वसिष्ठजी कहते हैं—इस प्रकार गृहस्थाश्रममे निवास करते हुए महामुनि मृगभृंगको पत्नी सुवृत्ताने समयानुसार एक पुत्रको जन्म दिया। इसके द्वारा पितृ ऋणसे छुटकारा पाकर मुनिश्रेष्ठ मृगभृंगने अपनेको कृतार्थ माना और विधिपूर्वक नवजात शिशुका जातकर्म संस्कार किया। वे परम बुद्धिमान् मुनि तीनों कालकी बातें जानते थे; अत: उन्होंने पुत्रके भावी कर्मके अनुसार उसका मृकण्डु नाम रखा। उसके शरीरमें मृगगण निर्भय होकर कण्डूयन करते थे- अपना शरीर खुजलाते या रगड़ते थे। इसीलिये पिताने उसका नाम मृकण्डु रख दिया। मृकण्डु मुनि उत्तम कुलमें उत्पन्न होकर समस्त गुणोंके भंडार बन गये थे। उनका शरीर प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी था। पिताके द्वारा उपनयन संस्कार हो जानेपर वे ब्रह्मचर्यका पालन करने लगे। उन्होंने पिताके पास रहकर सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन किया। तत्पश्चात् गुरु (पिता) की आज्ञा ले द्वितीय आश्रमको स्वीकार किया। मुद्गल मुनिकी कन्या मरुद्वतीके साथ मृकण्डु मुनिका विवाह हुआ। तदनन्तर मृगशृंग मुनिकी दूसरी पत्नी कमलाने भी एक उत्तम पुत्र उत्पन्न किया। वह सदाचार, वेदाध्ययन, विद्या और विनयमें सबसे उत्तम निकला; इसलिये उसका नाम उत्तम रखा गया। पिताके उपनयन संस्कार कर देनेपर उत्तम मुनिने भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके विधिपूर्वक विवाह किया। कमनीय केशकलाप और मनोहर रूपसे युक्त, कमलके समान विशाल नेत्र तथाकल्याणमय स्वभाववाली कण्व मुनिकी कन्या कुशाको उन्होंने पत्नीरूपमें ग्रहण किया। विमलाने भी सुमति नामसे विख्यात पुत्रको जन्म दिया। सुमति भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके गृहस्थ हुए। उनकी स्त्रीका नाम सत्या था। तत्पश्चात् सुरसाके गर्भसे भी एक पुत्रका जन्म हुआ, जिसका नाम सुव्रत था। सुरसाकुमार सुव्रतने भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन समाप्त करके द्वितीय आश्रममें प्रवेश किया। पृथुकी पुत्री प्रियंवदा सुव्रतकी धर्मपत्नी हुई पिताने अपने सभी पुत्रोंसे पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करवाया। वे सभी पुत्र सेवा-शुश्रूषामें संलग्न हो प्रतिदिन पिताका प्रिय करते थे। उत्तम लक्षणोंवाली पुत्रवधुओं, वेदोंके पारगामी कल्याणमय पुत्रों तथा उत्तम गुणोंवाली धर्मपत्नियोंसे सेवित हो मृगशृंग मुनि गृहस्थधर्मका पालन करने लगे। सुमति, उत्तम तथा महात्मा सुव्रतको भी पृथक् पृथक् अनेक पुत्र हुए, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् थे। माघमास आनेपर मुनिवर मृगशृंग अपनी धर्मपत्नियों, पुत्रवधुओं, पुत्रों तथा पौत्रोंके साथ प्रात:काल स्नान करते थे। वे एक माप भी कभी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। माघ आनेपर स्नान, दान, शिवकी पूजा, व्रत और नियम- ये गृहस्थ आश्रमके भूषण हैं। यह सोचकर वे द्विजश्रेष्ठ प्रत्येक माघमै प्रातः स्नान किया करते थे। इस प्रकार सांसारिक सुख-सौभाग्यका अनुभव करके उन महामुनिने अपनी धर्मपत्नियोंका भार पुत्रोंको सौंप दिया और गार्हपत्य अग्निको अपने आत्मामें स्थापित करलिया। फिर पुत्रके पुत्रका मुख देख और अपने शरीरको अत्यन्त जराग्रस्त जानकर तपोनिधि मृगश्रृंगने तपस्या करनेके लिये तपोवनको प्रस्थान किया। वहाँ पत्ते चबाने छोटे-छोटे तालाबों में जल पीने, संसारसे उद्विग्न होने तथा रेतीली भूमिमें निवास करनेके कारण वे मृगोंके समान धर्मका पालन करने लगे। मृगोंके झुंडमें चिरकालतक विचरण करनेके पश्चात् उन्होंने ब्रह्मलोक प्राप्त कर लिया। वहाँ चार मुखवाले ब्रह्माजीने उनका अभिनन्दन किया। मुनिवर मृगशृंग दिव्य सिंहासनपर विराजमान हुए और अपने द्वारा उपार्जित उपमारहित अक्षय लोकोंका सुख भोगने लगे। तदनन्तर एक समय प्रलयकालके बाद श्वेतवाराहकल्पमें वे पुनः ब्रह्माजीके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए। उस समय उनका नाम ऋभु हुआ और उन्होंने निदाघको कल्याणका उपदेश दिया।
शील और सदाचारसे सम्पन्न उनकी चारों पत्नियाँ पुत्रोंके आश्रयमें रहकर कुछ दिनोंतक कठोर व्रतका पालन करती रहीं। तत्पश्चात् जीवनके अन्तिम भागमें बुढ़ापेके कारण उनके बाल सफेद हो गये। उनकी कमर झुक गयी। मुँहमें एक ही दो दाँत रह गये तथा इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ प्रायः नष्ट हो गयीं। मुनिश्रेष्ठ मृकण्डुके मरुद्वतीसे कोई सन्तान नहीं हुई। उन्होंने माताओंकी वैसी अवस्था देख मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया 'मैं माताओंको साथ ले स्त्रीसहित भगवान् शंकरकी राजधानी जहाँ पुरुषों को तारक मन्त्रका उपदेश दिया करते हैं।' ऐसा निश्चय करके उन्होंने काशीपुरीकी ओर प्रस्थान किया। वे मार्ग में काशीकी महिमाका इस प्रकार बखान करने लगे।
मृकण्डु बोले- जो माता, पिता और अपने बन्धुओं द्वारा त्याग दिये गये हैं, जिनकी संसारमें कहीं भी गति नहीं है, उनके लिये काशीपुरी ही उत्तम गति है जो जरावस्थासे ग्रस्त और नाना प्रकारके रोगोंसे व्याकुल हैं, जिनके ऊपर दिन-रात पग-पगपर विपत्तियोंका आक्रमण होता है, जो कर्मोंके बन्धनमें आबद्ध और संसारसे तिरस्कृत हैं, जिन्हें राशि राशि पापोंने दबा रखा है, जो दरिद्रतासे परास्त, योगसे भ्रष्ट तथा तपस्या और दानसे वर्जित हैं, जिनके लिये कहीं भी गति नहीं है, उनके लिये काशीपुरी ही उत्तम गति है। जिन्हें भाईबन्धुओंके बीच पग-पगपर मानहानि उठानी पड़ती हो, उनको एकमात्र भगवान् शिवका आनन्दकानन - काशीपुरी ही आनन्द प्रदान करनेवाला है। आनन्दकानन काशी में निवास करनेवाले दुष्ट पुरुषोंको भी भगवान् शंकरके अनुग्रहसे आनन्दजनित सुखकी प्राप्ति होती है। काशीचे विश्वनाथरूपी आगकी आँचसे सारे कर्ममय बीज भुन जाते हैं; अतः वह काशीतीर्थ जिनकी कहीं भी गति नहीं है. ऐसे पुरुषोंको भी उत्तम गति प्रदान करनेवाला है। वहाँ संसाररूपी सर्पसे डँसे हुए जीवोंको अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर भगवान् शंकर उनके कानोंमें तारक ब्रह्मका उपदेश देते हैं कपिलदेवजीके बताये हुए योगानुष्ठानसे, सांख्यसे तथा व्रतोंके द्वारा भी मनुष्योंको जिस गतिकी प्राप्ति नहीं होती, उसे यह मोक्षभूमि काशीपुरी अनायास ही प्रदान करती है। यह काशीकी प्राप्ति ही योग है, यह काशीकी प्राप्ति ही तप है, यह काशीकी प्राप्ति ही दान है और यह काशीकी प्राप्ति ही शिवकी पूजा है। यह काशीकी प्राप्ति ही यज्ञ, यह काशीकी प्राप्ति ही कर्म, यह काशीकी प्राप्ति ही स्वर्ण और यह काशीकी प्राप्ति ही सुख है। काशीमें निवास करनेवाले मनुष्योंके लिये काम, क्रोध, मद, लोभ, अहंकार, मात्सर्य, अज्ञान, कर्म, जडता, भय, काल, बुढ़ापा, रजोगुण और विघ्न-बाधा क्या चीज हैं? ये उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते।
अपनी माताओंका मार्गजनित कष्ट दूर करनेके लिये इस प्रकारकी बातें करते हुए मृकण्डु मुनि धीरे धीरे चलकर माताओंसहित काशीपुरीमें जा पहुँचे। वहाँ उन मुनिने बिना विलम्ब किये सबसे पहले मणिकर्णिकाके जलमें विधिपूर्वक वस्त्रसहित स्नान किया। तत्पश्चात् सन्ध्या आदि शुभकर्मोंका अनुष्ठान करके पवित्र हो उन्होंने चन्दन और कुशमिश्रित जलसे सम्पूर्ण देवताओं और ऋषियोंका तर्पण किया। फिर अमृतके समान स्वादिष्ट पकवान, शक्कर मिली हुई खीर तथा गोरस से सम्पूर्ण तीर्थ-निवासियोंको पृथक् पृथक् तृप्त करके अन्नदान, धान्यदान, गन्ध, चन्दन, कपूर, पान और सुन्दर वस्त्र आदिके द्वारा दीनों एवं अनाथोंका सत्कार किया। उसके बाद भक्तिपूर्वक दुण्डिराज गणेशके शरीरमें थी और सिन्दूरका लेप किया और पाँच चढ़ाकर आत्मीयजनोंको विघ्न-बाधाओंके आक्रमणसे बचाते हुए अन्तः क्षेत्रमें प्रवेश किया। वहाँ समस्त आवरण- देवताओंकी यथाशक्ति पूजा की। तदनन्तर महामना मृकण्डुने भगवान् विश्वनाथको नमस्कार और उनकी स्तुति करके माताओंके साथ विधिपूर्वक क्षेत्रोपवास किया। विश्वनाथजीके समीप उन्होंने जागकर रात बितायी और निर्मल प्रभात होनेपर एकाग्रचित्त हो मणिकर्णिकाके जलमें स्नान किया। सारा अनुष्ठान पूरा करके नियमोंका पालन करते हुए पवित्र हो वेद वेदांगोंके पारगामी महात्मा ब्राह्मणोंके साथ अपने नामसे एक शिवलिंगकी स्थापना की, जो सब प्रकारकी सिद्धियोंको देनेवाला है। उनकी चारों माताओंने भी अपने-अपने नामसे एक-एक शिवलिंग स्थापित किया। वे सभी लिंग दर्शनमात्रसे मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। दुण्डिराज गणेशके आगे मृकण्ड्वीश्वर शिवका दर्शन करनेसे सम्पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं और काशीका निवास भी सफल होता है। उस शिवलिंगके आगे सुवृत्ताद्वारा स्थापित सुवृत्तेश्वर नामक शिवलिंग है। उसके दर्शनसे मनुष्य कभी विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता तथा वह सदाचारी होता है। सुवृत्तेश्वरसे पूर्वदिशाकी ओर कमलाद्वारा स्थापित उत्तम शिवलिंग है, जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। दुण्ढिराजगणेशकी देहलीके पास विमलाद्वारा स्थापित विमलेश्वरका स्थान है। उस लिंगके दर्शनसे निर्मल ज्ञानकी प्राप्ति होती है। विमलेश्वरसे ईशानकोणमें सुरसाद्वारा स्थापित सुरसेश्वर नामक शिवलिंग है। उसके दर्शनसे मनुष्य देवताओंका साम्राज्य प्राप्त करके काशीमें आकर मुक्त होगा। मणिकर्णिकासे पश्चिम मरुद्वतीद्वारा पूजित शिवलिंग है, जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य फिर जन्म नहीं लेता।
इस प्रकार शिवलिंगोंकी स्थापना करके वे सब लोग एक वर्षतक काशीमें ठहरे रहे। बारंबार उस विचित्र एवं पवित्र क्षेत्रका दर्शन करनेसे उन्हें तृप्ति नहीं होती थी । मृकण्डु मुनि एक वर्षतक प्रतिदिन तीर्थयात्रा करते रहे, किन्तु वहाँके सम्पूर्ण तीर्थोंका पार न पा सके; क्योंकि काशीपुरीमें पग-पगपर तीर्थ हैं। एक दिन मृकण्डु मुनिकी माताएँ, जो पूर्ण ज्ञानसे सम्पन्न थीं, मणिकर्णिकाके जलमें दोपहरको स्नान करके शिवमन्दिरकी प्रदक्षिणा करने लगीं। इससे परिश्रमके कारण उन्हें थकावट आ गयी और वे सब की सब मरणासन्न होकर वहीं गिर पड़ीं। उस समय परम दयालु काशीपति भगवान् शिव बड़े वेगसे वहाँ आये और अपने हाथोंसे स्नेहपूर्वक उन सबके मस्तक पकड़कर एक ही साथ कानोंमें प्रणव-मन्त्रका उच्चारण किया।