महादेवजी कहते हैं- पार्वती ! मनुष्य कम्बुतीर्थ में स्नान और पितृतर्पण करके रोग-शोकसे रहित देवदेवेश्वर भगवान् नारायणका पूजन करे। फिर ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक दान दे। ऐसा करनेपर वह उस तीर्थके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होता है। उसके बाद कपीश्वर नामक तीर्थकी यात्रा करे। वह रक्तसिंहके समीप है और महापातकोंका नाश करनेवाला है। पूर्वकालमें श्रीराम-रावण युद्ध के प्रारम्भमें जब समुद्रपर पुल बाँधा जा रहा था, उस समय इस पर्वतका शिखर लेकर कपियोंने इसका विशेषरूपसे स्मरण किया। उन्होंने यहाँ कपीश्वरादित्य नामक उत्तम तीर्थकी स्थापना की। उस तीर्थमें स्नान और पितृतर्पण करके कपीश्वरादित्यका दर्शन करनेपर मनुष्य ब्रह्महत्या से मुक्त हो जाता है। कपीश्वरतीर्थमें विशेषतः चैत्रकी अष्टमीको स्नान करना चाहिये। हनुमान्जी आदि प्रमुख वीरोंने इस तीर्थमें तीन दिनोंतक स्नान किया था। पार्वती! इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये कपितीर्थके प्रभावका वर्णन किया है। वहाँसे परमपावन एकधार तीर्थको जाना चाहिये। जो एकधारमें स्नान करके एक करता और स्वामिदेवेश्वरका पूजन करता है, वह अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। वहाँ स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें जाता है। तत्पश्चात् तीर्थयात्री पुरुष सप्तधार नामक तीर्थकी यात्रा करे। वह सब तीर्थोंमें उत्तम तीर्थ है। उस तीर्थको मुनियोंने सप्त-सारस्वत नाम दिया है। त्रेतायुगमें महर्षि मंकिने वहाँ मौकितीर्थका निर्माण किया था। फिर द्वापरमें पाण्डवोंने सप्तधार तीर्थको प्रवृत्त किया। भगवान् शंकरकी जटासे निकला हुआ गंगाजल यहाँ सात धाराओंके रूपमें प्रकट हुआ,इसलिये यह सप्तधार तीर्थ कहलाता है। सात लोकों में जो गंगाजीके सात रूप सुने जाते हैं, वे सभी इस सप्तधार नामक तीर्थमें अपने पवित्र जलको प्रवाहित करते हैं। सप्तधार तीर्थमें किया हुआ श्राद्ध पितरोंको तृप्ति प्रदान करनेवाला होता है।
देवेश्वरि वहाँसे ब्रह्मवल्ली नामक महान् यात्रा करे। उस तीर्थके स्वरूपका वर्णन सुनो। जहाँ साभ्रमती नदीका जल ब्रह्मवल्लीके जलसे मिला है, वह स्थान ब्रह्मतीर्थ कहलाता है। उसका महत्त्व प्रयागके समान माना गया है। ब्रह्माजीका कथन है कि वहाँ पिण्डदान करनेसे पितरोंको बारह वर्षोंतक तृप्ति बनी रहती है। विशेषतः ब्रह्मवल्लीमें पिण्डदानका गया श्राद्धके समान पुण्य माना गया है। पुष्कर, गंगानदी और अमरकण्टक क्षेत्रमें जानेसे जो फल मिलता है, वह ब्रह्मवल्लीमें विशेषरूपसे प्राप्त होता है। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके समय जो लोग दान करते हैं, उन्हें मिलनेवाला फल ब्रह्मवल्लीमें स्वतः प्राप्त हो जाता है। ब्रह्मवल्लीमें स्नान करके गलेमें तुलसीकी माला धारण किये भगवान् नारायणका स्मरण करता हुआ मनुष्य दिव्य वैकुण्ठधाममें जाता है, जो आनन्दस्वरूप एवं अविनाशी पद है।
तत्पश्चात् वृषतीर्थमें जाय, जो खण्डतीर्थके नामसे भी प्रसिद्ध है। पूर्वकालमें गौएँ वहाँ स्नान करके दिव्य गोलोकधामको प्राप्त हुई थीं। उस तीर्थमें निराहार रहकर जो गौओंके लिये पिण्डदान करता है, वह चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त सुखी एवं अभ्युदयशाली होता है, करोड़ गौओंके दानसे मनुष्यको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह खण्डतीर्थमें निस्सन्देह प्राप्त हो जाता है। जोखण्डतीर्थमें बैलका मूत्र लेकर पान करता है, उसकी तत्काल शुद्धि हो जाती है। खण्डतीर्थसे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ न हुआ है और न होगा। पार्वती जो मनुष्य वहाँकी यात्रा करते हैं, वे पुण्यके भागी होते हैं। वहाँ जाकर गौओंका पूजन करना चाहिये। उसके बाद वृषभकी पूजा करके एकाग्रतापूर्वक पुनः स्नान करना चाहिये। गो-पूजनसे मनुष्य गोलोकमें नित्य निवास करता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो वहाँ पाँच आँवलेके पौधे लगाते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीहरिके परमधाममें जाते हैं।
तदनन्तर संगमेश्वर नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे। वह बहुत बड़ा तीर्थ है। वहाँ पुण्यमयी हस्तिमती नदी साभ्रमतीसे मिली है। वह नदी कौण्डिन्य मुनिके शापसे सूख गयी थी। तबसे लोकमें बहिश्चर्याके नामसे उसकी ख्याति हुई। वह त्रिलोक विख्यात तीर्थ परमपवित्र और सब पापोंको हरनेवाला है। मनुष्य उस तीर्थमें स्नान तथा महेश्वरका दर्शन करके सब पापोंसे मुक्त होता और रुद्रके लोकमें जाता है। देवि! जिस प्रकार शाप मिलनेके कारण उस नदीका जल सूख गया था, वह प्रसंग बतलाता हूँ सुनो। जहाँ परमपवित्र ; महानदी साभ्रमती गंगा और हस्तिमती नदीका संगम हुआ है, वहीं मुनिवर कौण्डिन्यने बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की। इस प्रकार बहुत समयतक उन्होंने समस्त इन्द्रियोंके स्वामी शुद्ध बुद्ध भगवान् नारायणकी आराधना की। एक समय दैवयोगसे वर्षाकाल उपस्थित हुआ। नदी जलसे भर गयी। तब कौण्डिन्य ऋषिने उस स्थानको छोड़ दिया। किन्तु रातमें नदीकी बाढ़के कारण उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। वे चिन्तित होकर सोचने लगे 'अब क्या करना चाहिये ?' उनका आश्रम दिव्य शोभासे सम्पन्न और महानू था। किन्तु जलके वेगसे वह हस्तिमती नदीमें बह गया। उनके पास जो बहुत से फल-मूल और पुस्तकें थीं, वे भी नदी वह गर्यो तब मुनिश्रेष्ठ कौण्डिन्यने उस नदीको शाप दिया- 'अरी! तू कलियुगमें बिना जलकी हो जायगी।' पार्वती। इस प्रकार हस्तिमतीको शाप देकर विप्रवर कौण्डिन्य सनातन विष्णुधामको चलेगये। आज भी यह संगमेश्वर नामक तीर्थ मौजूद है, जिसका दर्शन करके पापी मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पातकसे मुक्त हो जाता है। देवेश्वरि ! वहाँसे तीर्थयात्री मनुष्य रुद्रमहालय नामक तीर्थकी यात्रा करे। वह केदार तीर्थके समान अनुपम है। साक्षात् रुद्रने उसका निर्माण किया है। वहाँ अवश्य श्राद्ध करना चाहिये; क्योंकि वह पितरोंकी पूर्ण तृप्तिका कारण होता है उस तीर्थमें श्राद्ध करनेसे पितर और पितामह तृप्त हो रुद्रके परमपदको प्राप्त होते हैं जो रुद्रमहालय तीर्थमें कार्तिक एवं वैशाखकी पूर्णिमाको वृषोत्सर्ग करता है, वह रुद्रके साथ आनन्दका भागी होता है केदार तीर्थमें जलपान करनेमें मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। वहाँ स्नान करनेमात्र से वह मोक्षका भागी हो जाता है। देवि! एक समय में साभ्रमती नामक महागंगाका महत्व जानकर कैलास छोड़ यहाँ आया था और लोकहितके लिये यहाँ स्नान तथा जलपान करके इसे परम उत्तम तीर्थ बनाकर पुनः अपने कैलासधामको लौट गया। तबसे महालय परम पुण्यमय तीर्थ हो गया। संसारमें इसकी रुद्रमहालयके नामसे ख्याति हुई। देवि! जो कार्तिक और वैशाखकी पूर्णिमाको यहाँकी यात्रा करते हैं, उन्हें फिर कभी संसारजनित दुःखकी प्राप्ति नहीं होती।
पार्वती! अब देवताओंके लिये भी दुर्लभ उत्तम तीर्थका वर्णन सुनो। वह खद्गतीर्थके नामसे विख्यात और समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। खड्गतीर्थमें स्नान करके खड़गेश्वर शिवका दर्शन करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और अन्तमें स्वर्गलोकको जाता है जो खड्गधारेश्वर महादेवका दर्शन करता और कार्तिककी पूर्णिमाको उनकी विशेषरूपसे पूजा करता है, उसको ये सर्वेश्वर भगवान् विश्वनाथ सदा इस पृथ्वीपर सब प्रकारका सुख देते हैं; क्योंकि ये मनोवांछित फल देनेवाले हैं।
साभ्रमतीके तटपर चित्रांगदन नामक एक तीर्थ है जो गयासे भी श्रेष्ठ है। उस शुभकारक तीर्थके अधिष्ठातृ देवता मालार्क नामके सूर्य हैं। जिसको कोढ़ हो गयी हो,वह मनुष्य यदि उस तीर्थमें जाय तो भगवान् मालार्क उसकी कोढ़को दूर कर देते हैं। जो नारी शास्त्रोक्तविधिसे वहाँ अभिषेक करती है, वह मृतवत्सा हो या वया शोध ही पुत्र प्राप्त करती है। उस तीर्थमें रविवारके दिन यदि स्नान, सन्ध्या, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन किये जायँ तो वे अक्षय हो जाते हैं। देवेश्वरि वहाँ जाकर श्रीसूर्यका व्रत करना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्य इस लोकमें सुख भोगकर सूर्यलोकको जाता है। जो उस तीर्थमें जाकर विशेषरूपसे उपवास करता और इन्द्रियोंको वशमें करके भगवान् मालार्कका पूजन करता है, वह निश्चय ही मोक्षका भागी होता है।
इस तीर्थके बाद दूसरे तीर्थमें जाय, जो मालार्कसे उत्तरमें स्थित है। उसका नाम है— चन्दनेश्वर तीर्थ । वह उत्तम स्थान सदा चन्दनकी सुगन्धसे सुवासित रहता है। वहाँ स्नान, जलपान और पितृतर्पण करनेसे मनुष्य कभी नरकमें नहीं पड़ता और रुद्रलोकको प्राप्त होता है। वहाँ जगत्का कल्याण करनेवाले विश्वके स्वामी भगवान् चन्दनेश्वरका दर्शन करके रुद्रलोककी इच्छा रखनेवाला पुरुष यथाशक्ति उनका पूजन करे। उस तीर्थमें कल्याण प्रदान करनेवाले साक्षात् परमात्मा श्रीविष्णु नित्य निवास करते हैं। धन्य है साभ्रमती नदी और धन्य हैं विश्वके स्वामी भगवान् शिव एवं विष्णु !
वहाँसे पापनाशक जम्बूतीर्थमें स्नान करनेके लिये जाय कलियुगमें वह तीर्थ मनुष्योंके लिये स्वर्गकी सौढ़ीके समान स्थित है। पूर्वकालमें जाम्बवान्ने वहाँ दांग पर्वतपर अपने नामसे एक शिवलिंगकी स्थापना की थी। वहाँ स्नान करके मनुष्य तत्काल श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणका स्मरण करे तथा जाम्बवतेश्वर शिवको मस्तक झुकाये तो वह रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। देवि! जहाँ-जहाँ श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया जाता है, वहाँ-वहाँ सम्पूर्ण चराचर जगतमें भव-बन्धनसे छुटकारा देखा जाता है। मुझे ही श्रीराम जानना चाहिये। और श्रीराम ही रुद्र हैं—याँ जानकर कहीं भेददृष्टि नहीं रखनी चाहिये। जो मन-ही-मन 'राम ! राम! राम !' इस प्रकार जप किया करते हैं, उनके समस्त मनोरथोंकी।प्रत्येक युगमें सिद्धि हुआ करती है। देवि! मैं सदा श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीका नाम श्रवण करनेसे कभी भव-बन्धनकी प्राप्ति नहीं होती। पार्वती! मैं काशीमें रहकर प्रतिदिन भक्तिपूर्वक कमलनयन श्रीरघुनाथजीका निरन्तर स्मरण किया करता हूँ। पूर्वकालमें परम सुन्दर श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके जम्बूतीर्थमें जाम्बवत नामसे प्रसिद्ध शिवलिंगको स्थापित किया था। वहाँ स्नान, देवपूजन तथा भोजन करके मनुष्य शिवलोकको प्राप्त होता है और वहीं चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त निवास करता है। वहाँसे इन्द्रग्राम नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें स्नान करके इन्द्र घोर पापसे मुक्त हुए थे। श्रीपार्वतीजीने पूछा-भगवन्! इन्द्रको किस कर्मसे घोर पाप लगा था और किस प्रकार वे पापरहित हुए! उस प्रसंगको विस्तारके साथ सुनाइये।
श्रीमहादेवजी बोले- देवि! पूर्वकालमें देवराज इन्द्र और असुरोंके स्वामी नमुचिने परस्पर यह प्रतिज्ञा की कि हम दोनों एक-दूसरेका बिना किसी शस्त्रकी सहायता लिये वध करें; परन्तु इन्द्रने आकाशवाणीके कथनानुसार जलका फेन लेकर उसीसे नमुचिको मार डाला। तब इन्द्रको ब्रह्महत्या लगी। उन्होंने गुरुके पास जाकर अपने पापकी शान्तिका उपाय पूछा। फिर बृहस्पतिजीके आज्ञानुसार वे साभ्रमती नदीके उत्तर तटपर आये और वहाँ उन्होंने स्नान किया। इससे उनका सारा पाप तत्काल दूर हो गया। शरीरमें पूर्ण चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कान्ति छा गयी। तब इन्द्रने वहाँ धवलेश्वर नामक शिवकी स्थापना की।
वह शिवलिंग इस पृथ्वीपर इन्द्रके ही नामसे प्रसिद्ध हुआ वहाँ पूर्णिमा, अमावास्या, संक्रान्ति और ग्रहणके दिन दिन श्राद्ध करनेपर पितरोंको बारह वर्षोंतक तृप्ति बनी रहती है जो धवलेश्वरके पास जाकर ब्राह्मण भोजन कराता है, उसके एक ब्राह्मणको भोजन करानेपर सहस्र ब्राह्मणोंको भोजन करानेका फल होता है। वहाँ अपनी शक्तिके अनुसार सुवर्ण, भूमि और वस्त्रका दान करना चाहिये। ब्राह्मणको श्वेत रंगकी दूध देनेवाली गौबछड़ेसहित दान करनी चाहिये। जो ब्राह्मण यहाँ आकर रुद्रमन्त्रका जप आदि करता है, उसका शुभ कर्म वहाँ भगवान् शंकरजीके प्रसादसे कोटिगुना फल देनेवाला होता है । जो मनुष्य उस तीर्थमें आकर उपवास आदि करता है, वह अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको निस्सन्देह प्राप्त कर लेता है। जो बिल्वपत्र लाकर भगवान् धवलेश्वरकी पूजा करता है, वह मानव इस पृथ्वीपर धर्म, अर्थ और काम- तीनों प्राप्त करता है, विशेषतः सोमवारको जो श्रेष्ठ मनुष्य वहाँकी यात्रा करते हैं, उनके रोग-दोषको भगवान् धवलेश्वर शान्त कर देते हैं। जो सदा रविवारको उनका विशेषरूपसे पूजन करता है, उसकी महिमाका ज्ञान मुझे कभी नहीं हुआ। जो दूर्वादल, मदारके फूल, कहारपुष्प तथा कोमल पत्तियोंसे श्रीधवलेश्वरका पूजन करते हैं, वे मनुष्य पुण्यके भागी होते हैं। श्वेत मदारकाफूल लाकर उसके द्वारा धवलेश्वरकी पूजा करके उन्हींके प्रसादसे मनुष्य सदा मनोवांछित फल पाता है। सत्ययुगमें भगवान् नीलकण्ठके नामसे प्रसिद्ध होकर सबका कल्याण करते थे। फिर त्रेतायुगमें वे भगवान् हरके नामसे विख्यात हुए, द्वापरमें उनकी शर्व संज्ञा होती है और कलियुगमें वे धवलेश्वर नामसे प्रसिद्ध होते हैं। जो श्रेष्ठ मानव यहाँ स्नान और दान करते हैं, वे धर्म, अर्थ और कामका उपभोग करके शिवधामको जाते हैं। चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण तथा पिताकी वार्षिक तिथिको श्राद्ध करनेसे जो फल मिलता है, उसे धवलेश्वर तीर्थमें मनुष्य अनायास ही प्राप्त कर लेता है। देवि! धवलेश्वरमें कालसे प्रेरित होकर सदा ही जो प्राणी मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे जबतक सूर्य और चन्द्रमा हैं तबतक शिवधाममें निवास करते हैं।