नारदजीने कहा- सुरश्रेष्ठ। अब मेरे हितके लिये आप यमकी आराधना बताइये। देव किस उपायसे मनुष्यकी एक नरकसे दूसरे नरकमें नहीं जाना पड़ता। सुना जाता है यमलोक वैतरणी नदी है, जो दुर्द अपार, दुस्तर तथा रक्तकी धारा बहानेवाली है। वह समस्त प्राणियोंके लिये दुस्तर है, उसे सुगमताके साथ किस प्रकार पार किया जा सकता है?
महादेवजी बोले- प्रान् पूर्वकालकी बात है, द्वारकापुरीके समुद्र स्नान करके मैं ज्यों ही निकला, सामनेसे मुझे ब्रह्मचारी मुद्गल मुनि आते दिखायी दिये। उन्होंने प्रणाम किया और विस्मित होकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया।
मुद्गल बोले- देव मैं अकस्मात् मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा था। उस समय मेरे सारे अंग जल रहे थे। इतनेहीमें यमराजके दूतोंने आकर मुझे बलपूर्वक शरीरसे खींचा। मैं अंगूठेके बराबर पुरुष शरीर धारण करके बाहर निकला; फिर उन दूतोंने मुझेखूब कसकर बाँधा और उसी अवस्थामें यमराजके पास पहुँचा दिया। मैं एक ही क्षणमें यमराजकी सभा में पहुँचकर देखता हूँ कि पीले नेत्र और काले मुखवाले यम सामने ही बैठे हैं। वे महाभयंकर जान पड़ते थे। भयानक राक्षस और दानव उनके पास बैठे और सामने खड़े थे। अनेक धर्माधिकारी तथा चित्रगुप्त आदि लेखक वहाँ मौजूद थे। मुझे देखकर विश्वके शासक यमने अपने किंकरोंसे कहा- 'अरे! तुमलोग नामके भ्रममें पड़कर मुनिको कैसे ले आये? इन्हें छोड़ो और कौण्डिन्य नामक ग्राममें जो भीमकका पुत्र मुद्गल नामक क्षत्रिय है, उसको ले आओ; क्योंकि उसकी आयु समाप्त हो चुकी है। '
यह सुनकर वे दूत वहाँ गये और पुनः लौट आये। फिर समस्त यमदूत धर्मराजसे बोले-'सूर्यनन्दन ! वहाँ जानेपर भी हमलोगोंने ऐसे किसी प्राणीको नहीं देखा, जिसकी आयु क्षीण हो चुकी हो। न जाने, कैसे हमलोगोंका चित्त भ्रममें पड़ गया ?'
यमराज बोले- जिन लोगोंने 'वैतरणी' नामक द्वादशीका व्रत किया है, वे तुम यमदूतोंके लिये प्रायः अदृश्य हैं। उज्जैन, प्रयाग अथवा यमुनाके तटपर जिनकी मृत्यु हुई है तथा जिन्होंने तिल, हाथी, सुवर्ण और गौ आदिका दान किया है, वे भी तुमलोगों की दृष्टिमें नहीं आ सकते।
दूतोंने पूछा- स्वामिन्! वह व्रत कैसा है? आप उसका पूरा-पूरा वर्णन कीजिये। देव! मनुष्योंको उस समय ऐसा कौन-सा कर्म करना चाहिये जो आपको संतोष देनेवाला हो। जिन्होंने कृष्णपक्षकी एकादशीका व्रत किया है, वे कैसे पापमुक्त हो सकते हैं?
यमराज बोले- दूतो! मार्गशीर्ष आदि मासोंमें जो ये कृष्णपक्षकी द्वादशियाँ आती हैं, उन सबमें विधिपूर्वक वैतरणी व्रत करना चाहिये। जबतक वर्ष पूरा न हो जाय, तबतक प्रतिमास व्रतको चालू रखना चाहिये। व्रतके दिन उपवासका नियम ग्रहण करनाचाहिये, जो भगवान् विष्णुको संतोष प्रदान करनेवाला है। द्वादशोको श्रद्धा और भक्तिके साथ श्रीगोविन्दकी पूजा करके इस प्रकार कहे- 'देव! स्वप्नमें इन्द्रियोंकी विकलाके कारण यदि भोजन और मैथुनको क्रिया बन जाय तो आप मुझपर कृपा करके क्षमा कीजिये।' इस प्रकार नियम करके मिट्टी, गोमय और तिल लेकर मध्याहनमें तीर्थ (जलाशय) के पास जाय और व्रतको पूर्तिके लिये निम्नांकित मन्त्रसे विधिपूर्वक स्नान करे
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ॥
मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ।
त्वया हतेन पापेन सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
काश्यां चैव तु संभूतास्तिला वै विष्णुरूपिणः ।
तिलस्नानेन गोविन्दः सर्वपापं व्यपोहति ॥
विष्णुदेोद्भवे देवि महापापापहारिणि ।
सर्वपापं हर त्वं वै सर्वौषधि नमोऽस्तु ते॥
(68 | 34-37) 'वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतारके समय भगवान् विष्णुने भी तुम्हें अपने चरणोंसे नापा था। मृत्तिके! मैंने पूर्वजन्ममें जो पाप संचित किया है, मेरा वह सारा पाप तुम हर लो तुम्हारे द्वारा पापका नाश हो जानेपर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। तिल काशी में उत्पन्न हुए हैं तथा वे भगवान् विष्णुके स्वरूप हैं। तिलमिश्रित जलके द्वारा स्नान करनेपर भगवान् गोविन्द सब पापका नाश कर देते हैं। देवी सर्वोषधि ! तुम भगवान् विष्णुके देहसे प्रकट हुई तथा महान् पापका अपहरण करनेवाली हो। तुम्हें नमस्कार है। तुम मेरे सारे पाप हर लो।'
इस प्रकार मृत्तिका आदिके द्वारा स्नान करके सिरपर तुलसीदल धारण कर तुलसीका नाम लेते हुए स्नान करे। यह स्नान ऋषियोंद्वारा बताया गया है। इसे विधिपूर्वक करना चाहिये। इस तरह स्नान करनेके पश्चात् जलसे बाहर निकलकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे। फिर देवताओं और पितरोंका तर्पण करके श्रीविष्णुका पूजन करे। उसकी विधि इस प्रकार है। पहले एक कलशकी, फूटा टूटा न हो, स्थापना करे। उसमें पंचपल्लवऔर पंचरत्न डाल दे। फिर दिव्य माला पहनाकर उस कलशको गन्धसे सुवासित करे कलशमें जल भर दे और उसमें द्रव्य डालकर उसके ऊपर ताँबेका पात्र रख दे। इसके बाद उस पात्रमें देवाधिदेव तपोनिधि भगवान् श्रीधरकी स्थापना करके पूर्वोक्त विधिसे पूजा करे। फिर मिट्टी और गोवर आदिसे सुन्दर मण्डल बनावे। सफेद और धुले हुए चावलोंको पानीमें पीसकर उसके द्वारा मण्डलका संस्कार करे। तत्पश्चात् हाथ-पैर आदि अंगोंसे युक्त धर्मराजका स्वरूप बनावे और उसके आगे ताँबेकी वैतरणी नदी स्थापित करके उसकी पूजा करे। उसके बाद पृथक् आवाहन आदि करके यमराजकी विधिवत् पूजा करे।
पहले भगवान् विष्णुसे इस प्रकार प्रार्थना करे - महाभाग केशव ! मैं विश्वरूपी देवेश्वर यमका आवाहन करता हूँ। आप यहाँ पधारें और समीपमें निवास करें। लक्ष्मीकान्त ! हरे! यह आसनसहित पाद्य आपकी सेवामें समर्पित है। प्रभो! विश्वका प्राणिसमुदाय आपका स्वरूप है। आपको नमस्कार है। आप प्रतिदिन मुझपर कृपा कीजिये।' इस प्रकार प्रार्थना करके 'भूतिदाय नम:' इस मन्त्रके द्वारा भगवान् विष्णुके चरणोंका, 'अशोकाय नमः ' से घुटनोंका, 'शिवाय नमः' से जाँघोंका, 'विश्वमूर्तये नमः' से कटिभागका 'कन्दपय नमः' से लिंगका, 'आदित्याय नमः' से अण्डकोषका, 'दामोदराय नमः' से उदरका, 'वासुदेवाय नमः - से स्तनोंका, 'श्रीधराय नमः' 'श्रीधराय नमः' से मुखका, 'केशवाय नमः' से केशोंका, 'शार्ङ्गधराय नमः - से पीठका, 'वरदाय नमः' से पुनः चरणोंका, 'शङ्खपाणये चक्रपाणये नमः', 'असिपाणये नमः', 'गदापाणये नमः' और 'परशुपाणये नमः ' – इन नाममन्त्रोंद्वारा क्रमशः शंख, चक्र, खड्ग, गदा तथा परशुका तथा 'सर्वात्मने नमः' इस मन्त्रके द्वारा मस्तकका ध्यान करे। इसके बाद
यों कहे- 'मैं समस्त पापकी राशिका नाश करनेके लिये मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध तथा कल्किका पूजन करता हूँ; भगवन्! इन अवतारोंके रूपमें आपकोनमस्कार है। बारम्बार नमस्कार है।' इन सभी मन्त्रोंके द्वारा श्रीविष्णुका ध्यान करके उनका पूजन करे। * तत्पश्चात् निम्नांकित नाममन्त्रोंके द्वारा भगवान् धर्मराजका पूजन करना चाहिये
धर्मराज नमस्तेऽस्तु धर्मराज नमोऽस्तु ते ।
दक्षिणाशाय ते तुभ्यं नमो महिषवाहन ॥
चित्रगुप्त नमस्तुभ्यं विचित्राय नमो नमः ।
नरकार्तिप्रशान्त्यर्थं कामान् यच्छ ममेप्सितान् ॥
यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ll
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः ।
नीलाय चैव दध्नाय नित्यं कुर्यान्नमो नमः ॥
(68।53-56) 'धर्मराज! आपको बारम्बार नमस्कार है। दक्षिण दिशाके स्वामी! आपको नमस्कार है। महिषपर चलनेवाले देवता! आपको नमस्कार है। चित्रगुप्त! आपको नमस्कार है। नरककी पीड़ा शान्त करनेके लिये विचित्र नामसे प्रसिद्ध आपको नमस्कार है। आप मेरी मनोवांछित कामनाएँ पूर्ण करें। यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, वृकोदर, चित्र, चित्रगुप्त, नील और दध्नको नित्य नमस्कार करना चाहिये।'
तदनन्तर वैतरणीकी प्रतिमाको अर्घ्य देते हुए इस प्रकार कहे- 'वैतरणी! तुम्हें पार करना अत्यन्त कठिन है। तुम पापका नाश करनेवाली और सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली हो। महाभागे ! यहाँ आओ और मेरे दिये हुए अर्घ्यको ग्रहण करो। यमद्वारके भयंकर मार्ग वैतरणी नदी विख्यात है उससे उद्धार पानेकेलिये मैं यह अर्घ्य दे रहा हूँ। जो जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थासे परे है, पापी पुरुषोंके लिये जिसको पार करना अत्यन्त कठिन हैं, जो समस्त प्राणियोंके भयका निवारण करनेवाली है तथा यातनामें पड़े हुए प्राणी भयके मारे जिसमें डूब जाते हैं, उस भयंकर वैतरणी नदीको पार करनेके लिये मैंने यह पूजन किया है। वैतरणी देवी तुम्हारी जय हो तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। जिसमें देवता वास करते हैं, वही वैतरणी नदी है। मैंने भगवान् केशवकी प्रसन्नताके लिये भक्तिपूर्वक उस नदीका पूजन किया है। पापका नाश करनेवाली सिन्धुरूपिणी वैतरणी नदीकी पूजा सम्पन्न हुई। मैं उसे पार करने तथा सब पापोंसे छुटकारा पानेके लिये इस वैतरणी प्रतिमाका दान करता हूँ।'
इसके बाद निम्नांकित मन्त्र पढ़कर भगवान्से प्रार्थना करे
कृष्ण कृष्ण जगन्नाथ संसारादुद्धरस्य माम् ॥
नामग्रहणमात्रेण सर्वपापं हरस्व मे।
(68 । 64-65) 'कृष्ण! कृष्ण! जगदीश्वर! आप संसारसे मेरा उद्धार कीजिये। अपने नामोंके कीर्तनमात्रसे मेरा सारा पाप हर लीजिये।'
फिर क्रमशः यज्ञोपवीत आदि समर्पण करे। यज्ञोपवीतका मन्त्र इस प्रकार है
यज्ञोपवीतं परमं कारितं नवतन्तुभिः ॥
प्रतिगृह्णीष्व देवेश प्रीतो यच्छ ममेप्सितम् ।
'देवेश्वर मैंने नौ तन्तुओंसे इस उत्तमयज्ञोपवीतका निर्माण कराया है, आप इसे ग्रहण करें और प्रसन्न होकर मेरा मनोरथ पूर्ण करें।'
ताम्बूल-मन्त्र
इदं दत्तं च ताम्बूलं यथाशक्ति सुशोभनम् ॥
प्रतिगृह्णीष्व देवेश मामुद्धर भवार्णवात् ।
(68 । 66-67)
'देवेश! मैंने यथाशक्ति उत्तम शोभासम्पन्न ताम्बूल दान किया है, इसे स्वीकार करें और भवसागरसे मेरा उद्धार कर दें।'
दीप - आरतीका मन्त्र
पञ्चवर्तिप्रदीपोऽयं देवेशारार्तिकं तव ॥
मोहान्धकारद्युमणे भक्तियुक्तो भवार्तिहन् l
(68 । 67-68)
'देवेश ! आप मोहरूपी अन्धकार दूर करनेके लिये सूर्यरूप हैं। भव-बन्धनकी पीड़ा हरनेवाले परमात्मन् ! मैं भक्तियुक्त होकर आपकी सेवामें यह पाँच बत्तियोंका दीपक प्रस्तुत करता हूँ। यह आपके लिये आरती है।'
नैवेद्य-मन्त्र
परमान्नं सुपक्वान्नं समस्तरससंयुतम् ॥
निवेदितं मया भक्त्या भगवन् प्रतिगृह्यताम् ।
(68।68-69)
'भगवन्! मैंने सब रसोंसे युक्त सुन्दर पकवान, ज़ो परम उत्तम अन्न है, भक्तिपूर्वक सेवामें निवेदन किया है; आप इसे स्वीकार करें।'
जप- समर्पण
द्वादशाक्षरमन्त्रेण यथासंख्यजपेन च ॥
प्रीयतां मे श्रियः कान्तः प्रीतो यच्छतु वाञ्छितम्
(68/69-70)
'द्वादशाक्षर मन्त्रका यथाशक्ति जप करनेसे भगवान्
लक्ष्मीकान्त मुझपर प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें।'
इस प्रकार श्रीहरिका पूजन करनेके बाद निम्नांकित मन्त्र पढ़कर गौको प्रणाम करे
पञ्च गावः समुत्पन्ना मध्यमाने महोदधौ।
तासांमध्ये तु या नन्दा तस्यै धेन्वै नमो नमः ॥
(68।70-71)
'समुद्रका मन्थन होते समय पाँच गौएँ उत्पन्न हुई थीं। उनमेंसे जो नन्दा नामकी धेनु है, उसे मेरा बारम्बार नमस्कार है।'
तत्पश्चात् विधिपूर्वक गौकी पूजा करके निम्नांकित मन्त्रोंद्वारा एकाग्रचित हो अर्घ्य प्रदान करे
सर्वकामदुहे देवि सर्वार्तिकनिवारिणि
आरोग्यं संततिं दीर्घा देहि नन्दिनि मे सदा॥
पूजिता च वसिष्ठेन विश्वामित्रेण धीमता।
कपिले हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ॥
गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः ।
नाके मामुपतिष्ठन्तु हेमशृङ्ग्यः पयोमुचः ॥
सुरभ्यः सौरभेयाश्च सरितः सर्वदेवमये
सुभद्रे देवि भक्तवत्सले ॥ सागरास्तथा।
(68।72–75) 'समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली तथा सब प्रकारकी पीड़ा हरनेवाली देवी नन्दिनी! मुझे सर्वदा आरोग्य तथा दीर्घायु संतान प्रदान करो। कपिले महर्षि वसिष्ठ तथा बुद्धिमान् विश्वामित्रजीने भी तुम्हारी पूजा की है। मैंने पूर्वजन्ममें जो पाप संचित किया है, उसे हर लो। गएँ मेरे आगे रहें, गौएँ ही मेरे पीछे रहें तथा स्वर्गलोकमें भी सुवर्णमय सींगोंसे सुशोभित, सरिताओं और समुद्रोंकी भाँति दूधकी धारा बहानेवाली सुरभी और उनकी संतानें मेरे पास आयें। सर्वदेवमयी देवी नन्दिनी! तुम परम कल्याणमयी और भक्तवत्सला हो। तुम्हें नमस्कार है।'
इस प्रकार विधिवत् पूजा करके गौओंको प्रतिदिन ग्रास समर्पण करे। उसका मन्त्र इस प्रकार है
सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पापनाशिनीः ।
प्रतिगृह्णन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः ॥
(68।76-77)
'सबके हितमें लगी रहनेवाली, पवित्र, पापनाशिनी तथा त्रिभुवनकी माता गौएँ मेरा दिया हुआ ग्रास ग्रहण करें।' महादेवजी कहते हैं- इस प्रकार धर्मराजके मुखसे सुने हुए वैतरणीव्रतका मेरे आगे वर्णन करकेइच्छानुसार भ्रमण करनेवाले द्विजश्रेष्ठ मुद्गल मुनि चले गये।
द्विजवर ! जहाँ गोपीचन्दन रहता है, वह घर तीर्थस्वरूप है - यह भगवान् श्रीविष्णुका कथन है। जिस ब्राह्मणके घरमें गोपीचन्दन मौजूद रहता है, वहाँ कभी शोक, मोह तथा अमंगल नहीं होते। जिसके घरमें रात-दिन गोपीचन्दन प्रस्तुत रहता है, उसके पूर्वज सुखी होते हैं तथा सदा उसकी संतति बढ़ती है। गोपीतालाबसे उत्पन्न होनेवाली मिट्टी परम पवित्र एवं शरीरका शोधन करनेवाली है। देहमें उसका लेप करनेसे सारे रोग नष्ट होते हैं तथा मानसिक चिन्ताएँ भी दूर हो जाती हैं। अतः पुरुषोंद्वारा शरीरमें धारण किया हुआ गोपीचन्दन सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसकाध्यान और पूजन करना चाहिये। यह मल - दोषका विनाश करनेवाला है। इसके स्पर्शमात्रसे मनुष्य पवित्र हो जाता है। वह अन्तकालमें मनुष्योंके लिये मुक्तिदाता एवं परम पावन है। द्विजश्रेष्ठ ! मैं क्या बताऊँ, गोपीचन्दन मोक्ष प्रदान करनेवाला है। भगवान् विष्णुका प्रिय तुलसीकाष्ठ, उसके मूलकी मिट्टी, गोपीचन्दन तथा हरिचन्दन-इन चारोंको एकमें मिलाकर विद्वान् पुरुष अपने शरीरमें लगाये। जो ऐसा करता है, उसके द्वारा जम्बूद्वीपके समस्त तीर्थोंका सदाके लिये सेवन हो जाता है। जो गोपीचन्दनको घिसकर उसका तिलक लगाता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके परम पदको प्राप्त होता है। जिस पुरुषने गोपीचन्दन धारण कर लिया, उसने मानो गयामें जाकर अपने पिताका श्राद्ध-तर्पण आदि सब कुछ कर लिया।