ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! पापाचारपूर्ण बर्ताव करनेवाले जिस राजा वेनका आपने परिचय दिया है, उस पापीको उस व्यवहारका कैसा फल मिला ?
सूतजी बोले- ब्राह्मणो । पृथु-जैसे सौभाग्यशाली और महात्मा पुत्रके जन्म लेनेपर राजा वेन पापरहित हो गया। उसे धर्मका फल प्राप्त हुआ। जिन नरेशॉने समस्त महापापका उपार्जन किया है, उनके वे पाप तीर्थयात्रासे नष्ट हो जाते हैं और संतोंका संग प्राप्तहोनेसे पुण्यकी ही वृद्धि होती रहती है। पापियोंसे बातचीत करने, उन्हें देखने, स्पर्श करने, उनके साथ बैठने, भोजन करने तथा उनके संगमें रहनेसे पापका संचार होता है और पुण्यात्माओंके संगसे केवल पुण्यका ही प्रसार होता है, जिससे सारे पाप धुल जानेके कारण मनुष्य पुण्य-गतिको ही प्राप्त करते हैं।
ऋषियोंने पूछा- महामते ! पापी मनुष्योंको परम सिद्धिकी प्राप्ति कैसे होती है, यह बात [भी] हमेंविस्तार के साथ बतलाइये।
सूतजी बोले – नर्मदा, यमुना और गंगा- इन नदियोंकी धाराके आस-पास जो महापापी रहते हैं, वे जान-बूझकर या बिना जाने भी इनके जलमें नहाते और क्रीड़ा करते हैं अतः महानदीके संसर्गसे उन्हें परम गतिकी प्राप्ति हो जाती है। द्विजवरो! महानदीके सम्पर्क से अथवा अन्यान्य नदियोंके परम पवित्र जलका दर्शन, स्पर्श और पान करनेसे पापियोंका पाप नष्ट हो जाता है। तीर्थोंके प्रभाव तथा संतोंके संगसे पापियोंका पाप उसी प्रकार नष्ट होता है, जैसे आग ईंधनको जला डालती है। महात्मा ऋषियोंके संसर्ग, उनके साथ वार्तालाप करनेसे, दर्शन और स्पर्शसे तथा पूर्वकालमें सत्संग प्राप्त होनेसे राजा वेनका सारा पाप नष्ट हो गया था। पुण्यका संसर्ग हो जानेपर अत्यन्त भयंकर पापका भी संचार नहीं होता।
पूर्वकालमें मृत्युके एक सौभाग्यशालिनी कन्या उत्पन्न हुई थी, जिसका नाम सुनीथा रखा गया था । वह पिताके कार्योंको देखती और खेल-कूदमें सदा उन्होंका अनुकरण किया करती थी। एक दिन सुनीथा अपनी सखियोंके साथ खेलती हुई वनमें गयी। वहाँ गीतकी ध्वनि उसके कानोंमें पड़ी। तब सुनीथाने उस ओर दृष्टिपात किया। देखा, गन्धर्वकुमार महाभाग सुशंख भारी तपस्या में लगा हुआ है। उसके सारे अंग बड़े ही मनोहर थे। सुनीथा प्रतिदिन वहाँ जाकर उस तपस्वीको सताने लगी। सुशंख रोज-रोज उसके अपराधको क्षमा कर देता और कहता-'जाओ, चली जाओ यहाँसे।' उसके यों कहनेपर वह बालिका कुपित हो जाती और बेचारे तपस्वीको पीटने लगती थी। उसका यह बर्ताव देखकर एक दिन सुशंख क्रोधमूर्च्छित हो उठा और बोला- 'कल्याणी! श्रेष्ठ पुरुष मारनेके बदले न तो मारते हैं और न किसीके गाली देनेपर क्रोध ही करते हैं; यही धर्मकी मर्यादा है।' पाप करनेवाली सुनीथासे ऐसा कहकर वह धर्मात्मा गन्धर्व क्रोधसे निवृत्त हो रहा और उसे अबला स्त्री जानकर बिना कुछ दण्ड दिये लौट गया।सुनीथाने पिताके पास जाकर कहा-'तात मैंने वनमें जाकर एक गन्धर्वकुमारको पीटा है, वह काम क्रोधसे रहित हो तपस्या कर रहा था। मेरे पीटनेपर उस धर्मात्माने कहा है-मारनेवालेको मारना और गाली देनेवालेको गाली देना उचित नहीं है। पिताजी! बताइये, उसके इस कथनका क्या कारण है?' सुनीथाके इस प्रकार पूछने पर धर्मात्मा मृत्युने उससे कुछ भी नहीं कहा। उसके प्रश्नका उत्तर ही नहीं दिया। तदनन्तर वह फिर वनमें गयी। सुशंख तपस्यामें लगा था। दुष्ट स्वभाववाली सुनीधाने उस श्रेष्ठ तपस्वीके पास जाकर उसे कोड़ोंसे पीटना आरम्भ किया। अब वह महातेजस्वी
गन्धर्व अपने क्रोधको न रोक सका। उस सुन्दरी बालिकाको शाप देते हुए बोला-'गृहस्थ धर्ममें प्रवेश करनेपर जब तुम्हारा अपने पतिके साथ सम्पर्क होगा, तब तुम्हारे गर्भसे देवताओं और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाला, पापाचारी, सब प्रकारके पापोंमें आसक्त और दुष्ट पुत्र उत्पन्न होगा।' इस प्रकार शाप दे वह पुनः जाकर तपस्यामें ही लग गया।
महाभाग गन्धर्वकुमारके चले जानेपर सुनीथा अपने घर आयी। वहाँ उसने पितासे सारा वृत्तान्त कहसुनाया। मृत्युने कहा- 'अरी! उस निर्दोष तपस्वीको तुमने क्यों मारा है? भद्रे तपस्यामें लगे हुए पुरुषको मारना यह तुम्हारे द्वारा उचित कार्य नहीं हुआ।' धर्मात्मा मृत्यु ऐसा कहकर बहुत दुःखी हो गये।
सूतजी कहते हैं- एक समयकी बात है, महर्षि अत्रिके पुत्र महातेजस्वी राजा अंग नन्दन- वनमें गये थे। वहाँ उन्होंने गन्धर्वों, किन्नरों और अप्सराओंके साथ देवराज इन्द्रका दर्शन किया। उनके वैभव, उनके भोगविलास और उनकी लीला देखकर धर्मात्मा अंग सोचने लगे—' किस उपायसे मुझे इन्द्रके समान पुत्रकी प्राप्ति हो ?' क्षणभर इस बातका विचार करके राजा अंग खिन्न हो उठे। नन्दन वनसे जब वे घर लौटे तो अपने पिता अत्रिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर बोले 'पिताजी! आप ज्ञानवानों में श्रेष्ठ और पुत्रपर स्नेह रखनेवाले हैं। मुझे इन्द्रके समान वैभवशाली पुत्र कैसे प्राप्त हो, इसका कोई उपाय बताइये।'
अत्रिने कहा- साधुश्रेष्ठ! भक्ति करने और श्रद्धापूर्वक ध्यान लगानेसे भगवान् श्रीविष्णु संतुष्ट होते हैं और संतुष्ट होनेपर वे सदा सब कुछ देते रहते हैं। भगवान् श्रीगोविन्द सब वस्तुओंके दाता, सबकी उत्पत्तिके कारण, सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता, सर्वेश्वर और परमपुरुष हैं। इसलिये तुम उन्हींकी आराधना करो। बेटा! तुम जो-जो चाहते हो, वह सब उनसे प्राप्त होगा। भगवान् श्रीविष्णु सुख, परमार्थ और मोक्ष देनेवाले तथा इस जगत्के ईश्वर है। अतः जाओ, उनकी आराधना करो; उनसे तुम्हें इन्द्रके समान पुत्र प्राप्त होगा।
ब्रह्माजीके पुत्र अंगके पिता महर्षि अत्रि ब्रह्माके समान ही तेजस्वी थे। उनसे आज्ञा लेकर अंगने प्रस्थान किया। वे सुवर्ण और रत्नमय शिखरोंसे सुशोभित मेरुगिरिके मनोहर शिखरपर चले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने गंगाजीके पवित्र तटपर एकान्तमें स्थित रत्नमय कन्दरामें प्रवेश किया। महामुनि अंग बड़े मेधावी और धर्मात्मा थे। वे काम-क्रोधका त्याग त्याग करके सम्पूर्ण इन्द्रियोंको कावूमें रखकर भगवान्के मनोमय स्वरूपकाध्यान करने लगे। क्लेशहारी भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करते-करते वे ऐसे तन्मय हो गये कि बैठने, सोने, चलने तथा चिन्तन करनेके समय भी उन्हें नित्य निरन्तर भगवान् श्रीमधुसूदन ही दिखायी देते थे। उनका मन भगवान्में लग गया था। वे योगबुक और जितेन्द्रिय होकर चराचर जीवों तथा सूखे और गीले आदि समस्त पदार्थो केवल भगवान् श्रीविष्णुका ही दर्शन करते थे। इस प्रकार तपस्या करते उन्हें सौ वर्ष बीत गये। नियम, संयम तथा उपवासके कारण उनका सारा शरीर दुर्बल हो गया था; तो भी वे अपने तेजसे सूर्य और अग्निके समान देदीप्यमान दिखायी दे रहे थे। इस तरह तपस्यामै प्रवृत्त हो ध्यानमें लगे हुए राजा अंगके सामने भगवान् श्रीविष्णु प्रकट हुए और बोले 'मानद। यर माँगो, इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् श्रीवासुदेवको उपस्थित देख राजा अंगको बड़ा हर्ष हुआ, उनका चित्त प्रसन्न हो गया। वे भगवान्को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। अंग बोले- भूतभावन! आप ही सम्पूर्ण भूतकी गति है। पावन परमेश्वर आप प्राणियों के आत्मा, सब भूतकि ईश्वर और सगुण स्वरूप धारण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। आप गुणस्वरूप,गुह्य तथा गुणातीत हैं; आपको नमस्कार है। गुण, गुणकर्ता, गुणसम्पन्न और गुणात्मा भगवान्को प्रणाम है। आप भव (संसाररूप), भवकर्ता तथा भक्तोंके संसार-बन्धनका अपहरण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार हैं। भवकी उत्पत्तिके कारण होनेसे आपका नाम 'भव' है; इस भवमें आप अव्यक्तरूपसे छिपे हुए हैं, इसलिये आपको 'भवगुह्य' कहा गया है तथा आप रुद्ररूपसे इस भव—संसारका विनाश करते हैं, इससे आपका नाम भवविनाशी है। आपको प्रणाम है। आप यज्ञ, यज्ञरूप, यज्ञेश्वर और यज्ञकर्ममें संलग्न हैं; आपको नमस्कार है। शंख धारण करनेवाले भगवान्को प्रणाम है। सोनेके समान वर्णवाले परमात्माको नमस्कार है। चक्रधारी श्रीविष्णुको प्रणाम है। सत्य, सत्यभाव, सर्वसत्यमय, धर्म, धर्मकर्ता और सर्वविधाता आप भगवान्को प्रणाम है। धर्म आपका अंग है, आप श्रेष्ठ वीर और धर्मके आधारभूत हैं; आपको नमस्कार है। आप माया मोहके नाशक होते हुए भी सब प्रकारकी मायाओंके उत्पादक हैं; आपको नमस्कार है। आप मायाधारी मूर्त (साकार) और अमूर्त (निराकार) भी हैं; आपको प्रणाम है। आप सब प्रकारकी मूर्तियोंको धारण करनेवाले और कल्याणकारी हैं, आपको नमस्कार है। ब्रह्मा, ब्रह्मरूप और परब्रह्मस्वरूप आप परमात्माको प्रणाम है। आप सबके धाम तथा धामधारी हैं, आपको नमस्कार है। आप श्रीमान् श्रीनिवास, श्रीधर, क्षीरसागरवासी और अमृतस्वरूप हैं आपको प्रणाम है [संसाररूपी रोगके लिये] महान् औषध, दुष्टोंके लिये घोररूपधारी, महाप्रज्ञापरायण, अक्रूर (सौम्य), प्रमेध्य (परम पवित्र) तथा मेध्यों (पावन वस्तुओं) के स्वामी आप परमेश्वरको नमस्कार है। आपका कहीं अन्त नहीं है, आप अशेष (पूर्ण) और अनय (पापरहित) हैं: आपको प्रणाम है। आकाशको प्रकाशित करनेवाले सूर्य-चन्द्रस्वरूप आपको नमस्कार है। आप हवनकर्म, हुतभोजी अग्नि तथा हविष्यरूप हैं; आपको नमस्कार है। आप बुद्ध (जानी), बुध (विद्वान्) तथा सदा बुद्ध (नित्यज्ञानी) हैं; आपको प्रणाम है।
स्वाहाकार, शुद्ध अव्यक्त, महात्मा, व्यास (वेदोंकाविस्तार करनेवाले), वासव (वसुपुत्र इन्द्र) तथा वसुस्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। आप वासुदेव, विश्वरूप और वह्निस्वरूप हैं; आपको प्रणाम है। हरि, कैवल्यरूप तथा वामनभगवान्को नमस्कार है। सत्त्वगुणकी रक्षा करनेवाले भगवान् नृसिंहदेवको प्रणाम है। गोविन्द एवं गोपालको नमस्कार है। भगवन्! आप एकाक्षर (प्रणव), सर्वाक्षर (वर्णरूप) और हंसस्वरूप है; आपको प्रणाम है। तीन पाँच और पचीस तत्त्व आपके ही रूप हैं; आप समस्त तत्त्वोंके आधार हैं। आपको नमस्कार है। आप कृष्ण (सच्चिदानन्दस्वरूप), कृष्णरूप (श्यामविग्रह) तथा लक्ष्मीनाथ हैं आपको प्रणाम है। कमललोचन! आप परमानन्दमय प्रभुको नमस्कार है। आप विश्वके भरण-पोषण करनेवाले तथा पापके नाशक हैं, आपको प्रणाम है। पुण्यों में भी उत्तम पुण्य तथा सत्यधर्मरूप आप परमात्माको नमस्कार है। शाश्वत, अविनाशी एवं पूर्ण आकाशस्वरूप परमेश्वरको प्रणाम है। महेश्वर श्रीपद्मनाभको नमस्कार है। केशव ! आपके चरणकमलोंमें मैं प्रणाम करता हूँ। आनन्दकन्द ! कमलाप्रिय वासुदेव! सर्वेश्वर ईशा! मधुसूदन मुझे अपनी दासता प्रदान कीजिये शंख धारण करनेवाले शान्तिदायी केशव आपके चरणोंमें मस्तक झुकाता हूँ। प्रत्येक जन्ममें मुझपर कृपा कीजिये । मेरे स्वामी पद्मनाभ! संसाररूपी दुःसह अग्निके तापसे मैं दग्ध हो रहा हूँ, आप ज्ञानरूपी मेघकी धारासे मेरे तापको शान्त कीजिये तथा मुझ दीनके लिये शरणरूप हो जाइये।
अंगके मुखसे यह स्तोत्र सुनकर भगवान्ने अंगको अपने श्रीविग्रहका दर्शन कराया। उनका मेघके समान श्याम वर्ण तथा महान् ओजस्वी शरीर था तथा हाथमें शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा दे रहे थे। सब और महान् प्रकाश छा रहा था। श्रीभगवान् गरुड़की पीठपर बैठे थे। अंगोंमें सब प्रकारके आभूषण शोभा पा रहे थे। हार, कंकण और कुण्डलोंसे सुशोभित तथा वनमालासे उज्ज्वल उनका अत्यन्त दिव्यरूप बड़ा सुन्दर जान पड़ता था भगवान् श्रीजनार्दन अंगके सामने विराजमान थे। श्रीवत्स नामक चिह्न और पुण्यमयकौस्तुभमणिसे उनकी अपूर्व शोभा हो रही थी। वे सर्वदेवमय श्रीहरि समस्त अलंकारोंकी शोभासे सम्पन्न अपने श्रीविग्रहकी झाँकी कराकर ऋषिश्रेष्ठ अंगसे बोले—'महाभाग! मैं तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट हूँ, तुम कोई उत्तम वर माँग लो।'
अंगने भगवान्के चरणकमलोंमें बारंबार प्रणाम किया और अत्यन्त हर्षमें भरकर कहा ‘देवेश्वर! मैं आपका दास हूँ; यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो जैसी शोभा स्वर्गमें सम्पूर्ण तेजसे सम्पन्न इन्द्रकी है, वैसी ही शोभा पानेवाला एक सुन्दर पुत्र मुझे देनेकी कृपा करें। वह पुत्र सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करनेवाला होना चाहिये। इतना ही नहीं, वह बालक समस्त देवताओंकाप्रिय, ब्राह्मण-भक्त, दानी, त्रिलोकीका रक्षक, सत्यधर्मका निरन्तर पालन करनेवाला, यजमानोंमें श्रेष्ठ, त्रिभुवनकी शोभा बढ़ानेवाला, अद्वितीय शूरवीर, वेदोंका विद्वान्, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, शान्त, तपस्वी और सर्वशास्त्रविशारद हो। प्रभो ! यदि आप वर देनेके लिये उत्सुक हों तो मुझे ऐसा ही पुत्र होनेका वरदान दीजिये।'
भगवान् वासुदेव बोले- महामते ! तुम्हें इन सद्गुणोंसे युक्त उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होगी, वह अत्रिवंशका रक्षक और सम्पूर्ण विश्वका पालन करनेवाला होगा। तुम भी मेरे परम धामको प्राप्त होगे ।
इस प्रकार वरदान देकर भगवान् श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गये।