भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन्! आपने अर्वाक्त्रोत नामक सर्गका जो मानव सर्गके नामसे भी प्रसिद्ध है,
संक्षेपसे वर्णन किया; अब उसीको विस्तारके साथ कहिये। ब्रह्माजीने मनुष्योंकी सृष्टि किस प्रकार की ? महामुने! प्रजापतिने चारों वर्णों तथा उनके गुणोंको कैसे उत्पन्न किया? और ब्राह्मणादि वर्णोंके कौन-कौन-से कर्म माने गये हैं? इन सब बातोंका वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ! सृष्टिकी इच्छा रखनेवाले ब्रह्माजीने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णोंको उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुखसे, क्षत्रिय वक्षःस्थलसे, वैश्य जाँघोंसे और शूद्र ब्रह्माजीके पैरोंसे उत्पन्न हुए। महाराज! ये चारों वर्ण यज्ञके उत्तम साधन हैं; अतः ब्रह्माजीने यज्ञानुष्ठानकी सिद्धिके लिये ही इन सबकी सृष्टि की। यज्ञसे तृप्त होकर देवतालोग जलको वृष्टि करते हैं, जिससे मनुष्योंकी भी तृप्ति होती है; अतः धर्ममय यज्ञ सदा ही कल्याणका हेतु है। जो लोग सदा अपने वर्णोचित कर्ममें लगे रहते हैं, जिन्होंने धर्म विरुद्ध आचरणोंका परित्याग कर दिया है। तथा जो सन्मार्गपर चलनेवाले हैं, वे श्रेष्ठ मनुष्य ही यज्ञका यथावत् अनुष्ठान करते हैं। राजन्। [ यज्ञके द्वारा ] मनुष्य इस मानव-देहके त्यागके पश्चात् स्वर्ग और अपवर्ग भी प्राप्त कर सकते हैं तथा और भी जिस-जिस स्थानको पानेकी उन्हें इच्छा हो, उसी उसीमें वे जा सकते हैं। नृपश्रेष्ठ ब्रह्माजीके द्वारा चातुर्वर्ण्य व्यवस्थाके अनुसार रची हुई प्रजा उत्तमश्रद्धाके साथ श्रेष्ठ आचारका पालन करने लगी। वह इच्छानुसार जहाँ चाहती, रहती थी। उसे किसी प्रकारकी बाधा नहीं सताती थी । समस्त प्रजाका अन्तःकरण शुद्ध था। वह स्वभावसे ही परम पवित्र थी। धर्मानुष्ठानके कारण उसकी पवित्रता और भी बढ़ गयी थी। प्रजाओंके पवित्र अन्तःकरणमें भगवान् श्रीहरिका निवास होनेके कारण सबको शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था, जिससे सब लोग श्रीहरिके 'परब्रह्म' नामक कर लेते थे। परमपदका साक्षात्कार तदनन्तर प्रजा जीविकाके साधन उद्योग-धंधे और खेती आदिका काम करने लगी। राजन् ! धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, कँगनी, ज्वार, कोदो, चेना, उड़द, मूँग, मसूर, मटर, कुलथी, अरहर, चना और सन- ये सत्रह ग्रामीण अन्नोंकी जातियाँ हैं। ग्रामीण और जंगली दोनों प्रकारके मिलाकर चौदह अन्न यज्ञके उपयोगमें आनेवाले माने गये हैं। उनके नाम ये हैं- धान, जौ, उड़द, गेहूँ, महीन धान्य, तिल, सातवीं कँगनी और आठवीं कुलथी- ये ग्रामीण अन्न हैं तथा साँवाँ, तिन्नीका चावल, जर्तिल (वनतिल), गवेधु, वेणुयव और मक्का-ये छ: जंगली अन्न हैं। ये चौदह अन्न यज्ञानुष्ठानकी सामग्री हैं तथा यज्ञ ही इनकी उत्पत्तिका प्रधान हेतु है। यज्ञके साथ ये अन्न प्रजाकी उत्पत्ति और वृद्धिके परम कारण हैं; इसलिये इहलोक और परलोककेज्ञाता विद्वान् पुरुष इन्हींके द्वारा यहाँका अनुष्ठान करते रहते हैं। नृपश्रेष्ठ प्रतिदिन किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान मनुष्योंका परम उपकारक तथा उन्हें शान्ति प्रदान करनेवाला होता है। [कृषि आदि जीविका साधनोंके सिद्ध हो जानेपर ] प्रजापतिने प्रजाके स्थान और गुणोंके अनुसार उनमें धर्म- मर्यादाकी स्थापना की। फिर वर्ण और आश्रमोंके पृथक्-पृथक् धर्म निश्चित किये तथा स्वधर्मका भलीभाँति पालन करनेवाले सभी वर्णोंके लिये पुण्यमय लोकोंकी रचना की।
योगियोंको अमृतस्वरूप ब्रह्मधामकी प्राप्ति होती है, जो परम पद माना गया है। जो योगी सदा एकान्तमें रहकर यत्नपूर्वक ध्यानमें लगे रहते हैं, उन्हें वह उत्कृष्ट पद प्राप्त होता है, जिसका ज्ञानीजन ही साक्षात्कार कर पाते हैं। तामिस्र, अन्धतामिस्र, महारौरव, रौरव, घोर असिपत्रवन, कालसूत्र और अवीचिमान् आदि जो नरक हैं, वे वेदोंकी निन्दा, यज्ञोंका उच्छेद तथा अपने धर्मका परित्याग करनेवाले पुरुषोंके स्थान बताये गये हैं।
ब्रह्माजीने पहले मनके संकल्पसे ही बराबर प्राणियोंकी सृष्टि की; किन्तु जब इस प्रकार उनकी सारी प्रजा [पुत्र, पौत्र आदिके क्रमसे] अधिक न बढ़ सकी, तब उन्होंने अपने ही सदृश अन्य मानस पुत्रोंको उत्पन्न किया। उनके नाम हैं-भृगु, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ पुराणमें ये नौ ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। इन भृगु आदिके भी पहले जिन सनन्दन आदि पुत्रोंको ब्रह्माजीने जन्म दिया था, उनके मनमें पुत्र उत्पन्न करनेकी इच्छा नहीं हुई; इसलिये वे सृष्टि रचनाके कार्यमें नहीं फँसे । उन सबको स्वभावतः विज्ञानकी प्राप्ति हो गयी थी। वे मात्सर्य आदि दोषोंसे रहित और वीतराग थे। इस प्रकार संसारकी सृष्टिके कार्यसे उनके उदासीन हो जानेपर महात्मा ब्रह्माजीको महान् क्रोध हुआ, उनकी भौंहें तन गयीं और ललाट क्रोधसे उद्दीप्त हो उठा। इसी समय उनके ललाटसे मध्याहनकालीन सूर्यके समान तेजस्वी रुद्र प्रकट हुए।उनका आधा शरीर स्त्रीका था और आधा पुरुषका। वे बड़े प्रचण्ड थे और उनका शरीर बड़ा विशाल था । तब ब्रह्माजी उन्हें यह आदेश देकर कि 'तुम अपने शरीरके दो भाग करो' वहाँसे अन्तर्धान हो गये। उनके ऐसा कहनेपर रुद्रने अपने शरीरके स्त्री और पुरुषरूप दोनों भागोंको पृथक्-पृथक् कर दिया और फिर पुरुषभागको ग्यारह रूपोंमें विभक्त किया। इसी प्रकार स्त्रीभागको भी अनेकों रूपोंमें प्रकट किया। स्त्री और पुरुष दोनों भागोंके वे भिन्न-भिन्न रूप सौम्य, क्रूर, शान्त, श्याम और गौर आदि नाना प्रकारके थे।
तत्पश्चात् ब्रह्माजीने अपनेसे उत्पन्न, अपने ही स्वरूपभूत स्वायम्भुवको प्रजापालनके लिये प्रथम मनु बनाया। स्वायम्भुव मनुने शतरूपा नामकी स्त्रीको, जो तपस्याके कारण पापरहित थी, अपनी पत्नीके रूपमें स्वीकार किया। देवी शतरूपाने स्वायम्भुव मनुसे दो पुत्र और दो कन्याओंको जन्म दिया। पुत्रोंके नाम थे प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा कन्याएँ प्रसूति और आकूतिके नामसे प्रसिद्ध हुईं। मनुने प्रसूतिका विवाह दक्षके साथ और आकूतिका रुचि प्रजापतिके साथ कर दिया। दक्षने प्रसूतिके गर्भसे चौबीस कन्याएँ उत्पन्न कीं। उनके नाम हैं - श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, पुष्टि, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और तेरहवीं कीर्ति। इन दक्ष कन्याओंको भगवान् धर्मने अपनी पत्नियोंके रूपमें ग्रहण किया। इनसे छोटी ग्यारह कन्याएँ और थीं, जो ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा नामसे प्रसिद्ध हुई। नृपश्रेष्ठ! इन ख्याति आदि कन्याओंको क्रमशः भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा और मैंने (पुलस्त्य) तथा पुलह, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ, अग्नि तथा पितरोंने ग्रहण किया। श्रद्धाने कामको, लक्ष्मीने दर्पको, धृतिने नियमको, तुष्टिने सन्तोषको और पुष्टिने लोभको जन्म दिया। मेधाने श्रुतको, क्रियाने दण्ड, नय और विनयको, बुद्धिने बोधको, लज्जाने विनयको, वपुने अपने पुत्रव्यवसायको, शान्तिने क्षेमको, सिद्धिने सुखको और कीर्तिने यशको उत्पन्न किया। ये ही धर्मके पुत्र हैं। कामसे उसकी पत्नी नन्दीने हर्ष नामक पुत्रको जन्म दिया, यह धर्मका पौत्र था। भृगुकी पत्नी ख्यातिने लक्ष्मीको जन्म दिया, जो देवाधिदेव भगवान् नारायणकी पत्नी हैं। भगवान् रुद्रने दक्षसुता सतीको पत्नीरूपमें ग्रहण किया, जिन्होंने अपने पितापर खीझकर शरीर त्याग दिया। अधर्मकी स्त्रीका नाम हिंसा है। उससे अनृत नामक पुत्र और निकृति नामवाली कन्याकी उत्पत्ति हुई। फिर उन दोनोंने भय और नरक नामक पुत्र और मायातथा वेदना नामकी कन्याओंको उत्पन्न किया। माया भयकी और वेदना नरककी पत्नी हुई। उनमेंसे मायाने समस्त प्राणियोंका संहार करनेवाले मृत्यु नामक पुत्रको जन्म दिया और वेदनासे नरकके अंशसे दुःखकी उत्पत्ति हुई। फिर मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा और क्रोधका जन्म हुआ। ये सभी अधर्मस्वरूप हैं और दुःखोत्तर नामसे प्रसिद्ध हैं। इनके न कोई स्त्री है न पुत्र । ये सब-के-सब नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। राजकुमार भीष्म ! ये ब्रह्माजीके रौद्र रूप हैं और ये ही संसारके नित्य प्रलयमें कारण होते हैं।