नारदजीने पूछा- सुरश्रेष्ठ शनैश्चरकी दी हुई पीड़ा कैसे दूर होती है? यह मुझे बताइये। महादेवजी बोले- देवर्षे सुनो, ये शनैश्चर देवताओंमें प्रसिद्ध कालरूपी महान् ग्रह हैं। इनके मस्तकपर जटा है, शरीरमें बहुत से रोएँ हैं तथा ये दानवोंको भय पहुँचानेवाले हैं। पूर्वकालकी बात है, रघुवंशमें दशरथ नामके एक बहुत प्रसिद्ध राजा हो गये हैं। वे चक्रवर्ती सम्राट् महान् वीर तथा सातों द्वीपोंके स्वामी थे। उन दिनों ज्योतिषियोंने यह जानकर कि शनैश्चर कृत्तिकाके अन्तमें जा पहुँचे हैं, राजाको सूचित किया- 'महाराज ! इस समय शनि रोहिणीका भेदन करके आगे बढ़ेंगे; यह अत्यन्त उग्र शाकटभेद नामक योग है, जो देवताओं तथा असुरोंके लिये भी भयंकर है। इससे बारह वर्षोंतक संसारमें अत्यन्त भयानक दुर्भिक्ष फैलेगा।' यह सुनकर राजाने मन्त्रियोंके साथ विचार किया और वसिष्ठ आदि ब्राह्मणोंसे पूछा-द्विजवरो! बताइये, इस संकटको रोकनेका यहाँ कौन-सा उपाय है?"
वसिष्ठजी बोले- राजन्! यह रोहिणी प्रजापति ब्रह्माजीका नक्षत्र है, इसका भेद हो जानेपर प्रजा कैसे रह सकती है। ब्रह्मा और इन्द्र आदिके लिये भी यह योग असाध्य है।
महादेवजी कहते हैं— नारद! इस बातपर विचार करके राजा दशरथने मनमें महान् साहसका संग्रह किया और दिव्यास्त्रोंसहित दिव्य धनुष लेकर रथपर आरूढ़ हो बड़े वेग से नक्षत्रमण्डलये गये रोहिणीपृष्ठ सूर्यसे सवा लाख योजन ऊपर है; वहाँ पहुँचकर राजाने धनुषको कानतक खींचा और उसपर संहारास्त्रका संधान किया। वह अस्त्र देवता और असुरोंके लिये भयंकर था। उसेदेखकर शनि कुछ भयभीत हो हँसते हुए बोले- 'राजेन्द्र ! तुम्हारा महान् पुरुषार्थ शत्रुको भय पहुँचानेवाला है मेरी दृष्टिमें आकर देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग— सब भस्म हो जाते हैं; किन्तु तुम बच गये। अतः महाराज ! तुम्हारे तेज और पौरुषसे मैं संतुष्ट हूँ वर माँगो तुम अपने मनसे जो कुछ चाहोगे, उसे अवश्य दूँगा।'
दशरथने कहा- शनिदेव जबतक नदियाँ और समुद्र हैं, जबतक सूर्य और चन्द्रमासहित पृथ्वी कायम है, तबतक आप रोहिणीका भेदन करके आगे न बढ़ें। साथ ही कभी बारह वर्षोंतक दुर्भिक्ष न करें। शनि बोले- एवमस्तु ।महादेवजी कहते हैं- ये दोनों वर पाकर राजा बड़े प्रसन्न हुए, उनके शरीरमें रोमांच हो आया। वे रथके ऊपर धनुष डाल हाथ जोड़ शनिदेवकी इस प्रकार स्तुति करने लगे।
दशरथ बोले- जिनके शरीरका वर्ण कृष्ण, नील तथा भगवान् शंकरके समान है, उन शनिदेवको नमस्कार है। जो जगत्के लिये कालाग्नि एवं कृतान्तरूप हैं, उन शनैश्चरको बारम्बार नमस्कार है। जिनका शरीर कंकाल है तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेवको प्रणाम है। जिनके बड़े बड़े नेत्र, पीठमें सटा हुआ पेट और भयानक आकार हैं, उन शनैश्चरदेवको नमस्कार है। जिनके शरीरका ढाँचा फैला हुआ है, जिनके रोएँ बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु सूखे शरीरवाले हैं तथा जिनकी दा कालरूप हैं, उन शनिदेवको बारम्बार प्रणाम है। शने! आपके नेत्र खोखलेके समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर, रौद्र, भीषण और विकराल हैं। आपको नमस्कार है। बलीमुख! आप सब कुछ भक्षण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन! भास्करपुत्र! अभय देनेवाले देवता! आपको प्रणाम है। नीचेकी ओर दृष्टि रखनेवाले शनिदेव ! आपको नमस्कार है। संवर्तक! आपको प्रणाम है। मन्दगतिसे चलनेवाले शनैश्चर! आपका प्रतीक तलवारके समान है, आपको पुनः पुनः प्रणाम है। आपने तपस्यासे अपने देहको दग्ध कर दिया है; आप सदा योगाभ्यासमें तत्पर, भूखसे आतुर और अतृप्त रहतेहैं। आपको सदा-सर्वदा नमस्कार है। ज्ञाननेत्र ! आपको प्रणाम है। कश्यपनन्दन सूर्यके पुत्र शनिदेव ! आपको नमस्कार है। आप संतुष्ट होनेपर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होनेपर उसे तत्क्षण हर लेते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग—ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं। देव! मुझपर प्रसन्न होइये। मैं वर पानेके योग्य हूँ और आपकी शरणमें आया हूँ।*
महादेवजी कहते हैं— नारद! राजाके इस प्रकार स्तुति करनेपर ग्रहोंके राजा महाबलवान् सूर्यपुत्र शनैश्चर बोले- उत्तम व्रतके पालक राजेन्द्र ! तुम्हारी इस स्तुतिसे मैं संतुष्ट हूँ। रघुनन्दन तुम इच्छानुसार वर माँगो, मैं तुम्हें अवश्य दूँगा।
दशरथ बोले- सूर्यनन्दन ! आजसे आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणीको पीड़ा न दें। शनिने कहा – राजन् देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर तथा राक्षस – इनमेंसे किसीके भी मृत्यु स्थान, जन्मस्थान अथवा चतुर्थ स्थानमें मैं रहूँ तो उसे मृत्युका कष्ट दे सकता हूँ। किन्तु जो श्रद्धासे युक्त, पवित्र और एकाग्रचित्त हो मेरी लोहमयी सुन्दर प्रतिमाका शमीपत्रोंसे पूजन करके तिलमिश्रित उड़द-भात, लोहा, काली गौ या काला वृषभ ब्राह्मणको दान करता है तथा विशेषतः मेरे दिनको इस स्तोत्रसे मेरी पूजा करता है, पूजनके पश्चात् भी हाथ जोड़कर मेरे स्तोत्रका जप करता है, उसे मैं कभी भी पीड़ा नहीं दूँगा। गोचरमें, जन्मलग्नमें,दशाओं तथा अन्तर्दशाओंमें ग्रह - पीड़ाका निवारण करके मैं सदा उसकी रक्षा करूँगा । इसी विधानसे सारा संसार पीड़ासे मुक्त हो सकता है। रघुनन्दन ! इस प्रकार मैंने युक्तिसे तुम्हें वरदान दिया है।
महादेवजी कहते हैं- नारद! वे तीनों वरदान पाकर उस समय राजा दशरथने अपनेको कृतार्थ माना।वे शनैश्चरको नमस्कार करके उनकी आज्ञा ले रथपर सवार हो बड़े वेगसे अपने स्थानको चले गये। उन्होंने कल्याण प्राप्त कर लिया था। जो शनिवारको सबेरे उठकर इस स्तोत्रका पाठ करता है तथा पाठ होते समय जो श्रद्धापूर्वक इसे सुनता है, वह मनुष्य पापसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है।