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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 240 - Khand 5, Adhyaya 240

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मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति

वसिष्ठजी कहते हैं—इस प्रकार गृहस्थाश्रममे निवास करते हुए महामुनि मृगभृंगको पत्नी सुवृत्ताने समयानुसार एक पुत्रको जन्म दिया। इसके द्वारा पितृ ऋणसे छुटकारा पाकर मुनिश्रेष्ठ मृगभृंगने अपनेको कृतार्थ माना और विधिपूर्वक नवजात शिशुका जातकर्म संस्कार किया। वे परम बुद्धिमान् मुनि तीनों कालकी बातें जानते थे; अत: उन्होंने पुत्रके भावी कर्मके अनुसार उसका मृकण्डु नाम रखा। उसके शरीरमें मृगगण निर्भय होकर कण्डूयन करते थे- अपना शरीर खुजलाते या रगड़ते थे। इसीलिये पिताने उसका नाम मृकण्डु रख दिया। मृकण्डु मुनि उत्तम कुलमें उत्पन्न होकर समस्त गुणोंके भंडार बन गये थे। उनका शरीर प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी था। पिताके द्वारा उपनयन संस्कार हो जानेपर वे ब्रह्मचर्यका पालन करने लगे। उन्होंने पिताके पास रहकर सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन किया। तत्पश्चात् गुरु (पिता) की आज्ञा ले द्वितीय आश्रमको स्वीकार किया। मुद्गल मुनिकी कन्या मरुद्वतीके साथ मृकण्डु मुनिका विवाह हुआ। तदनन्तर मृगशृंग मुनिकी दूसरी पत्नी कमलाने भी एक उत्तम पुत्र उत्पन्न किया। वह सदाचार, वेदाध्ययन, विद्या और विनयमें सबसे उत्तम निकला; इसलिये उसका नाम उत्तम रखा गया। पिताके उपनयन संस्कार कर देनेपर उत्तम मुनिने भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके विधिपूर्वक विवाह किया। कमनीय केशकलाप और मनोहर रूपसे युक्त, कमलके समान विशाल नेत्र तथाकल्याणमय स्वभाववाली कण्व मुनिकी कन्या कुशाको उन्होंने पत्नीरूपमें ग्रहण किया। विमलाने भी सुमति नामसे विख्यात पुत्रको जन्म दिया। सुमति भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके गृहस्थ हुए। उनकी स्त्रीका नाम सत्या था। तत्पश्चात् सुरसाके गर्भसे भी एक पुत्रका जन्म हुआ, जिसका नाम सुव्रत था। सुरसाकुमार सुव्रतने भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन समाप्त करके द्वितीय आश्रममें प्रवेश किया। पृथुकी पुत्री प्रियंवदा सुव्रतकी धर्मपत्नी हुई पिताने अपने सभी पुत्रोंसे पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करवाया। वे सभी पुत्र सेवा-शुश्रूषामें संलग्न हो प्रतिदिन पिताका प्रिय करते थे। उत्तम लक्षणोंवाली पुत्रवधुओं, वेदोंके पारगामी कल्याणमय पुत्रों तथा उत्तम गुणोंवाली धर्मपत्नियोंसे सेवित हो मृगशृंग मुनि गृहस्थधर्मका पालन करने लगे। सुमति, उत्तम तथा महात्मा सुव्रतको भी पृथक् पृथक् अनेक पुत्र हुए, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् थे। माघमास आनेपर मुनिवर मृगशृंग अपनी धर्मपत्नियों, पुत्रवधुओं, पुत्रों तथा पौत्रोंके साथ प्रात:काल स्नान करते थे। वे एक माप भी कभी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। माघ आनेपर स्नान, दान, शिवकी पूजा, व्रत और नियम- ये गृहस्थ आश्रमके भूषण हैं। यह सोचकर वे द्विजश्रेष्ठ प्रत्येक माघमै प्रातः स्नान किया करते थे। इस प्रकार सांसारिक सुख-सौभाग्यका अनुभव करके उन महामुनिने अपनी धर्मपत्नियोंका भार पुत्रोंको सौंप दिया और गार्हपत्य अग्निको अपने आत्मामें स्थापित करलिया। फिर पुत्रके पुत्रका मुख देख और अपने शरीरको अत्यन्त जराग्रस्त जानकर तपोनिधि मृगश्रृंगने तपस्या करनेके लिये तपोवनको प्रस्थान किया। वहाँ पत्ते चबाने छोटे-छोटे तालाबों में जल पीने, संसारसे उद्विग्न होने तथा रेतीली भूमिमें निवास करनेके कारण वे मृगोंके समान धर्मका पालन करने लगे। मृगोंके झुंडमें चिरकालतक विचरण करनेके पश्चात् उन्होंने ब्रह्मलोक प्राप्त कर लिया। वहाँ चार मुखवाले ब्रह्माजीने उनका अभिनन्दन किया। मुनिवर मृगशृंग दिव्य सिंहासनपर विराजमान हुए और अपने द्वारा उपार्जित उपमारहित अक्षय लोकोंका सुख भोगने लगे। तदनन्तर एक समय प्रलयकालके बाद श्वेतवाराहकल्पमें वे पुनः ब्रह्माजीके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए। उस समय उनका नाम ऋभु हुआ और उन्होंने निदाघको कल्याणका उपदेश दिया।

शील और सदाचारसे सम्पन्न उनकी चारों पत्नियाँ पुत्रोंके आश्रयमें रहकर कुछ दिनोंतक कठोर व्रतका पालन करती रहीं। तत्पश्चात् जीवनके अन्तिम भागमें बुढ़ापेके कारण उनके बाल सफेद हो गये। उनकी कमर झुक गयी। मुँहमें एक ही दो दाँत रह गये तथा इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ प्रायः नष्ट हो गयीं। मुनिश्रेष्ठ मृकण्डुके मरुद्वतीसे कोई सन्तान नहीं हुई। उन्होंने माताओंकी वैसी अवस्था देख मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया 'मैं माताओंको साथ ले स्त्रीसहित भगवान् शंकरकी राजधानी जहाँ पुरुषों को तारक मन्त्रका उपदेश दिया करते हैं।' ऐसा निश्चय करके उन्होंने काशीपुरीकी ओर प्रस्थान किया। वे मार्ग में काशीकी महिमाका इस प्रकार बखान करने लगे।

मृकण्डु बोले- जो माता, पिता और अपने बन्धुओं द्वारा त्याग दिये गये हैं, जिनकी संसारमें कहीं भी गति नहीं है, उनके लिये काशीपुरी ही उत्तम गति है जो जरावस्थासे ग्रस्त और नाना प्रकारके रोगोंसे व्याकुल हैं, जिनके ऊपर दिन-रात पग-पगपर विपत्तियोंका आक्रमण होता है, जो कर्मोंके बन्धनमें आबद्ध और संसारसे तिरस्कृत हैं, जिन्हें राशि राशि पापोंने दबा रखा है, जो दरिद्रतासे परास्त, योगसे भ्रष्ट तथा तपस्या और दानसे वर्जित हैं, जिनके लिये कहीं भी गति नहीं है, उनके लिये काशीपुरी ही उत्तम गति है। जिन्हें भाईबन्धुओंके बीच पग-पगपर मानहानि उठानी पड़ती हो, उनको एकमात्र भगवान् शिवका आनन्दकानन - काशीपुरी ही आनन्द प्रदान करनेवाला है। आनन्दकानन काशी में निवास करनेवाले दुष्ट पुरुषोंको भी भगवान् शंकरके अनुग्रहसे आनन्दजनित सुखकी प्राप्ति होती है। काशीचे विश्वनाथरूपी आगकी आँचसे सारे कर्ममय बीज भुन जाते हैं; अतः वह काशीतीर्थ जिनकी कहीं भी गति नहीं है. ऐसे पुरुषोंको भी उत्तम गति प्रदान करनेवाला है। वहाँ संसाररूपी सर्पसे डँसे हुए जीवोंको अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर भगवान् शंकर उनके कानोंमें तारक ब्रह्मका उपदेश देते हैं कपिलदेवजीके बताये हुए योगानुष्ठानसे, सांख्यसे तथा व्रतोंके द्वारा भी मनुष्योंको जिस गतिकी प्राप्ति नहीं होती, उसे यह मोक्षभूमि काशीपुरी अनायास ही प्रदान करती है। यह काशीकी प्राप्ति ही योग है, यह काशीकी प्राप्ति ही तप है, यह काशीकी प्राप्ति ही दान है और यह काशीकी प्राप्ति ही शिवकी पूजा है। यह काशीकी प्राप्ति ही यज्ञ, यह काशीकी प्राप्ति ही कर्म, यह काशीकी प्राप्ति ही स्वर्ण और यह काशीकी प्राप्ति ही सुख है। काशीमें निवास करनेवाले मनुष्योंके लिये काम, क्रोध, मद, लोभ, अहंकार, मात्सर्य, अज्ञान, कर्म, जडता, भय, काल, बुढ़ापा, रजोगुण और विघ्न-बाधा क्या चीज हैं? ये उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते।

अपनी माताओंका मार्गजनित कष्ट दूर करनेके लिये इस प्रकारकी बातें करते हुए मृकण्डु मुनि धीरे धीरे चलकर माताओंसहित काशीपुरीमें जा पहुँचे। वहाँ उन मुनिने बिना विलम्ब किये सबसे पहले मणिकर्णिकाके जलमें विधिपूर्वक वस्त्रसहित स्नान किया। तत्पश्चात् सन्ध्या आदि शुभकर्मोंका अनुष्ठान करके पवित्र हो उन्होंने चन्दन और कुशमिश्रित जलसे सम्पूर्ण देवताओं और ऋषियोंका तर्पण किया। फिर अमृतके समान स्वादिष्ट पकवान, शक्कर मिली हुई खीर तथा गोरस से सम्पूर्ण तीर्थ-निवासियोंको पृथक् पृथक् तृप्त करके अन्नदान, धान्यदान, गन्ध, चन्दन, कपूर, पान और सुन्दर वस्त्र आदिके द्वारा दीनों एवं अनाथोंका सत्कार किया। उसके बाद भक्तिपूर्वक दुण्डिराज गणेशके शरीरमें थी और सिन्दूरका लेप किया और पाँच चढ़ाकर आत्मीयजनोंको विघ्न-बाधाओंके आक्रमणसे बचाते हुए अन्तः क्षेत्रमें प्रवेश किया। वहाँ समस्त आवरण- देवताओंकी यथाशक्ति पूजा की। तदनन्तर महामना मृकण्डुने भगवान् विश्वनाथको नमस्कार और उनकी स्तुति करके माताओंके साथ विधिपूर्वक क्षेत्रोपवास किया। विश्वनाथजीके समीप उन्होंने जागकर रात बितायी और निर्मल प्रभात होनेपर एकाग्रचित्त हो मणिकर्णिकाके जलमें स्नान किया। सारा अनुष्ठान पूरा करके नियमोंका पालन करते हुए पवित्र हो वेद वेदांगोंके पारगामी महात्मा ब्राह्मणोंके साथ अपने नामसे एक शिवलिंगकी स्थापना की, जो सब प्रकारकी सिद्धियोंको देनेवाला है। उनकी चारों माताओंने भी अपने-अपने नामसे एक-एक शिवलिंग स्थापित किया। वे सभी लिंग दर्शनमात्रसे मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। दुण्डिराज गणेशके आगे मृकण्ड्वीश्वर शिवका दर्शन करनेसे सम्पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं और काशीका निवास भी सफल होता है। उस शिवलिंगके आगे सुवृत्ताद्वारा स्थापित सुवृत्तेश्वर नामक शिवलिंग है। उसके दर्शनसे मनुष्य कभी विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता तथा वह सदाचारी होता है। सुवृत्तेश्वरसे पूर्वदिशाकी ओर कमलाद्वारा स्थापित उत्तम शिवलिंग है, जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। दुण्ढिराजगणेशकी देहलीके पास विमलाद्वारा स्थापित विमलेश्वरका स्थान है। उस लिंगके दर्शनसे निर्मल ज्ञानकी प्राप्ति होती है। विमलेश्वरसे ईशानकोणमें सुरसाद्वारा स्थापित सुरसेश्वर नामक शिवलिंग है। उसके दर्शनसे मनुष्य देवताओंका साम्राज्य प्राप्त करके काशीमें आकर मुक्त होगा। मणिकर्णिकासे पश्चिम मरुद्वतीद्वारा पूजित शिवलिंग है, जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य फिर जन्म नहीं लेता।

इस प्रकार शिवलिंगोंकी स्थापना करके वे सब लोग एक वर्षतक काशीमें ठहरे रहे। बारंबार उस विचित्र एवं पवित्र क्षेत्रका दर्शन करनेसे उन्हें तृप्ति नहीं होती थी । मृकण्डु मुनि एक वर्षतक प्रतिदिन तीर्थयात्रा करते रहे, किन्तु वहाँके सम्पूर्ण तीर्थोंका पार न पा सके; क्योंकि काशीपुरीमें पग-पगपर तीर्थ हैं। एक दिन मृकण्डु मुनिकी माताएँ, जो पूर्ण ज्ञानसे सम्पन्न थीं, मणिकर्णिकाके जलमें दोपहरको स्नान करके शिवमन्दिरकी प्रदक्षिणा करने लगीं। इससे परिश्रमके कारण उन्हें थकावट आ गयी और वे सब की सब मरणासन्न होकर वहीं गिर पड़ीं। उस समय परम दयालु काशीपति भगवान् शिव बड़े वेगसे वहाँ आये और अपने हाथोंसे स्नेहपूर्वक उन सबके मस्तक पकड़कर एक ही साथ कानोंमें प्रणव-मन्त्रका उच्चारण किया।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार