वसिष्ठजी कहते हैं-राजन्। भोजपुरमें उचथ्य नामक एक श्रेष्ठ मुनि थे। उनके कमलके समान नेत्रोंवाली एक कन्या थी, जिसका नाम सुवृत्ता था। वह माघमासमें प्रतिदिन सबेरे ही उठकर अपनी कुमारीसखियोंके साथ कावेरी नदीके पश्चिमगामी प्रवाहमें स्नान किया करती थी। स्नानके समय वह इस प्रकार प्रार्थना करती - 'देवि! तुम सह्यपर्वतकी घाटीसे निकलकर श्रीरंगक्षेत्रमें प्रवाहित होती हो। श्रीकावेरी ! तुम्हेंनमस्कार है। मेरे पापका नाश करो। मरुद्वृधे! तुम बड़ी सौभाग्यशालिनी हो। माघमासमें जो लोग तुम्हारे जलमें स्नान करते हैं, उनके बड़े-बड़े पापको हर लेती हो। माता! मुझे मंगल प्रदान करो। पश्चिमवाहिनी कावेरी मुझे पति, धन, पुत्र, सम्पूर्ण मनोरथ और पातिव्रत्य पालनकी शक्ति दो।' यों कहकर सुवृत्ता कावेरीको प्रणाम करती और जब कुछ कुछ सूर्यका उदय होने लगता, उसी समय वह नित्य स्नान किया करती थी। इस प्रकार उसने तीन वर्षोंतक माघस्नान किया। उसका उत्तम चरित्र तथा गृहकार्यमें चतुरता देखकर पिताका मन बड़ा प्रसन्न रहता था। वे सोचने लगे- अपनी कन्याका विवाह किससे करूँ ? इसी बीचमें कुत्स मुनिने अपने पुत्र ब्रह्मचारी वत्सका विवाह करनेके लिये उचथ्यकी सुमुखी कन्या सुवृत्ताका वरण करनेका विचार किया। सुवृत्ता बड़ी सुन्दरी थी। उसमें अनेक शुभ लक्षण थे। वह बाहर भीतरसे शुद्ध तथा नीरोग थी। उस समय उसकी कहीं तुलना नहीं श्री वत्स मुनिने उससे विवाह करनेकी अभिलाषा की। एक दिन सुवृत्ता अपनी तीन सखियोंके साथ माघस्नान करनेके लिये अरुणोदयके समय कावेरीके तटपर आयी। उसी समय एक भयानक जंगली हाथी पानीसे निकला। उसे देखकर सुवृत्ता आदि कन्याएँ भयसे व्याकुल होकर भागीं। हाथी भी बहुत दूरतक उनके पीछे-पीछे गया। चारों कन्याएँ वेगसे दौड़नेके कारण हॉफने लगीं और तिनकोंसे ढंके हुए एक बहुत बड़े जलशून्य कुएँ में गिर पड़ीं। कुएँ में गिरते ही उनके प्राण निकल गये। जब वे घर लौटकर नहीं आयीं, तब माता-पिता उनकी खोज करते हुए इधर-उधर भटकने लगे। उन्होंने वन-वनमें घूमकर झाड़ी-झाड़ी छान डाली। आगे जानेपर उन्हें एक गहरा कुआँ दिखायी दिया, जो तिनकोंसे ढँका होनेके कारण प्रायः दृष्टिमें नहीं आता था। उन्होंने देखा, वे कमललोचना कन्याएँ कुएँके भीतर निर्जीव होकर पड़ी है। उनकी माताएँ कन्याओंके पास चली गयीं और शोकग्रस्त हो बारंबार उन्हें छातीसे लगाकर 'विमले! कमले। सुवृत्ते! सुरसे।'आदि नाम ले-लेकर विलाप करने लगीं। कन्याओंकी माताएँ जब इस प्रकार जोर-जोरसे क्रन्दन कर रही थीं, उसी समय तपस्याके भण्डार, कान्तिमान्, धीर तथा जितेन्द्रिय, श्रीमान् मृगश्रृंग मुनि वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने मन ही मन एक उपाय सोचा और सोचकर उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- 'जबतक इन कमलनयनी कन्याओंको जीवित न कर दूँ, तबतक आपलोग इनके सुन्दर शरीरकी रक्षा करें।' यो कहकर मुनि परम पावन कावेरीके तटपर गये और कण्ठभर पानीमें खड़े हो, मुख एवं भुजाओंको ऊपर उठाये सूर्यदेवकी ओर देखते हुए मृत्यु देवताकी स्तुति करने लगे। इसी बीचमें एक समय वही हाथी पानीके भीतरसे उठा और उन ब्राह्मण मुनिको मारनेके लिये सूँड़ उठाये बड़े वेगसे उनके समीप आया। हाथीका क्रोध देखकर भी मुनिवर मृगभृंग जलसे विचलित नहीं हुए, अपितु, चित्रलिखित से चुपचाप खड़े रहे। पास आनेपर एक ही क्षणमें उस गजराजका क्रोध चला गया। वह बिलकुल शान्त हो गया। उसने मुनिको सूँड़से पकड़कर अपनी पीठपर बिठा लिया। मुनि उसके भावको समझ गये। उसके कंधे पर सुखपूर्वक बैठनेसे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ और जप समाप्त करके हाथमें जल ले 'मैंने आठ दिनोंके माघस्नानका पुण्य तुम्हें दे दिया।' यॉ कहकर उन्होंने शीघ्र ही वह जल हाथीके मस्तकपर छोड़ दिया। इससे गजराज पापरहित हो गया और मानो इस बातको स्वयं भी समझते हुए उसने प्रलयकालीन मेधके समान बड़े जोरसे गर्जना की उसकी इस गर्जनासे भी मुनिके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कृपापूर्वक उस गजराजकी ओर देखकर उसके ऊपर अपना हाथ फेरा। मुनिके हाथका स्पर्श होनेसे उसने हाथीका शरीर त्याग दिया और आकाशमें देवताकी भाँति दिव्यरूप धारण किये दृष्टिगोचर हुआ। उस रूपमें उसे देखकर मुनीश्वरको बड़ा विस्मय हुआ।
तब दिव्यरूपधारी उस जीवने कहा- मुनीश्वर ! मैं कृतार्थ हो गया, क्योंकि आपने मुझे अत्यन्त निन्दित एवं पापमयी पशुयोनिसे मुक्त कर दिया। दयानिधे!अब मैं अपना सारा वृत्तान्त बतलाता हूँ, सुनिये । पूर्वकालकी बात है, नैषध नगर में विश्वगुप्त नामसे प्रसिद्ध परम धर्मात्मा तथा स्वधर्मपालनमें तत्पर एक वैश्य रहते थे। मैं उन्हींका पुत्र था। मेरा नाम धर्मगुप्त था। स्वाध्याय, यजन, दान, सूद लेना, पशुपालन, गोरक्षा, खेती और व्यापार-यही सब मेरा काम था। द्विजश्रेष्ठ मैं [अनुचित] काम और दम्भसे सदा दूर ही रहा। सत्य बोलता और किसीकी निन्दा नहीं करता था इन्द्रियोंको काबू में रखकर अपनी स्त्रीसे ही अनुराग करता था और परायी स्त्रियोंके सम्पर्क से बचा रहता था। मुझमें राग, भय और क्रोध नहीं थे। लोभ और मत्सरको भी मैंने छोड़ रखा था। दान देता, यज्ञ करता, देवताओंके प्रति भक्ति रखता और गौओं तथा ब्राह्मणोंके हितमें संलग्न रहता था। सदा धर्म, अर्थ और कामका सेवन करता तथा व्यापारके काममें कभी किसीको धोखा नहीं देता था। ब्राह्मणलोग जब यज्ञ करते, उस समय उन्हें बिना माँगे ही धन देता था। समयपर श्राद्ध तथा सम्पूर्ण देवताओंका पूजन करता था अनेक प्रकारके सुगन्धित द्रव्य, बहुत-से पशु, दूध-दही, मट्टा, गोवर, घास, लकड़ी, फल, मूल, नमक, जायफल, पीपल, अन्न, सागके बीज, नाना प्रकारके वस्त्र, धातु, ईखके रससे तैयार होनेवाली वस्तुएँ और अनेक प्रकारके रस बेचा करता था। जो दूसरोंको देता था, वह तौलमें कम नहीं रहता था और जो औरोंसे लेता, वह अधिक नहीं होता था। जिन रसौके बेचनेसे पाप होता है, उनको छोड़कर अन्य रसोंको बेचा करता था। बेचनेमें छल-कपटसे काम नहीं लेता था जो मनुष्य साधु पुरुषोंको व्यापारमें ठगता है, वह घोर नरकमें पड़ता है तथा उसका धन भी नष्ट हो जाता है। मैं सब देवताओं, ब्राह्मणों तथा गौओंकी प्रतिदिन सेवा करता और पाखण्डी लोगोंसे दूर रहता था। ब्रह्मन् ! किसी भी प्राणीसे मन, वाणी और क्रियाद्वारा ईर्ष्या किये बिना ही जो जीविका चलायी जाती है, वही परम धर्म है। मैं ऐसी ही जीविकासे जीवन निर्वाह करता था। इस प्रकार धर्मके मार्गसे चलकर मैंने एक करोड़स्वर्णमुद्राओंका उपार्जन किया। मेरे एक ही पुत्र था जो सम्पूर्ण गुणोंमें श्रेष्ठ था। मैंने अपने सारे धनको दो भागों में बाँटकर आधा तो पुत्रको दे दिया और आधा अपने लिये रखा। अपने हिस्सेका धन लेकर पोखरा खुदवाया। नाना प्रकारके वृक्षोंसे युक्त बगीचा लगवाया। अनेक मण्डपोंसे सुशोभित देवमन्दिर बनवाया। मरुभूमिके मार्गों में पाँसले और कुएँ बनवाये तथा ठहरनेके लिये धर्मशालाएं तैयार करायीं। कन्यादान, गोदान और भूमिदान किये। तिल, चावल, गेहूँ और मूँग आदिका भी दान किया। उड़द, धान, तिल और घी आदिका दान तो मैंने बहुत बार किया।
तदनन्तर रसके चमत्कारोंका वर्णन करनेवाला कोई कापालिक मेरे पास आया और कौतूहल पैदा करनेके लिये कुछ करामात दिखाकर उसने मुझे अपने मायाजाल में फँसाकर ठग लिया। उसकी करतूतें देखकर उसके प्रति मेरा विश्वास बढ़ गया और रसवाद-चाँदी, सोना आदि बनानेके नामपर मेरा सारा धन बरबाद हो गया। उस कापालिकने मुझे भ्रममें डालकर बहुत दिनोंतक भटकाया। उसके लिये धन दे-देकर मैं दरिद्र हो गया। माघका महीना आया और मैंने दस दिनोंतक सूर्योदयके समय महानदीमें स्नान किया; किन्तु बुढ़ापेके कारण इससे अधिक समयतक मैं स्नानका नियम चलानेमें असमर्थ हो गया। इसी बीचमें मेरा पुत्र देशान्तरमें चला गया। घोड़े मर गये। खेती नष्ट हो गयी और बेटेने वेश्या रख ली। फिर भी भाई-बन्धु यह सोचकर कि यह बेचारा बूढ़ा, धर्मात्मा और पुण्यवान् है, धर्मके ही उद्देश्यसे मुझे कुछ सूखा अन्न और भात दे दिया करते थे। अब मैं अपना धर्म बेचकर कुटुम्बका पालन-पोषण करने लगा, केवल माघस्नानके फलको नहीं बेच सका। एक दिन जिझकी लोलुपताके कारण दूसरेके घरपर खूब गलेतक दूंसकर मिठाई खा ली। इससे अजीर्ण हो गया। अजीर्णसे अतिसारकी बीमारी हुई और उससे मेरी मृत्यु हो गयी। केवल माघस्नानके प्रभावसे मैं एक मन्वन्तरतक स्वर्गमें देवराज इन्द्रके पास रहा और पुण्यकी समाप्ति हो जानेपर हाथीकी योनिमें उत्पन्न हुआ।जो लोग धर्म बेचते हैं, वे हाथी ही होते हैं। विप्रवर!
इस समय आपने हाथीकी योनिसे भी मेरा उद्धार कर दिया। मुझे स्वर्गकी प्राप्ति होनेके लिये आपने पुण्यदान
किया है। मुनीश्वर मैं कृतार्थ हो गया। आपको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है।
यों कहकर वह स्वर्गको चला गया। सच है, सत्पुरुषोंका संग उत्तम गति प्रदान करनेवाला होता है। इस प्रकार महानुभाव मृगशृंग वैश्यको हाथीकी योनिसे मुक्त करके स्वयं गलेतक पानीमें खड़े हो सूर्यनन्दन यमराजकी स्तुति करने लगे
ॐ यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दघ्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त- इन चौदह नामोंसे पुकारे जानेवाले भगवान् यमराजको नमस्कार है।
जिनका मुख दाढ़ोंके कारण विकराल प्रतीत होता है और टेढ़ी भौहोंसे युक्त आँखें क्रूरतापूर्ण जान पड़ती हैं, जिनके शरीरमें ऊपरकी ओर उठे हुए बड़े बड़े रोम हैं तथा ओठ भी बहुत लम्बे दिखायी देते हैं, ऐसे आप यमराजको नमस्कार है।
आपके अनेक भुजाएँ हैं, अनन्त नख हैं तथा कज्जलगिरिके समान काला शरीर और भयंकर रूप है। आपको नमस्कार है।
भगवन्! आपका वेष बड़ा भयानक है। आप पापियोंको भय देते, कालदण्डसे धमकाते और सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र धारण करते हैं। बहुत बड़ा भैंसा आपका वाहन हैं। आपके नेत्र दहकते हुए अँगारॉके समान जान पड़ते हैं। आप महान् हैं। मेरु पर्वतके समान आपका विशाल रूप है। आप लाल माला और वस्त्र धारण करते हैं। आपको नमस्कार है।
कल्पान्तके मेघोंकी भाँति जिनकी गम्भीर गर्जना और प्रलयकालीन वायुके समान प्रचण्ड वेग है, जो समुद्रको भी पी जाते, सम्पूर्ण जगत्को ग्रास बना लेते, पर्वतोंको भी चबा जाते और मुखसे आग उगलते हैं, उन भगवान् यमराजको नमस्कार है।भगवन्! अत्यन्त घोर और अग्निके समान तेजस्वी कालरूप मृत्यु तथा बहुत से रोग आपके पास सेवामें उपस्थित रहते हैं। आपको नमस्कार है।
आप भयानक मारी और अत्यन्त भयंकर महामारीके साथ रहते हैं। पापिष्ठोंके लिये आपका ऐसा ही स्वरूप है। आपको बारंबार नमस्कार है।
वास्तवमें तो आपका मुख खिले हुए कमलके समान प्रसन्नता पूर्ण है। आपके नेत्रोंमें करुणा भरी है। आप पितृस्वरूप हैं। आपको नमस्कार है। आपके केश अत्यन्त कोमल हैं और नेत्र भौहोंकी रेखासे सुशोभित हैं। मुखके ऊपर मूँछें बड़ी सुन्दर जान पड़ती हैं। पके हुए बिम्बफलके समान लाल ओठ आपकी शोभा बढ़ाते हैं। आप दो भुजाओंसे युक्त, सुवर्णके समान कान्तिमान् और सदा प्रसन्न रहनेवाले हैं। आपको नमस्कार है।
आप सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित, रत्नमय सिंहासनपर विराजमान, श्वेत माला और श्वेत वस्त्र धारण करनेवाले तथा श्वेत छत्रसे सुशोभित हैं आपके दोनों ओर दो दिव्य नारियाँ खड़ी होकर हाथोंमें सुन्दर चँवर लिये डुला रही हैं। आपको नमस्कार है।
गलेके रत्नमय हारसे आप बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं। रत्नमय कुण्डल आपके कानोंकी शोभा बढ़ाते हैं। आपके हार और भुजबंद भी रत्नके ही हैं तथा आपके किरीटमें नाना प्रकारके रत्न जड़े हुए हैं। आपकी कृपादृष्टि सीमाका अतिक्रमण कर जाती है। आप मित्रभावसे सबको देखते हैं। सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ आपको समृद्धिशाली बनाती हैं। आप सौभाग्यके परम आश्रय हैं तथा धर्म और अधर्मके ज्ञानमें निपुण सभासद् आपकी उपासना करते हैं। आपको नमस्कार है।
संयमनीपुरीकी सभा में शुभ्र रूपवाले धर्म, शुभ लक्षण सत्य, चन्द्रमाके समान मनोहर रूपधारी शम, दूधके समान उज्ज्वल दम तथा वर्णाश्रमजनित विशुद्ध आचार आपके पास मूर्तिमान् होकर सेवामें उपस्थित रहते हैं; आपको नमस्कार है।
आप साधुओंपर सदा स्नेह रखते, वाणीसे उनमें प्राणका संचार करते, वचनोंसे सन्तोष देते और गुणोंसेउन्हें सर्वस्व समर्पण करते हैं। सज्जन पुरुषोंपर सदा
सन्तुष्ट रहनेवाले आप धर्मराजको बारंबार नमस्कार है। जो सबके काल होते हुए भी शुभकर्म करनेवाले पुरुषोंपर कृपा करते हैं, जो पुण्यात्माओंके हितैषी, सत्पुरुषोंके संगी, संयमनीपुरीके स्वामी धर्मात्मा तथा धर्मका अनुष्ठान करनेवालोंके प्रिय हैं, उन धर्मराजको नमस्कार है।
जिसकी पीठपर लटके हुए घण्टोंकी ध्वनिसे सारी दिशाएँ गूंज उठती हैं तथा जो ऊँचे-ऊँचे सोगों और फुंकारोंके कारण अत्यन्त भीषण प्रतीत होता है, ऐसे महान् भैंसेपर जो विराजमान रहते हैं तथा जिनकी आठ बड़ी-बड़ी भुजाएँ क्रमशः नाराय, शक्ति, मुसल, खड्ग, गदा, त्रिशूल, पाश और अंकुशसे सुशोभित हैं, उन भगवान् यमराजको प्रणाम है।
जो चौदह सत्पुरुषोंके साथ बैठकर जीवोंके शुभाशुभकर्मीका भलीभाँति विचार करते हैं, साक्षियों द्वारा अनुमोदन कराकर उन्हें दण्ड देते हैं तथा सम्पूर्ण विश्वको शान्त रखते हैं, उन दक्षिण दिशाके स्वामी शान्तस्वरूप यमराजको नमस्कार है।
जो कल्याणस्वरूप, भयहारी, शौच संतोष आदि नियमोंमें स्थित मनुष्योंके नेत्रोंको प्रिय लगनेवाले सावर्णि, शनैश्वर और वैवस्वत मनु-इन तीनोंकी माताके सौतेले पुत्र विवस्वान (सूर्यदेव) के आत्म तथा सदाचारी मनुष्यों को कर देनेवाले हैं, उन भगवान् यमको नमस्कार है।
भगवन् जब आपके दूत पापी जीवोंको दृढ़ता पूर्वक अधिकर आपके सामने उपस्थित करते हैं, तब आप उन्हें यह आदेश देते हैं कि 'इन पापियोंको अनेक घोर नरकोंमें गिराकर छेद डालो, टुकड़े-टुकड़े कर दो, जला दो, सुखा डालो, पीस दो।' इस प्रकारकी बातें कहते हुए यमुनाजीके ज्येष्ठ भ्राता आप यमराजको मेरा प्रणाम है।
जब आप अन्तकरूप धारण करते हैं, उस समय आपके गोलाकार नेत्र किनारे-किनारेसे लाल दिखायी देते हैं। आप भीमरूप होकर भय प्रदान करते हैं। टेढ़ीभौंहोंके कारण आपका मुख वक्र जान पड़ता है। आपके शरीरका रंग उस समय नीला हो जाता है तथा आप अपने निर्दयी दूतोंके द्वारा शास्त्रोक्त नियमोंका उल्लंघन करनेवाले पापियोंको खूब कड़ाईके साथ धमकाते हैं। आपको सर्वदा नमस्कार है।
जिन्होंने पंचमहायज्ञोंका अनुष्ठान किया है तथा जो सदा ही अपने कर्मोंके पालनमें संलग्न रहे हैं, ऐसे लोगोंको दूरसे ही विमानपर आते देख आप दोनों हाथ जोड़े आगे बढ़कर उनका स्वागत करते हैं। आपके नेत्र कमलके समान विशाल हैं तथा आप माता संज्ञाके सुयोग्य पुत्र हैं आपको मेरा प्रणाम है।
जो सम्पूर्ण विश्वसे उत्कृष्ट, निर्मल, विद्वान्, जगत्के पालक, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवके प्रिय, सबके शुभाशुभकर्मोंके उत्तम साक्षी तथा समस्त संसारको शरण देनेवाले हैं, उन भगवान् यमको नमस्कार हैं।
वसिष्ठजी कहते हैं- इस प्रकार स्तुति करके मृगश्रृंगने उदारता और करुणाके भण्डार तथा दक्षिण दिशा के स्वामी भगवान् यमका ध्यान करते हुए उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इससे भगवान् यमको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे महान् तेजस्वी रूप धारण किये मुनिके सामने प्रकट हुए। उस समय उनका मुखकमल प्रसन्नतासे खिला हुआ था और किरीट, हार, केयूर तथा मणिमय कुण्डल धारण करनेवाले अनेक सेवक चारों ओरसे उनकी सेवायें उपस्थित थे।
यमराजने कहा- मुने! मैं तुम्हारे इस स्तोत्रसे बहुत सन्तुष्ट हूँ और तुम्हें वर देनेके लिये यहाँ आया हूँ तुम मुझसे मनोवांछित वर माँगो मैं तुम्हें अभीष्ट वस्तु प्रदान करूँगा ।
उनकी बात सुनकर मुनीश्वर मृगशृंग उठकर खड़े हो गये। नमराजको सामने उपस्थित देख उन्हें बड़ा विस्मय हुआ उनके नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे। कृतान्तको पाकर उन्होंने अपनेको सफलमनोरथ समझा और हाथ जोड़कर कहा-'भगवन्! इन कन्याओंको प्राणदान दीजिये। मैं आपसे बारम्बार यही याचना करता हूँ।' मुनिका कथन सुनकर धर्मराजने अदृश्यरूपसे उनब्राह्मण- कन्याओंको उनके शरीरमें भेज दिया। फिर तो सोकर उठे हुएकी भाँति वे कन्याएँ उठ खड़ी हुईं। अपनी बालिकाओंको सचेत होते देख माताओंको बड़ा हर्ष हुआ। कन्याएँ पहलेकी ही भाँति अपना अपना वस्त्र पहनकर माताओंको बुला उनके साथ अपने घर गयीं।
वसिष्ठजी कहते हैं- इस प्रकार विप्रवर मृगशृंगको वरदान दे यम देवता अपने पार्षदोंके साथअन्तर्धान हो गये। इधर ब्राह्मण भी यमराजसे वर पाकर बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने आश्रमको लौटे। जो मानव प्रतिदिन यमराजकी इस स्तुतिका पाठ करेगा, उसे कभी यम यातना नहीं भोगनी पड़ेगी, उसके ऊपर यमराज प्रसन्न होंगे, उसकी सन्ततिका कभी अपमृत्युसे पराभव न होगा, उसे इस लोक और परलोकमें भी लक्ष्मीकी प्राप्ति होगी तथा उसे कभी रोगोंका शिकार नहीं होना पड़ेगा।