शेषजी कहते हैं— मुने! इस प्रकार भगवान् श्रीराम ऋषियोंके मुखसे कुछ कालतक धर्मकी व्याख्या सुनते रहे; इतनेमें वसन्तका समय उपस्थित हुआ जब कि महापुरुषोंके यज्ञ आदि शुभ कर्मोंका प्रारम्भ होता है। वह समय आया देख बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठने सम्पूर्ण जगत्के सम्राट् श्रीरामचन्द्रजीसे यथोचित वाणोमें कहा- 'महाबाहु रघुनाथजी अब आपके लिये वहसमय आ गया है. जब कि यज्ञके लिये निश्चित किये हुए अश्वकी भलीभाँति पूजा करके उसे पृथ्वीपर भ्रमण करनेके लिये छोड़ा जाय। इसके लिये सामग्री एकत्रित हो, अच्छे-अच्छे ब्राह्मण बुलाये जायें तथा स्वयं आप ही उन ब्राह्मणोंकी यथोचित पूजा करें। दीनों, अंधों और दुःखियोंका विधिवत् सत्कार करके उन्हें रहनेको स्थान दें और उनके मनमें जिस वस्तुके पानेकी इच्छा हो, वहीउन्हें दान करें। आप सुवर्णमयी सीताके साथ यज्ञकी दीक्षा लेकर उसके नियमोंका पालन करें-पृथ्वीपर सोवें, ब्रह्मचारी रहें तथा धन सम्बन्धी भोगोंका परित्याग करें। आपके कटिभागमें मेखला सुशोभित हो, आप हरिणका सींग, मृगचर्म तथा दण्ड धारण करें तथा सब प्रकारके सामान और द्रव्य एकत्रित करके यज्ञका आरम्भ करें।'
महर्षि वसिष्ठके ये उत्तम और यथार्थ वचन सुनकर परम बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणसे अभिप्राययुक्त बात कही।
श्रीराम बोले- लक्ष्मण! मेरी बात सुनो और सुनकर तुरंत उसका पालन करो। जाओ, प्रयत्न करके अश्वमेध यज्ञके लिये उपयोगी अश्व ले आओ।
शेषजी कहते हैं— श्रीरामचन्द्रजीके वचन सुनकर शत्रुविजयी लक्ष्मणने सेनापतिसे कहा-'वीर! मैं तुम्हें एक अत्यन्त प्रिय वचन सुना रहा हूँ, सुनो; श्रीरघुनाथजीकी आज्ञाके अनुसार शीघ्र ही हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदलसे युक्त चतुरंगिणी सेना तैयार करो, जो कालकी सेनाका भी विनाश करनेमें समर्थ हो।' महात्मा लक्ष्मणका यह कथन सुनकर कालजित् नामवाले सेनापतिने सेनाको सुसज्जित किया। उस समय लक्ष्मणके आदेशानुसार सजकर आये हुए अश्वमेधयज्ञके अश्वकी बड़ी शोभा हुई एक श्रेष्ठ पुरुषने उसकी बागडोर पकड़ रखी थी। दस ध्रुवक ( चिह्न विशेष) उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। अपने छोटे-छोटे रोएँके कारण भी वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था। उसके गलेमें घुंघुरू पहनाये गये थे, जो एक-दूसरे से मिले नहीं थे विस्तृत कण्ठ-कोश मणि सुशोभित थी। मुखको कान्ति भी बड़ी विशद थी और उसके दोनों कान छोटे-छोटे तथा काले थे। घासके ग्राससे उसका मुँह बड़ा सुहावना जान पड़ता था और चमकीले रत्नोंसे उसको सजाया गया था। इस प्रकार सज-धजकर मोतियोंकी मालाओंसे सुशोभित हो वह अश्व बाहर निकला। उसके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ था। दोनों ओरसे दो सफेद चँवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। सारांशयह कि उस अश्वका सारा शरीर ही नाना प्रकारके शोभासाधनों से सम्पन्न था। जिस प्रकार देवतालोग सेवाके योग्य श्रीहरिकी सब ओरसे सेवा करते हैं। उसी प्रकार बहुत-से सैनिक उस घोड़ेके आगे-पीछे और बीचमें रहकर उसकी रक्षा कर रहे थे।
तदनन्तर सेनापति कालजित्ने अपनी विशाल सेनाको कूच करनेकी आज्ञा दी। आज्ञा पाकर जन | समुदायसे भरी हुई वह विशाल बाहिनी छनोंसे सूर्यको ओटमें करके अपनी छावनीसे निकली। उस सेनाके सभी श्रेष्ठ वीर श्रीरघुनाथजीके यज्ञके लिये सुसज्जित हो गर्जते तथा युद्धके लिये उत्साह प्रकट करते हुए बड़े हर्षमें भरकर चले। सभी सैनिक हाथोंमें धनुष, पाश और खड्ग धारण किये सैनिक शिक्षाके अनुसार स्फुट गति से चलते हुए बड़ी तेजीके साथ महाराज श्रीरामके पास उपस्थित हुए। वह घोड़ा भी आकाशमें उछलता तथा पृथ्वीको अपनी टापसे खोदता हुआ धीरे-धीरे यज्ञ-चिह्नसे युक्त मण्डपके पास पहुँचा। घोड़ेको आया देख श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि वसिष्ठको समयोचित कार्य करानेके लिये प्रेरित किया। महर्षि वसिष्टने श्रीरामचन्द्रजीको स्वर्णमयी पत्नीके साथ बुलाकर अनुष्ठान आरम्भ कराया। उस यहमें वेद-शास्त्रोंका विवेचन करनेवाले बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठ, जो श्रीरघुनाथजीके वंशके आदि गुरु थे, आचार्य हुए। तपोनिधि अगस्त्यजीने ब्रह्माका [कृताकृतावेक्षणरूप) कार्य सँभाला। वाल्मीकि मुनि अध्वर्यु बनाये गये और कण्व द्वारपाल उस यज्ञ मण्डपके आठ द्वार थे जो तोरण आदिसे सुसज्जित होनेके कारण बहुत सुन्दर दिखायी देते थे। वात्स्यायनजी! उनमें से प्रत्येक द्वारपर दो-दो मन्त्रवेता ब्राह्मण बिठाये गये थे। पूर्व द्वारपर मुनिश्रेष्ठ देवल और असित थे। दक्षिण द्वारपर तपस्याके भंडार महात्मा कश्यप और अत्रि विराजमान थे। पश्चिम द्वारपर श्रेष्ठ महर्षि जातूकर्ण्य और जाजलिको उपस्थिति थी तथा उत्तर द्वारपर द्वित और एकत नामके दो तपस्वी मुनि विराज रहे थे।
ब्रह्मन्। इस प्रकार द्वारकी विधि पूर्ण करके महर्षिवसिष्ठने उस यज्ञसम्बन्धी श्रेष्ठ अश्वका विधिवत् पूजन आरम्भ किया। फिर सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे सुशोभित सुवासिनी स्त्रियोंने वहाँ आकर हल्दी, अक्षत और चन्दन आदिके द्वारा उस पूजित अश्वका पुनः पूजन किया तथा अगुरुका धूप देकर उसकी आरती उतारी। इस तरह पूजा करनेके पश्चात् महर्षि वसिष्ठने अश्वके उज्ज्वल ललाटपर, जो चन्दनसे चर्चित, कुंकुम आदि गन्धोंसे युक्त तथा सब प्रकारकी शोभाओंसे सम्पन्न था, एक चमचमाता हुआ पत्र बाँध दिया जो तपाये हुए सुवर्णका बना था उस पत्रपर महर्षिने दशरथनन्दन श्रीरघुनाथजीके बढ़े हुए बल और प्रतापका इस प्रकार उल्लेख किया-'सूर्यवंशकी पताका फहरानेवाले महाराज दशरथ बहुत बड़े धनुर्धर हो गये हैं। वे धनुषकी दीक्षा देनेवाले गुरुओंके भी गुरु थे, उन्हींके पुत्र महाभाग श्रीरामचन्द्रजी इस समय रघुवंशके स्वामी हैं। वे सब सूरमाओंके शिरोमणि तथा बड़े-बड़े वीरोंके बल-सम्बन्धी अभिमानको चूर्ण करनेवाले हैं। महाराज श्रीरामचन्द्र ब्राह्मणोंकी बतायी हुई विधिके अनुसार अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ कर रहे हैं। उन्होंने ही यह यज्ञ-सम्बन्धी अश्व, जो समस्त अश्वोंमें श्रेष्ठ तथा सभी वाहनोंगे प्रधान है, पृथ्वीपर भ्रमण करनेके लिये छोड़ा है। श्रीरामके ही भाई शत्रुघ्न, जिन्होंने लवणासुरका विनाश किया है, इस अश्वके रक्षक हैं। उनके साथ हाथी, घोड़े और पैदलोंकी विशाल सेना भी है। जिन राजाओंको अपने बलके घमंड में आकर ऐसा अभिमान होता हो कि हमलोग ही सबसे बढ़कर शूर, धनुर्धर तथा प्रचण्ड बलवान् हैं, वे ही रत्नकी मालाओंसे विभूषित इस यज्ञ सम्बन्धी अश्वको पकड़ने का साहस करें। वीर शत्रुघ्न उनके हाथसे इस अश्वको हठात् छुड़ा लेंगे।'
इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीकी भुजाओंके पराक्रमसे शोभा पानेवाले उनके प्रखर प्रतापका परिचय देते हुए महामुनि वसिष्ठजीने और भी अनेकों बातें लिखीं। इसके बाद अश्वको, जो शोभाका भंडार तथा वायुके समान बल और वेगसे युक्त था, छोड़ दिया। उसकी भू-लोक तथा पातालमें समानरूपसे तीव्र गति थी। तदनन्तर शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने शत्रुघ्नको आज्ञा दी - 'सुमित्रानन्दन ! यह अश्व अपनी इच्छाके अनुसार विचरनेवाला है, तुम इसकी रक्षा के लिये पीछे-पीछे जाओ जो योद्धा संग्राममै तुम्हारा सामना करनेके लिये आयें, उन्हींको तुम अपने पराक्रमसे रोकना। इस विशाल भू-मण्डलमें विचरते हुए अश्वकी तुम अपने वीरोचित गुणोंसे रक्षा करना। जो सोये हों, गिर गये हों, जिनके वस्त्र खुल गये हों और जो अत्यन्त भयभीत होकर चरणोंमें पड़े हों, उनको न मारना साथ ही जो अपने पराक्रमकी झूठी प्रशंसा नहीं करते, उन पुण्यात्माओंपर भी हाथ न उठाना। शत्रुघ्न ! यदि तुम रथपर रहो और तुम्हारे विपक्षी रथहीन हो जायँ तो उन्हें न मारना। यदि पुण्य चाहो तो जो शरणागत होकर कहें कि 'हम आपहीके हैं,' उनका भी तुम्हें वध नहीं करना चाहिये। जो योद्धा उन्मत्त, मतवाले, सोये हुए, भागे हुए, भयसे आतुर हुए तथा 'मैं आपका ही हूँ' ऐसा कहनेवाले मनुष्यको मारता है, वह नीच गतिको प्राप्त होता है। कभी पराये धन और परायी स्त्रीकी ओर चित्त न ले जाना। नीचोंका संग न करना, सभी अच्छे गुणोंको अपनाये रहना, बड़े-बूढ़ोंके ऊपर पहले प्रहार न करना,पूजनीय पुरुषोंकी पूजाका उल्लंघन न हो, इसके लिये सचेष्ट रहना तथा कभी दयाभावका परित्याग न करना । गौ, ब्राह्मण तथा धर्मपरायण वैष्णवको नमस्कार करना। इन्हें मस्तक झुकाकर मनुष्य जहाँ कहीं जाता है, वहीं उसे सफलता प्राप्त होती है।
'महाबाहो ! भगवान् श्रीविष्णु सबके ईश्वर, साक्षी तथा सर्वत्र व्यापक स्वरूप धारण करनेवाले हैं। जो उनके भक्त हैं, वे भी उन्होंके रूपमें सर्वत्र विचरते हैं। जो लोग सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें स्थित रहनेवाले महाविष्णुका स्मरण करते हैं, उन्हें साक्षात् महाविष्णुके समान ही समझना चाहिये। जिनके लिये कोई अपना या पराया नहीं है तथा जो अपने साथ शत्रुता रखनेवालेको भी मित्र ही मानते हैं, वे वैष्णव एक ही क्षणमें पापीको पवित्र कर देते हैं। जिन्हें भागवत प्रिय है तथा जो ब्राह्मणोंसे प्रेम करते हैं, वे वैकुण्ठलोकसे इस संसारको पवित्र करनेके लिये यहाँ आये हैं। जिनके मुखमें भगवान्का नाम, हृदयमें सनातन श्रीविष्णुका ध्यान तथा उदरमें उन्हींका प्रसाद है, वे यदि जातिके चाण्डाल हों तो भी वैष्णव ही हैं। जिन्हें वेद ही अत्यन्त प्रिय हैं संसारके सुख नहीं, तथा जो निरन्तर अपने धर्मका पालन करतेरहते हैं, उनसे भेंट होनेपर तुम उनके सामने मस्तक झुकाना । जिनकी दृष्टिमें शिव और विष्णुमें तथा ब्रह्मा और शिवमें भी कोई भेद नहीं है, उनके चरणोंकी पवित्र धूलि मेँ अपने शीश चढ़ाता हूँ, वह समस्त पापका विनाश करनेवाली है।* गौरी, गंगा तथा महालक्ष्मी-इन तीनोंमें जो भेद नहीं समझते, उन सभी मनुष्योंको स्वर्गलोकसे भूमिपर आये हुए देवता समझना चाहिये। जो अपनी शक्तिके अनुसार भगवान्की प्रसन्नताके लिये शरणागतोंकी रक्षा तथा बड़े-बड़े दान किया करता है, उसे वैष्णवोंमें सर्वश्रेष्ठ समझो। जिनका नाम महान् पापकी राशिको तत्काल भस्म कर देता है, उन भगवान्के युगल-चरणोंमें जिसकी भक्ति है, वही वैष्णव है। जिनकी इन्द्रियाँ वशमें हैं और मन भगवान्के चिन्तनमें लगा रहता है, उनको नमस्कार करके मनुष्य अपने जन्मसे लेकर मृत्युतकके सम्पूर्ण जीवनको पवित्र बना लेता है। परायी स्त्रियोंको तलवारकी धार समझकर यदि तुम उनका परित्याग करोगे तो संसारमें तुम्हें सुयशसे सुशोभित ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी। इस प्रकार मेरे आदेशका पालन करते हुए तुम उत्तम योगके द्वारा प्राप्त होनेवाले परम धामको पा सकते हो, जिसकी सभी महात्माओंने प्रशंसा की है।'