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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 3, अध्याय 86 - Khand 3, Adhyaya 86

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मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना

सूतजी कहते हैं— महर्षियो। पापराशिका निवारण करनेके लिये तोथोंकी महिमाका श्रवण श्रेष्ठ है तथा तोथका सेवन भी प्रशस्त है जो मनुष्य प्रतिदिन यह कहता है कि मैं तीर्थोंमें निवास करूँ और तीर्थोंमें स्नान करूँ, वह परमपदको प्राप्त होता है। तीर्थोंकी चर्चा करनेमात्रसे उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं अतः तीर्थ धन्य हैं तीर्थसेवी पुरुषोंके द्वारा जगत्कर्ता भगवान् नारायणका सेवन होता है। ब्राह्मण, तुलसी, पीपल, तीर्थसमुदाय तथा परमेश्वर श्रीविष्णु-ये सदा ही मनुष्योंके लिये सेव्य हैं। पीपल, तुलसी, गौ तथा सूर्यकी परिक्रमा करनेसे मनुष्य सब तीर्थका फल पाकर विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। इसलिये विद्वान् पुरुष निश्चय ही पुण्यतीथका सेवन करे।

ऋषि बोले- सूतजी! हमने माहात्म्यसहित समस्त तीर्थोका श्रवण किया; किन्तु आपने प्रयागकी महिमाको पहले थोड़ेमें बताया है, उसे हमलोग विस्तारके साथ सुनना चाहते हैं। अतः आप कृपापूर्वक उसका वर्णन कीजिये।

सूतजी बोले- महर्षियो! बड़े हर्षकी बात है। मैं अवश्य ही प्रयागकी महिमाका वर्णन करूँगा।पूर्वकालमें महाभारत-युद्ध समाप्त हो जानेपर जब कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको अपना राज्य प्राप्त हो गया, उस समय मार्कण्डेयजीने पाण्डुकुमारसे प्रयागकी महिमाका जो वर्णन किया था, वही प्रसंग मैं आपलोगोंको सुनाता हूँ। राज्य प्राप्त हो जानेपर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको बारंबार चिन्ता होने लगी। उन्होंने सोचा- 'राजा दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेनाका स्वामी था। उसने हमलोगोंको अनेकों बार कष्ट पहुँचाया। किन्तु अब वे सब-के सब मौतके मुँहमें चले गये। भगवान् वासुदेवका आश्रय लेनेके कारण हम पाँच पाण्डव शेष रह गये हैं। द्रोणाचार्य, भीष्म, महाबली कर्ण, भ्राता और पुत्रसहित राजा दुर्योधन तथा अन्यान्य जितने वीर राजा मारे गये हैं उन सबके बिना यह राज्य, भोग अथवा जीवन लेकर क्या करना है। हाय! धिक्कार है, इस सुखको; मेरे लिये यह प्रसंग बड़ा कष्टदायक है।' यह विचारकर राजा व्याकुल हो उठे। वे उत्साहहीन होकर नीचे मुँह किये बैठे रहते थे। उन्हें बारंबार इस बातकी चिन्ता होने लगी कि 'अब मैं किस योग, नियम एवं तीर्थका सेवन करूँ, जिससे महापातकोंकी राशिसे मुझे शीघ्र ही छुटकारा मिले। कौन-सा ऐसा तीर्थ है, जहाँ स्नान करके मनुष्यपरम उत्तम विष्णुलोकको प्राप्त होता है?' इस प्रकार सोचते हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर अत्यन्त विकल हो गये। उस समय महातपस्वी मार्कण्डेयजी काशीमें थे।

उन्हें युधिष्ठिरकी अवस्थाका ज्ञान हो गया; इसलिये वे तुरंत ही हस्तिनापुरमें जा पहुँचे और राजमहलके द्वारपर खड़े हो गये। द्वारपालने जब उन्हें देखा तो शीघ्र ही महाराजके पास जाकर कहा- 'राजन् ! मार्कण्डेय मुनि आपसे मिलनेके लिये आये हैं और द्वारपर खड़े हैं। यह

समाचार सुनते ही धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत राजद्वारपर आ पहुँचे और उनके शरणागत होकर बोले 'महामुने! आपका स्वागत है। महाप्राज्ञ! आपका स्वागत है। आज मेरा जन्म सफल हुआ। आज मेरा कुल पवित्र हो गया। आज आपका दर्शन होनेसे मेरे पितर तृप्त हो गये।' यो कहकर युधिष्ठिरने मुनिको सिंहासनपर बिठाया और पैर धोकर पूजन सामग्रियोंसे उनकी पूजा की। तब मार्कण्डेयजीने कहा- 'राजन्! तुम व्याकुल क्यों हो रहे हो ? मेरे सामने अपना मनोभाव प्रकट करो।'

युधिष्ठिर बोले- महामुने। राज्य के लिये हमलोगोंकी ओरसे जो बर्ताव हुआ है, उस सारेप्रसंगको जानकर ही आप यहाँ पधारे हैं [ फिर आपसे क्या कहना है]।

मार्कण्डेयजीने कहा- महाबाहो सुनो-जहाँ धर्मकी व्यवस्था है, उस शास्त्रमें संग्राममें युद्ध करनेवाले किसी भी बुद्धिमान् पुरुषके लिये पापकी बात नहीं देखी गयी है। फिर विशेषतः क्षत्रियके लिये जो राजधर्मके अनुसार युद्धमें प्रवृत्त हुआ है, पापकी आशंका कैसे हो सकती है। अतः इस बातको हृदयमें रखकर पापकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। महाभाग युधिष्ठिर! तुम तीर्थकी बात जानना चाहते हो तो सुनो-पुण्य कर्म करनेवाले मनुष्योंके लिये प्रयागकी यात्रा करना सर्वश्रेष्ठ है।

युधिष्ठिरने पूछा भगवन् मैं यह सुनना चाहता है कि प्रयागको यात्रा कैसे की जाती है, वहाँ कैसा पुण्य होता है, प्रयागमें जिनकी मृत्यु होती है, उनकी क्या गति होती है तथा जो वहाँ स्नान और निवास करते हैं, उन्हें किस फलकी प्राप्ति होती है। ये सब बातें बताइये। मेरे मनमें इन्हें सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है।

मार्कण्डेयजीने कहा – वत्स! पूर्वकालमें ऋषियों और ब्राह्मणोंके मुँहसे जो कुछ मैंने सुना है, वह प्रयागका फल तुम्हें बताता हूँ। प्रयागसे लेकर प्रतिष्ठानपुर (झुसी) तक धर्मको हदसे लेकर वासुकि हृदतक तथा कम्बल और अश्वतर नागके स्थान एवं बहुमूलिक नामवाले नागोँका स्थान- यह सब प्रजापतिका क्षेत्र है, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहीं स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं और जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे फिर जन्म नहीं लेते। प्रयागमें ब्रह्मा आदि देवता एकत्रित होकर प्राणियोंकी रक्षा करते हैं। यहाँ और भी बहुत-से तीर्थ हैं, जो सब पापको हरनेवाले तथा कल्याणकारी हैं। उनका कई सौ वर्षोंमें भी वर्णन नहीं किया जा सकता। स्वयं इन्द्र विशेषरूपसे प्रवागतीर्थको रक्षा करते हैं तथा भगवान् विष्णु देवताओंके साथ प्रयागके सर्वमान्य मण्डलकी रक्षा करते हैं। हाथमें शूल लिये हुए भगवान् महेश्वर प्रतिदिन वहाँ वटवृक्ष (अक्षयवट) की रक्षा करते हैं तथादेवता समूचे तीर्थस्थानकी रक्षामें रहते हैं वह स्थान सब पापको हरनेवाला और शुभ है जो प्रयागका स्मरण करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उस तीर्थके दर्शन और नाम कीर्तनसे तथा वहाँकी मिट्टी प्राप्त करनेसे भी मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। महाराज! प्रयागमें पाँच कुण्ड हैं, जिनके बीचसे होकर गंगाजी बहती हैं। प्रयागमें प्रवेश करनेवाले मनुष्यका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य सहस्रों योजन दूरसे भी गंगाजीका स्मरण करता है, वह पापाचारी होनेपर भी परमगतिको प्राप्त होता है। मनुष्य गंगाका नाम लेनेसे पापमुक्त होता है, दर्शन करनेसे कल्याणका दर्शन करता है तथा स्नान करने और जल पीनेसे अपने कुलकी सात पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है। जो सत्यवादी, क्रोधजयी, अहिंसा-धर्ममें स्थित, धर्मानुगामी, तत्त्वज्ञ तथा गौ और ब्राह्मणोंके हितमें तत्पर होकर गंगा-यमुनाके बीचमें स्नान करता है, वह सारे पापोंसे छूट जाता है तथा मन-चीते समस्त भोगोंको पूर्णरूपसे प्राप्त कर लेता है। *

तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवताओंसे रक्षित प्रयागमें जाकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एक मासतक निवास करे और देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे। इससे मनुष्य मनोवांछित पदार्थोंको प्राप्त करता है। बुधिष्ठिर प्रयागमें साक्षात् भगवान् महेश्वर सदा निवास करते हैं। वह परम पावन तीर्थ मनुष्योंके लिये दुर्लभ है। राजेन्द्र ! देवता, दानव, गन्धर्व, ऋषि सिद्ध और चारण वहाँ स्नान करके स्वर्गलोकमें जा सुख भोगते हैं।

प्रयाग में जानेवाला मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मनुष्य अपने देशमें हो या वनमें, विदेशमें हो या घरमें जो प्रयागका स्मरण करते हुए मृत्युको प्राप्त होता है, वह ब्रह्मलोकमें जाता है-यह श्रेष्ठ ऋषियोंका कथन है जो मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा सत्यधर्ममें स्थित हो गंगा-यमुनाकेबीचको भूमिमें दान देता है, वह सद्गतिको प्राप्त होता है। जो अपने कार्यके लिये या पितृकार्यके लिये अथवा देवताकी पूजाके लिये प्रयागमें सुवर्ण, मणि, मोती अथवा धान्यका दान ग्रहण करता है, उसका तीर्थ सेवन व्यर्थ होता है; वह जबतक दूसरेका द्रव्य भोगता है, तबतक उसके तीर्थ सेवनका कोई फल नहीं है।

अतः इस प्रकार तीर्थ अथवा पवित्र मन्दिरोंमें जाकर किसीसे कुछ ग्रहण न करे। कोई भी निमित्त हो, द्विजको प्रतिग्रहसे सावधान रहना चाहिये। प्रयागमें भूरी अथवा लाल रंगकी गायके, जो दूध देनेवाली हो, सींगोंको सोनेसे और खुरोंको चाँदीसे मदा दे; फिर उसके गलेमें वस्त्र लपेटकर श्वेतवस्त्रधारी, शान्त, धर्मज्ञ, वेदोंके पारगामी तथा साधु श्रोत्रिय ब्राह्मणको बुलाकर गंगा-यमुनाके संगममें वह गौ उसे विधिपूर्वक दान कर दे। साथ ही बहुमूल्य वस्त्र तथा नाना प्रकारके रत्न भी देने चाहिये। इससे उस गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। वह उस पुण्यकर्मके प्रभावसे भयंकर नरकका दर्शन नहीं करता। लाख गौओंकी अपेक्षा वहाँ एक ही दूध देनेवाली गौ देना उत्तम है। वह एक ही पुत्र, स्त्री तथा भृत्योंतकका उद्धार कर देती है। इसलिये सब दानोंमें गोदान ही सबसे बढ़कर है। महापातकके कारण मिलनेवाले दुर्गम, विषम तथा भयंकर नरकमें गौ ही मनुष्यकी रक्षा करती है। इसलिये ब्राह्मणको गोदान करना चाहिये।

कुरुश्रेष्ठ! जो देवताओंके जो देवताओंके द्वारा सेवित प्रयागतीर्थमें बैल अथवा बैलगाड़ीपर चढ़कर जाता है, वह पुरुष गौओंका भयंकर क्रोध होनेपर घोर नरकमें निवास करता है तथा उसके पितर उसका दिया जलतक नहीं ग्रहण करते जो ऐश्वर्यके लोभसे अथवा मोहवश सवारीसे तीर्थयात्रा करता है, उसके तीर्थसेवनका कोई फल नहींहोता; इसलिये सवारीको त्याग देना चाहिये। जो गंगा यमुनाके बीचमें ऋषियोंकी बतायी हुई विधि तथा अपनी सामर्थ्यके अनुसार कन्यादान करता है, वह उस कर्मके प्रभावसे यमराज तथा भयंकर नरकको नहीं देखता जिस मनुष्यकी अक्षयवटके नीचे मृत्यु होती हूँ वह सब लोकोंको लाँधकर लोकमें जाता है। वहाँ रुद्रका आश्रय लेकर बारह सूर्य तपते हैं और सारे जगत्को जला डालते हैं। परन्तु वटकी जड़ नहीं जला पाते। जब सूर्य, चन्द्रमा और वायुका विनाश हो जाता है और सारा जगत् एकार्णवमें मग्न दिखायी देता है, उस समय भगवान् विष्णु यहीं अक्षयवटपर शयन करते हैं। देवता, दानव, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध और चरण- सभी गंगा-यमुनाके संगममें स्थित तीर्थका सेवन करते हैं। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता, दिशाएँ, दिक्पाल, लोकपाल, साध्य, पितर, सनत्कुमार आदि परमर्षि अंगिरा आदि ब्रह्मर्षि, नाग, सुपर्ण (गरुड़) पक्षी, नदियों, समुद्र, पर्वत, विद्याधर तथा साक्षात् भगवान् विष्णु प्रजापतिको आगे रखकर निवास करते हैं। उस तीर्थका नाम सुनने, नाम लेने तथा वहाँकी मिट्टीका स्पर्श करनेसे भी मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। जो वहाँ कठोर व्रतका पालन करते हुए संगममें स्नान करता है, वह राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञोंके समान फल पाता है। योगयुक्त विद्वान् पुरुषको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वह गति गंगा और यमुनाके संगममें मृत्युको प्राप्त होनेवाले प्राणियोंकी भी होती है।

इस प्रकार परमपदके साधनभूत प्रयागतीर्थका दर्शन करके यमुनाके दक्षिण किनारे, जहाँ कम्बल और अश्वतर नागोंके स्थान हैं, जाना चाहिये। वहाँ स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य सब पातकोंसे छुटकारा पा जाता है। वह परम बुद्धिमान् महादेवजीका स्थान है वहाँकी यात्रा करनेसे मनुष्य अपने कुलकी दस पहलेकी और दस पीछेकी पीढ़ियाँका उद्धार कर देता है जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है तथा वह प्रलयकालतक स्वर्गलोकमें स्थान पाता है। भारत गंगाके पूर्वतटपर तीनों लोकोंमें विख्यात समुद्रकूप और प्रतिष्ठानपुर (झूसी) हैं। यदि कोईब्रह्मचर्य का पालन करते हुए क्रोधको जीतकर तीन रात वहाँ निवास करता है, तो वह सब पापोंसे शुद्ध होकर अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। प्रतिष्ठानसे उत्तर और भागीरथीसे पूर्व हंसप्रपतन नामक तीर्थ है, उसमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्यको अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है तथा जबतक सूर्य और चन्द्रमाकी स्थिति है, तबतक वह स्वर्गलोक प्रतिष्ठित होता है।

रमणीय अक्षयवटके नीचे ब्रहाचारी जितेन्द्रिय एवं योगयुक्त होकर उपवास करनेवाला मनुष्य ब्रह्मज्ञानको प्राप्त होता है। कोटितीर्थमें जाकर जिनकी मृत्यु होती है, वह करोड़ों वर्षतक स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। चारों वेदोंके अध्ययनसे जो पुण्य होता है, सत्य बोलनेसे जो फल होता है तथा अहिंसाके पालनसे जो धर्म होता है, वह दशाश्वमेध घाटकी यात्रा करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। गंगामें जहाँ कहीं भी स्नान किया जाय, वे कुरुक्षेत्र के समान फल देनेवाली हैं; किन्तु जहाँ वे समुद्रसे मिली हैं, वहाँ उनका माहात्म्य कुरुक्षेत्रसे दसगुना है। महाभागा गंगा जहाँ कहीं भी बहती हैं, वहाँ बहुत से तीर्थ और तपस्वी रहते हैं। उस स्थानको सिद्धक्षेत्र समझना चाहिये। इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। गंगा पृथ्वीपर मनुष्योंको, पातालमें नागौंको और स्वर्गमं देवताओंको तारती हैं इसलिये वे त्रिपथगा कहलाती हैं। किसी भी जीवकी हड्डियाँ जितने समयतक गंगामें रहती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। गंगा तीर्थोंमें श्रेष्ठ तीर्थ, नदियोंमें उत्तम नदी तथा सम्पूर्ण भूतों-महापातकियों को भी मोक्ष देनेवाली हैं। गंगा सर्वत्र सुलभ हैं, केवल तीन स्थानोंमें वे दुर्लभ मानी गयी हैं- गंगाद्वार, प्रयाग तथा गंगा सागर संगममें। वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गको जाते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे फिर कभी जन्म नहीं लेते। जिनका चित्त पापसे दूषित है, ऐसे समस्त प्राणियों और मनुष्योंकी गंगाके सिवा अन्यत्र गति नहीं है। गंगा के सिवा दूसरी कोई गति है ही नहीं भगवान् शंकरके मस्तकसे निकली हुई गंगा सब पापको हरनेवाली और शुभकारिणी हैं। वे पवित्रोंको भी पवित्रकरनेवाली और मंगलमय पदार्थोंके लिये भी मंगलकारिणी हैं। *

राजन्! पुनः प्रयागका माहात्म्य सुनो, जिसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। गंगाके उत्तर-तटपर मानस नामक तीर्थ है। वहाँ तीन रात उपवास करनेसे समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। मनुष्य गौ, भूमि और सुवर्णका दान करनेसे जिस फलको पाता है, वह उस तीर्थका बारंबार स्मरण करनेसे ही मिल जाता है जो गंगामै मृत्युको प्राप्त होता है, वह मृत व्यक्ति स्वर्गमें जाता है। उसे नरक नहीं देखना पड़ता। माघ मासमें गंगा और यमुनाके संगमपर छाछठ हजार तीर्थोंका समागम होता है। विधिपूर्वक एक लाख गौओंका दान करनेसे जो फल मिलता है, वह माघ मासमें प्रयागके भीतर तीन दिन स्नान करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। जो गंगा-यमुनाके बीचमें पंचाग्निसेवनकी साधना करता है, वह किसी अंगसे हीन नहीं होता; उसका रोग दूर हो जाता है तथा उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ सबल रहती हैं। इतना ही नहीं, उस मनुष्यके शरीरमें जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यमुनाके उत्तर-तटपर और प्रयागके दक्षिण भागमें ऋणप्रमोचन नामक तीर्थ है, जो अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है। वहाँ एक रात निवास करनेसे मनुष्य समस्त ऋणोंसे मुक्त हो जाता है। उसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है तथा वह सदाके लिये ऋणसे छूट जाता है। प्रयागका मण्डल पाँच योजन विस्तृत है, उसमें प्रवेश करनेवाले पुरुषको पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। जिस मनुष्यकी यहाँ मृत्यु होती है, वह अपनी पिछली सात पीढ़ियोंको और आगे आनेवाली चौदह पीढ़ियोंको तार देता है। महाराज ! यहजानकर प्रयागके प्रति सदा श्रद्धा रखनी चाहिये। जिनका चित्त पापसे दूषित है, वे अश्रद्धालु पुरुष उस स्थानको – देवनिर्मित प्रयागको नहीं पा सकते।

राजन्! अब मैं अत्यन्त गोपनीय रहस्यकी बात बताता हूँ, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है; सुनो। जो प्रयागमें इन्द्रियसंयमपूर्वक एक मासतक निवास करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है-ऐसा ब्रह्माजीका कथन है। वहाँ रहनेसे मनुष्य पवित्र, जितेन्द्रिय, अहिंसक और श्रद्धालु होकर सब पापोंसे छूट जाता और परमपदको प्राप्त होता है। वहाँ तीनों काल स्नान और भिक्षाका आहार करना चाहिये; इस प्रकार तीन महीनोंतक प्रयागका सेवन करनेसे वे मुक्त हो जाते हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। तत्त्वके ज्ञाता युधिष्ठिर! तुम्हारी प्रसन्नताके लिये मैंने इस धर्मानुसारी सनातन गुह्य रहस्यका वर्णन किया है।

युधिष्ठिर बोले- धर्मात्मन्! आज मेरा जन्म सफल हुआ, आज मेरा कुल कृतार्थ हो गया। आज आपके दर्शनसे मैं प्रसन्न हूँ, अनुगृहीत हूँ तथा सब पातकोंसे मुक्त हो गया हूँ। महामुने! यमुनामें स्नान करनेसे क्या पुण्य होता है, कौन-सा फल मिलता है? ये सब बातें आप अपने प्रत्यक्ष अनुभव एवं श्रवणके आधारपर बताइये मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! सूर्यकन्या यमुना देवी तीनों लोकोंमें विख्यात है। जिस हिमालयसे गंगा प्रकट हुई हैं, उसीसे यमुनाका भी आगमन हुआ है। सहस्रों योजन दूरसे भी नामोच्चारण करनेपर वे पापका नाश कर देती हैं। युधिष्ठिर। यमुना में नहाने जल पीने और उनके नामका कीर्तन करनेसे मनुष्य पुण्यका भागी होकर कल्याणका दर्शन करता है।यमुनामें गोता लगाने और उनका जल पीनेसे कुलकी सात पीढ़ियाँ पवित्र हो जाती हैं। जिसकी वहाँ मृत्यु होती है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। यमुनाके दक्षिण किनारे विख्यात अग्नितीर्थ है; उसके पश्चिम धर्मराजका तीर्थ है, जिसे हरवरतीर्थ भी कहते हैं वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं तथा जो यहाँ मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे फिर जन्म नहीं लेते।

इसी प्रकार यमुनाके दक्षिण तटपर हजारों तीर्थ हैं। अब मैं उत्तर-तटके तीर्थोका वर्णन करता है। युधिष्ठिर ! उत्तरमें महात्मा सूर्यका विरज नामक तीर्थ है जहाँ इन्द्र आदि देवता प्रतिदिन सन्ध्योपासन करते हैं। देवता तथा विद्वान् पुरुष उस तीर्थका सेवन करते हैं। तुम भी श्रद्धापूर्वक दानमें प्रवृत्त होकर उस तीर्थमें स्नान करो। वहाँ और भी बहुत-से तीर्थ हैं, जो सब पापको हरनेवाले और शुभ हैं। उनमें स्नान करके मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। गंगा और यमुना- दोनों ही समान फल देनेवाली मानी गयी है: केवल श्रेष्ठता के कारण गंगा सर्वत्र पूजित होती हैं कुन्तीनन्दन। तुम भी इसी प्रकार सब तीर्थोंमें स्नान करो, इससे जीवनभरका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य सबेरे उठकर इस प्रसंगका पाठ या श्रवण करता है, वह भी सब पापसे मुक्त होकर स्वर्गलोकको जाता है।

युधिष्ठिर बोले- मुने! मैंने ब्रह्माजीके कहे हुए पुण्यमय पुराणका श्रवण किया है उसमें सैकड़ों, हजारों और लाखों तीर्थोका वर्णन आया है। सभी तीर्थ पुण्यजनक और पवित्र बताये गये हैं तथा सबके द्वारा उत्तम गतिकी प्राप्ति बतायी गयी है। पृथ्वीपर नैमिषारण्य और आकाशमें पुष्करतीर्थ पवित्र है। लोकमें प्रयाग और कुरुक्षेत्र दोनोंको ही विशेष स्थान दिया गया है। आप उन सबको छोड़कर केवल एककी ही प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? आप प्रयागसे परम दिव्य गति तथा मनोवांछित भोगोंकी प्राप्ति बताते हैं। थोड़े-सेअनुष्ठानके द्वारा अधिक धर्मकी प्राप्ति बताते हुए प्रयागकी ही अधिक प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? यह मेरा संशय है। इस सम्बन्धमें आपने जैसा देखा और सुना हो, उसके अनुसार इस संशयका निवारण कीजिये।

मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! मैंने जैसा देखा और सुना है, उसके अनुसार प्रयागका माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। प्रत्यक्षरूपसे, परोक्ष तथा और जिस प्रकार सम्भव होगा, मैं उसका वर्णन करूँगा। शास्त्रको प्रमाण मानकर आत्माका परमात्माके साथ जो योग किया जाता है, उस योगकी प्रशंसा की जाती है। हजारों जन्मोंके पश्चात् मनुष्योंको उस योगकी प्राप्ति होती है। इसी प्रकार सहस्रों युगोंमें योगकी उपलब्धि होती है। ब्राह्मणोंको सब प्रकारके रत्न दान करनेसे मानवोंको योगकी उपलब्धि होती है। प्रयागमें मृत्यु होनेपर यह सब कुछ स्वतः सुलभ हो जाता है। जैसे सम्पूर्ण भूतोंमें व्यापक ब्रह्मकी सर्वत्र पूजा होती है, उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकोंमें विद्वानोंद्वारा प्रयाग पूजित होता है। नैमिषारण्य, पुष्कर, गोतीर्थ, सिन्धु-सागर संगम, कुरुक्षेत्र, गया और गंगासागर तथा और भी बहुत-से तीर्थ एवं पवित्र पर्वत - कुल मिलाकर तीस करोड़, दस हजार तीर्थ प्रयागमें सदा निवास करते हैं। ऐसा विद्वानोंका कथन है । वहाँ तीन अग्निकुण्ड हैं, जिनके बीच होकर गंगा प्रयागसे निकलती हैं। वे सब तीर्थोंसे युक्त हैं। वायु देवताने देवलोक, भूलोक तथा अन्तरिक्षमें साढ़े तीन करोड़ तीर्थ बतलाये हैं। गंगाको उन सबका स्वरूप माना गया है। प्रयाग, प्रतिष्ठानपुर (झूसी), कम्बल और अश्वतर नागके स्थान तथा भोगवती-ये प्रजापतिकी वेदियाँ हैं। युधिष्ठिर! वहाँ देवता, मूर्तिमान् यज्ञ तथा तपस्वी ऋषि रहते और प्रयागकी पूजा करते हैं। प्रयागका यह माहात्म्य धन्य है, यही स्वर्ग प्रदान करनेवाला है, यही सेवन करनेयोग्य है, यही सुखरूप है, यही पुण्यमय है, यही सुन्दर है और यही परम उत्तम, धर्मानुकूल एवं पावन है। यह महर्षियोंका गोपनीयरहस्य है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। इस प्रसंगका पाठ करनेवाला दिन सब प्रकारके पापोंसे रहित हो जाता है। कुरुनन्दन। तुम प्रयागके तीर्थोंमें स्नान करो। राजन्! तुमने विधिपूर्वक प्रश्न किया था, इसलिये मैंने तुमसे प्रयाग माहात्म्यका वर्णन किया है। इसे सुनकर तुमने अपने समस्त पितरों और पितामहाँका उद्धार कर दिया।

युधिष्ठिर बोले- महामुने! आपने प्रयागमाहात्म्यकी यह सारी कथा सुनायी इसी प्रकार और सब बातें भी बताइये, जिससे मेरा उद्धार हो सके। मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! सुनो, बताता हूँ। ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेवजी ये तीनों देवता सबके प्रभु और अविनाशी हैं। ब्रह्मा इस सम्पूर्ण जगत्की, यहाँके चराचर प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं और परमेश्वर विष्णु उन सबका, समस्त प्रजाओंका पालन करते हैं। फिर जब कल्पका अन्त उपस्थित होता है, तबभगवान् रुद्र सम्पूर्ण जगत्‌का संहार करते हैं। ये ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजी प्रयागमें सदा निवास करते हैं। प्रयागमण्डलका विस्तार पाँच योजन (बीस कोस) है। उपर्युक्त देवता पापकमौका निवारण करते हुए उस मण्डलकी रक्षाके लिये यहाँ मौजूद रहते हैं। अतः प्रयाग किया हुआ थोड़ा-सा भी पाप नरकमें गिरानेवाला होता है।

सूतजी कहते हैं- तदनन्तर धर्मपर विश्वास करनेवाले समस्त पाण्डवोंने भाइयोंसहित ब्राह्मणोंको नमस्कार करके गुरुजनों और देवताओंको तृप्त किया। उसी समय भगवान् वासुदेव भी वहाँ आ पहुँचे। फिर समस्त पाण्डवोंने मिलकर भगवान् श्रीकृष्णका पूजन किया। तत्पश्चात् कृष्णसहित सब महात्माओंने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको स्वराज्यपर अभिषिक्त किया। इसके बाद भाइयोंसहित धर्मात्मा युधिष्ठिरने ब्राह्मणोंको बड़े-बड़े दान दिये। जो सवेरे उठकर इस प्रसंगका पाठ अथवा श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें जाता है।

भगवान् वासुदेव बोले- राजा युधिष्ठिर! मैं आपके स्नेहवश कुछ निवेदन करता हूँ, आपको मेरी बात माननी चाहिये। महाराज! आप प्रतिदिन हमारे साथ प्रयागका स्मरण करनेसे स्वयं सनातन लोकको प्राप्त होंगे। जो मनुष्य प्रयागको जाता अथवा वहाँ निवास करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर दिव्यलोकको जाता है। जो किसीका दिया हुआ दान नहीं लेता, संतुष्ट रहता, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखता, पवित्र रहता और अहंकारका त्याग कर देता है, उसीको तीर्थका पूरा फल मिलता है। राजेन्द्र जो क्रोधहीन, सत्यवादी, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला तथा सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मभाव रखनेवाला है, वही तीर्थके फलका उपभोग करता है। ऋषियों और देवताओंने भी क्रमशः यज्ञौका वर्णन किया है, किन्तुमहाराज ! दरिद्र मनुष्य यज्ञ नहीं कर सकते। यज्ञमें बहुत सामग्रीकी आवश्यकता होती है। नाना प्रकारकी तैयारियाँ और समारोह करने पड़ते हैं। कहीं कोई धनवान् मनुष्य ही भाँति-भाँतिके द्रव्योंका उपयोग करके यज्ञ कर सकता है। नरेश्वर! जिसे विद्वान् पुरुष दरिद्र होनेपर भी कर सकें तथा जो पुण्य और फलमें यज्ञकी समानता करता हो, वह उपाय बताता हूँ; सुनिये । भरतश्रेष्ठ !यह ऋषियोंका गोपनीय रहस्य है; तीर्थयात्राका पुण्य यज्ञोंसे भी बढ़कर होता है। एक खरब, तीस करोड़से भी अधिक तीर्थ माघ मासमें गंगाजीके भीतर आकर स्थित होते हैं [अतः माघमें गंगा स्नान परम पुण्यका साधक होता है ] । * महाराज ! अब आप निश्चिन्त होकर अकण्टक राज्य भोगिये। अब फिर अश्वमेध यज्ञके समय मुझसे आपकी भेंट होगी ।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार