सूतजी कहते हैं— महर्षियो। पापराशिका निवारण करनेके लिये तोथोंकी महिमाका श्रवण श्रेष्ठ है तथा तोथका सेवन भी प्रशस्त है जो मनुष्य प्रतिदिन यह कहता है कि मैं तीर्थोंमें निवास करूँ और तीर्थोंमें स्नान करूँ, वह परमपदको प्राप्त होता है। तीर्थोंकी चर्चा करनेमात्रसे उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं अतः तीर्थ धन्य हैं तीर्थसेवी पुरुषोंके द्वारा जगत्कर्ता भगवान् नारायणका सेवन होता है। ब्राह्मण, तुलसी, पीपल, तीर्थसमुदाय तथा परमेश्वर श्रीविष्णु-ये सदा ही मनुष्योंके लिये सेव्य हैं। पीपल, तुलसी, गौ तथा सूर्यकी परिक्रमा करनेसे मनुष्य सब तीर्थका फल पाकर विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। इसलिये विद्वान् पुरुष निश्चय ही पुण्यतीथका सेवन करे।
ऋषि बोले- सूतजी! हमने माहात्म्यसहित समस्त तीर्थोका श्रवण किया; किन्तु आपने प्रयागकी महिमाको पहले थोड़ेमें बताया है, उसे हमलोग विस्तारके साथ सुनना चाहते हैं। अतः आप कृपापूर्वक उसका वर्णन कीजिये।
सूतजी बोले- महर्षियो! बड़े हर्षकी बात है। मैं अवश्य ही प्रयागकी महिमाका वर्णन करूँगा।पूर्वकालमें महाभारत-युद्ध समाप्त हो जानेपर जब कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको अपना राज्य प्राप्त हो गया, उस समय मार्कण्डेयजीने पाण्डुकुमारसे प्रयागकी महिमाका जो वर्णन किया था, वही प्रसंग मैं आपलोगोंको सुनाता हूँ। राज्य प्राप्त हो जानेपर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको बारंबार चिन्ता होने लगी। उन्होंने सोचा- 'राजा दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेनाका स्वामी था। उसने हमलोगोंको अनेकों बार कष्ट पहुँचाया। किन्तु अब वे सब-के सब मौतके मुँहमें चले गये। भगवान् वासुदेवका आश्रय लेनेके कारण हम पाँच पाण्डव शेष रह गये हैं। द्रोणाचार्य, भीष्म, महाबली कर्ण, भ्राता और पुत्रसहित राजा दुर्योधन तथा अन्यान्य जितने वीर राजा मारे गये हैं उन सबके बिना यह राज्य, भोग अथवा जीवन लेकर क्या करना है। हाय! धिक्कार है, इस सुखको; मेरे लिये यह प्रसंग बड़ा कष्टदायक है।' यह विचारकर राजा व्याकुल हो उठे। वे उत्साहहीन होकर नीचे मुँह किये बैठे रहते थे। उन्हें बारंबार इस बातकी चिन्ता होने लगी कि 'अब मैं किस योग, नियम एवं तीर्थका सेवन करूँ, जिससे महापातकोंकी राशिसे मुझे शीघ्र ही छुटकारा मिले। कौन-सा ऐसा तीर्थ है, जहाँ स्नान करके मनुष्यपरम उत्तम विष्णुलोकको प्राप्त होता है?' इस प्रकार सोचते हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर अत्यन्त विकल हो गये। उस समय महातपस्वी मार्कण्डेयजी काशीमें थे।
उन्हें युधिष्ठिरकी अवस्थाका ज्ञान हो गया; इसलिये वे तुरंत ही हस्तिनापुरमें जा पहुँचे और राजमहलके द्वारपर खड़े हो गये। द्वारपालने जब उन्हें देखा तो शीघ्र ही महाराजके पास जाकर कहा- 'राजन् ! मार्कण्डेय मुनि आपसे मिलनेके लिये आये हैं और द्वारपर खड़े हैं। यह
समाचार सुनते ही धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत राजद्वारपर आ पहुँचे और उनके शरणागत होकर बोले 'महामुने! आपका स्वागत है। महाप्राज्ञ! आपका स्वागत है। आज मेरा जन्म सफल हुआ। आज मेरा कुल पवित्र हो गया। आज आपका दर्शन होनेसे मेरे पितर तृप्त हो गये।' यो कहकर युधिष्ठिरने मुनिको सिंहासनपर बिठाया और पैर धोकर पूजन सामग्रियोंसे उनकी पूजा की। तब मार्कण्डेयजीने कहा- 'राजन्! तुम व्याकुल क्यों हो रहे हो ? मेरे सामने अपना मनोभाव प्रकट करो।'
युधिष्ठिर बोले- महामुने। राज्य के लिये हमलोगोंकी ओरसे जो बर्ताव हुआ है, उस सारेप्रसंगको जानकर ही आप यहाँ पधारे हैं [ फिर आपसे क्या कहना है]।
मार्कण्डेयजीने कहा- महाबाहो सुनो-जहाँ धर्मकी व्यवस्था है, उस शास्त्रमें संग्राममें युद्ध करनेवाले किसी भी बुद्धिमान् पुरुषके लिये पापकी बात नहीं देखी गयी है। फिर विशेषतः क्षत्रियके लिये जो राजधर्मके अनुसार युद्धमें प्रवृत्त हुआ है, पापकी आशंका कैसे हो सकती है। अतः इस बातको हृदयमें रखकर पापकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। महाभाग युधिष्ठिर! तुम तीर्थकी बात जानना चाहते हो तो सुनो-पुण्य कर्म करनेवाले मनुष्योंके लिये प्रयागकी यात्रा करना सर्वश्रेष्ठ है।
युधिष्ठिरने पूछा भगवन् मैं यह सुनना चाहता है कि प्रयागको यात्रा कैसे की जाती है, वहाँ कैसा पुण्य होता है, प्रयागमें जिनकी मृत्यु होती है, उनकी क्या गति होती है तथा जो वहाँ स्नान और निवास करते हैं, उन्हें किस फलकी प्राप्ति होती है। ये सब बातें बताइये। मेरे मनमें इन्हें सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है।
मार्कण्डेयजीने कहा – वत्स! पूर्वकालमें ऋषियों और ब्राह्मणोंके मुँहसे जो कुछ मैंने सुना है, वह प्रयागका फल तुम्हें बताता हूँ। प्रयागसे लेकर प्रतिष्ठानपुर (झुसी) तक धर्मको हदसे लेकर वासुकि हृदतक तथा कम्बल और अश्वतर नागके स्थान एवं बहुमूलिक नामवाले नागोँका स्थान- यह सब प्रजापतिका क्षेत्र है, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहीं स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं और जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे फिर जन्म नहीं लेते। प्रयागमें ब्रह्मा आदि देवता एकत्रित होकर प्राणियोंकी रक्षा करते हैं। यहाँ और भी बहुत-से तीर्थ हैं, जो सब पापको हरनेवाले तथा कल्याणकारी हैं। उनका कई सौ वर्षोंमें भी वर्णन नहीं किया जा सकता। स्वयं इन्द्र विशेषरूपसे प्रवागतीर्थको रक्षा करते हैं तथा भगवान् विष्णु देवताओंके साथ प्रयागके सर्वमान्य मण्डलकी रक्षा करते हैं। हाथमें शूल लिये हुए भगवान् महेश्वर प्रतिदिन वहाँ वटवृक्ष (अक्षयवट) की रक्षा करते हैं तथादेवता समूचे तीर्थस्थानकी रक्षामें रहते हैं वह स्थान सब पापको हरनेवाला और शुभ है जो प्रयागका स्मरण करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उस तीर्थके दर्शन और नाम कीर्तनसे तथा वहाँकी मिट्टी प्राप्त करनेसे भी मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। महाराज! प्रयागमें पाँच कुण्ड हैं, जिनके बीचसे होकर गंगाजी बहती हैं। प्रयागमें प्रवेश करनेवाले मनुष्यका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य सहस्रों योजन दूरसे भी गंगाजीका स्मरण करता है, वह पापाचारी होनेपर भी परमगतिको प्राप्त होता है। मनुष्य गंगाका नाम लेनेसे पापमुक्त होता है, दर्शन करनेसे कल्याणका दर्शन करता है तथा स्नान करने और जल पीनेसे अपने कुलकी सात पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है। जो सत्यवादी, क्रोधजयी, अहिंसा-धर्ममें स्थित, धर्मानुगामी, तत्त्वज्ञ तथा गौ और ब्राह्मणोंके हितमें तत्पर होकर गंगा-यमुनाके बीचमें स्नान करता है, वह सारे पापोंसे छूट जाता है तथा मन-चीते समस्त भोगोंको पूर्णरूपसे प्राप्त कर लेता है। *
तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवताओंसे रक्षित प्रयागमें जाकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एक मासतक निवास करे और देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे। इससे मनुष्य मनोवांछित पदार्थोंको प्राप्त करता है। बुधिष्ठिर प्रयागमें साक्षात् भगवान् महेश्वर सदा निवास करते हैं। वह परम पावन तीर्थ मनुष्योंके लिये दुर्लभ है। राजेन्द्र ! देवता, दानव, गन्धर्व, ऋषि सिद्ध और चारण वहाँ स्नान करके स्वर्गलोकमें जा सुख भोगते हैं।
प्रयाग में जानेवाला मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मनुष्य अपने देशमें हो या वनमें, विदेशमें हो या घरमें जो प्रयागका स्मरण करते हुए मृत्युको प्राप्त होता है, वह ब्रह्मलोकमें जाता है-यह श्रेष्ठ ऋषियोंका कथन है जो मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा सत्यधर्ममें स्थित हो गंगा-यमुनाकेबीचको भूमिमें दान देता है, वह सद्गतिको प्राप्त होता है। जो अपने कार्यके लिये या पितृकार्यके लिये अथवा देवताकी पूजाके लिये प्रयागमें सुवर्ण, मणि, मोती अथवा धान्यका दान ग्रहण करता है, उसका तीर्थ सेवन व्यर्थ होता है; वह जबतक दूसरेका द्रव्य भोगता है, तबतक उसके तीर्थ सेवनका कोई फल नहीं है।
अतः इस प्रकार तीर्थ अथवा पवित्र मन्दिरोंमें जाकर किसीसे कुछ ग्रहण न करे। कोई भी निमित्त हो, द्विजको प्रतिग्रहसे सावधान रहना चाहिये। प्रयागमें भूरी अथवा लाल रंगकी गायके, जो दूध देनेवाली हो, सींगोंको सोनेसे और खुरोंको चाँदीसे मदा दे; फिर उसके गलेमें वस्त्र लपेटकर श्वेतवस्त्रधारी, शान्त, धर्मज्ञ, वेदोंके पारगामी तथा साधु श्रोत्रिय ब्राह्मणको बुलाकर गंगा-यमुनाके संगममें वह गौ उसे विधिपूर्वक दान कर दे। साथ ही बहुमूल्य वस्त्र तथा नाना प्रकारके रत्न भी देने चाहिये। इससे उस गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। वह उस पुण्यकर्मके प्रभावसे भयंकर नरकका दर्शन नहीं करता। लाख गौओंकी अपेक्षा वहाँ एक ही दूध देनेवाली गौ देना उत्तम है। वह एक ही पुत्र, स्त्री तथा भृत्योंतकका उद्धार कर देती है। इसलिये सब दानोंमें गोदान ही सबसे बढ़कर है। महापातकके कारण मिलनेवाले दुर्गम, विषम तथा भयंकर नरकमें गौ ही मनुष्यकी रक्षा करती है। इसलिये ब्राह्मणको गोदान करना चाहिये।
कुरुश्रेष्ठ! जो देवताओंके जो देवताओंके द्वारा सेवित प्रयागतीर्थमें बैल अथवा बैलगाड़ीपर चढ़कर जाता है, वह पुरुष गौओंका भयंकर क्रोध होनेपर घोर नरकमें निवास करता है तथा उसके पितर उसका दिया जलतक नहीं ग्रहण करते जो ऐश्वर्यके लोभसे अथवा मोहवश सवारीसे तीर्थयात्रा करता है, उसके तीर्थसेवनका कोई फल नहींहोता; इसलिये सवारीको त्याग देना चाहिये। जो गंगा यमुनाके बीचमें ऋषियोंकी बतायी हुई विधि तथा अपनी सामर्थ्यके अनुसार कन्यादान करता है, वह उस कर्मके प्रभावसे यमराज तथा भयंकर नरकको नहीं देखता जिस मनुष्यकी अक्षयवटके नीचे मृत्यु होती हूँ वह सब लोकोंको लाँधकर लोकमें जाता है। वहाँ रुद्रका आश्रय लेकर बारह सूर्य तपते हैं और सारे जगत्को जला डालते हैं। परन्तु वटकी जड़ नहीं जला पाते। जब सूर्य, चन्द्रमा और वायुका विनाश हो जाता है और सारा जगत् एकार्णवमें मग्न दिखायी देता है, उस समय भगवान् विष्णु यहीं अक्षयवटपर शयन करते हैं। देवता, दानव, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध और चरण- सभी गंगा-यमुनाके संगममें स्थित तीर्थका सेवन करते हैं। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता, दिशाएँ, दिक्पाल, लोकपाल, साध्य, पितर, सनत्कुमार आदि परमर्षि अंगिरा आदि ब्रह्मर्षि, नाग, सुपर्ण (गरुड़) पक्षी, नदियों, समुद्र, पर्वत, विद्याधर तथा साक्षात् भगवान् विष्णु प्रजापतिको आगे रखकर निवास करते हैं। उस तीर्थका नाम सुनने, नाम लेने तथा वहाँकी मिट्टीका स्पर्श करनेसे भी मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। जो वहाँ कठोर व्रतका पालन करते हुए संगममें स्नान करता है, वह राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञोंके समान फल पाता है। योगयुक्त विद्वान् पुरुषको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वह गति गंगा और यमुनाके संगममें मृत्युको प्राप्त होनेवाले प्राणियोंकी भी होती है।
इस प्रकार परमपदके साधनभूत प्रयागतीर्थका दर्शन करके यमुनाके दक्षिण किनारे, जहाँ कम्बल और अश्वतर नागोंके स्थान हैं, जाना चाहिये। वहाँ स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य सब पातकोंसे छुटकारा पा जाता है। वह परम बुद्धिमान् महादेवजीका स्थान है वहाँकी यात्रा करनेसे मनुष्य अपने कुलकी दस पहलेकी और दस पीछेकी पीढ़ियाँका उद्धार कर देता है जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है तथा वह प्रलयकालतक स्वर्गलोकमें स्थान पाता है। भारत गंगाके पूर्वतटपर तीनों लोकोंमें विख्यात समुद्रकूप और प्रतिष्ठानपुर (झूसी) हैं। यदि कोईब्रह्मचर्य का पालन करते हुए क्रोधको जीतकर तीन रात वहाँ निवास करता है, तो वह सब पापोंसे शुद्ध होकर अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। प्रतिष्ठानसे उत्तर और भागीरथीसे पूर्व हंसप्रपतन नामक तीर्थ है, उसमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्यको अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है तथा जबतक सूर्य और चन्द्रमाकी स्थिति है, तबतक वह स्वर्गलोक प्रतिष्ठित होता है।
रमणीय अक्षयवटके नीचे ब्रहाचारी जितेन्द्रिय एवं योगयुक्त होकर उपवास करनेवाला मनुष्य ब्रह्मज्ञानको प्राप्त होता है। कोटितीर्थमें जाकर जिनकी मृत्यु होती है, वह करोड़ों वर्षतक स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। चारों वेदोंके अध्ययनसे जो पुण्य होता है, सत्य बोलनेसे जो फल होता है तथा अहिंसाके पालनसे जो धर्म होता है, वह दशाश्वमेध घाटकी यात्रा करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। गंगामें जहाँ कहीं भी स्नान किया जाय, वे कुरुक्षेत्र के समान फल देनेवाली हैं; किन्तु जहाँ वे समुद्रसे मिली हैं, वहाँ उनका माहात्म्य कुरुक्षेत्रसे दसगुना है। महाभागा गंगा जहाँ कहीं भी बहती हैं, वहाँ बहुत से तीर्थ और तपस्वी रहते हैं। उस स्थानको सिद्धक्षेत्र समझना चाहिये। इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। गंगा पृथ्वीपर मनुष्योंको, पातालमें नागौंको और स्वर्गमं देवताओंको तारती हैं इसलिये वे त्रिपथगा कहलाती हैं। किसी भी जीवकी हड्डियाँ जितने समयतक गंगामें रहती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। गंगा तीर्थोंमें श्रेष्ठ तीर्थ, नदियोंमें उत्तम नदी तथा सम्पूर्ण भूतों-महापातकियों को भी मोक्ष देनेवाली हैं। गंगा सर्वत्र सुलभ हैं, केवल तीन स्थानोंमें वे दुर्लभ मानी गयी हैं- गंगाद्वार, प्रयाग तथा गंगा सागर संगममें। वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गको जाते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे फिर कभी जन्म नहीं लेते। जिनका चित्त पापसे दूषित है, ऐसे समस्त प्राणियों और मनुष्योंकी गंगाके सिवा अन्यत्र गति नहीं है। गंगा के सिवा दूसरी कोई गति है ही नहीं भगवान् शंकरके मस्तकसे निकली हुई गंगा सब पापको हरनेवाली और शुभकारिणी हैं। वे पवित्रोंको भी पवित्रकरनेवाली और मंगलमय पदार्थोंके लिये भी मंगलकारिणी हैं। *
राजन्! पुनः प्रयागका माहात्म्य सुनो, जिसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। गंगाके उत्तर-तटपर मानस नामक तीर्थ है। वहाँ तीन रात उपवास करनेसे समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। मनुष्य गौ, भूमि और सुवर्णका दान करनेसे जिस फलको पाता है, वह उस तीर्थका बारंबार स्मरण करनेसे ही मिल जाता है जो गंगामै मृत्युको प्राप्त होता है, वह मृत व्यक्ति स्वर्गमें जाता है। उसे नरक नहीं देखना पड़ता। माघ मासमें गंगा और यमुनाके संगमपर छाछठ हजार तीर्थोंका समागम होता है। विधिपूर्वक एक लाख गौओंका दान करनेसे जो फल मिलता है, वह माघ मासमें प्रयागके भीतर तीन दिन स्नान करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। जो गंगा-यमुनाके बीचमें पंचाग्निसेवनकी साधना करता है, वह किसी अंगसे हीन नहीं होता; उसका रोग दूर हो जाता है तथा उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ सबल रहती हैं। इतना ही नहीं, उस मनुष्यके शरीरमें जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यमुनाके उत्तर-तटपर और प्रयागके दक्षिण भागमें ऋणप्रमोचन नामक तीर्थ है, जो अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है। वहाँ एक रात निवास करनेसे मनुष्य समस्त ऋणोंसे मुक्त हो जाता है। उसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है तथा वह सदाके लिये ऋणसे छूट जाता है। प्रयागका मण्डल पाँच योजन विस्तृत है, उसमें प्रवेश करनेवाले पुरुषको पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। जिस मनुष्यकी यहाँ मृत्यु होती है, वह अपनी पिछली सात पीढ़ियोंको और आगे आनेवाली चौदह पीढ़ियोंको तार देता है। महाराज ! यहजानकर प्रयागके प्रति सदा श्रद्धा रखनी चाहिये। जिनका चित्त पापसे दूषित है, वे अश्रद्धालु पुरुष उस स्थानको – देवनिर्मित प्रयागको नहीं पा सकते।
राजन्! अब मैं अत्यन्त गोपनीय रहस्यकी बात बताता हूँ, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है; सुनो। जो प्रयागमें इन्द्रियसंयमपूर्वक एक मासतक निवास करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है-ऐसा ब्रह्माजीका कथन है। वहाँ रहनेसे मनुष्य पवित्र, जितेन्द्रिय, अहिंसक और श्रद्धालु होकर सब पापोंसे छूट जाता और परमपदको प्राप्त होता है। वहाँ तीनों काल स्नान और भिक्षाका आहार करना चाहिये; इस प्रकार तीन महीनोंतक प्रयागका सेवन करनेसे वे मुक्त हो जाते हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। तत्त्वके ज्ञाता युधिष्ठिर! तुम्हारी प्रसन्नताके लिये मैंने इस धर्मानुसारी सनातन गुह्य रहस्यका वर्णन किया है।
युधिष्ठिर बोले- धर्मात्मन्! आज मेरा जन्म सफल हुआ, आज मेरा कुल कृतार्थ हो गया। आज आपके दर्शनसे मैं प्रसन्न हूँ, अनुगृहीत हूँ तथा सब पातकोंसे मुक्त हो गया हूँ। महामुने! यमुनामें स्नान करनेसे क्या पुण्य होता है, कौन-सा फल मिलता है? ये सब बातें आप अपने प्रत्यक्ष अनुभव एवं श्रवणके आधारपर बताइये मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! सूर्यकन्या यमुना देवी तीनों लोकोंमें विख्यात है। जिस हिमालयसे गंगा प्रकट हुई हैं, उसीसे यमुनाका भी आगमन हुआ है। सहस्रों योजन दूरसे भी नामोच्चारण करनेपर वे पापका नाश कर देती हैं। युधिष्ठिर। यमुना में नहाने जल पीने और उनके नामका कीर्तन करनेसे मनुष्य पुण्यका भागी होकर कल्याणका दर्शन करता है।यमुनामें गोता लगाने और उनका जल पीनेसे कुलकी सात पीढ़ियाँ पवित्र हो जाती हैं। जिसकी वहाँ मृत्यु होती है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। यमुनाके दक्षिण किनारे विख्यात अग्नितीर्थ है; उसके पश्चिम धर्मराजका तीर्थ है, जिसे हरवरतीर्थ भी कहते हैं वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं तथा जो यहाँ मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे फिर जन्म नहीं लेते।
इसी प्रकार यमुनाके दक्षिण तटपर हजारों तीर्थ हैं। अब मैं उत्तर-तटके तीर्थोका वर्णन करता है। युधिष्ठिर ! उत्तरमें महात्मा सूर्यका विरज नामक तीर्थ है जहाँ इन्द्र आदि देवता प्रतिदिन सन्ध्योपासन करते हैं। देवता तथा विद्वान् पुरुष उस तीर्थका सेवन करते हैं। तुम भी श्रद्धापूर्वक दानमें प्रवृत्त होकर उस तीर्थमें स्नान करो। वहाँ और भी बहुत-से तीर्थ हैं, जो सब पापको हरनेवाले और शुभ हैं। उनमें स्नान करके मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। गंगा और यमुना- दोनों ही समान फल देनेवाली मानी गयी है: केवल श्रेष्ठता के कारण गंगा सर्वत्र पूजित होती हैं कुन्तीनन्दन। तुम भी इसी प्रकार सब तीर्थोंमें स्नान करो, इससे जीवनभरका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य सबेरे उठकर इस प्रसंगका पाठ या श्रवण करता है, वह भी सब पापसे मुक्त होकर स्वर्गलोकको जाता है।
युधिष्ठिर बोले- मुने! मैंने ब्रह्माजीके कहे हुए पुण्यमय पुराणका श्रवण किया है उसमें सैकड़ों, हजारों और लाखों तीर्थोका वर्णन आया है। सभी तीर्थ पुण्यजनक और पवित्र बताये गये हैं तथा सबके द्वारा उत्तम गतिकी प्राप्ति बतायी गयी है। पृथ्वीपर नैमिषारण्य और आकाशमें पुष्करतीर्थ पवित्र है। लोकमें प्रयाग और कुरुक्षेत्र दोनोंको ही विशेष स्थान दिया गया है। आप उन सबको छोड़कर केवल एककी ही प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? आप प्रयागसे परम दिव्य गति तथा मनोवांछित भोगोंकी प्राप्ति बताते हैं। थोड़े-सेअनुष्ठानके द्वारा अधिक धर्मकी प्राप्ति बताते हुए प्रयागकी ही अधिक प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? यह मेरा संशय है। इस सम्बन्धमें आपने जैसा देखा और सुना हो, उसके अनुसार इस संशयका निवारण कीजिये।
मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! मैंने जैसा देखा और सुना है, उसके अनुसार प्रयागका माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। प्रत्यक्षरूपसे, परोक्ष तथा और जिस प्रकार सम्भव होगा, मैं उसका वर्णन करूँगा। शास्त्रको प्रमाण मानकर आत्माका परमात्माके साथ जो योग किया जाता है, उस योगकी प्रशंसा की जाती है। हजारों जन्मोंके पश्चात् मनुष्योंको उस योगकी प्राप्ति होती है। इसी प्रकार सहस्रों युगोंमें योगकी उपलब्धि होती है। ब्राह्मणोंको सब प्रकारके रत्न दान करनेसे मानवोंको योगकी उपलब्धि होती है। प्रयागमें मृत्यु होनेपर यह सब कुछ स्वतः सुलभ हो जाता है। जैसे सम्पूर्ण भूतोंमें व्यापक ब्रह्मकी सर्वत्र पूजा होती है, उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकोंमें विद्वानोंद्वारा प्रयाग पूजित होता है। नैमिषारण्य, पुष्कर, गोतीर्थ, सिन्धु-सागर संगम, कुरुक्षेत्र, गया और गंगासागर तथा और भी बहुत-से तीर्थ एवं पवित्र पर्वत - कुल मिलाकर तीस करोड़, दस हजार तीर्थ प्रयागमें सदा निवास करते हैं। ऐसा विद्वानोंका कथन है । वहाँ तीन अग्निकुण्ड हैं, जिनके बीच होकर गंगा प्रयागसे निकलती हैं। वे सब तीर्थोंसे युक्त हैं। वायु देवताने देवलोक, भूलोक तथा अन्तरिक्षमें साढ़े तीन करोड़ तीर्थ बतलाये हैं। गंगाको उन सबका स्वरूप माना गया है। प्रयाग, प्रतिष्ठानपुर (झूसी), कम्बल और अश्वतर नागके स्थान तथा भोगवती-ये प्रजापतिकी वेदियाँ हैं। युधिष्ठिर! वहाँ देवता, मूर्तिमान् यज्ञ तथा तपस्वी ऋषि रहते और प्रयागकी पूजा करते हैं। प्रयागका यह माहात्म्य धन्य है, यही स्वर्ग प्रदान करनेवाला है, यही सेवन करनेयोग्य है, यही सुखरूप है, यही पुण्यमय है, यही सुन्दर है और यही परम उत्तम, धर्मानुकूल एवं पावन है। यह महर्षियोंका गोपनीयरहस्य है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। इस प्रसंगका पाठ करनेवाला दिन सब प्रकारके पापोंसे रहित हो जाता है। कुरुनन्दन। तुम प्रयागके तीर्थोंमें स्नान करो। राजन्! तुमने विधिपूर्वक प्रश्न किया था, इसलिये मैंने तुमसे प्रयाग माहात्म्यका वर्णन किया है। इसे सुनकर तुमने अपने समस्त पितरों और पितामहाँका उद्धार कर दिया।
युधिष्ठिर बोले- महामुने! आपने प्रयागमाहात्म्यकी यह सारी कथा सुनायी इसी प्रकार और सब बातें भी बताइये, जिससे मेरा उद्धार हो सके। मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! सुनो, बताता हूँ। ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेवजी ये तीनों देवता सबके प्रभु और अविनाशी हैं। ब्रह्मा इस सम्पूर्ण जगत्की, यहाँके चराचर प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं और परमेश्वर विष्णु उन सबका, समस्त प्रजाओंका पालन करते हैं। फिर जब कल्पका अन्त उपस्थित होता है, तबभगवान् रुद्र सम्पूर्ण जगत्का संहार करते हैं। ये ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजी प्रयागमें सदा निवास करते हैं। प्रयागमण्डलका विस्तार पाँच योजन (बीस कोस) है। उपर्युक्त देवता पापकमौका निवारण करते हुए उस मण्डलकी रक्षाके लिये यहाँ मौजूद रहते हैं। अतः प्रयाग किया हुआ थोड़ा-सा भी पाप नरकमें गिरानेवाला होता है।
सूतजी कहते हैं- तदनन्तर धर्मपर विश्वास करनेवाले समस्त पाण्डवोंने भाइयोंसहित ब्राह्मणोंको नमस्कार करके गुरुजनों और देवताओंको तृप्त किया। उसी समय भगवान् वासुदेव भी वहाँ आ पहुँचे। फिर समस्त पाण्डवोंने मिलकर भगवान् श्रीकृष्णका पूजन किया। तत्पश्चात् कृष्णसहित सब महात्माओंने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको स्वराज्यपर अभिषिक्त किया। इसके बाद भाइयोंसहित धर्मात्मा युधिष्ठिरने ब्राह्मणोंको बड़े-बड़े दान दिये। जो सवेरे उठकर इस प्रसंगका पाठ अथवा श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें जाता है।
भगवान् वासुदेव बोले- राजा युधिष्ठिर! मैं आपके स्नेहवश कुछ निवेदन करता हूँ, आपको मेरी बात माननी चाहिये। महाराज! आप प्रतिदिन हमारे साथ प्रयागका स्मरण करनेसे स्वयं सनातन लोकको प्राप्त होंगे। जो मनुष्य प्रयागको जाता अथवा वहाँ निवास करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर दिव्यलोकको जाता है। जो किसीका दिया हुआ दान नहीं लेता, संतुष्ट रहता, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखता, पवित्र रहता और अहंकारका त्याग कर देता है, उसीको तीर्थका पूरा फल मिलता है। राजेन्द्र जो क्रोधहीन, सत्यवादी, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला तथा सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मभाव रखनेवाला है, वही तीर्थके फलका उपभोग करता है। ऋषियों और देवताओंने भी क्रमशः यज्ञौका वर्णन किया है, किन्तुमहाराज ! दरिद्र मनुष्य यज्ञ नहीं कर सकते। यज्ञमें बहुत सामग्रीकी आवश्यकता होती है। नाना प्रकारकी तैयारियाँ और समारोह करने पड़ते हैं। कहीं कोई धनवान् मनुष्य ही भाँति-भाँतिके द्रव्योंका उपयोग करके यज्ञ कर सकता है। नरेश्वर! जिसे विद्वान् पुरुष दरिद्र होनेपर भी कर सकें तथा जो पुण्य और फलमें यज्ञकी समानता करता हो, वह उपाय बताता हूँ; सुनिये । भरतश्रेष्ठ !यह ऋषियोंका गोपनीय रहस्य है; तीर्थयात्राका पुण्य यज्ञोंसे भी बढ़कर होता है। एक खरब, तीस करोड़से भी अधिक तीर्थ माघ मासमें गंगाजीके भीतर आकर स्थित होते हैं [अतः माघमें गंगा स्नान परम पुण्यका साधक होता है ] । * महाराज ! अब आप निश्चिन्त होकर अकण्टक राज्य भोगिये। अब फिर अश्वमेध यज्ञके समय मुझसे आपकी भेंट होगी ।