीश्वर बनाया। इस प्रकार पूर्वकालमें ब्रह्माजीने इन सभी अधिपतियोंको भिन्न-भिन्न वर्गके राजपदपर अभिषिक्त किया था।

कौरवनन्दन ! पहले स्वायम्भुव मन्वन्तरमें याम्य नामसे प्रसिद्ध देवता थे। मरीचि आदि मुनि ही सप्तर्षि माने जाते थे। आग्नीध्र अग्निबाहु विभु, सवन, ज्योतिष् युतिमान् हव्य, मेघा, मेधातिथि औरवसु-ये दस स्वायम्भुव मनुके पुत्र हुए, जिन्होंने अपने वंशका विस्तार किया। ये प्रतिसर्गकी सृष्टि करके परमपदको प्राप्त हुए। यह स्वायम्भुव मन्वन्तरका वर्णन हुआ। इसके बाद स्वारोचिष मन्वन्तर आया। स्वारोचिष मनुके चार पुत्र हुए, जो देवताओंके समान तेजस्वी थे। उनके नाम हैं- नभ, नभस्य, प्रसृति और भावन इनमेंसे भावन अपनी कीर्तिका विस्तार करनेवाला था। दत्तात्रेय, अत्रि, च्यवन, स्तम्ब, प्राण, कश्यप तथा बृहस्पति- ये सात सप्तर्षि हुए। उस समय तुषित नामके देवता थे। हवीन्द्र, सुकृत, मूर्ति, आप और ज्योतीरथ-ये वसिष्ठके पाँच पुत्र ही स्वारोचिष मन्वन्तरमें प्रजापति थे। यह द्वितीय मन्वन्तरका वर्णन हुआ। इसके बाद औत्तम मन्वन्तरका वर्णन करूँगा। तीसरे मनुका नाम था औत्तमि। उन्होंने दस पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम हैं-ईष, ऊर्ज, तनूज, शुचि, शुक्र, मधु, माधव, नभस्य, नभ तथा सह। इनमें सह सबसे छोटा था। ये सब के-सब उदार और यशस्वी थे। उस समय भानुसंज्ञक देवता और ऊर्ज नामके सप्तर्षि थे। कौकिभिण्डि, कुतुण्ड, दाल्भ्य, शंख, प्रवाहित, मित और सम्मित ये सात योगवर्धन ऋषि थे। चौथा मन्वन्तर तामसके नामसे प्रसिद्ध है। उसमें कवि, पृथु, अग्नि, अकपि, कपि जन्य तथा धामा-ये सात मुनि ही सप्तर्षि थे। साध्यगण देवता थे। अकल्मष, तपोधन्वा, तपोमूल, तपोधन, तपोराशि, तपस्य, सुतपस्य, परन्तप, तपोभागी और तपोयोगी-ये दस तामस मनुके पुत्र थे। जो धर्म और सदाचारमें तत्पर तथा अपने वंशका विस्तार करनेवाले थे। अब पाँचवें रैवत मन्वन्तरका वृत्तान्त श्रवण करो। देवबाहु, सुबाहु, पर्जन्य, सोमप, मुनि, हिरण्यरोमा और सप्ताश्व-ये सात रैवत मन्वन्तरके सप्तर्षि माने गये हैं। भूतरजा तथा प्रकृति नामवाले देवता थे तथा वरुण तत्वदर्शी, चितिमान्, हव्यय, कवि, मुक्त, निरुत्सुक, सत्त्व, विमोह और प्रकाशक- ये दस रैवत मनुके पुत्र हुए, जोधर्म, पराक्रम और बलसे सम्पन्न थे। इसके बाद चाक्षुष मन्वन्तरमें भृगु सुधामा, विरज, विष्णु, नारद, विवस्वान् और अभिमानी-ये सात सप्तर्षि हुए उस समय लेख नामसे प्रसिद्ध देवता थे। इनके सिवा ऋभु, पृथग्भूत, वारिमूल और दिवौका नामके देवता भी थे। इस प्रकार चाक्षुष मन्वन्तरमें देवताओंकी पाँच योनियाँ थीं। चाक्षुष मनुके दस पुत्र हुए, जो रुरु आदि नामसे प्रसिद्ध थे।

अब सातवें मन्वन्तरका वर्णन करूँगा, जिसे वैवस्वत मन्वन्तर कहते हैं। इस समय [वैवस्वत मन्वन्तर ही चल रहा है, इसमें] अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, योगी भरद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्निसात ऋषि ही सप्तर्षि हैं। ये धर्मकी व्यवस्था करके परमपदको प्राप्त होते हैं। अब भविष्यमें होनेवाले सावर्ण्य मन्वन्तरका वर्णन किया जाता है। उस समय अश्वत्थामा, ऋष्यभुंग, कौशिक्य, गालव, शतानन्द, काश्यप तथा परशुराम-ये सप्तर्षि होंगे। धृति, वरीयान् यवसु, सुवर्ण, धृष्टि, चरिष्णु, आद्य, सुमति, वसु तथा पराक्रमी शुक्र-ये भविष्य में होनेवाले सावर्णि मनुके पुत्र बतलाये गये हैं। इसके सिवा रौच्य आदि दूसरे दूसरे मनुओंके भी नाम आते हैं। प्रजापति रुचिके पुत्रका नाम रौच्य होगा। इसी प्रकार भूतिके पुत्र भौत्य नामके मनु कहलायेंगे। तदनन्तर मेरुसावर्णि नामक मनुका अधिकार होगा। वे ब्रह्माके माने गये हैं। मेरुसावर्णिके बाद क्रमशः पुत्र ऋभु वीतधामा और विष्वक्सेन नामक मनु होंगे। राजन्! इस प्रकार मैंने तुम्हें भूत और भविष्य मनुओंका परिचय दिया है। इन चौदह मनुओंका अधिकार कुल मिलाकर एक हजार चतुर्युगतक रहता है। अपने-अपने मन्वन्तरमें इस सम्पूर्ण चराचर जगत्को उत्पन्न करके कल्पका संहार होनेपर ये ब्रह्माजीके साथ मुक्त हो जाते हैं। ये मनु प्रति एक सहस्र चतुर्युगीके बाद नष्ट होते रहते हैं तथा ब्रह्मा आदि विष्णुका सायुज्य प्राप्त करते हैं।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा