पुलस्त्यजी कहते हैं—तदनन्तर देवतालोग अपने बहुत से विमानोंके साथ वहाँसे चल दिये। श्रीरामचन्द्रजीने भी शीघ्र ही महर्षि अगस्त्यके तपोवनकी ओर प्रस्थान किया। फिर श्रीरघुनाथजी पुष्पक विमानसे उतरे और मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यको प्रणाम करनेके लिये उनके समीप गये।
श्रीराम बोले- मुनिश्रेष्ठ! मैं दशरथका पुत्र राम आपको प्रणाम करनेके लिये सेवामें उपस्थित हुआ हूँ। आप अपनी सौम्य दृष्टिसे मेरी ओर निहारिये। इतना कहकर उन्होंने बारम्बार मुनिके चरणों में प्रणाम किया और कहा- 'भगवन्! मैं शम्बूक नामक शूद्रका वध करके आपका दर्शन करनेकी इच्छासे यहाँआया हूँ। कहिये, आपके शिष्य कुशलसे हैं न ? इस वनमें तो कोई उपद्रव नहीं है?'
अगस्त्यजी बोले - रघुश्रेष्ठ ! आपका स्वागत है। जगद्वन्द्य सनातन परमेश्वर ! आपके दर्शनसे आज मैं इन मुनियोंसहित पवित्र हो गया। आपके लिये यह अर्घ्य प्रस्तुत है, इसे स्वीकार करें। आप अपने अनेकों उत्तम गुणोंके कारण सदा सबके सम्मानपात्र हैं। मेरे हृदयमें तो आप सदा ही विराजमान रहते हैं, अतः मेरे परम पूज्य हैं। आपने अपने धर्मसे ब्राह्मणके मरे हुए बालकको जिला दिया। भगवन्! आज रातको आप यहाँ मेरे पास रहिये । महामते ! कल सबेरे आप पुष्पक विमानसे अयोध्याको लौट जाइयेगा। सौम्य ! यहआभूषण विश्वकर्माका बनाया हुआ है। यह दिव्य अमरण है और अपने दिव्य रूप एवं तेजसे जगमगा रहा है। राजेन्द्र ! आप इसे स्वीकार करके मेरा प्रिय कीजिये; क्योंकि प्राप्त हुई वस्तुका पुनः दान कर देनेसे महाफलकी प्राप्ति बतायी गयी है।
श्रीरामने कहा- ब्रह्मन् ! आपका दिया हुआ दान लेना मेरे लिये निन्दाकी बात होगी। क्षत्रिय जान बूझकर ब्राह्मणका दिया हुआ दान कैसे ले सकता है, यह बात आप मुझे बताइये। किसी आपत्तिके कारण मुझे कष्ट हो- ऐसी बात भी नहीं है; फिर दान कैसे लूँ। इसे लेकर मुझे केवल दोषका भागी होना पड़ेगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
अगस्त्यजी बोले- श्रीराम ! प्राचीन सत्ययुगमें जब अधिकांश मनुष्य ब्राह्मण ही थे, तथा समस्त प्रजा राजासे हीन थी, एक दिन सारी प्रजा पुराणपुरुष ब्रह्माजीके पास राजा प्राप्त करनेकी इच्छासे गयी और कहने लगी- 'लोकेश्वर जैसे देवताओंके राजा देवाधिदेव इन्द्र हैं, उसी प्रकार हमारे कल्याणके लिये भी इस समय एक ऐसा राजा नियत कीजिये, जिसे पूजा और भेंट देकर सब लोग पृथ्वीका उपभोग कर सकें।' तब देवताओं में श्रेष्ठ ब्रह्माजीने इन्द्रसहित समस्त लोकपालोंको बुलाकर कहा – 'तुम सब लोग अपने-अपने तेजका अंश यहाँ एकत्रित करो।' तब सम्पूर्ण लोकपालोंने मिलकर चार भाग दिये। वह भाग अक्षय था। उससे अक्षय राजाकी उत्पत्ति हुई। लोकपालोंके उस अंशको ब्रह्माजीने मनुष्योंके लिये एकत्रित किया। उसीसे राजाका प्रादुर्भाव हुआ, जो प्रजाओंके हित साधनमें कुशल होता है। इन्द्रके भागसे राजा सबपर हुकूमत चलाता है। वरुणके अंशसे समस्त देहधारियोंका करता है। कुबेरके अंशसे वह याचकोको धन देता है तथा राजामें जो यमराजका अंश है, उसके द्वारा वह प्रजाको दण्ड देता है। रघुश्रेष्ठ। उसी इसके भागसे आप भी मनुष्योंके राजा हुए हैं, इसलिये प्रभो! मेरा उद्धार करनेके लिये यह आभूषण ग्रहण कीजिये।पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! तब श्रीरघुनाथजीने महात्मा अगस्त्यके हाथसे वह दिव्य आभूषण ले लिया, जो बहुत ही विचित्र था और सूर्यकी तरह चमक रहा था। उसे लेकर वे निहारते रहे। फिर बारम्बार विचार करने लगे-'ऐसे रत्न तो मैंने विभीषणकी लंकामें भी नहीं देखे।' इस प्रकार मन-ही-मन सोच-विचार करनेके बाद श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि अगस्त्यसे उस दिव्य आभूषणकी प्राप्तिका वृत्तान्त पूछना आरम्भ किया।
श्रीराम बोले- ब्रह्मन् । यह रत्न तो बड़ा अद्भुत है। राजाओंके लिये भी यह अलभ्य ही है। आपको यह कहाँसे और कैसे मिल गया ? तथा किसने इस आभूषणको बनाया है? अगस्त्यजीने कहा- रघुनन्दन ! पहले त्रेतायुगमें एक बहुत विशाल वन था। इसका व्यास सौ योजन का था। किन्तु उसमें न कोई पशु रहता था, न पक्षी। उस बनके मध्यभागमें चार कोस लम्बी एक झोल थी, जो हंस और कारण्डव आदि पक्षियोंसे संकुल थी। वहाँ मैंने एक बड़े आश्चर्य की बात देखी सरोवरके पास ही एक बहुत बड़ा आश्रम था, जो बहुत पुराना होनेपर भी अत्यन्त पवित्र दिखायी देता था, किन्तु उसमें कोई तपस्वी नहीं था और न कोई और जीव भी थे। मैंने उस आश्रम में रहकर ग्रीष्मकालकी एक रात्रि व्यतीत की। सबेरे उठकर जब तालाबकी ओर चला तो रास्तेमें मुझे एक बहुत बड़ा मुर्दा दीख पड़ा, जिसका शरीर अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट था। मालूम होता था किसी तरुण पुरुषकी लाश है। उसे देखकर मैं सोचने लगा-'यह कौन है? इसकी मृत्यु कैसे हो गयी तथा यह इस महान् वनमें आया कैसे था ? इन सारी बातोंका मुझे अवश्य पता लगाना चाहिये।' मैं खड़ा खड़ा यही सोच रहा था कि इतनेमें आकाशसे एक दिव्य एवं अद्भुत विमान उतरता दिखायी दिया। वह परम सुन्दर और मनके समान वेगशाली था। एक ही क्षणमें वह विमान सरोवरके निकट आ पहुँचा। मैंने देखा, उस विमानसे एक दिव्य मनुष्य उतरा और सरोवरमें नहाकर उस मुर्देका मांस खानेलगा भरपेट उस मोटे ताजे मुर्देका मांस खाकर वह फिर सरोवरमें उतरा और उसकी शोभा निहारकर फिर शीघ्र ही स्वर्गकी ओर जाने लगा। उस शोभा सम्पन्न देवोपम पुरुषको ऊपर जाते देख मैंने कहा- 'स्वर्ग लोकके निवासी महाभाग [तनिक ठहरो] मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ तुम्हारी यह कैसी अवस्था है? तुम कौन हो ? देखने में तो तुम देवताके समान जान पड़ते हो; किन्तु तुम्हारा भोजन बहुत ही घृणित है। सौम्य । ऐसा भोजन क्यों करते हो और कहीं रहते हो?"
रघुनन्दन! मेरी बात सुनकर उस स्वर्गवासी पुरुषने हाथ जोड़कर कहा- "विप्रवर! मेरा जैसा वृत्तान्त है, उसे आप सुनिये पूर्वकालको बात है, विदर्भदेशमें मेरे महायशस्वी पिता राज्य करते थे। वे वसुदेवके नामसे त्रिलोकीमें विख्यात और परम धार्मिक थे। उनके दो स्त्रियाँ थीं। उन दोनोंसे एक एक करके दो पुत्र हुए। मैं उनका ज्येष्ठ पुत्र था। लोग मुझे श्वेत कहते थे। मेरे छोटे भाईका नाम सुरथ था। पिताको मृत्युके बाद पुरवासियोंने विदर्भदेशके राज्यपर मेरा अभिषेक कर दिया। तब मैं वहाँ पूर्ण सावधानीके साथ राज्य संचालन करने लगा। इस प्रकार राज्य और प्रजाका पालन करते मुझे कई हजार वर्ष बीत गये। एक दिन किसी निमित्तको लेकर मुझे प्रबल वैराग्य हो गया और मैं मरणपर्यन्त तपस्याका निश्चय करके इस तपोवनमें चला आया। राज्यपर मैंने अपने भाई महारथी सुरथका अभिषेक कर दिया था। फिर इस सरोवरपर आकर मैंने अत्यन्त कठोर तपस्या आरम्भ की। अस्सी हजार वर्षोंतक इस वनमें मेरी तपस्या चालू रही। उसके प्रभावसे मुझे भुवनोंमें सर्वश्रेष्ठ कल्याणमय ब्रह्मलोककी प्राप्ति हुई। किन्तु वहाँ पहुँचनेपर मुझे भूख और प्यास अधिक सताने लगी। मेरी इन्द्रियाँ तिलमिला उठीं मैंने त्रिलोकीके सर्वश्रेष्ठ देवता ब्रह्माजीसे पूछा-'भगवन्! यह लोक तो भूख और प्याससे रहित सुना गया है; यह मुझे किस कर्मका फल प्राप्त हुआ है कि भूख और प्यास यहाँ भी मेरा पिण्ड नहीं छोड़तीं ? देव शीघ्र बताइये, मेरा आहार क्या है?" महामुने। इसपर ब्रह्माजीने बहुत देरतकसोचनेके बाद कहा- 'तात! पृथ्वीपर कुछ दान किये बिना यहाँ कोई वस्तु खानेको नहीं मिलती। तुमने उस जन्ममें भिखमंगेको कभी भीखतक नहीं दी। [जब तुम राजभवनमें रहकर राज्य करते थे,] उस समय भूलसे या मोहवश तुम्हारे द्वारा किसी अतिथिको भोजन नहीं मिला है। इसलिये यहाँ रहते हुए भी तुम्हें भूख और प्यासका कष्ट भोगना पड़ता है। राजेन्द्र भाँति-भाँति के आहारोंसे जिसको तुमने भलीभाँति पुष्ट किया था, वह तुम्हारा उत्तम शरीर पड़ा हुआ है; उसीका मांस खाओ, उसीसे तुम्हारी तृप्ति होगी।'
"ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर मैंने पुनः उनसे निवेदन किया-'प्रभो! अपने शरीरका भक्षण कर लेनेपर भी फिर मेरे लिये दूसरा कोई आहार नहीं रह जाता है। जिससे इस शरीरकी भूख मिट सके तथा जो कभी चुकनेवाला न हो, ऐसा कोई भोजन मुझे देनेकी कृपा कीजिये।' तब ब्रह्माजीने कहा- 'तुम्हारा शरीर ही अक्षय बना दिया गया है। उसे प्रतिदिन खाकर तुम तृप्तिका अनुभव करते रहोगे। इस प्रकार अपने ही शरीरका मांस खाते जब तुम्हें सौ वर्ष पूरे हो जायेंगे, उस समय तुम्हारे विशाल एवं दुर्गम तपोवनमें महर्षि अगस्त्य पधारेंगे। उनके आनेपर तुम संकटसे छूट जाओगे राजर्षे वे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और असुरोंका भी उद्धार करनेमें समर्थ हैं, फिर तुम्हारे इस घृणित आहारको छुड़ाना उनके लिये कौन बड़ी बात है।' भगवान् ब्रह्माजीका यह कथन सुनकर मैं अपने शरीरके मांसका घृणित भोजन करने लगा । विप्रवर! यह कभी नष्ट नहीं होता तथा इससे मेरी पूर्ण तृप्ति भी हो जाती है। न जाने कब वे मुनि इस वनमें आकर मुझे दर्शन देंगे, यही सोचते हुए मुझे सौ वर्ष पूरे हो गये हैं। ब्रह्मन्! अब अगस्त्य मुनि ही मेरे सहायक होंगे, यह बिलकुल निश्चित बात है।"
राजा श्वेतका यह कथन सुनकर तथा उनके उस घृणित आहारपर दृष्टि डालकर मैंने कहा-'अच्छा, तो तुम्हारे सौभाग्यसे मैं आ गया, अब निःसन्देह तुम्हारा उद्धार करूँगा।' तब वे मुझे पहचानकर दण्डकी भाँतिमेरे सामने पृथ्वीपर पड़ गये। यह देख मैंने उन्हें उठा लिया और कहा- 'बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा उपकार करूँ ?'
राजा बोले- ब्रह्मन् ! इस घृणित आहारसे तथा जिस पापके कारण यह मुझे प्राप्त हुआ है, उससे मेरा आज उद्धार कीजिये, जिससे मुझे अक्षय लोककी प्राप्ति हो सके। ब्रह्मर्षे! अपने उद्धारके लिये मैं यह दिव्य आभूषण आपकी भेंट करता हूँ। इसे लेकर मुझपर कृपा कीजिये ।रघुनन्दन ! उस स्वर्गवासी राजाकी ये दुःखभरी बातें सुनकर उसके उद्धारकी दृष्टिसे ही वह दान मैंने स्वीकार किया, लोभवश नहीं। उस आभूषणको लेकर ज्यों ही मैंने अपने हाथपर रखा, उसी समय उनका वह मुर्दा शरीर अदृश्य हो गया। फिर मेरी आज्ञा लेकर वे राजर्षि बड़ी प्रसन्नताके साथ विमानद्वारा ब्रह्मलोकको चले गये। इन्द्रके समान तेजस्वी राजर्षि श्वेतने ही मुझे यह सुन्दर आभूषण दिया था और इसे देकर वे पापसे मुक्त हो गये ।