ययाति बोले- मातले! तुमने धर्म और अधर्म सबका उत्तम प्रकारसे वर्णन किया। अब देवताओंके लोकोंकी स्थितिका वर्णन करो। उनकी संख्या बताओ। जिस पुण्यके प्रसंगसे जिसने जो लोक प्राप्त किया हो, उसका भी वर्णन करो।
मातलिने कहा- राजन्! देवताओंके लोक भावमय हैं। भावोंके अनेक रूप दिखायी देते हैं; अतः भावात्मक जगत्की संख्या करोड़ोंतक पहुँच जाती है। परन्तु पुण्यात्माओंके लिये उनमेंसे अट्ठाईस लोक ही प्राप्य हैं, जो एक-दूसरेके ऊपर स्थित और अत्यन्त विशाल हैं। जो लोग भगवान् शंकरको नमस्कार करते हैं, उन्हें शिवलोकका विमान प्राप्त होता है। जो प्रसंगवश भी शिवका स्मरण या नाम कीर्तन अथवा उन्हें नमस्कार कर लेता है, उसे अनुपम सुखकी प्राप्ति होती है। फिर जो निरन्तर उनके भजनमें ही लगे रहते हैं, उनके विषयमें तो कहना ही क्या है जो ध्यानके द्वाराभगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करते हैं और सदा उन्हींमें मन लगाये रहते हैं, वे उन्हींके परम पदको प्राप्त होते हैं। नरश्रेष्ठ! श्रीशिव और भगवान् श्रीविष्णुके लोक एक-से ही हैं, उन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है; क्योंकि उन दोनों महात्माओं - श्रीशिव तथा श्रीविष्णुका स्वरूप भी एक ही है। श्रीविष्णुरूपधारी शिव और श्रीशिवरूपधारी विष्णुको नमस्कार है। श्रीशिवके हृदयमें विष्णु और श्रीविष्णुके हृदयमें भगवान् शिव विराजमान हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव - ये तीनों देवता एकरूप ही हैं। इन तीनोंके स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं है, केवल गुणका भेद बतलाया गया है। * राजेन्द्र आप श्रीशिवके भक्त तथा भगवान् विष्णुके अनुरागी हैं; अतः आपपर ब्रह्मा, विष्णु और शिव-तीनों देवता प्रसन्न हैं। मानद ! मैं इन्द्रकी आज्ञासे इस समय आपके पास आया हूँ। अतः पहले इन्द्रलोकमें चलिये; उसके बाद क्रमशः ब्रह्मलोक, शिवलोक तथा विष्णुलोकको जाइयेगा। वे लोक दाहऔर प्रलयसे रहित हैं।
पिप्पलने पूछा- ब्रह्मन् ! मातलिकी बात सुनकर पुत्र राजा ययातिने क्या किया? इसका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये।
सुकर्मा बोले- विप्रवर! सुनिये, उस समय सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ नृपवर ययातिने मातलिसे इस प्रकार कहा- देवदूत! तुमने स्वर्गका सारा गुण अवगुण मुझे पहले ही बता दिया है। अतः अब मैं शरीर छोड़कर स्वर्गलोकमें नहीं जाऊँगा। देवाधिदेव इसे तुम यही जाकर कह देना। भगवान् हीकेशके नामका उच्चारण ही सर्वोत्तम धर्म है। मैं प्रतिदिन इसी रसायनका सेवन करता हूँ। इससे मेरे रोग, दोष और पापादि नष्ट हो गये हैं । संसारमें श्रीकृष्णका नाम सबसे बड़ी औषध है। इसके रहते हुए भी मनुष्य पाप और व्याधियोंसे पीड़ित होकर मृत्युको प्राप्त हो रहे हैं- यह कितने आश्चर्यकी बात है। लोग कितने बड़े मूर्ख हैं कि श्रीकृष्ण नामका रसायन नहीं पीते। * भगवान्की पूजा, ध्यान, नियम, सत्य भाषण तथा दानसे शरीरकी शुद्धि होती है। इससे रोग और दोष नष्ट हो जाते हैं। तदनन्तर भगवान्के प्रसादसे मनुष्य शुद्ध हो जाता है। इसलिये मैं अब स्वर्गलोकको नहीं चलूँगा अपने तपसे, भावसे और धर्माचरणके द्वारा भगवत् कृपासे इस पृथ्वीको ही स्वर्ग बनाऊँगा। यह जानकर तुम यहाँसे जाओ और सारी बातें इन्द्रसे कह सुनाओ।' राजा ययातिकी यह बात सुनकर मातलि चले गये। उन्होंने इन्द्रसे सब बातें निवेदन कीं। उन्हें सुनकर इन्द्र पुनः राजाको स्वर्गमें लानेके विषयमें विचार करने लगे।
पिप्पलने इन्द्रके दूत महाभाग मातलिके चले जानेपर धर्मात्मा ययातिने कौन पूछा- ब्रान् सा कार्य किया?
सुकमी बोले- विप्रवर देवराजके दूत मातलि जब चले गये, तब राजा ययातिने मन-ही-मन कुछविचार किया और तुरंत ही प्रधान प्रधान दूतोंको बुलाकर उन्हें धर्म और अर्थसे युक्त उत्तम आदेश दिया- 'दूतो! तुमलोग मेरी आज्ञा मानकर अपने और दूसरे देशोंमें जाओ तुम्हारे मुखसे वहाँके सब लोग मेरी धर्मयुक्त बात सुनें और सुनकर उसका पालन करें। जगत्के मनुष्य परम पवित्र और अमृतके समान सुखदायी भगवत् सम्बन्धी भावोंद्वारा उत्तम मार्गका आश्रय लें। सदा तत्पर होकर शुभ कर्मोंका अनुष्ठान, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, भगवान्का ध्यान और तपस्या करें। सब लोग विषयोंका परित्याग करके यज्ञ और दानके द्वारा एकमात्र मधुसूदनका पूजन करें। सर्वत्र सूखे और गीलेमें, आकाश और पृथ्वीपर तथा चराचर प्राणियों में केवल श्रीहरिका दर्शन करें। जो मानव लोभ या मोहवश लोकमें मेरी इस आज्ञाका पालन नहीं करेगा, उसे निश्चय ही कठोर दण्ड दिया जायगा। मेरी दृष्टिमें वह चोरकी भाँति निकृष्ट समझा जायगा।'
राजाके ये वचन सुनकर दूतोंका हृदय प्रसन्न हो गया। वे समूची पृथ्वीपर घूम-घूमकर समस्त प्रजाको महाराजका आदेश सुनाने लगे- 'ब्राह्मणादि चारों वर्णोंके मनुष्यो ! राजा ययातिने संसारमें परम पवित्र अमृत ला दिया है। आप सब लोग उसका पान करें। उस अमृतका नाम है- पुण्यमय वैष्णव धर्म वह सब दोषोंसे रहित और उत्तम परिणामका जनक है। भगवान् केशव सबका क्लेश हरनेवाले, सर्वश्रेष्ठ, आनन्दस्वरूप और परमार्थ तत्त्व हैं। उनका नाममय अमृत सब दोषको दूर करनेवाला oहै। महाराज ययातिने उस अमृतको यहीं सुलभ कर दिया है । संसारके लोग इच्छानुसार उसका पान करें। भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है। उनके नेत्र कमलके समान सुन्दर हैं। वे जगत्के आधारभूत और महेश्वर हैं। पापका नाश करके आनन्द प्रदान करते हैं। दानवों और दैत्योंका संहार करनेवाले हैं। यज्ञ उनके अंगस्वरूप हैं, उनकेहाथमें सुदर्शन चक्र शोभा पाता है। वे पुण्यकी निधि और सुखरूप हैं। उनके स्वरूपका कहीं अन्त नहीं है। सम्पूर्ण विश्व उनके हृदयमें निवास करता है। वे निर्मल, सबको आराम देनेवाले, 'राम' नामसे विख्यात, सबमें रमण करनेवाले, मुर दैत्यके शत्रु, आदित्यस्वरूप, अन्धकारके नाशक, मलरूप कमलोंके लिये चाँदनीरूप, लक्ष्मी निवासस्थान, सगुण और देवेश्वर हैं। उनका नामामृत सब दोषोंको दूर करनेवाला है। राजा ययातिने उसे यहीं सुलभ कर दिया है, सब लोग उसका पान करें। यह नामामृतस्तोत्र दोषहारी और उत्तम पुण्यका जनक है। लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुमें भक्ति रखनेवाला जो महात्मा पुरुष प्रतिदिन प्रातः काल नियमपूर्वक इसका पाठ करता है, वह मुक्त हो जाता है। *
सुकर्मा कहते हैं-राजा ययातिके दूत सम्पूर्ण देशों, द्वीपों, नगरों और गाँवोंमें कहते फिरते थे 'लोगो ! महाराजकी आज्ञा सुनो, तुमलोग पूरा जोर लगाकर सर्वतोभावेन भगवान् विष्णुकी पूजा करो दान, यज्ञ, शुभकर्म, धर्म और पूजन आदिके द्वारा भगवान् मधुसूदनकी आराधना करते हुए मनकी सम्पूर्ण वृत्तियोंसे उन्हींका ध्यान - चिन्तन करो।' इस प्रकार राजाके उत्तम आदेशका, जो शुभ पुण्य उत्पन्न करनेवाला था, भूतल निवासी सब लोगोंने श्रवण किया। उसी समयसे सम्पूर्ण मनुष्य एकमात्र भगवान् मुरारिका ध्यान, गुणगान, जप और तप करने लगे। वेदोक्त सूक्तों और मन्त्रोंद्वारा, जो कानोंको पवित्र करनेवाले तथा अमृतके समान मधुर थे, श्रीकेशवका यजन करने लगे। उनका चित्त सदाभगवान्में ही लगा रहता था। वे समस्त विषयों और दोषोंका परित्याग करके व्रत, उपवास, नियम और दानके द्वारा भक्तिपूर्वक जगन्निवास श्रीविष्णुका पूजन करते थे। राजाका भगवदाराधन-सम्बन्धी आदेश भूमण्डलपर प्रवर्तित हो गया। सब लोग वैष्णव प्रभावके कारण भगवान्का यजन करने लगे। यज्ञ विधिको जाननेवाले विद्वान् नाम और कर्मोंके द्वारा श्रीविष्णुका वजन करते और उन्होंके ध्यानमें संलग्न रहते थे। उनका सारा उद्योग भगवान्के लिये ही होता था। वे विष्णु पूजामें निरन्तर लगे रहते थे जहाँतक यह सारा भूमण्डल है और जहाँतक प्रचण्ड किरणोंवाले भगवान् सूर्य तपते हैं, वहाँतक समस्त मनुष्य भगवद्धत हो गये। श्रीविष्णु के प्रभावसे, उनका पूजन, स्तवन और नाम-कीर्तन करनेसे सबके शोक दूर हो गये। सभी पुण्यात्मा और तपस्वी बन गये। किसीको रोग नहीं सताता था। सब-के-सब दोष और रोषसे शून्य तथा समस्त ऐश्वर्योंसे सम्पन्न हो गये थे।
महाभाग ! उन लोगोंके घरोंके दरवाजोंपर सदा ही पुण्यमय कल्पवृक्ष और समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली गौएँ रहती थीं। उनके घरमें चिन्तामणि नामकी मणि थी, जो परम पवित्र और सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली मानी गयी है। भगवान् विष्णुकी कृपासे पृथ्वीके समस्त मानव प्रकार के दोषोंसे रहित हो गये थे पुत्र तथा पौत्र उनकी शोभा बढ़ाते थे वे मंगलसे युक्त, परम पुण्यात्मा, दानी, ज्ञानी और ध्यानपरायण थे। धर्मके ज्ञाता महाराज ययातिके शासनकालमें दुर्भिक्षऔर व्याधियोंका भय नहीं था। मनुष्योंकी अकाल मृत्यु नहीं होती थी। सब लोग विष्णु-सम्बन्धी व्रतोंका पालन करनेवाले और वैष्णव थे भगवान्का ही ध्यान और उन्होंके नामोंका जप उनकी दिनचर्याका अंग बन गया था। वे सब लोग भाव-भक्तिके साथ भगवान्की आराधनामें तत्पर रहते थे। द्विजश्रेष्ठ ! उस समय सब लोगों के घरोंमें तुलसीके वृक्ष और भगवान्के मन्दिर शोभा पाते थे। सबके घर साफ-सुथरे और चमकीले थे तथा उत्तम गुणोंके कारण दिव्य दिखायी देते थे। सर्वत्र वैष्णव भाव छा रहा था। नाना प्रकारके मांगलिक उत्सवोंका दर्शन होता था। विप्रवर भूलोक सदा ध्वनियाँ सुनायी पड़ती थीं, जो आपसमें टकराया करती थीं। वे ध्वनियाँ समस्त दोषों और पापका विनाश करनेवाली थीं। भगवान् विष्णु भक्ति रखनेवाली स्त्रियोंने अपने-अपने घरके दरवाजेपर शंख, स्वस्तिक और पद्मकी आकृतियाँ लिख रखी थीं। सब लोग केशवका गुणगान करते थे। कोई 'हरि' और 'मुरारि' का उच्चारण करता तो कोई 'श्रीश', 'अच्युत' तथा माधवका नाम लेता था। कितने ही श्रीनरसिंह, कमलनयन, गोविन्द कमलापति कृष्ण और राम नामकी रट लगाते हुए भगवान्की शरणमें जाते, मन्त्रोंके द्वारा उनका जप करते तथा पूजन भी करते थे। सब-के-सब वैष्णव थे; अतः वे श्रीविष्णुके ध्यानमें मग्न रहकर उन्हींको दण्डवत् प्रणाम किया करते थे।
कृष्ण, विष्णु, हरि, राम, मुकुन्द, मधुसूदन, नारायण, हृषीकेश, नरसिंह, अच्युत, केशव, पद्मनाभ, वासुदेव, वामन, वाराह, कमठ, मत्स्य, कपिल, सुराधिप, विश्वेश, विश्वरूप, अनन्त, अनम, शुचि पुरुष पुष्कराक्ष, श्रीधर, श्रीपति, हरि, श्रीद, श्रीश, श्रीनिवास, सुमोक्ष, मोक्षद और प्रभु-इन नामोंका उच्चारण करते हुए पृथ्वीके समस्त मानव-बाल, वृद्ध और कुमार भी भगवान्का भजन करते थे। घरके काम-धंधों में लगी हुई स्त्रियाँ सदा भगवान् श्रीहरिको प्रणाम करतीं और बैठते, सोते, चलते, ध्यान लगाते तथा ज्ञान प्राप्त करते समय भी वे लक्ष्मीपतिका स्मरण करती रहती थीं। खेल-कूदमेंलगे हुए बालक गोविन्दको मस्तक झुकाते और दिन रात मधुर हरिनामका कीर्तन करते रहते थे। द्विजश्रेष्ठ ! सर्वत्र भगवान् विष्णुके नामकी ही ध्वनि सुनायी पड़ती थी। भूतलके समस्त मानव वैष्णवोचित भावसे रहा करते थे। महलों और देवमन्दिरोंके कलशोंपर सूर्यमण्डलके समान चक्र शोभा पाते थे। पृथ्वीपर सर्वत्र श्रीकृष्णका भाव दृष्टिगोचर होता था। यह भूतल विष्णुलोककी समानताको पहुँच गया था। वैकुण्ठमें वैष्णव लोग जैसे विष्णुका उच्चारण करते हैं, उसी प्रकार इस पृथ्वीपर मनुष्य कृष्ण नामका कीर्तन करते थे। भूतल और वैकुण्ठ दोनों लोकोंका एक ही भाव दिखायी देता था। वृद्धावस्था और रोगका भय नहीं था; क्योंकि मनुष्य अजर-अमर हो गये थे। भूलोकमें दान और भोगका अधिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता था। प्रायः सब मनुष्य-द्विजमात्र वेदोंके विद्वान् और ज्ञान-ध्यानपरायण थे सब यज्ञ और दानमें लगे रहते थे। सबमें दयाका भाव था। सभी परोपकारी, शुभ विचार-सम्पन्न और धर्मनिष्ठ थे। महाराज ययातिके उपदेशसे भूमण्डलके समस्त मानव वैष्णव हो गये थे।
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं— नृपश्रेष्ठ वेन ! नहुषपुत्र महाराज ययातिका चरित्र सुनो वे सर्वधर्म परायण और निरन्तर भगवान् विष्णुमें भक्ति रखनेवाले थे। उन्हें इस पृथ्वीपर रहते एक लाख वर्ष व्यतीत हो गये। परन्तु उनका शरीर नित्य नूतन दिखायी देता था, मानो वे पचीस वर्षके तरुण हो। भगवान् विष्णुके प्रसादसे राजा ययाति बड़े ही प्रशस्त और प्रौढ़ हो गये थे भूमण्डलके मनुष्य कामनाओंके वन्धनसे रहित होनेके कारण यमराजके पास नहीं जाते थे। वे दान पुण्यसे सुखी थे और सब धर्मोक अनुष्ठान में संलग्न रहते थे जैसे दुर्वा और पटवृक्ष पृथ्वीपर विस्तारको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार वे मनुष्य पुत्र-पौत्रोंके द्वारा वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे। मृत्युरूपी दोषसे हीन होनेके कारण वे दीर्घजीवी होते थे। उनका शरीर अधिक कालतक दृढ़ रहता था वे सुखी थे और बुढ़ापेका रोग उन्हें भी नहीं गया था। पृथ्वीके सभी मनुष्य पचीस वर्षकीअवस्थाके दिखायी देते थे। सबका आचार-विचार सत्यसे युक्त था। सभी भगवान्के ध्यानमें तन्मय रहते थे। समूची पृथ्वीपर जगत्में किसीकी मृत्यु नहीं सुनी जाती थी। किसीको शोक नहीं देखना पड़ता था । कोई भी दोषसे लिप्त नहीं होते थे।
एक समय इन्द्रने कामदेव और गन्धर्वोंको बुलाया तथा उनसे इस प्रकार कहा- 'तुम सब लोग मिलकर ऐसा कोई उपाय करो, जिससे राजा ययाति यहाँ आ जायँ ।' इन्द्रके यों कहनेपर कामदेव आदि सब लोग नटके वेषमें राजा ययातिके पास आये और उन्हें आशीर्वादसे प्रसन्न करके बोले-'महाराज ! हमलोगएक उत्तम नाटक खेलना चाहते हैं।' राजा ययाति ज्ञान विज्ञानमें कुशल थे। उन्होंने नटोंकी बात सुनकर सभा एकत्रित की और स्वयं भी उसमें उपस्थित हुए। नटोंने विप्ररूपधारी भगवान् वामनके अवतारकी लीला उपस्थित की। राजा उनका नाटक देखने लगे। उस नाटकमें साक्षात् कामदेवने सूत्रधारका काम किया। वसन्त पारिपार्श्वक बना। अपने वल्लभको प्रसन्न करनेवाली रति-नटीके वेषमें उपस्थित हुई। नाटकमें सब लोग पात्रके अनुरूप वेष धारण किये अभिनय करने लगे । मकरन्द (वसन्त)- ने महाप्राज्ञ राजा ययातिके चित्तको क्षोभमें डाल दिया।