वसिष्ठजी कहते हैं- राजन्! महामना मृकण्डु मुनिने विधिपूर्वक माताओंके और्ध्वदैहिक संस्कार करके दीर्घकालतक काशीमें ही निवास किया। भगवान् शंकरके प्रसादसे उनकी धर्मपत्नी मरुद्वतीके गर्भसे एक महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसकी मार्कण्डेयके नामसे प्रसिद्धि हुई । श्रीमान् मार्कण्डेय मुनिने तपस्या से भगवान् शिवकी आराधना करके उनसे दीर्घायु पाकर अपनी आँखोंसे अनेकों बार प्रलयका दृश्य देखा।
दिलीपने पूछा – मुनिवर ! आपने पहले यह बात बतायी थी कि मृकण्डु मुनिके मरुद्वतीसे कोई सन्तान नहीं हुई, फिर भगवान् शिवके प्रसादसे उन्होंने किस प्रकार पुत्र प्राप्त किया ? तथा वह पुत्र शंकरजीकेप्रसादसे कैसे दीर्घायु हुआ ? इन सब बातोंको मैं विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। आप बतानेकी कृपा करें।
वसिष्ठजीने कहा- राजन् ! सुनो, मैं मार्कण्डेयजीके जन्मका वृत्तान्त बतलाता हूँ। महामुनि मृकण्डुके कोई सन्तान नहीं थी; अतः उन्होंने अपनी पत्नीके साथ तपस्या और नियमोंका पालन करते हुए भगवान् शंकरको सन्तुष्ट किया । सन्तुष्ट होनेपर पिनाकधारी शिवने पत्नीसहित मुनिसे कहा- 'मुने! मुझसे कोई वर माँगो' तब मुनिने यह वर माँगा - 'परमेश्वर ! आप मेरे स्तवनसे सन्तुष्ट हैं; इसलिये मैं आपसे एक पुत्र चाहता हूँ। महेश्वर ! मुझे अबतक कोई सन्तान नहीं हुई ।भगवान् शंकर बोले- मुने। क्या तुम उत्तम गुणोंसे हीन चिरंजीवी पुत्र चाहते हो या केवल सोलह वर्षकी आयुवाला एक ही गुणवान् एवं सर्वज्ञ पुत्र पानेकी इच्छा रखते हो ?
उनके इस प्रकार पूछनेपर धर्मात्मा मृकण्डुने कहा- 'जगदीश्वर! मैं गुणहीन पुत्र नहीं चाहता। उसकी आयु छोटी ही क्यों न हो, वह सर्वज्ञ होना चाहिये।'
भगवान् शंकर बोले- अच्छा, तो तुम्हें सोलह वर्षकी आयुवाला एक पुत्र प्राप्त होगा, जो परम धार्मिक, सर्वज्ञ, गुणवान्, लोकमें यशस्वी और ज्ञानका समुद्र होगा।
ऐसा कहकर भगवान् शिव अन्तर्धान हो गये और मुनिवर मृकण्डु इच्छानुसार वरदान पाकर प्रसन्न हो अपने आश्रम में लौट आये उनकी पत्नी मस्ती बहुत दिनोंके बाद गर्भवती हुई। मुनिने विधिपूर्वक गर्भाधान संस्कार किया था। तदनन्तर गर्भस्थ बालकमें चेष्टा उत्पन्न होनेसे पहले पुरुषकी वृद्धिके लिये उन्होंने किसी शुभ दिनको गृह्यसूत्रोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार अच्छे ढंगसे पुंसवन संस्कार किया। जब आठवाँ मास आया, तब संस्कार कर्मोंके ज्ञाता उन मुनीश्वरने गर्भके रूपकी समृद्धि और सुखपूर्वक सन्तानको उत्पत्ति होनेके लिये सीमन्तोन्नयन संस्कार किया। समय आनेपर मस्तीके गर्भ से सूर्यके समान तेजस्वी पुत्रका जन्म हुआ। उस समय देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं, सम्पूर्ण दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं और सब ओरसे प्राणियोंको तृप्त करनेवाली कल्याणमयी वाणी सुनायी देने लगी। बालककी शान्तिके लिये वेदव्यास आदि मुनि भी मुकण्डुके आश्रमपर पधारे। साक्षात् महामुनि वेदव्यासने बालकका जातकर्म संस्कार कराया। तत्पश्चात् ग्यारहवें दिन मुनिने नामकरण संस्कार किया। उसके बाद नाना प्रकारके वेदोक मन्त्रों और आशीर्वादों से अभिनन्दन करके मुनियोंने बालककी रक्षाका शास्त्रीय उपाय किया। फिर मृकण्डु मुनिके द्वारा पूजित हो वे सब लोग लौट गये।
उस समय नगर और प्रान्तके लोग हर्षमें भरकर आपसमें कहते थे—'अहो! इस बालकका अद्भुत रूप है! अद्भुत तेज है! और समस्त अंगोंका लक्षण भीअद्भुत है। मरुद्वतीके सौभाग्यसे साक्षात् भगवान् शंकर ही इस बालकके रूपमें प्रकट हुए हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है। चौथे महीने में पिताने पुत्रको पर बाहर निकाला। छठे महीनेमें उसका अन्नप्राशन कराया। फिर ढाई वर्षको अवस्थामै चूडाकर्म करके श्रवण नक्षत्रमें कर्णवेध किया। तदनन्तर कर्मोंके ज्ञाता मृकण्डु मुनिने बालकके ब्रह्मतेजकी वृद्धिके लिये पाँचवें वर्षकी अवस्थामें उसे यज्ञोपवीत दे दिया। फिर उपाकर्म करके विद्वान् मुनिने बालकको वेद पढ़ाया। उसने अंग, उपांग, पद तथा क्रमसहित सम्पूर्ण वेदोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया। वह बालक बड़ा शक्तिशाली था। गुरु तो उसके सक्षम थे उसने विनय आदि गुणोंको प्रकट करते हुए गुरुमुखसे समस्त विद्याओंको ग्रहण किया। वह भिक्षाके अन्नसे जीवन निर्वाह करता हुआ प्रतिदिन माता-पिताकी सेवामें संलग्न रहता था, बुद्धिमान् मार्कण्डेयको आयुका सोलहवाँ वर्ष प्रारम्भ होनेपर मृकण्डु मुनिका हृदय शोकसे कातर हो उठा। उनकी सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें व्याकुलता छा गयी। वे दीनतापूर्वक विलाप करने लगे। मार्कण्डेयने पिताको अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करते देख पूछा-'तात! आपके शोक-मोहका क्या कारण है?' मार्कण्डेयके मधुर वचन सुनकर मृकण्डुने अपने शोकका युक्तियुक्त कारण बताया।
मृकण्डु बोले- बेटा! पिनाकधारी भगवान् शंकरने तुम्हें सोलह वर्षकी ही आयु दी है। उसकी समाप्तिका समय अब आ पहुँचा है; इसीलिये मुझे शोक हो रहा है।
पिताका यह कथन सुनकर मार्कण्डेयने कहा 'पिताजी! आप मेरे लिये कदापि शोक न कीजिये। मैं ऐसा यत्न करूँगा, जिससे अमर हो जाऊँ। महादेवजी सबको मनोवांछित वस्तु प्रदान करनेवाले और कल्याणस्वरूप हैं। वे मृत्युको जीतनेवाले, विकराल नेत्रधारी, सर्वज्ञ, सत्पुरुषोंको सब कुछ देनेवाले, कालके भी काल, महाकालरूप और कालकूट विषको भक्षण करनेवाले हैं। मैं उन्हींकी आराधना करके अमरत्व प्राप्त करूँगा।' पुत्रकी यह बात सुनकर माता-पिताको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने सारा शोक छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'बेटा! तुमने हम दोनोंका शोक नष्ट करनेके लिये भगवान् मृत्युंजयकी आराधनारूप महान् उपायकाप्रतिपादन किया है। तात! तुम उन्होंकी शरणमें जाओ। उनसे बढ़कर दूसरा कोई भी हितैषी नहीं है। जो बात मनकी कल्पनाएँ भी नहीं आ सकती, उसे भी भगवान् शंकर सिद्ध कर देते हैं। वे कालका भी संहार करनेवाले हैं। बेटा! क्या तुमने नहीं सुना है, पूर्वकालमें कालपाशसे बँधे हुए श्वेतकेतुकी महादेवजीने किस प्रकार रक्षा की ? उन्होंने ही समुद्रमन्थनसे प्रकट हुए प्रलयकालीन अग्निके समान भयंकर हालाहल विषका पान करके तीनों लोकोंको बचाया था। जिसने तीनों लोकोंकी सम्पत्ति हड़प ली थी, उस महान् अभिमानी जलंधरको अपने चरणोंकी अंगुष्ठरेखासे प्रकट हुए चक्रद्वारा मौतके घाट उतार दिया था। ये वही भगवान् धूर्जटि हैं, जिन्होंने श्रीविष्णुको बाण बनाकर एक ही बाणके प्रहारसे उत्पन्न हुई आपकी लपटोंसे दैत्योंके तीनों पुरोको फूंक डाला था। अन्धकासुर तीनों ऐश्वर्य पाकर विवेकशून्य हो गया था, किन्तु उसे भी महादेवजीने अपने त्रिशूलकी नोकपर रखकर दस हजार वर्षोंतक सूर्यकी किरणोंमें सुखाया। केवल दृष्टि डालनेमात्रसे तीनों लोकोंको जीत लेनेवाले प्रबल कामदेवको उन्होंने ब्रह्मा आदि देवताओंके देखते-देखते जलाकर भस्म कर डाला - अनंगकी पदवीको पहुँचा दिया। भगवान् शिव ब्रह्मा आदि देवताओंके एकमात्र कर्ता, मेधरूपी वृषभपर सवारी करनेवाले अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले, सम्पूर्ण विश्वके आश्रय और जगत्की रक्षाके लिये दिव्य मणि हैं। बेटा! तुम उन्हींकी शरणमें जाओ।'
इस प्रकार माता-पिताकी आज्ञा पाकर मार्कण्डेयजी दक्षिण समुद्र तटपर चले गये और वहाँ विधिपूर्वक अपने ही नामसे एक शिवलिंग स्थापित किया। तीनों समय स्नान करके वे भगवान् शिवकी पूजा करते और पूजाके अन्तमें स्तोत्र पढ़कर नृत्य करते थे। उस स्तोत्रसे एक ही दिनमें भगवान् शंकर सन्तुष्ट हो गये। मार्कण्डेयजीने बड़ी भक्तिके साथ उनका पूजन किया। जिस दिन उनकी आयु समाप्त होनेवाली थी, उस दिन शिवजी पूजा संलग्न हो वे ज्यों ही स्तुति करनेको उद्यत हुए, उसी समय मृत्युको साथ लिये काल उन्हें लेनेके लिये आ पहुँचा। उसके गोलाकार नेत्र किनारेकी बोरसे लाल-लाल दिखायी दे रहे थे। साँप और ही उसके रोम थे। बड़ी-बड़ी दाढ़ोंके कारण उसका मुख अत्यन्त विकराल जान पड़ता था। वह काजलके समान काला था। समीप आकर कालने उनके गलेमें फंदा डाल दिया। गलेमें बहुत बड़ा फंदा लग जानेपर मार्कण्डेयजीने कहा-'महामते काल में जबतक जगदीश्वर शिवके मृत्युंजय नामक महास्तोत्रका पाठ पूरा न कर लूँ, तबतक मेरी प्रतीक्षा करो। मैं शिवजीकी स्तुति किये बिना कहीं नहीं जाता। भोजन और शयनतक नहीं करता। यह मेरा निश्चित व्रत है। संसारमें जीवन, स्त्री, राज्य तथा सुख भी मुझे उतना प्रिय नहीं है, जितना कि यह शिवजीका स्तोत्र है। यदि मैंने इस विषयमें कोई असत्य बात न कही हो तो इस सत्यके प्रभावसे भगवान् महेश्वर सदा मुझपर प्रसन्न रहें।"
यह सुनकर कालने मार्कण्डेयजीसे हँसते-हँसते कहा—'ब्रह्मन् ! मालूम होता है तुमने पूर्वकालसे निश्चित की हुई बड़े-बूढ़ोंकी यह बात नहीं सुनी है- जो मूढबुद्धि मानव आयुके प्रथम भागमें ही धर्मका अनुष्ठान नहीं करता, वह वृद्ध होनेपर साथियोंसे बिछुड़े हुए राहीकी भाँति पश्चात्ताप करता है। आठ महीनोंमें ऐसा उपाय कर लेना चाहिये, जिससे वर्षाकालके चार महीने सुखसे बीतें दिनमें ही वह काम पूरा कर ले, जिससे रातमें 1 सुखसे रहे। पहली अवस्थामें ही ऐसा कार्य कर ले, जिससे बुढ़ापेमें सुखसे रहे। जीवनभर ऐसा कार्य करता रहे, जिससे मरनेके बाद सुख हो। जो कार्य कल करना हो, उसे आज ही कर ले। जिसे अपराह्नमें करना हो, उसे पूर्वाह्नमें ही कर डाले। काल इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करता कि इस पुरुषका काम पूरा हुआ है या नहीं। यह कार्य कर लिया, यह करना है और इस कार्यका कुछ अंश हो गया है तथा कुछ बाकी है-इस प्रकारकी इच्छाएँ करते हुए पुरुषको काल सहसा आकर दबोच लेता है। जिसका काल नहीं आया है, वह सैकड़ों बाणोंसे बिंध जानेपर भी नहीं मरता तथा जिसका काल | आ पहुँचा है, वह कुशके अग्रभागसे छू जानेपर भी जीवित नहीं रहता। मैं हजारों चक्रवर्ती राजाओं और सैकड़ों इन्द्रोंको भी अपना ग्रास बना चुका हूँ। अतः इस विषय में तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।'
जिसका प्रयास कभी विफल नहीं होता, उसकालके उपर्युक्त वचन सुनकर शिवजीकी स्तुतिमें तत्पर रहनेवाले मार्कण्डेयजीने कहा-'काल! भगवान् शिवकी स्तुतिमें लगे रहनेवाले पुरुषोंके कार्यमें जो लोग विघ्न डालते हैं, वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं इसीलिये मैं तुम्हें मना करता हूँ। जैसे राजाके सिपाहियोंपर राजा ही शासन कर सकता है, दूसरा कोई नहीं, उसी प्रकार शिवजीके भक्तोंका परमेश्वर शिव ही शासन कर सकते हैं भगवान् शंकरके सेवक पर्वतोंको भी विदीर्ण कर डालते हैं, समुद्रोंको भी पी जाते हैं तथा पृथ्वी और अन्तरिक्षको भी हिला देते हैं। इतना ही नहीं, वे ब्रह्मा और इन्द्रको भी तिनकेके समान समझते हैं। भला उनके लिये कौन-सा कार्य दुष्कर है! भगवान् शिवके भक्तोंपर मृत्यु, ब्रह्मा, यमराज, यमदूत तथा दूसरे कोई भी अपना प्रभुत्व नहीं स्थापित कर सकते। काल ! क्या तुमने मनीषी पुरुषोंका यह वचन नहीं सुना है कि शिवभक्त मनुष्योंपर कहीं भी आपत्ति नहीं आती। ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता क्रुद्ध हो जायँ, तो भी वे उन्हें मारनेकी शक्ति नहीं रखते।'
मार्कण्डेयजीके इस प्रकार फटकारनेपर भगवान् काल आँखें फाड़-फाड़कर उनकी ओर देखने लगे, मानो तीनों लोकोंको निगल जायँगे। वे क्रोधमें भरकर बोले- 'ओ दुर्बुद्धि ब्राह्मण गंगाजीमें जितने बालूके कण हैं, उतने ब्रह्माओंका इस कालने संहार कर डाला है। इस विषयमें बहुत कहनेकी क्या आवश्यकता। मेरा बल और पराक्रम देखो, मैं तुम्हें अपना ग्रास बनाता हूँ; तुम इस समय जिनके दास बने बैठे हो, वे महादेव मुझसे तुम्हारी रक्षा करें तो सही।'
वसिष्ठजी कहते हैं- राजन् ! जैसे राहु चन्द्रमाको ग्रस लेता है, उसी प्रकार गर्जना करते हुए कालने महामुनि मार्कण्डेयको हठपूर्वक ग्रसना आरम्भ किया। उसी समय परमेश्वर शिव उस लिंगसे सहसा प्रकट हो गये। उनकी अवस्था, उनका रूप-सब कुछ अवर्णनीय था। मस्तकपर अर्धचन्द्राकार मुकुट शोभा पा रहा था। हुंकार भरकर मेघके समान प्रचण्ड गर्जना करते हुए उन्होंने तुरंत ही मृत्युकी छातीमें लात मारी। मृत्युदेव उनके चरण-प्रहारसे भयभीत हो दूर जा पड़े। भयंकर आकारवाले कालको दूर पड़ा देख मार्कण्डेयजीने पुनःउस स्तोत्रसे भगवान् शंकरका स्तवन किया
कैलासशिखरपर जिनका निवासगृह है, जिन्होंने मेकगिरिका धनुष, नागराज वासुकिकी प्रत्यंचा और भगवान् विष्णुको अग्निमय वाण बनाकर तत्काल ही दैत्योंके तीनों पुरोको दग्ध कर डाला था, सम्पूर्ण देवता जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?
मन्दार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचन्दन इन पाँच दिव्य वृक्षोंके पुष्पोंसे सुगन्धित युगल चरणकमल जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जिन्होंने अपने ललाटवर्ती नेत्रसे प्रकट हुई आगकी ज्यालामें कामदेवके शरीरको भस्म कर डाला था, जिनका श्रीविग्रह सदा भस्मसे विभूषित रहता है, जो भव-सबकी उत्पत्तिके कारण होते हुए भी भव-संसारके नाशक हैं तथा जिनका कभी विनाश नहीं होता, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी में शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?
जो मतवाले गजराजके मुख्य चर्मकी चादर ओढ़े परम मनोहर जान पड़ते हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके चरणकमलोंकी पूजा करते हैं तथा जो देवताओं और सिद्धौकी नदी गंगाको तरंगोंसे भीगी हुई शीतल जटा धारण करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ । यमराज मेरा क्या करेगा ?
गेंडुल मारे हुए सर्पराज जिनके कानोंमें कुण्डलका काम देते हैं, जो वृषभपर सवारी करते हैं, नारद आदि मुनीश्वर जिनके वैभवकी स्तुति करते हैं, जो समस्त भुवनोंके स्वामी, अन्धकासुरका नाश करनेवाले, जिनके लिये कल्पवृक्षके समान और यमराजको भी शान्त करनेवाले हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?
जो यक्षराज कुबेरके सखा, भग देवताकी आँख फोड़नेवाले और सपके आभूषण धारण करनेवाले हैं, जिनके श्रीविग्रहके सुन्दर वामभागको गिरिराजकिशोरी उमाने सुशोभित कर रखा है, कालकूट विष पीनेके कारण जिनका कण्ठभाग नीले रंगका दिखायी देता है, जो एक हाथमें फरसा और दूसरेमें मृग लिये रहते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरको मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा?जो जन्म-मरणके रोगसे ग्रस्त पुरुषोंके लिये औषधरूप हैं, समस्त आपत्तियोंका निवारण और दक्ष यज्ञका विनाश करनेवाले हैं, सत्त्व आदि तीनों गुण जिनके स्वरूप हैं, जो तीन नेत्र धारण करते, भोग और मोक्षरूपी फल देते तथा सम्पूर्ण पापराशिका संहार करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी में शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?
जो भक्तोंपर दया करनेवाले हैं, अपनी पूजा करनेवाले मनुष्योंके लिये अक्षय निधि होते हुए भी जो स्वयं दिगम्बर रहते हैं, जो सब भूतोंके स्वामी, परात्पर, अप्रमेय और उपमारहित हैं, पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और चन्द्रमाके द्वारा जिनका श्रीविग्रह सुरक्षित है, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?
जो ब्रह्मारूपसे सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करते, फिर विष्णुरूपसे सबके पालनमें संलग्न रहते और अन्तमें सारे प्रपंचका संहार करते हैं, सम्पूर्ण लोकों जिनका निवास है तथा जो गणेशजीके पार्षदोंसे घिरकर दिन रात भाँति-भाँतिके खेल किया करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?
रु अर्थात् दुःखको दूर करनेके कारण जिन्हें रुद्र कहते हैं, जो जीवरूपी पशुओंका पालन करनेसे पशुपति स्थिर होनेसे स्थाणु, गलेमें नीला चिह्न धारण करनेसे नीलकण्ठ और भगवती उमाके स्वामी होनेसे उमापति नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?
जिनके गलेमें काला दाग है, जो कलामूर्ति कालाग्निस्वरूप और कालके नाशक हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?
जिनका कण्ठ नील और नेत्र विकराल होते हुए भी जो अत्यन्त निर्मल और उपद्रवरहित हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?जो वामदेव, महादेव, विश्वनाथ और जगद्गुरु नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ? जो देवताओंके भी आराध्यदेव, जगत्के स्वामी और देवताओंपर भी शासन करनेवाले हैं, जिनकी ध्वजापर वृषभका चिह्न बना हुआ है, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?
जो अनन्त, अविकारी, शान्त, रुद्राक्षमालाधारी और सबके दुःखोंका हरण करनेवाले हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?
जो परमानन्दस्वरूप, नित्य एवं कैवल्यपद मोक्षकी प्राप्तिके कारण हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?
जो स्वर्ग और मोक्षके दाता तथा सृष्टि, पालन और संहारके कर्ता हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ? वसिष्ठजी कहते हैं- मार्कण्डेयजीके द्वारा किये हुए इस स्तोत्रका जो भगवान् शंकरके समीप पाठ करेगा, उसे मृत्युसे भय नहीं होगा - यह मैं सत्य सत्य कहता हूँ। बुद्धिमान् मार्कण्डेयके इस प्रकार स्तुति करनेपर महादेवजीने उन्हें अनेक कल्पोंतककी असीम आयु प्रदान की। इस प्रकार देवाधिदेव महादेवजीके प्रसादसे अमरत्व पाकर महातेजस्वी मार्कण्डेयने बहुत से प्रलयके दृश्य देखे हैं। वरदान पानेके अनन्तर महामुनि मार्कण्डेयने पुनः अपने आश्रममें लौटकर माता-पिताको प्रणाम किया। फिर उन्होंने भी पुत्रका अभिनन्दन किया। उसके बाद मार्कण्डेयजी तीर्थयात्रामें प्रवृत्त होकर सदा इस पृथ्वीपर विचरने लगे यमराज भी भगवान् शंकरकी स्तुति करके अपने लोकमें चले गये। राजन् ! मृगशृंग मुनि सदा माघस्नान किया करते थे। उसीके माहात्म्यसे उनकी सन्तान इस प्रकार सौभाग्यशालिनी हुई।