भीष्मजीने पूछा- मुने! मार्कण्डेयजीने वहाँ भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको किस प्रकार उपदेश दिया तथा किस समय और कैसे उनका समागम हुआ? मार्कण्डेयजी किसके पुत्र हैं, वे कैसे महान् तपस्वी हुए तथा उनके इस नामका क्या रहस्य है? महामुने! इन सब बातोंका यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! 我 तुम्हें मार्कण्डेयजीके जन्मकी उत्तम कथा सुनाता हूँ। प्राचीन कल्पकी बात है; मृकण्डु नामसे विख्यात एक मुनि थे,जो महर्षि भृगुके पुत्र थे। वे महाभाग मुनि अपनी पत्नीके साथ वनमें रहकर तपस्या करते थे । वनमें रहते समय ही उनके एक पुत्र हुआ। धीरे-धीरे उसकी अवस्था पाँच वर्षकी हुई। वह बालक होनेपर भी गुणोंमें बहुत बढ़ा - चढ़ा था। एक दिन जब वह बालक आँगनमें घूम रहा था, किसी सिद्ध ज्ञानीने उसकी ओर देखा और बहुत देरतक ठहरकर उसके जीवनके विषयमें विचार किया। बालकके पिताने पूछा- 'मेरे पुत्रकी कितनी आयु है ?" 'सिद्ध बोला- 'मुनीश्वर विधाताने तुम्हारे पुत्रकी जोआयु निश्चित की है, उसमें अब केवल छः महीने और शेष रह गये हैं। मैंने यह सच्ची बात बतायी है; इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये।'
भीष्म ! उस सिद्ध ज्ञानीकी बात सुनकर बालकके पिताने उसका उपनयन- संस्कार कर दिया और कहा 'बेटा! तुम जिस किसी मुनिको देखो, प्रणाम करो । पिताके ऐसा कहनेपर वह बालक अत्यन्त हर्षमें भरकर सबको प्रणाम करने लगा। धीरे-धीरे पाँच महीने, पचीस दिन और बीत गये। तदनन्तर निर्मल स्वभाववाले सप्तर्षिगण उस मार्गसे पधारे। बालकने उन्हें देखकर उन सबको प्रणाम किया। सप्तर्षियोंने उस बालकको 'आयुष्मान् भव, सौम्य!' कहकर दीर्घायु होनेका आशीर्वाद दिया। इतना कहनेके बाद जब उन्होंने उसकी आयुपर विचार किया, तब पाँच ही दिनकी आयु शेषजानकर उन्हें बड़ा भय हुआ। वे उस बालकको लेकर ब्रह्माजीके पास गये और उसे उनके सामने रखकर उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया। बालकने भी ब्रह्माजीके चरणोंमें मस्तक झुकाया तब ब्रह्माजीने ऋषियोंके समीप ही उसे चिरायु होनेका आशीर्वाद दिया। पितामहका वचन सुनकर ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। तत्पश्चात्ब्रह्माजीने उनसे पूछा- 'तुमलोग किस कामसे यहाँ आये हो तथा यह बालक कौन है? बताओ।' ऋषियोंने कहा - 'यह बालक मृकण्डुका पुत्र है, इसकी आयु क्षीण हो चुकी है। इसका सबको प्रणाम करनेका स्वभाव हो गया है। एक दिन दैवात् तीर्थयात्राके प्रसंगसे हमलोग उधर जा निकले। यह पृथ्वीपर घूम रहा था। हमने इसकी ओर देखा और इसने हम सब लोगोंको प्रणाम किया। उस समय हमलोगोंके मुखसे बालकके प्रति यह वाक्य निकल गया- 'चिरायुर्भव, पुत्र! (बेटा! चिरजीवी होओ।)' [आपने भी ऐसा ही कहा है।] अतः देव आपके साथ हमलोग झूठे क्यों बनें ?'
ब्रह्माजीने कहा- ऋषियो! यह बालक मार्कण्डेय आयुमै मेरे समान होगा। यह कल्पके आदि और अन्तमें भी श्रेष्ठ मुनियोंसे घिरा हुआ सदा जीवित रहेगा।
पुलस्त्यजी कहते हैं- इस प्रकार सप्तर्षियोंने ब्रह्माजीसे वरदान दिलवाकर उस बालकको पुनः पृथ्वीतलपर भेज दिया और स्वयं तीर्थयात्राके लिये चले गये। उनके चले जानेपर मार्कण्डेय अपने घर आये और पितासे इस प्रकार बोले- 'तात! मुझे ब्रह्मवादी मुनिलोग ब्रह्मलोकमें ले गये थे। वहाँ ब्रह्माजीने मुझे दीर्घायु बना दिया। इसके बाद ऋषियोंने बहुत-से वरदान देकर मुझे यहाँ भेज दिया। अतः आपके लिये जो चिन्ताका कारण था, वह अब दूर हो गया। मैं लोककर्ता ब्रह्माजीकी कृपासे कल्पके आदि और अन्तमें तथा आगे आनेवाले कल्पमें भी जीवित रहूँगा। इस पृथ्वीपर पुष्कर तीर्थ ब्रह्मलोकके समान है; अतः अब मैं वहीं जाऊँगा।'
मार्कण्डेयजीके वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ मृकण्डुको बड़ा हर्ष हुआ। वे एक क्षणतक चुपचाप आनन्दकी साँस लेते रहे। इसके बाद मनके द्वारा धैर्य धारण कर इस प्रकार बोले-'बेटा! आज मेरा जन्म सफल हो गया तथा आज ही मेरा जीवन धन्य हुआ है; क्योंकि तुम्हें सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करनेवाले भगवान् ब्रह्माजीका दर्शन प्राप्त हुआ। तुम जैसे वंशधर पुत्रको पाकर वास्तवमें मैं पुत्रवान् हुआ हूँ। वत्स! जाओ, पुष्करमें विराजमान देवेश्वर ब्रह्माजीका दर्शन करो।उन जगदीश्वरका दर्शन कर लेनेपर मनुष्योंको बुढ़ापा और मृत्युका द्वार नहीं देखना पड़ता। उन्हें सभी प्रकारके सुख प्राप्त होते हैं तथा उनका तप और ऐश्वर्य भी अक्षय हो जाते हैं। तात! जिस कार्यको मैं भी न कर सका, मेरे किसी कर्मसे जिसकी सिद्धि न हो सकी, उसे तुमने बिना यत्नके ही सिद्ध कर लिया। सबके प्राण लेनेवाली मृत्युको भी जीत लिया। अतः दूसरा कोई मनुष्य इस पृथ्वीपर तुम्हारी समानता नहीं कर सकता। पाँच वर्षकी अवस्थामें ही तुमने मुझे पूर्ण सन्तुष्ट कर दिया; अतः मेरे वरदानके प्रभावसे तुम चिरजीवी महात्माओंके आदर्श माने जाओगे, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है मेरा तो ऐसा आशीर्वाद है हो, तुम्हारे लिये और सब लोग भी यही कहते हैं कि 'तुम अपनी इच्छाके अनुसार उत्तम लोकोंमें जाओगे।' पुलस्त्यजी कहते हैं- इस प्रकार ऋषियों और
गुरुजनोंका अनुग्रह प्राप्त करके मृकण्डुनन्दन मार्कण्डेयजीने पुष्कर तीर्थमें जाकर एक आश्रम स्थापित किया, जो मार्कण्डेय- आश्रमके नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ स्नान करके पवित्र हो मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल प्राप्त करता है। उसका अन्तःकरण सब पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा उसे दीर्घ आयु प्राप्त होती है। अब मैं दूसरे प्राचीन इतिहासका वर्णन करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीने जिस प्रकार पुष्कर तीर्थका निर्माण किया, वह प्रसंग आरम्भ करता हूँ। पूर्वकालमें श्रीरामचन्द्रजी जब सीता और लक्ष्मणके साथ चित्रकूटसे चलकर महर्षि अत्रिके आश्रमपर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने मुनिश्रेष्ठ अत्रिसे पूछा महामुने। इस पृथ्वीपर कौन-कौन से पुण्यमय तीर्थ अथवा कौन सा ऐसा क्षेत्र है, जहाँ जाकर मनुष्यको अपने बन्धुओंके वियोगका दुःख नहीं उठाना पड़ता? भगवन् यदि ऐसा कोई स्थान हो तो वह मुझे बताइये।'
अत्रि बोले- रघुवंशका विस्तार करनेवाले वत्स श्रीराम ! तुमने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है। मेरे पिता ब्रह्माजीके द्वारा निर्मित एक उत्तम तीर्थ है, जो पुष्कर नामसे विख्यात है। वहाँ दो प्रसिद्ध पर्वत हैं, जिन्हेंमर्यादा- पर्वत और यज्ञ-पर्वत कहते हैं। उन दोनोंके बीचमें तीन कुण्ड हैं, जिनके नाम क्रमशः ज्येष्ठ पुष्कर, मध्यम पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर हैं। यहाँ जाकर अपने पिता दशरथको तुम पिण्डदानसे तृप्त करो। वह तीर्थोंमें श्रेष्ठ तीर्थ और क्षेत्रोंमें उत्तम क्षेत्र है। रघुनन्दन। यहाँ अवियोगा नामकी एक चौकोर बावली है तथा एक दूसरा जलसे युक्त कुआँ है, जिसे सौभाग्य-कृप कहते हैं वहाँपर पिण्डदान करनेसे पितरोंकी मुक्ति हो जाती है। वह तीर्थ प्रलयपर्यन्त रहता है ऐसा पितामहका कथन है।
पुलस्त्यजी कहते हैं— 'बहुत अच्छा!' कहकर श्रीरामचन्द्रजीने पुष्कर जानेका विचार किया। वे ऋक्षवान् पर्वत, विदिशा नगरी तथा चर्मण्वती नदीको पार करके यज्ञपर्वतके पास जा पहुँचे। फिर बड़े वेगसे उस पर्वतको भी पार करके वे मध्यम पुष्करमें गये। वहाँ स्नान करके उन्होंने मध्यम पुष्करके ही जलसे समस्त देवताओं और पितरोंका तर्पण किया। उसी समय मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेयजी अपने शिष्योंके साथ वहाँ आये। श्रीरामचन्द्रजीने जब उन्हें देखा तो सामने जाकर प्रणाम किया और बड़े आदरके साथ कहा-'मुने! मैं राजा दशरथका पुत्र हूँ, मुझे लोग राम कहते हैं। मैं महर्षि अत्रिकी आज्ञासे अवियोगा नामकी बावलीका दर्शन करनेके लिये यहाँ आया हूँ। विप्रवर! बताइये, वह स्थान कहाँ है ? '
मार्कण्डेयजीने कहा—रघुनन्दन ! इसके लिये मैं आपको साधुवाद देता हूँ, आपका कल्याण हो। आपने यह बड़े पुण्यका कार्य किया कि तीर्थ-यात्राके प्रसंग यहाँतक चले आये। यहाँसे अब आप आगे चलिये और 'अवियोगा' नामकी बावलीका दर्शन कीजिये। यहाँ सबका सभी आत्मीयजनोंके साथ संयोग होता है इहलोक या परलोकमें स्थित जीवित या मृत सभी प्रकारके बन्धुओंसे भेंट होती है। मुनीश्वर मार्कण्डेयजीके ये वचन सुनकर
श्रीरामचन्द्रजीने महाराज दशरथ, भरत, शत्रुघ्न, माताओं
तथा अन्य पुरवासीजनोंका स्मरण किया। इस प्रकारसबका चिन्तन करते-करते उन्हें सन्ध्या हो गयी। तब श्रीरघुनाथजीने मुनियोंके साथ सायंकालका सन्ध्योपासन किया। तत्पश्चात् रात्रिमें भाई और पत्नी के साथ यहाँ शयन किया। जब रात्रिका अन्तिम प्रहर व्यतीत होने तब रघुनाथजीने स्वप्न देखावे पिताजी तथा सम्बन्धियोंके साथ अयोध्यामें विराजमान हैं। अन्य वैवाहिक मंगल कार्य समाप्त करके वे बहुत-से बन्धु वके साथ ऋषियोंसे घिरे बैठे हैं। साथमें पत्नी सीता भी मौजूद हैं।' लक्ष्मण और सीताने भी इसी रूपमें श्रीरघुनाथजीको देखा। सबेरा होनेपर उन्होंने मुनियोंसे सारी बातें निवेदन कीं, जिन्हें सुनकर ऋषियोंने कहा—' रघुनन्दन ! यह स्वप्न सत्य है; परन्तु पुरुषका जब स्वप्न में दर्शन हो तो उसके लिये श्राद्ध करना आवश्यक माना गया है। सन्तानके अभ्युदयकी कामना रखनेवाले तथा अन्न चाहनेवाले पितर ही भक्त सन्तानको स्वप्नमें दर्शन देते हैं। आपको पितासे तो वियोग था ही, माता और भरतके साथ भी चौदह वर्षोंतक वियोग रहेगा। वीर! अब आप राजा दशरथका ब्राद्ध कीजिये ये सभी ऋषि महर्षि आपके एक है और आपके शुभ कार्यमें सहयोग देनेके लिये प्रस्तुत हैं। मैं (मार्कण्डेय), जमदग्नि, भरद्वाज, लोमश, देवरात और शमीक ये छः श्रेष्ठ दिन श्राद्ध उपस्थित रहेंगे। महाबाहो! आप केवल सामान जुटाइये। श्राद्धमें प्रधान वस्तु तो हैँ इंगुदी (लिसोड़े)-की खली, बेर और आँवले। इनके साथ पके हुए बेल तथा भाँति-भाँतिके मूल होने चाहिये। इन सब वस्तुओंसे तथा श्राद्ध-सम्बन्धी दानके द्वारा आप ब्राह्मणोंको तृप्त कीजिये सुव्रत। पुष्करके वनमें आकर जो नियमपूर्वक रहता और नियमित आहार करके [ श्राद्ध आदिके द्वारा] पितरोंको तृप्त करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। श्रीराम [आप श्राद्धकी सामग्री एकत्रित कराइये.] हमलोग स्नान करनेके लिये ज्येष्ठ करमें जा रहे हैं।"
श्रीरघुनाथजीसे ऐसा कहकर वे सभी ऋषि चले गये। तब श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणसे कहा मिशनन्दन। अच्छे-अच्छे संतरे, कटहल, पारदमीठे बेल, शालूक, कसेरू, पीली काबरा, अच्छे-अच्छे कैर, शक्कर - जैसे सिंघाड़े, पके कैथ तथा और भी जो सामयिक फल हों, उन्हें श्राद्धके लिये शीघ्र ही ले आओ।' श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञा पाकर लक्ष्मणने सारा सामान एकत्रित कर दिया। जानकीजीने भोजन बनाया और तैयार हो जानेपर श्रीरामचन्द्रजीको सूचित कर दिया। श्रीराम भी अवियोगा नामकी बावलीमें स्नान | करके मुनियोंके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे। दुपहरीके बाद जब सूर्य ढलने लगे और कुतप नामकी बेला उपस्थित हुई, उस समय श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा निमन्त्रित सम्पूर्ण ऋषि वहाँ आ पहुँचे। मुनियोंको आया देख विदेहकुमारी सीता वहाँसे दूर हट गयीं और झाड़ियोंकी आड़में छिपकर बैठ गयीं। श्रीरामचन्द्रजीने स्मृतियोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा मनुष्योंके श्राद्धके लिये जो वैदिक क्रिया बतलायी गयी है, वह सब सम्पन्न की। फिर वैश्वदेव करके पुराणोक्त विधिका भी पालन किया । ब्राह्मणके भोजन कर चुकनेपर क्रमशः पिण्ड देनेके पश्चात् ब्राह्मणोंको विदा किया। उनके चले जानेपर श्रीरामचन्द्रजीने अपनी प्रिया सीतासे कहा-'प्रिये! यहाँ आये हुए मुनियोंको देखकर तुम छिप क्यों गयीं?इसका सारा कारण मुझे शीघ्र बताओ।' सीता बोलीं- नाथ! मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे [बताती हूँ, ] सुनिये। आपके द्वारा नामोच्चारण होते ही स्वर्गीय महाराज यहाँ आकर उपस्थित हो गये। उनके साथ उन्होंके समान रूप-रेखावाले दो पुरुष और आये थे, जो सब प्रकारके आभूषण धारण किये हुए थे। वे तीनों ही ब्राह्मणोंके शरीरसे सटे हुए थे। रघुनन्दन। ब्राह्मणोंके अंगोंमें मुझे पितरोंके दर्शन हुए। उन्हें देखकर मैं लज्जाके मारे आपके पाससे हट गयी। इसीलिये आपने अकेले ही ब्राह्मणोंको भोजन कराया और विधिपूर्वक श्राद्धकी क्रिया भी सम्पन्न की। भला, मैं स्वर्गीय महाराजके सामने कैसे खड़ी होती। यह आपसे मैंने सच्ची बात बतायी है।
पुलस्त्यजी कहते हैं- यह सुनकर श्रीरघुनाथजी बहुत प्रसन्न हुए और प्रिय वचन बोलनेवाली प्रियतमा सौताको बड़े आदरके साथ हृदयसे लगा लिया। तत्पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मण दोनों वीरोंने भोजन किया। उनके बाद जानकीजीने स्वयं भी भोजन किया। इस प्रकार दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण तथा सीताने वह रात वहीं बितायी। दूसरे दिन सूर्योदय होनेपर सबने जानेका निश्चय किया। श्रीरामचन्द्रजी पश्चिमकी ओर चले और एक कोस चलकर ज्येष्ठ पुष्करके पास जा पहुँचे। श्रीरघुनाथजी ज्यों ही जाकर पुष्करके पूर्वमें खड़े हुए, त्यों ही उन्हें देवदूतके कहे हुए ये वचन सुनायी दिये- ' रघुनन्दन ! आपका कल्याण हो। यह तीर्थ अत्यन्त दुर्लभ है। वीरवर! इस स्थानपर कुछ कालतक निवास कीजिये क्योंकि आपको देवताओंका कार्य सिद्ध करना - देवशत्रुओंका वध करना है।' यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई. उन्होंने लक्ष्मणसे कहा - 'सुमित्रानन्दन। देवाधिदेव ब्रह्माजीने हमलोगोंपर अनुग्रह किया है। अतः मैं यहाँ आश्रम बनाकर एक मासतक रहना तथा शरीरकी शुद्धि करनेवाले उत्तम व्रतका आचरण करना चाहता हूँ।' लक्ष्मणने 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी बातका अनुमोदन किया तत्पश्चात् वहाँ अपना व्रत पूर्ण करकेवे दोनों भाई चले और पुष्कर क्षेत्रकी सीमा मर्यादा पर्वतके पास जा पहुँचे। वहाँ देवताओंके स्वामी पिनाकधारी देवदेव महादेवजीका स्थान था। वे वहाँ अवगन्धके नामसे प्रसिद्ध थे श्रीरामचन्द्रजीने वहाँ जाकर त्रिनेत्रधारी भगवान् उमानाथको साष्टांग प्रणाम किया। उनके दर्शनसे श्रीरघुनाथजीके श्रीविग्रहमें रोमांच हो आया। वे सात्त्विक भावमें स्थित हो गये। उन्होंने देवेश्वर भगवान् श्रीशिवको ही जगत्का कारण समझा और विनम्रभावसे स्थित हो उनकी स्तुति करने लगे।
श्रीरामचन्द्रजी बोले
कृत्स्नस्य योऽस्य जगतः सचराचरस्य
कर्ता कृतस्य च तथा सुखदुःखहेतुः ।
संहारहेतुरपि यः पुनरन्तकाले
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जो चराचर प्राणियाँसहित इस सम्पूर्ण जगत्को उत्पन्न करनेवाले हैं, उत्पन्न हुए जगत्के सुख-दुःखमें एकमात्र कारण हैं तथा अन्तकालमें जो पुनः इस विश्वके संहारमें भी कारण बनते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
यं योगिनो विगतमोहतमोरजस्का
भक्तचैकतानमनसो विनिवृत्तकामाः
ध्यायन्ति निश्चलधियोऽमितदिव्यभावं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि
जिनके हृदयसे मोह, तमोगुण और रजोगुण दूर हो गये हैं, भक्तिके प्रभावसे जिनका चित भगवान्के ध्यानमें लीन हो रहा है, जिनको सम्पूर्ण कामनाएँ निवृत हो चुकी हैं और जिनकी बुद्धि स्थिर हो गयी है, ऐसे योगी पुरुष अपरिमेय दिव्यभावसे सम्पन्न जिन भगवान् शिवका निरन्तर ध्यान करते रहते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
यश्चेन्दुखण्डममलं विलसन्मयूखं
बद्ध्वा सदा प्रियतमां शिरसा बिभर्ति ।
यश्चार्द्धदेहमददाद् गिरिराजपुत्र्यै
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जो सुन्दर किरणोंसे युक्त निर्मल चन्द्रमाकी कलाकोजटाजूटमें बाँधकर अपनी प्रियतमा गंगाजीको मस्तकपर धारण करते हैं, जिन्होंने गिरिराजकुमारी उमाको अपना आधा शरीर दे दिया है, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ ।
योऽयं सकृद्धिमलचारुविलोलतोयां
गां महोर्मिविषमां गगगात् पतन्तीम्।
मूर्ध्नाऽऽददे स्वजमिव प्रतिलोलपुष्पां
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
आकाशसे गिरती हुई गंगाजीको, जो स्वच्छ सुन्दर एवं चंचल जलराशिसे युक्त तथा ऊँची-ऊँची लहरोंसे उल्लसित होनेके कारण भयंकर जान पड़ती थीं, जिन्होंने हिलते हुए फूलोंसे सुशोभित मालाकी भाँति सहसा अपने मस्तकपर धारण कर लिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
कैलासशैलशिखरं प्रतिकम्प्यमानं
मूर्ध्नाऽऽददे स्त्रजमिव प्रतिलोलपुष्पां
सकृद्विमलचारुविलोलतोयां
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
आकाशसे गिरती हुई गंगाजीको, जो स्वच्छ, सुन्दर एवं चंचल जलराशिसे युक्त तथा ऊँची-ऊँची लहरोंसे उल्लसित होनेके कारण भयंकर जान पड़ती थीं, जिन्होंने हिलते हुए फूलोंसे सुशोभित मालाकी भाँति सहसा अपने मस्तकपर धारण कर लिया, शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
कैलासशैलशिखरं प्रतिकम्प्यमानं
कैलासशृङ्गसदृशेन दशाननेन ।
पादपद्मपरिवादनमादधान
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
कैलास पर्वतके शिखरके समान ऊँचे शरीरवाले दशमुख रावणके द्वारा हिलायी जाती हुई कैलास गिरिकी चोटीको जिन्होंने अपने चरणकमलोंसे ताल देकर स्थिर कर दिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
येनासकृद् दितिसुताः समरे निरस्ता
विद्याधरोरगगणाश्च वरैः समग्राः ।
संयोजिता मुनिवराः फलमूलभक्षा
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जिन्होंने अनेकों बार दैत्योंको युद्धमें परास्त किया है और विद्याधर, नागगण तथा फल-मूलका आहार करनेवाले सम्पूर्ण मुनिवरोंको उत्तम वर दिये हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
दग्ध्वाध्वरं च नयने च तथा भगस्य
पूष्णस्तथा दशनपङ्क्तिमपातयच्च ।
तस्तम्भ यः कुलिशयुक्तमहेन्द्रहस्तं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जिन्होंने दक्षका यज्ञ भस्म करके भग देवताकी आँखे फोड़ डाली और पृषाके सारे दाँत गिरा दिये तथा वज्रसहित देवराज इन्द्रके हाथको भी स्तम्भित कर दिया- जडवत् निश्चेष्ट बना दिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
एनस्कृतोऽपि विषयेष्वपि सक्तभावा
ज्ञानान्वयगुणैरपि नैव युक्ताः ।
यं संश्रिताः सुखभुजः पुरुषा भवन्ति
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जो पापकर्ममें निरत और विषयासक्त हैं, जिनमें उत्तम ज्ञान, उत्तम कुल, उत्तम शास्त्र ज्ञान और उत्तम गुणोंका भी अभाव है-- ऐसे पुरुष भी जिनकी शरण में जानेसे सुखी हो जाते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
अत्रिप्रसूतिरविकोटिसमानतेजाः
संत्रासनं विबुधदानवसत्तमानाम् ।
यः कालकूटमपिवत् समुदीर्णवेगं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जो तेजमें करोड़ों चन्द्रमाओं और सूर्योके समान हैं; जिन्होंने बड़े-बड़े देवताओं तथा दानवोंका भी दिल दहला देनेवाले कालकूट नामक भयंकर विषका पान कर लिया था, उन प्रचण्ड वेगशाली शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
ब्रह्मेन्द्ररुद्रमरुतां च सषण्मुखानां
योऽदाद् वरांश्च बहुशो भगवान् महेशः ।
नन्दिं च मृत्युवदनात् पुनरुज्जहार
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जिन भगवान् महेश्वरने कार्तिकेयके सहित ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र तथा मरुद्गणोंको अनेकों बार वर दिये हैं तथा नन्दीका मृत्युके मुखसे उद्धार किया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ।
आराधितः सुतपसा हिमवन्निकुञ्जे
धूम्रव्रतेन मनसाऽपि परैरगम्यः ।
सञ्जीवनीं समददाद् भृगवे महात्मा
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जो दूसरोंके लिये मनसे भी अगम्य हैं, महर्षि भृगुने हिमालय पर्वतके निकुंजमें होमका धुआँ पीकर कठोर तपस्याके द्वारा जिनकी आराधना की थी तथा जिन महात्माने भृगुको [ उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर ] संजीवनी विद्या प्रदान की, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
नानाविधैर्गजबिडालसमानवत्रै
दक्षाध्वरप्रमथनैर्बलिभिर्गणौघैः ।
योऽभ्यर्च्यते ऽमरगणैश्च सलोकपालै
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
हाथी और बिल्ली आदिकी-सी मुखाकृतिवाले तथा दक्ष यज्ञका विनाश करनेवाले नाना प्रकारके महाबली गणोंद्वारा जिनकी निरन्तर पूजा होती रहती है एवं लोकपालासहित देवगण भी जिनकी आराधना किया करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
क्रीडार्थमेव भगवान् भुवनानि सप्त
नानानदीविहगपादपमण्डितानि
सब्रह्मकानि व्यसृजत् सुकृताहितानि
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जिन भगवान्ने अपनी क्रीडाके लिये ही अनेकों नदियों, पक्षियों और वृक्षोंसे सुशोभित एवं ब्रह्माजीसे अधिष्ठित सातों भुवनोंकी रचना की है तथा जिन्होंने सम्पूर्ण लोकोंको अपने पुण्यपर ही प्रतिष्ठित किया है, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
यस्याखिलं जगदिदं वशवर्त्ति नित्यं
योऽष्टाभिरेव तनुभिर्भुवनानि भुङ्क्ते ।
यः कारणं सुमहतामपि कारणानां तं
शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
यह सम्पूर्ण विश्व सदा ही जिनकी आज्ञाके अधीन है, जो [जल, अग्नि, यजमान, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वायु और प्रकृति- इन] आठ विग्रहोंसे समस्त लोकोंका उपभोग करते हैं तथा जो बड़े-से बड़े कारण तत्त्वोंके भी महाकारण हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
शङ्खेन्दुकुन्दभवलं वृषभप्रवीर
मारुह्य यः क्षितिधरेन्द्रसुतानुयातः ।
यात्यम्बरे हिमविभूतिविभूषिताङ्
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि॥
जो अपने श्रीविग्रहको हिम और भस्मसे विभूषित करके शंख, चन्द्रमा और कुन्दके समान श्वेतवर्णवाले वृषभ- श्रेष्ठ नन्दीपर सवार होकर गिरिराजकिशोरी उमाके साथ आकाशमें विचरते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
शान्तं मुनिं वमनियोगपरायणं तै
भीमैर्यमस्य पुरुषैः प्रतिनीयमानम् ।
भक्त्या नतं स्तुतिपरं प्रसभं ररक्ष
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
यमराजकी आज्ञा पालनमें लगे रहनेपर भी जिन्हें वे भयंकर यमदूत पकड़कर लिये जा रहे थे तथा जो भक्तिसे नम्र होकर स्तुति कर रहे थे, उन शान्त मुनिकी जिन्होंने बलपूर्वक यमदूतोंसे रक्षा की, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
यः सव्यपाणिकमलाग्रनखेन देव
स्तत् पञ्चमं प्रसभमेव पुरः सुराणाम्।
ब्राह्म शिरस्तरुणपद्मनिभं चकर्त
तं शङ्करं शरणादं शरणं व्रजामि ll
जिन्होंने समस्त देवताओंके सामने ही ब्रह्माजीके उस पाँचवें मस्तकको, जो नवीन कमलके समान शोभा पा रहा था, अपने बायें हाथके नखसे बलपूर्वक काट डाला था, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
यस्य प्रणम्य चरणौ वरदस्य भक्त्या स्तुत्वा
च वाग्भिरमलाभिरतन्द्रिताभिः ।
दीपस्तमांसि दते स्वकरैर्विवस्वा नुदते
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जिन वरदायक भगवान्के चरणोंमें भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तथा आलस्यरहित निर्मल वाणीके द्वारा जिनकी स्तुति करके सूर्यदेव अपनी उद्दीप्त किरणोंसे जगत्का अन्धकार दूर करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
ये त्वां सुरोत्तम गुरुं पुरुषा विमूढा
जानन्ति नास्य जगतः सचराचरस्य ।
ऐश्वर्यमाननिगमानुशयेन पश्चा
त्ते यातनां त्वनुभवन्त्यविशुद्धचित्ताः ॥
देवश्रेष्ठ ! जो मलिनहृदय मूढ पुरुष ऐश्वर्य, मान-प्रतिष्ठा तथा वेदविद्याके अभिमानके कारण आपको इस चराचर जगत्का गुरु नहीं जानते, वे मृत्युके पश्चात् नरककी यातना भोगते हैं।
पुलस्त्यजी कहते हैं— श्रीरघुनाथजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर हाथमें त्रिशूल धारण करनेवाले वृषभध्वज भगवान् श्रीशंकरने सन्तुष्ट हो हर्षमें भरकर कहा 'रघुनन्दन ! आपका कल्याण हो। मैं आपके ऊपर बहुत सन्तुष्ट हूँ। आपने विमल वंशमें अवतार लिया आप जगत्के वन्दनीय हैं। मानव शरीरमें प्रकट होनेपर भी वास्तवमें आप देवस्वरूप हैं। आप जैसे रक्षकके द्वारा सुरक्षित हो देवता अनन्त वर्षोंतक सुखी रहेंगे। चिरकालतक उनकी वृद्धि होती रहेगी। चौदहवाँ वर्षबीतने पर जब आप अयोध्याको लौट जायँगे, उस समय इस पृथ्वीपर रहनेवाले जो-जो मनुष्य आपका दर्शन करेंगे, वे सभी सुखी होंगे तथा उन्हें अक्षय स्वर्गका निवास प्राप्त होगा। अतः आप देवताओंका महान् कार्य करके पुनः अयोध्यापुरीको लौट जाइये ।
यह सुनकर श्रीरघुनाथजी श्रीशंकरजीको प्रणाम करके शीघ्र ही वहाँसे चल दिये। इन्द्रमार्गा नदीके पास पहुँचकर उन्होंने अपनी जटा बाँधी । फिर सब लोग महानदी नर्मदाके तटपर गये। वहाँ श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मण और सीताके साथ स्नान किया तथा नर्मदाके जलसे देवताओं और अपने पितरोंका तर्पण किया। | इसके बाद उन दोनों भाइयोंने एकाग्र मनसे भगवान् सूर्य तथा अन्यान्य देवताओंको बारम्बार मस्तक झुकाया । जैसे भगवान् श्रीशंकर पार्वती और कार्तिकेयके साथ | स्नान करके शोभा पाते हैं, उसी प्रकार सीता और लक्ष्मणके साथ नर्मदामें नहाकर श्रीरामचन्द्रजी भी सुशोभित हुए।