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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 175 - Khand 5, Adhyaya 175

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यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य

नारदजीने कहा- सुरश्रेष्ठ। अब मेरे हितके लिये आप यमकी आराधना बताइये। देव किस उपायसे मनुष्यकी एक नरकसे दूसरे नरकमें नहीं जाना पड़ता। सुना जाता है यमलोक वैतरणी नदी है, जो दुर्द अपार, दुस्तर तथा रक्तकी धारा बहानेवाली है। वह समस्त प्राणियोंके लिये दुस्तर है, उसे सुगमताके साथ किस प्रकार पार किया जा सकता है?

महादेवजी बोले- प्रान् पूर्वकालकी बात है, द्वारकापुरीके समुद्र स्नान करके मैं ज्यों ही निकला, सामनेसे मुझे ब्रह्मचारी मुद्गल मुनि आते दिखायी दिये। उन्होंने प्रणाम किया और विस्मित होकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

मुद्गल बोले- देव मैं अकस्मात् मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा था। उस समय मेरे सारे अंग जल रहे थे। इतनेहीमें यमराजके दूतोंने आकर मुझे बलपूर्वक शरीरसे खींचा। मैं अंगूठेके बराबर पुरुष शरीर धारण करके बाहर निकला; फिर उन दूतोंने मुझेखूब कसकर बाँधा और उसी अवस्थामें यमराजके पास पहुँचा दिया। मैं एक ही क्षणमें यमराजकी सभा में पहुँचकर देखता हूँ कि पीले नेत्र और काले मुखवाले यम सामने ही बैठे हैं। वे महाभयंकर जान पड़ते थे। भयानक राक्षस और दानव उनके पास बैठे और सामने खड़े थे। अनेक धर्माधिकारी तथा चित्रगुप्त आदि लेखक वहाँ मौजूद थे। मुझे देखकर विश्वके शासक यमने अपने किंकरोंसे कहा- 'अरे! तुमलोग नामके भ्रममें पड़कर मुनिको कैसे ले आये? इन्हें छोड़ो और कौण्डिन्य नामक ग्राममें जो भीमकका पुत्र मुद्गल नामक क्षत्रिय है, उसको ले आओ; क्योंकि उसकी आयु समाप्त हो चुकी है। '

यह सुनकर वे दूत वहाँ गये और पुनः लौट आये। फिर समस्त यमदूत धर्मराजसे बोले-'सूर्यनन्दन ! वहाँ जानेपर भी हमलोगोंने ऐसे किसी प्राणीको नहीं देखा, जिसकी आयु क्षीण हो चुकी हो। न जाने, कैसे हमलोगोंका चित्त भ्रममें पड़ गया ?'

यमराज बोले- जिन लोगोंने 'वैतरणी' नामक द्वादशीका व्रत किया है, वे तुम यमदूतोंके लिये प्रायः अदृश्य हैं। उज्जैन, प्रयाग अथवा यमुनाके तटपर जिनकी मृत्यु हुई है तथा जिन्होंने तिल, हाथी, सुवर्ण और गौ आदिका दान किया है, वे भी तुमलोगों की दृष्टिमें नहीं आ सकते।

दूतोंने पूछा- स्वामिन्! वह व्रत कैसा है? आप उसका पूरा-पूरा वर्णन कीजिये। देव! मनुष्योंको उस समय ऐसा कौन-सा कर्म करना चाहिये जो आपको संतोष देनेवाला हो। जिन्होंने कृष्णपक्षकी एकादशीका व्रत किया है, वे कैसे पापमुक्त हो सकते हैं?

यमराज बोले- दूतो! मार्गशीर्ष आदि मासोंमें जो ये कृष्णपक्षकी द्वादशियाँ आती हैं, उन सबमें विधिपूर्वक वैतरणी व्रत करना चाहिये। जबतक वर्ष पूरा न हो जाय, तबतक प्रतिमास व्रतको चालू रखना चाहिये। व्रतके दिन उपवासका नियम ग्रहण करनाचाहिये, जो भगवान् विष्णुको संतोष प्रदान करनेवाला है। द्वादशोको श्रद्धा और भक्तिके साथ श्रीगोविन्दकी पूजा करके इस प्रकार कहे- 'देव! स्वप्नमें इन्द्रियोंकी विकलाके कारण यदि भोजन और मैथुनको क्रिया बन जाय तो आप मुझपर कृपा करके क्षमा कीजिये।' इस प्रकार नियम करके मिट्टी, गोमय और तिल लेकर मध्याहनमें तीर्थ (जलाशय) के पास जाय और व्रतको पूर्तिके लिये निम्नांकित मन्त्रसे विधिपूर्वक स्नान करे

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ॥

मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ।

त्वया हतेन पापेन सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

काश्यां चैव तु संभूतास्तिला वै विष्णुरूपिणः ।

तिलस्नानेन गोविन्दः सर्वपापं व्यपोहति ॥

विष्णुदेोद्भवे देवि महापापापहारिणि ।

सर्वपापं हर त्वं वै सर्वौषधि नमोऽस्तु ते॥

(68 | 34-37) 'वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतारके समय भगवान् विष्णुने भी तुम्हें अपने चरणोंसे नापा था। मृत्तिके! मैंने पूर्वजन्ममें जो पाप संचित किया है, मेरा वह सारा पाप तुम हर लो तुम्हारे द्वारा पापका नाश हो जानेपर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। तिल काशी में उत्पन्न हुए हैं तथा वे भगवान् विष्णुके स्वरूप हैं। तिलमिश्रित जलके द्वारा स्नान करनेपर भगवान् गोविन्द सब पापका नाश कर देते हैं। देवी सर्वोषधि ! तुम भगवान् विष्णुके देहसे प्रकट हुई तथा महान् पापका अपहरण करनेवाली हो। तुम्हें नमस्कार है। तुम मेरे सारे पाप हर लो।'

इस प्रकार मृत्तिका आदिके द्वारा स्नान करके सिरपर तुलसीदल धारण कर तुलसीका नाम लेते हुए स्नान करे। यह स्नान ऋषियोंद्वारा बताया गया है। इसे विधिपूर्वक करना चाहिये। इस तरह स्नान करनेके पश्चात् जलसे बाहर निकलकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे। फिर देवताओं और पितरोंका तर्पण करके श्रीविष्णुका पूजन करे। उसकी विधि इस प्रकार है। पहले एक कलशकी, फूटा टूटा न हो, स्थापना करे। उसमें पंचपल्लवऔर पंचरत्न डाल दे। फिर दिव्य माला पहनाकर उस कलशको गन्धसे सुवासित करे कलशमें जल भर दे और उसमें द्रव्य डालकर उसके ऊपर ताँबेका पात्र रख दे। इसके बाद उस पात्रमें देवाधिदेव तपोनिधि भगवान् श्रीधरकी स्थापना करके पूर्वोक्त विधिसे पूजा करे। फिर मिट्टी और गोवर आदिसे सुन्दर मण्डल बनावे। सफेद और धुले हुए चावलोंको पानीमें पीसकर उसके द्वारा मण्डलका संस्कार करे। तत्पश्चात् हाथ-पैर आदि अंगोंसे युक्त धर्मराजका स्वरूप बनावे और उसके आगे ताँबेकी वैतरणी नदी स्थापित करके उसकी पूजा करे। उसके बाद पृथक् आवाहन आदि करके यमराजकी विधिवत् पूजा करे।

पहले भगवान् विष्णुसे इस प्रकार प्रार्थना करे - महाभाग केशव ! मैं विश्वरूपी देवेश्वर यमका आवाहन करता हूँ। आप यहाँ पधारें और समीपमें निवास करें। लक्ष्मीकान्त ! हरे! यह आसनसहित पाद्य आपकी सेवामें समर्पित है। प्रभो! विश्वका प्राणिसमुदाय आपका स्वरूप है। आपको नमस्कार है। आप प्रतिदिन मुझपर कृपा कीजिये।' इस प्रकार प्रार्थना करके 'भूतिदाय नम:' इस मन्त्रके द्वारा भगवान् विष्णुके चरणोंका, 'अशोकाय नमः ' से घुटनोंका, 'शिवाय नमः' से जाँघोंका, 'विश्वमूर्तये नमः' से कटिभागका 'कन्दपय नमः' से लिंगका, 'आदित्याय नमः' से अण्डकोषका, 'दामोदराय नमः' से उदरका, 'वासुदेवाय नमः - से स्तनोंका, 'श्रीधराय नमः' 'श्रीधराय नमः' से मुखका, 'केशवाय नमः' से केशोंका, 'शार्ङ्गधराय नमः - से पीठका, 'वरदाय नमः' से पुनः चरणोंका, 'शङ्खपाणये चक्रपाणये नमः', 'असिपाणये नमः', 'गदापाणये नमः' और 'परशुपाणये नमः ' – इन नाममन्त्रोंद्वारा क्रमशः शंख, चक्र, खड्ग, गदा तथा परशुका तथा 'सर्वात्मने नमः' इस मन्त्रके द्वारा मस्तकका ध्यान करे। इसके बाद
यों कहे- 'मैं समस्त पापकी राशिका नाश करनेके लिये मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध तथा कल्किका पूजन करता हूँ; भगवन्! इन अवतारोंके रूपमें आपकोनमस्कार है। बारम्बार नमस्कार है।' इन सभी मन्त्रोंके द्वारा श्रीविष्णुका ध्यान करके उनका पूजन करे। * तत्पश्चात् निम्नांकित नाममन्त्रोंके द्वारा भगवान् धर्मराजका पूजन करना चाहिये

धर्मराज नमस्तेऽस्तु धर्मराज नमोऽस्तु ते ।

दक्षिणाशाय ते तुभ्यं नमो महिषवाहन ॥

चित्रगुप्त नमस्तुभ्यं विचित्राय नमो नमः ।

नरकार्तिप्रशान्त्यर्थं कामान् यच्छ ममेप्सितान् ॥

यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च।

वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ll

वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः ।

नीलाय चैव दध्नाय नित्यं कुर्यान्नमो नमः ॥

(68।53-56) 'धर्मराज! आपको बारम्बार नमस्कार है। दक्षिण दिशाके स्वामी! आपको नमस्कार है। महिषपर चलनेवाले देवता! आपको नमस्कार है। चित्रगुप्त! आपको नमस्कार है। नरककी पीड़ा शान्त करनेके लिये विचित्र नामसे प्रसिद्ध आपको नमस्कार है। आप मेरी मनोवांछित कामनाएँ पूर्ण करें। यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, वृकोदर, चित्र, चित्रगुप्त, नील और दध्नको नित्य नमस्कार करना चाहिये।'

तदनन्तर वैतरणीकी प्रतिमाको अर्घ्य देते हुए इस प्रकार कहे- 'वैतरणी! तुम्हें पार करना अत्यन्त कठिन है। तुम पापका नाश करनेवाली और सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली हो। महाभागे ! यहाँ आओ और मेरे दिये हुए अर्घ्यको ग्रहण करो। यमद्वारके भयंकर मार्ग वैतरणी नदी विख्यात है उससे उद्धार पानेकेलिये मैं यह अर्घ्य दे रहा हूँ। जो जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थासे परे है, पापी पुरुषोंके लिये जिसको पार करना अत्यन्त कठिन हैं, जो समस्त प्राणियोंके भयका निवारण करनेवाली है तथा यातनामें पड़े हुए प्राणी भयके मारे जिसमें डूब जाते हैं, उस भयंकर वैतरणी नदीको पार करनेके लिये मैंने यह पूजन किया है। वैतरणी देवी तुम्हारी जय हो तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। जिसमें देवता वास करते हैं, वही वैतरणी नदी है। मैंने भगवान् केशवकी प्रसन्नताके लिये भक्तिपूर्वक उस नदीका पूजन किया है। पापका नाश करनेवाली सिन्धुरूपिणी वैतरणी नदीकी पूजा सम्पन्न हुई। मैं उसे पार करने तथा सब पापोंसे छुटकारा पानेके लिये इस वैतरणी प्रतिमाका दान करता हूँ।'

इसके बाद निम्नांकित मन्त्र पढ़कर भगवान्से प्रार्थना करे

कृष्ण कृष्ण जगन्नाथ संसारादुद्धरस्य माम् ॥

नामग्रहणमात्रेण सर्वपापं हरस्व मे।

(68 । 64-65) 'कृष्ण! कृष्ण! जगदीश्वर! आप संसारसे मेरा उद्धार कीजिये। अपने नामोंके कीर्तनमात्रसे मेरा सारा पाप हर लीजिये।'

फिर क्रमशः यज्ञोपवीत आदि समर्पण करे। यज्ञोपवीतका मन्त्र इस प्रकार है

यज्ञोपवीतं परमं कारितं नवतन्तुभिः ॥

प्रतिगृह्णीष्व देवेश प्रीतो यच्छ ममेप्सितम् ।

'देवेश्वर मैंने नौ तन्तुओंसे इस उत्तमयज्ञोपवीतका निर्माण कराया है, आप इसे ग्रहण करें और प्रसन्न होकर मेरा मनोरथ पूर्ण करें।'

ताम्बूल-मन्त्र

इदं दत्तं च ताम्बूलं यथाशक्ति सुशोभनम् ॥

प्रतिगृह्णीष्व देवेश मामुद्धर भवार्णवात् ।

(68 । 66-67)

'देवेश! मैंने यथाशक्ति उत्तम शोभासम्पन्न ताम्बूल दान किया है, इसे स्वीकार करें और भवसागरसे मेरा उद्धार कर दें।'

दीप - आरतीका मन्त्र

पञ्चवर्तिप्रदीपोऽयं देवेशारार्तिकं तव ॥

मोहान्धकारद्युमणे भक्तियुक्तो भवार्तिहन् l


(68 । 67-68)

'देवेश ! आप मोहरूपी अन्धकार दूर करनेके लिये सूर्यरूप हैं। भव-बन्धनकी पीड़ा हरनेवाले परमात्मन् ! मैं भक्तियुक्त होकर आपकी सेवामें यह पाँच बत्तियोंका दीपक प्रस्तुत करता हूँ। यह आपके लिये आरती है।'

नैवेद्य-मन्त्र

परमान्नं सुपक्वान्नं समस्तरससंयुतम् ॥

निवेदितं मया भक्त्या भगवन् प्रतिगृह्यताम् ।

(68।68-69)

'भगवन्! मैंने सब रसोंसे युक्त सुन्दर पकवान, ज़ो परम उत्तम अन्न है, भक्तिपूर्वक सेवामें निवेदन किया है; आप इसे स्वीकार करें।'

जप- समर्पण

द्वादशाक्षरमन्त्रेण यथासंख्यजपेन च ॥

प्रीयतां मे श्रियः कान्तः प्रीतो यच्छतु वाञ्छितम्

(68/69-70)

'द्वादशाक्षर मन्त्रका यथाशक्ति जप करनेसे भगवान्
लक्ष्मीकान्त मुझपर प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें।'

इस प्रकार श्रीहरिका पूजन करनेके बाद निम्नांकित मन्त्र पढ़कर गौको प्रणाम करे

पञ्च गावः समुत्पन्ना मध्यमाने महोदधौ।

तासांमध्ये तु या नन्दा तस्यै धेन्वै नमो नमः ॥

(68।70-71)

'समुद्रका मन्थन होते समय पाँच गौएँ उत्पन्न हुई थीं। उनमेंसे जो नन्दा नामकी धेनु है, उसे मेरा बारम्बार नमस्कार है।'

तत्पश्चात् विधिपूर्वक गौकी पूजा करके निम्नांकित मन्त्रोंद्वारा एकाग्रचित हो अर्घ्य प्रदान करे

सर्वकामदुहे देवि सर्वार्तिकनिवारिणि

आरोग्यं संततिं दीर्घा देहि नन्दिनि मे सदा॥

पूजिता च वसिष्ठेन विश्वामित्रेण धीमता।

कपिले हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ॥

गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः ।

नाके मामुपतिष्ठन्तु हेमशृङ्ग्यः पयोमुचः ॥

सुरभ्यः सौरभेयाश्च सरितः सर्वदेवमये

सुभद्रे देवि भक्तवत्सले ॥ सागरास्तथा।

(68।72–75) 'समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली तथा सब प्रकारकी पीड़ा हरनेवाली देवी नन्दिनी! मुझे सर्वदा आरोग्य तथा दीर्घायु संतान प्रदान करो। कपिले महर्षि वसिष्ठ तथा बुद्धिमान् विश्वामित्रजीने भी तुम्हारी पूजा की है। मैंने पूर्वजन्ममें जो पाप संचित किया है, उसे हर लो। गएँ मेरे आगे रहें, गौएँ ही मेरे पीछे रहें तथा स्वर्गलोकमें भी सुवर्णमय सींगोंसे सुशोभित, सरिताओं और समुद्रोंकी भाँति दूधकी धारा बहानेवाली सुरभी और उनकी संतानें मेरे पास आयें। सर्वदेवमयी देवी नन्दिनी! तुम परम कल्याणमयी और भक्तवत्सला हो। तुम्हें नमस्कार है।'

इस प्रकार विधिवत् पूजा करके गौओंको प्रतिदिन ग्रास समर्पण करे। उसका मन्त्र इस प्रकार है

सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पापनाशिनीः ।

प्रतिगृह्णन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः ॥

(68।76-77)

'सबके हितमें लगी रहनेवाली, पवित्र, पापनाशिनी तथा त्रिभुवनकी माता गौएँ मेरा दिया हुआ ग्रास ग्रहण करें।' महादेवजी कहते हैं- इस प्रकार धर्मराजके मुखसे सुने हुए वैतरणीव्रतका मेरे आगे वर्णन करकेइच्छानुसार भ्रमण करनेवाले द्विजश्रेष्ठ मुद्गल मुनि चले गये।

द्विजवर ! जहाँ गोपीचन्दन रहता है, वह घर तीर्थस्वरूप है - यह भगवान् श्रीविष्णुका कथन है। जिस ब्राह्मणके घरमें गोपीचन्दन मौजूद रहता है, वहाँ कभी शोक, मोह तथा अमंगल नहीं होते। जिसके घरमें रात-दिन गोपीचन्दन प्रस्तुत रहता है, उसके पूर्वज सुखी होते हैं तथा सदा उसकी संतति बढ़ती है। गोपीतालाबसे उत्पन्न होनेवाली मिट्टी परम पवित्र एवं शरीरका शोधन करनेवाली है। देहमें उसका लेप करनेसे सारे रोग नष्ट होते हैं तथा मानसिक चिन्ताएँ भी दूर हो जाती हैं। अतः पुरुषोंद्वारा शरीरमें धारण किया हुआ गोपीचन्दन सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसकाध्यान और पूजन करना चाहिये। यह मल - दोषका विनाश करनेवाला है। इसके स्पर्शमात्रसे मनुष्य पवित्र हो जाता है। वह अन्तकालमें मनुष्योंके लिये मुक्तिदाता एवं परम पावन है। द्विजश्रेष्ठ ! मैं क्या बताऊँ, गोपीचन्दन मोक्ष प्रदान करनेवाला है। भगवान् विष्णुका प्रिय तुलसीकाष्ठ, उसके मूलकी मिट्टी, गोपीचन्दन तथा हरिचन्दन-इन चारोंको एकमें मिलाकर विद्वान् पुरुष अपने शरीरमें लगाये। जो ऐसा करता है, उसके द्वारा जम्बूद्वीपके समस्त तीर्थोंका सदाके लिये सेवन हो जाता है। जो गोपीचन्दनको घिसकर उसका तिलक लगाता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके परम पदको प्राप्त होता है। जिस पुरुषने गोपीचन्दन धारण कर लिया, उसने मानो गयामें जाकर अपने पिताका श्राद्ध-तर्पण आदि सब कुछ कर लिया।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार