राजा दिलीप बोले- मुने! मेरे प्रश्नोंके उत्तरमें आपने बड़ी विचित्र बात सुनायी। अब संसारके हितके लिये महात्मा मृगंग शेष चरित्रका वर्णन कीजिये: क्योंकि उनके समान संतपुरुष स्पर्श, बातचीत और दर्शन करनेसे तथा शरणमें जानेसे सारे पापका नाश कर डालते हैं।
वसिष्ठजी कहते हैं- राजन् ! ब्रह्मचारी मृगशृंगने गुरुकुलमें रहकर सम्पूर्ण वेदों और दर्शनोंका यथावत् अध्ययन किया। फिर गुरुकी बतायी हुई दक्षिणा दे, समावर्तनको विधि पूरी करके शुद्ध चित्त होनेपर उन्हें गुरुने घर जानेकी आज्ञा दी। घर आनेपर कुत्स मुनिके उस पुत्रको उचथ्यने अपनी पुत्री देनेका विचार कियातथा मुनीश्वर मृगश्रृंगने भी पहले जिसे मन-ही-मन वरण किया था, उस उचथ्य-पुत्री सुवृत्ताके साथ विवाह करनेकी इच्छा की। इसके बाद उन्होंने महर्षि वेदव्यासजीकी आज्ञासे सुवृत्ता तथा उसकी तीनों सखियों-कमला, विमला और सुरसाका पाणिग्रहण किया।
श्रुति कहती है- 'ब्राह्मणोंके लिये ब्राह्म विवाह सबसे उत्तम है।' इसलिये मुनिने उन चारों कन्याओंको ब्राह्म विवाहकी ही रीतिसे ग्रहण किया। इस प्रकार विवाह हो जानेपर मुनिवर वत्सने समस्त ऋषियोंको मस्तक झुकाया तथा वे मुनीश्वर भी वर-वधूको आशीर्वाद दे उनसे पूछकर अपनी-अपनी कुटीमें चले गये
राजा दिलीपने पूछा- गुरुदेव वसिष्ठजी ! चारोंवर्णोंके विवाह कितने प्रकारके माने गये हैं? यह बात यदि गोपनीय न हो तो मुझे भी बताइये। वसिष्ठजी बोले - राजन्! सुनो, मैं क्रमश: तुमसे सभी विवाहका वर्णन करता हूँ। विवाह आठ प्रकार के हैं- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच। जहाँ वरको बुलाकर वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित कन्याका [विधिपूर्वक] दान किया जाता है, वह ब्राह्म विवाह कहलाता है। ऐसे विवाहसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करता है। यज्ञ करनेके लिये ऋषिको जो कन्या दी जाती है, वह दैव विवाह है। उससे उत्पन्न होनेवाला पुत्र चौदह पीढ़ियोंका उद्धार करता है। वरसे दो बैल लेकर जो कन्याका दान किया जाता है, वह आर्ष विवाह है। उससे उत्पन्न हुआ पुत्र छः पीढ़ियोंका उद्धार करता है। 'दोनों एक साथ रहकर धर्मका आचरण करें' यों कहकर जो किसी माँगनेवाले पुरुषको कन्या दी जाती है, वह प्राजापत्य विवाह कहलाता है। उससे उत्पन्न हुआ पुत्र भी छः पीढ़ियोंका उद्धार करता है। ये चार विवाह ब्राह्मणोंके लिये धर्मानुकूल माने गये हैं जहाँ धनसे कन्याको खरीदकर विवाह किया जाता है, वह आसुर विवाह है। वर और कन्यामें परस्पर मैत्रीके कारण जो विवाह सम्बन्ध स्थापित होता है, उसका नाम गान्धर्व है। बलपूर्वक कन्याको हर लाना राक्षस विवाह है। सत्पुरुषोंने इसकी निन्दा की है। छलपूर्वक कन्याका अपहरण करके किये जानेवाले विवाहको पैशाच कहते हैं। यह बहुत ही घृणित है। समान वर्णकी कन्याओंके साथ विवाहकालमें उनका हाथ अपने हाथमें लेना चाहिये, यही विधि है। धर्मानुकूल विवाहोंसे सौ वर्षतक जीवित रहनेवाली धार्मिक सन्तान उत्पन्न होती है तथा अधर्ममय विवाहों से जिनकी उत्पत्ति होती है, वे भाग्यहीन, निर्धन और थोड़ी आयुवाले होते हैं; अतः ब्राह्मणोंके लिये ब्राह्म विवाह ही श्रेष्ठ है।
इस प्रकार मुनीश्वर मृगशृंग विधिपूर्वक विवाह करके वेदोक्त मार्गसे भलीभाँति गार्हस्थ्य-धर्मका पालन करने लगे। उनकी गृहस्थीके समान दूसरे किसीकी गृहस्थी न कभी हुई है, न होगी। सुवृत्ता, कमला, विमला और सुरसा - ये चारों पत्नियाँ पातिव्रत्य धर्ममेंतत्पर हो सदा पतिकी सेवामें लगी रहती थीं। उनके सतीत्वकी कहीं तुलना नहीं थी। इस प्रकार वे धर्मात्मा मुनि उन धर्मपत्नियोंके साथ रहकर भलीभाँति धर्मका अनुष्ठान करने लगे।
राजा दिलीपने पूछा- मुनिवर ! पतिव्रताका क्या लक्षण है? तथा गृहस्थ आश्रमका भी क्या लक्षण है ? मैं इस बातको जानना चाहता हूँ। कृपया बताइये।
वसिष्ठजी बोले- राजन्! सुनो, मैं गृहस्थाश्रमका लक्षण बतलाता हूँ। सदाचारका पालन करनेवाला पुरुष दोनों लोक जीत लेता है। ब्राह्म मुहूर्तमें शयनसे उठकर पहले धर्म और अर्थका चिन्तन करे। फिर अर्थोपार्जनमें होनेवाले शारीरिक क्लेशपर विचार करके मन-ही-मन परमेश्वरका स्मरण करे। धनुषसे छूटनेपर एक बाण जितनी दूततक जाता है, उतनी दूरकी भूमि लाँघकर घरसे दूर नैर्ऋत्य कोणकी ओर जाय और वहाँ मल
मूत्रका त्याग करे। दिनको और सन्ध्याके समय कानपर जनेऊ चढ़ाकर उत्तरकी ओर मुँह करके शौचके लिये बैठना चाहिये और रात्रिमें दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करके मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। मलत्यागके समय भूमिको तिनकेसे ढँक दे और अपने मस्तकपर वस्त्र डालकर यत्नपूर्वक मौन रहे। न तो थूके और न ऊपरको साँस ही खींचे। शौचके स्थानपर अधिक देरतक न रुके। मलकी ओर दृष्टिपात न करे। अपने शिश्नको हाथसे पकड़े हुए उठे और अन्यत्र जाकर आलस्यरहित हो गुदा और लिंगको अच्छी तरह धो डाले। किनारेकी मिट्टी लेकर उससे इस प्रकार अंगोंकी शुद्धि करे, जिससे मलकी दुर्गन्ध और लेप दूर हो जाय। किसी पवित्र तीर्थमें शौचकी क्रिया (गुदा आदि धोना) न करे; यदि करना हो तो किसी पात्रमें जल निकालकर उससे अलग जाकर शौच कर्म करे। लिंगमें एक बार, गुदामें पाँच बार तथा बायें हाथमें दस बार मिट्टी लगाये। दोनों पैरोंमें पाँच-पाँच बार मिट्टी लगाकर धोये। इस प्रकार शौच करके मिट्टी और जलसे हाथ-पैर धोकर चोटी बांध ले और दो बार आचमन करे। आचमनके समय हाथ घुटनोंके भीतर होना चाहिये। पवित्र स्थानमें उत्तर या पूरबकी ओर मुँह करके हाथमें पवित्री धारण किये आचमन करनाचाहिये। इससे पवित्री जूठी नहीं होती। यदि पवित्री पहने हुए ही भोजन कर ले तो वह अवश्य जूठी हो जाती है। उसको त्याग देना चाहिये।
तदनन्तर उठकर दोनों नेत्र धो डाले और दन्तधावन (दातुन) करे। उस समय निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये
आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः शुचि
ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते
(233 । 17)
'वनस्पते! आप हमें आयु, बल, यश, तेज, सन्तान, पशु, धन, वेदाध्ययनकी बुद्धि तथा धारणाशक्ति प्रदान करें।'
इस मन्त्रका पाठ करके दातुन करे। दातुन काँटेदार या दूधवाले वृक्षकी होनी चाहिये। उसकी लंबाई बारह अंगुलकी हो और उसमें कोई छेद न हो। मोटाई भी कनिष्ठिका अँगुलीके बराबर होनी चाहिये। रविवार को दातुन निषिद्ध है, उस दिन बारह कुल्ललोंसे मुखकी शुद्धि होती है। तत्पश्चात् आचमन करके शुद्ध हो विधिपूर्वक प्रातः स्नान करे। स्नानके बाद देवता और पितरोंका तर्पण करे। फिर उठकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे। विज्ञ ब्राह्मणको उत्तरीय वस्त्र (चादर) सदा ही धारण किये रहना चाहिये। आचमनके बाद भस्मके द्वारा ललाटमें त्रिपुण्ड्र धारण करे अथवा गोपीचन्दन घिसकर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक लगाये। तदनन्तर सन्ध्या-वन्दन आरम्भ करके प्राणायाम करे । 'आपो हि ष्ठा0' आदि तीन ऋचाओंसे कुशोदकद्वारा मार्जन करे। पूर्वोक्त ऋचाओं में से एक एकका प्रणवसहित उच्चारण करके जल सींचे। फिर 'सूर्यश्च0' इत्यादि मन्त्रके द्वारा अभिमन्त्रित जलका आचमन करे। तत्पश्चात् दोनों हाथोंमें जल लेकर उसे गायत्रीसे अभिमन्त्रित करे और सूर्यकी ओर मुँह करके खड़ा हो तीन बार ऊपरको वह जल फेंके। इस प्रकार सूर्यको अर्घ्यदान करना चाहिये। प्रातः कालकी सध्या जब तारे दिखायी देते हो, उसी समय विधिपूर्वक आरम्भ करे और जबतक सूर्यका दर्शन न हो जाय, तबतक गायत्री मन्त्रका जप करता रहे। इसके बाद सविता देवता सम्बन्धी पापहारी मन्त्रद्वारा हाथ जोड़कर सूर्योपस्थान करे। सन्ध्याकालमें गुरुके चरणोंको तथाभूमिदेवीको प्रणाम करे जो द्विज श्रद्धा और विधिके साथ प्रतिदिन सन्ध्योपासन करता है, उसे तीनों लोकों में कुछ भी अप्राप्य नहीं । सन्ध्या समाप्त होनेपर आलस्य छोड़कर होम करे कोई भी दिन खाली न जाने दे। प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करे।
यह दिनके प्रथम भागका कृत्य बतलाया गया। दूसरे भागमें वेदोंका स्वाध्याय किया जाता है। समिधा, फूल और कुश आदिके संग्रहका भी यही समय है। दिनके तीसरे भागमें न्यायपूर्वक कुछ धनका उपार्जन करे। शरीरको क्लेश दिये बिना दैवेच्छासे जो उपलब्ध हो सके, उतनेका ही अर्जन करे। ब्राह्मणके छः कर्मोंमेंसे तीन कर्म उसकी जीविकाके साधन हैं। यज्ञ कराना, वेद पढ़ाना और शुद्ध आचरणवाले यजमानसे दान लेना ये ही उसकी आजीविकाके तीन कर्म हैं। दिनके चौथे भागमें पुनः स्नान करे। [ प्रातःकाल सन्ध्या-वन्दनके पश्चात्] कुशके आसनपर बैठे और दोनों हाथोंमें कुश ले अंजलि बाँधकर ब्रह्मयज्ञकी पूर्तिके लिये यथाशक्ति स्वाध्याय करे। उस समय ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेदके मन्त्रोंका जप करना चाहिये। फिर देवता, ऋषि और पितरोंका तर्पण करे। देवताओंका तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको बायें कंधेपर रखे, ऋषि तर्पणके समय उसे गलेमें मालाकी भाँति कर ले और पितृ तर्पणमें जनेऊको दायें कंधेपर रखे। उन्हें क्रमशः देवतीर्थ, प्रजापतितीर्थ और पितृतीर्थसे ही जल देना चाहिये। इसके बाद सम्पूर्ण भूतोंको जल दे। [मध्याहनकालमें] 'आपो हि ष्ठा0' इस मन्त्रसे अपने मस्तकको सींचकर 'आपः पुनन्तु' इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित किये हुए जलका आचमन करे। तत्पश्चात् दोनों हाथोंसे जल लेकर गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए सूर्यको एक बार अर्घ्य दे। उसके बाद गायत्रीका जप करे। गायत्री मन्त्रद्वारा यथाशक्ति सूर्यका उपस्थान करके उनकी प्रदक्षिणा और नमस्कारके पश्चात् आसनपर बैठे और जलके देवताओंको नमस्कार करके एकाग्रचित्त हो घरको जाय।
इस प्रकार जप यज्ञके अनन्तर देवताओंकी पूजा करे। ब्राह्मणको सूर्य, दुर्गा, श्रीविष्णु, गणेश तथा शिव-इन पाँच देवताओंको पूजा करनी चाहिये।उसके बाद पंचमहायज्ञोंका अनुष्ठान करे। फिर भूतबलि, काकबलि और कुक्कुरबलि आदि देते हुए निम्नांकित मन्त्रका पाठ करे
देवा पशवो मनुष्याः सिद्धाश्च
वयांसि यक्षोरगदैत्यसहाः प्रेताः
पिशाचा समस्ता मयात्र उरगाः ये
चान्नमिच्छन्ति दत्तम् ॥ (233 | 43)
'देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, नाग, दैत्य, प्रेत, पिशाच और सब प्रकारके सर्प जो मुझसे अन्न लेनेकी इच्छा रखते हों, वे यहाँ आकर मेरे दिये हुए अन्नको ग्रहण करें।'
यों कहकर सब प्राणियोंके लिये पृथक् पृथक् बलि दे। तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके प्रसन्नचित्त होकर द्वारपर बैठे और बड़ी श्रद्धाके साथ किसी अतिथिके आनेकी प्रतीक्षा करे। गोदोहनकालतक प्रतीक्षा करनेके बाद यदि भाग्यवश कोई अतिथि आ जाय तो यथाशक्ति अन्न और जल देकर देवताकी भाँति उसकी भक्तिपूर्वक पूजा करे। संन्यासी और ब्रह्मचारीको विधिपूर्वक सब व्यंजनोंसे युक्त रसोईमेंसे, जो अभी उपयोगमें न लायी गयी हो, अन्न निकालकर भिक्षा दे। संन्यासी और ब्रह्मचारी ये दोनों ही बनी हुई रसोईके स्वामी - प्रधान अधिकारी हैं। संन्यासीके हाथमें पहले जल दे, फिर अन्न दे; उसके बाद पुनः जल दे। ऐसा करनेसे वह भिक्षाका अन्न मेरुके समान और जल समुद्रके तुल्य फल देनेवाला होता है। जो मनुष्य संन्यासीको सत्कारपूर्वक भिक्षा देता है, उसे गोदानके समान पुण्य होता है-ऐसा भगवान् यमका कथन है। माता, पिता, गुरु, बन्धु, गर्भिणी स्त्री, वृद्ध, बालक और आये हुए अतिथि जब भोजन कर लें, उसके बाद घरका मालिक गृहस्थ पुरुष लिये पुते पवित्र स्थानमें हाथ-पैर धोकर बैठे और पूर्वाभिमुख होकर भोजन करे। भोजन करते समय वाणीको संयममें रखकर मौन रहे। दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख-इन पाँचोंको धोकर ही भोजन करना चाहिये। भोजनका पात्र उत्तम और शुद्ध होना चाहिये। अन्नकी निन्दा न करते हुए भोजन करना उचित है। एक वस्त्र धारण करके अथवा फूटे हुए पात्रमें भोजन न करे। जो शुद्ध काँसेके बरतन में अकेला ही भोजन करता है, उसकी आयु, बुद्धि, यश और बल इन चारोंकी वृद्धि होती है। घी, अन्न तथा सभी प्रकारके व्यंजन करछुलसे ही परोसने चाहिये हाथसे नहीं। भोजनमें से पहले कुछ अन्न निकालकर धर्मराज तथा चित्रगुप्तको बलि दे फिर सम्पूर्ण भूतोंके लिये अन्न देते हुए इस मन्त्रका उच्चारण करे
यत्र क्वचनसंस्थानां क्षुत्तृष्णोपहतात्मनाम् ।
भूतानां तृप्तयेऽक्षय्यमिदमस्तु यथासुखम् ॥
(233 | 56)
'जहाँ कहीं भी रहकर भूख-प्याससे पीड़ित हुए प्राणियोंकी तृप्तिके लिये यह अन्न और जल प्रस्तुत है;
यह उनके लिये सुखपूर्वक अक्षय तृप्तिका साधन हो।' भोजनमें मन लगाकर पहले मधुर रस ग्रहण करे, बीचमें नमकीन और खट्टी वस्तुएँ खाय। उसके बाद कड़वे और तिक्त पदार्थोंको ग्रहण करे। पहले रसदार चीजें खाय, बीचमै गरिष्ठ अन्न भोजन करे और अन्तमें पुनः द्रव पदार्थ ग्रहण करे। इससे मनुष्य कभी बल और आरोग्यसे हीन नहीं होता। संन्यासीको आठ ग्रास, वनवासीको सोलह ग्रास और गृहस्थको बत्तीस ग्रास भोजन करने चाहिये ब्रह्मचारीके लिये ग्रासोंको कोई नियत संख्या नहीं है। द्विजको उचित है कि वह शास्त्र विरुद्ध भक्ष्यभोज्यादि पदार्थोंका सेवन न करे। सूखे और बासी अन्नको भोजन करनेके योग्य नहीं बतलाया गया है। भोजनके पश्चात् शास्त्रोक्त विधिसे आचमन करके एकाग्रचित्त हो हाथ और मुँहकी शुद्धि करे। मिट्टी और जलसे खूब मल-मलकर धोये। तदनन्तर कुल्ला करके दाँतोंके भीतरी भागका उनकी सन्धियोंका [तिनके आदिकी सहायतासे] शोधन करे। फिर आचमन करके पात्रको हटा दे और कुछ भीगे हुए हाथसे मुख तथा नासिकाका स्पर्श करे। हथेलीसे नाभिका स्पर्श करे। तत्पश्चात् शुद्ध एवं शान्तचित्त होकर आसनपर बैठे और अपने इष्टदेवका स्मरण करे। उसके बाद पुनः आचमन करके ताम्बूल भक्षण करे। भोजन करके बैठा हुआ पुरुष विश्रामके बाद कुछ देरतक ब्रह्मका चिन्तन करे। दिनके छठे और सातवें भागको सन्मार्ग आदिके अविरुद्ध उत्तम शास्त्र आदिके द्वारा मनोरंजनऔर इतिहास पुराणों का पाठ करके व्यतीत करे आठवें 1 भागमें जीविकाके कार्यमें संलग्न रहे। उसके बाद पुनः बाह्य सन्ध्या- सायं सन्ध्याका समय हो जाता है।
जब सूर्य अस्ताचलके शिखर पर पहुँच जायें तब हाथ-पैर धोकर हाथमें कुश ले एकाग्रचित्त हो सायंकालीन सन्ध्योपासना करे सूर्यके रहते-रहते ही पश्चिम सन्ध्या प्रारम्भ करे। उस समय सूर्यका आधा 1 मण्डल ही अस्त होना चाहिये। प्राणायाम करके जल- देवता-सम्बन्धी मन्त्रोंसे मार्जन करे। सायंकालमें 'अग्निश्च मा मन्युश्च0' इत्यादि मन्त्रके द्वारा और सबेरे 'सूर्यश्च मा मन्युश्च0' इत्यादि मन्त्रके द्वारा आचमन करे। सायंसन्ध्या पश्चिमाभिमुख बैठकर मौन तथा एकाग्रचित्त हो रुद्राक्षकी माला से तारोंके उदय होनेतक प्रणव और व्याहृतियाँसहित गायत्री मन्त्रका जप करे फिर वरुण देवतासम्बन्धिनी ऋचाओंसे सूर्योपस्थान करके प्रदक्षिणा करते हुए प्रत्येक दिशा और दिक्पालको पृथक् पृथक् नमस्कार करे। इस प्रकार सायंकालकी सन्ध्योपासना करके अग्निहोत्र करनेके पश्चात् कुटुम्बके अन्य लोगोंके साथ भोजन करे। भोजनकी मात्रा अधिक नहीं होनी चाहिये। भोजनके कुछ काल बाद शयन करे। सायंकाल और प्रातः कालमें भी बलिवैश्वदेव करना चाहिये। स्वयं भोजन न करना हो तो भी बलिवैश्वदेवका अनुष्ठान सदा ही करे; अन्यथा पापका भागी होना पड़ता है। यदि घरपर कोई अतिथि आ जाय तो गृहस्थ पुरुष अपनी शक्तिके अनुसार उसका यथोचित सत्कार करे।रातमें भोजनके पश्चात् हाथ-पैर आदि धोकर गृहस्थ मनुष्य कोमल शय्यापर सोनेके लिये जाय। शय्यापर तकियेका होना आवश्यक है। अपने घरमें सोना हो तो पूर्व दिशाकी ओर सिरहाना करे और ससुरालमें सोना हो तो दक्षिण दिशाकी ओर। परदेशमें गया हुआ मनुष्य पश्चिम दिशाकी ओर सिर करके सोये। उत्तरकी ओर सिरहाना करके कभी नहीं सोना चाहिये। सोनेके पहले रात्रिसूक्तका जप और सुखपूर्वक शयन करनेवाले देवताओंका स्मरण करे। फिर एकाग्रचित्त होकर अविनाशी भगवान् विष्णुको नमस्कार करके रात्रिमें शयन करे। अगस्त्य, माधव, महाबली मुचुकुन्द, कपिल तथा आस्तीक मुनि-ये पाँचों सुखपूर्वक शयन करनेवाले हैं। मांगलिक वस्तुओंसे भरे हुए जलपूर्ण कलशको सिरहानेकी ओर रखकर वरुण देवता-सम्बन्धी वैदिक मन्त्रोंसे अपनी रक्षा करके सोये ऋतुकालमें पत्नीके साथ समागम करे। सदा अपनी स्त्रीसे ही अनुराग रखे। पत्नीके स्वीकार करनेपर रतिकी इच्छासे उसके पास जाय। पर्वके दिन उसका स्पर्श न करे। रात्रिके पहले और पिछले प्रहरको वेदाभ्यासमें व्यतीत करे और बीचके दोनों प्रहरोंमें शयन करे। ऐसा करनेवाला पुरुष ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। ऊपर जो कुछ बतलाया गया, वह सारा कर्म गृहस्थको प्रतिदिन करना चाहिये। यही गृहस्थाश्रमका लक्षण है। सम्पूर्ण वेदोक्त सदाचारसे युक्त यह गृहस्थ आश्रमका लक्षण मैंने तुम्हें संक्षेपसे बताया है। अब पतिव्रताओंके लक्षण सुनो।