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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 228 - Khand 5, Adhyaya 228

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यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा

ऋषियोंने पूछा- सूतजी! अब आप यमुनाजीके माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। साथ ही यह बात भी बताइये, किसने किसके प्रति इस माहात्म्यका उपदेश किया था ?

सूतजीने कहा- एक समयकी बात है पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर सौभरिमुनिसे कल्याणमय ज्ञान सुननेके लिये उनके स्थानपर गये और उन्हें नमस्कार करके इस प्रकार पूछने लगे- 'ब्रह्मन् सूर्यकन्या यमुनाजीके तटपर जितने तीर्थ हैं उनमें ऐसा कल्याणमय तीर्थ कौन है, जो भगवान्की जन्मभूमि मथुरासे भी बड़ा हो।'

सौभरि बोले - एक समय मुनिश्रेष्ठ नारद और पर्वत आकाशमार्ग से जा रहे थे। जाते-जाते उनकी दृष्टि परम मनोहर खाण्डव वनपर पड़ी। वे दोनों मुनि आकाशसे वहाँ उतर पड़े और यमुनाजीके उत्तम तटपर बैठकर विश्राम करने लगे। क्षणभर विश्राम करनेके बाद उन्होंने स्नान करनेके लिये जलमें प्रवेश किया। इसी समय उशीनर देशके राजा शिखिने, जो उस वनमें शिकार खेलनेके लिये आये थे, उन दोनों मुनियाँको देखा। तब वे उनके निकलनेकी प्रतीक्षा करते हुए नदी के तटपर बैठ गये। नारद और पर्वत मुनि जब विधिपूर्वक स्नानकरके वस्त्र पहन चुके तब राजा शिबिने उनके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया। फिर तो वे मुनि भी राजाके साथ ही तटपर विराजमान हो गये । वहाँ सुवर्णके हजारों यूप दिखायी दे रहे थे। अभिमानरहित राजा शिबिने उन यूपोंपर दृष्टि डालकर देवर्षि नारद और पर्वतसे पूछा- 'मुनिवरो! ये यज्ञ-यूप किनके हैं ? किस देवता अथवा मनुष्यने यहाँ यज्ञ किये हैं? काशी आदि तीर्थोंको छोड़कर किस पुरुषने यहाँ यज्ञ किया है ? अन्य तीर्थोंसे यहाँ क्या विशेषता है ? इसमें कौन सा विज्ञानका भण्डार भरा हुआ है? यह बतानेकी कृपा करें। '

नारदजीने कहा- राजन् पूर्वकालमें हिरण्यकशिपुने जब देवताओंको जीतकर तीनों लोकोंका राज्य प्राप्त कर लिया तो उसे बड़ा घमण्ड हो गया। उसके पुत्र प्रह्लादजी भगवान् विष्णुके अनन्य भक्त थे; किन्तु वह पापात्मा उनसे सदा द्वेष रखता था। भक्तसे द्रोह करनेके कारण उसे दण्ड देनेके लिये भगवान् विष्णुने नृसिंहरूप धारण किया और उसका वध करके स्वर्गका राज्य इन्द्रको समर्पित कर दिया। अपना स्थान पाकर इन्द्रने गुरु बृहस्पतिके चरणोंमें मस्तक झुकाकरप्रणाम किया और भगवान् नारायणके गुणोंका स्मरण करते हुए कहा- 'गुरुदेव! समस्त जगत्‌का पालन करनेवाले नृसिंहरूपधारी श्रीहरिने मुझे पुनः देवताओंका राज्य प्रदान किया है, अतः मैं यज्ञोंद्वारा उनका पूजन करना चाहता हूँ। इसके लिये आप मुझे पवित्र स्थान बताइये और योग्य ब्राह्मणोंका परिचय दीजिये आप हमलोगोंके हितकारी है, अतः इस कार्यमें विलम्ब नहीं करना चाहिये।'

बृहस्पतिजीने कहा- देवराज तुम्हारा खाण्डव वन परम पवित्र और रमणीय स्थान है वहाँ त्रिभुवनको पवित्र करनेवाली पुण्यमयी यमुना नदी है। यदि तुम आत्मीयजनोंका कल्याण चाहते हो तो उसीके तटपर चलकर नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान् केशवकी आराधना करो।

गुरु बृहस्पतिके वचन सुनकर देवराज इन्द्र तुरंत गुरु, देवता तथा यज्ञसामग्री के साथ खाण्डव वनमें आये। फिर गुरुकी आज्ञासे ब्रह्मकुमार वसिष्ठ आदि सप्तर्षियों तथा अन्य ब्राह्मणोंका वरण करके इन्द्रने जगत्पति भगवान् विष्णुका यजन किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीके साथ इन्द्रके यज्ञमें पधारे सरलहृदय इन्द्र तीनों देवताओंको उपस्थित देख तुरंत आसनसे उठकर खड़े हो गये और मुनियोंके साथ उनके चरणोंमें प्रणाम किया। फिर वाहनोंसे उतरकर वे तीनों देवता सोनेके सिंहासनोंपर विराजमान हुए। उस समय वेदियोंपर प्रज्वलित त्रिविध अग्नियोंकी भाँति उन तीनोंकी शोभा हो रही थी। श्वेत और लाल वर्णवाले शंकर एवं ब्रह्माजी के बीचमें बैठे हुए पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर भगवान् विष्णु ऐसे जान पड़ते थे मानो दो पर्वत शिखरोंके बीच बिजलीसहित मेघ दिखायी दे रहा हो इन्द्रने उन तीनोंके चरण धोकर उस जलको अपने मस्तकपर चढ़ाया और बड़ी प्रसन्नताके साथ मधुर वाणीमें इस प्रकार स्तुति करना आरम्भ किया।

इन्द्र बोले- देव ! आज मेरे द्वारा आरम्भ किया हुआ यह यज्ञ सफल हो गया; क्योंकि योगियोंको भी जिनका दर्शन मिलना अत्यन्त कठिन है, वे ही आपतीनों देवता स्वतः मुझे दर्शन देने पधारे हैं। विष्णो! | यद्यपि आप एक ही हैं, तो भी सत्त्व आदि गुणका आश्रय लेकर आपने अपने तीन स्वरूप बना लिये हैं। इन तीनों ही रूपोंका तीनों वेदोंमें वर्णन है अथवा ये तीनों रूप तीन वेदस्वरूप ही हैं। जैसे स्फटिकमणि स्वतः उज्ज्वल है, किन्तु भाँति-भाँति के रंगोंके सम्पर्क में आकर विविध रंगका जान पड़ता है, उसी प्रकार आप एक होनेपर भी उपाधिभेदसे अनेकवत् प्रतीत होते हैं। आपका यह नानात्व स्फटिकमणिके रंगोंकी भाँति मिथ्या ही है। प्रभो जैसे लकड़ियोंमें छिपी हुई आग रगड़े बिना प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें छिपे हुए आप परमात्मा भक्तिसे ही प्रत्यक्ष प्रकट होकर दर्शन देते हैं। आप सब प्राणियोंका उपकार करनेवाले हैं। आपमें एककी भी भक्ति हो तो अनेकोंको सुख होता है। प्रह्लादजीकी की हुई भक्तिके द्वारा आज सम्पूर्ण देवता सुखी हो गये हैं। देव हम सभी देवता विषय-भोगों में ही फैसे हैं। हमारे मनपर आपकी मायाका पर्दा पड़ा है, अतः हम आपके स्वरूपको नहीं जानते; उसका यथावत् ज्ञान तो उन्हींको होता है, जो आपके चरणोंके सेवक हैं। ब्रह्मा और महादेवजी! आप दोनों भी इस जगत्के गुरु हैं: यह गुरुत्व भगवान् विष्णुका ही है, इसलिये आपलोग इनसे पृथक नहीं हैं। वाणीसे जो कुछ भी कहा जाता है और मनसे जो कुछ सोचा जाता है, वह सब भगवान् विष्णुकी माया ही है जो कुछ देखनेमें आ रहा है, यह सारा प्रपंच ही मिथ्या है-ऐसा विचार करके जो मनुष्य भगवान् विष्णुके चरणोंका भजन करते हैं, वे संसार सागरसे तर जाते हैं महादेवजी इन चरणोंकी महिमाका कहाँतक वर्णन किया जाय, जिनका जल आप भी अपने मस्तकपर धारण करते हैं। ब्रह्माजी मैं तो यही चाहता हूँ कि जिनकी दृष्टि पड़नेमात्र से विकारको प्राप्त होकर प्रकृति महत्तत्त्व आदि समस्त जगत्की सृष्टि करती है, उन्हीं भगवान् विष्णुके चरण-कमलोंमें मेरा जन्म जन्म दृढ़ अनुराग बना रहे भगवान् नृसिंह आपके समान दयालु प्रभु दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि जो आपसे शत्रुभाव रखते हैं, उनके लिये भी आप सुखकाही विस्तार करते हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं कि आप अपने भक्तोंका शोक दूर करनेके लिये ही दयालु है यह उनकी अज्ञता है।

राजन्! इस प्रकार भगवान् केशवकी स्तुति करके देवराज इन्द्रने उनके चरणोंमें प्रणाम किया तथा उनका वचन सुननेके लिये वे दत्तचित्त होकर खड़े हो गये। तब यज्ञसभामें आये हुए मुनि इन्द्रद्वारा की हुई रमापति भगवान् विष्णुकी यह स्तुति सुनकर भगवद्धतिको प्रशंसा करते हुए उन्हें साधुवाद देने लगे।

नारदजी कहते हैं-मुनियोंद्वारा त्रिलोकीसे अतीत नित्य धामकी प्राप्ति करानेवाली तथा सबके सेवन करनेयोग्य अपनी भक्तिका समर्थन सुनकर सम्पूर्ण जगत्के गुरु भगवान् श्रीहरि उस समाजके भीतर इन्द्रसे मधुर वाणीमें बोले।

श्रीभगवान्ने कहा- देवराज! ये मुनि परम ज्ञानी हैं। अतः यदि ये मेरी भक्तिको गौरव देते और उसका सत्कार करते हैं तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि ये तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले प्राणियोंको उपदेश देनेवाले हैं। ये ही सदा नष्ट हुए वैदिक मार्गको पुनः स्थापित करते हैं। यद्यपि तुम स्वर्गके भोगों में आसक थे, तथापि जो भक्तिपूर्वक मेरी शरणमें आ गये- इसमें कोई आश्चर्य नहीं है; क्योंकि देवगुरु बृहस्पति- जैसे महात्मा तुम्हारे गुरु हैं। सुरश्रेष्ठ! तुम बहुत-सी दक्षिणावाले यज्ञोंसे मेरा यजन करो, किन्तु मनमें कोई कामना न रखो इससे तुम तुरंत ही मेरे समीपवर्ती पद-परमधामको प्राप्त होओगे। तुम प्रत्येक यज्ञमें रत्नोंके अनेक प्रस्थ ढेर) दान करो; फिर इसी नामसे यह स्थान इन्द्रप्रस्थ कहलायेगा । महादेवजी! आप यहीं काशी और शिवकांचीकी स्थापना कीजिये और पार्वतीजीके साथ सदा इस तीर्थमें निवास कीजिये। बृहस्पतिजी आप भी यहाँ निगमोद्बोधक तीर्थकी स्थापना कीजिये। यहाँ स्नान करनेसे पूर्वजन्मकी स्मृति और परमात्माका ज्ञान प्राप्त हो। मैं भी यहाँ परम मनोहर द्वारकापुरी, अयोध्यापुरी, मधुवन और बदरिकाश्रमकी स्थापना करता हूँ तथा सदा यहाँउपस्थित रहूँगा । इन्द्र ! हरिद्वार और पुष्कर नामक जो दो श्रेष्ठ तीर्थ हैं, उनको भी मैं तुम्हारे हितकी कामना यहाँ स्थापित करता है। नैमिषारण्य कालंजरगिरि तथा सरस्वतीके तटपर भी जितने तीर्थ हैं, उन सबकी मैं यहाँ स्थापना करता हूँ।

नारदजी कहते हैं-राजा शिवि श्रीहरिके ये कल्याणमय वचन सुनकर सबने वैसा ही किया। अब यह स्थान सम्पूर्ण तीर्थोंका स्वरूप बन गया, अतः देवराज इन्द्र सुवर्णके यूपोंसे सुशोभित अनेक योद्वारा पुनः भगवान् लक्ष्मीपतिका वजन किया और भगवान्‌के सामने ही ब्राह्मणोंको रत्नोंके कितने ही प्रस्थ दान किये। दान देते समय उन्होंने केवल यही उद्देश्य रखा कि मुझपर सर्वात्मा नारायण सन्तुष्ट हों। तभीसे यह तीर्थ इन्द्रप्रस्थ कहलाता है।

इन्द्रने यहाँ सुवर्ण-यूपसे सुशोभित यज्ञोंका विधिपूर्वक अनुष्ठान पूर्ण किया और भगवान् विष्णु आदि देवताओंकी पूजा करके उन्हें विदा किया। फिर ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठ आदि ऋत्विजोंको धन आदिके द्वारा सन्तुष्ट करके बृहस्पतिको आगे करके इन्द्र स्वर्गलोकको चले गये। राजन्। वहाँ भगवान्‌की भक्तिसे युक्त हो इन्द्रने राज्य किया और पुण्य क्षीण होनेपर पुनः हस्तिनापुरमें जन्म लिया।

वहाँ शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण थे, जो वेद वेदांगोंके पारंगत विद्वान थे। उनकी पत्नीका नाम गुणवती था। भगवान् विष्णुके सेवक देवराज इन्द्र उसीके गर्भसे उत्पन्न हुए। शिवशर्माने ज्योतिषियोंको बुलवाया। ज्योतिषी लग्न देखकर उसका फल बतलाने लगे 'शिवशर्माजी! आपका यह बालक भगवान् विष्णुका प्रिय भक्त होगा तथा आपके कुलका उद्धार करेगा।' ज्योतिषियोंका यह शान्तिदायक वचन सुनकर शिवशर्माने अपने पुत्रका नाम विष्णुशर्मा रखा और उन्हें धन देकर विदा किया शिवशर्मा बड़े बुद्धिमान् थे वे मन-ही मन सोचने लगे-'मेरा जीवन धन्य है; क्योंकि मेरा पुत्र भगवान् विष्णुका भक्त होगा।' मनमें ऐसी ही बात विचारते हुए शिवशर्माने किसी अच्छे दिनको श्रेष्ठब्राह्मणोंके द्वारा शिशुके जातकर्म आदि संस्कार कराये। जब सात वर्ष व्यतीत हो गये और आठवाँ वर्ष आ लगा तब उन्होंने अपने पुत्रका उपनयन संस्कार किया। इसके बाद बारह वर्षोंतक उसे अंगोंसहित वेद पढ़ाये। तत्पश्चात् शिवशर्माने पुत्रका विवाह कर दिया। बुद्धिमान् विष्णुशर्माने अपनी पत्नीसे एक पुत्र उत्पन्न करके अपने विषय-वासनारहित मनको तीर्थयात्रामें लगाया और पिताके पास जाकर उनके दोनों चरणों में प्रणाम किया। तत्पश्चात् महाप्राज्ञ विष्णुशर्मा इस प्रकार बोले- 'पिताजी! मुझे आज्ञा दीजिये। मैं सत्संग प्रदान करनेवाले तृतीय आश्रमको स्वीकार करके अब श्रीविष्णुकी आराधना करूँगा। स्त्री, गृह, धन, सन्तान और सुहृद् - ये सभी जलमें उठनेवाले बुबुदोंकी तरह क्षणभंगुर हैं; अतः विद्वान् पुरुष इनमें आसक्त नहीं होता। मैंने वेदोंके स्वाध्यायसे और सन्तानोत्पत्तिके द्वारा क्रमशः ऋषि ऋण और पितृ ऋणसे उद्धार पा लिया है। अब तीर्थोंमें रहकर निष्कामभावसे भगवान् केशवकी आराधना करना चाहता हूँ। गुणमय पदार्थोंकी आसक्तिका त्याग करके जबतक प्रारब्ध शेष है, किसी उत्तम तीर्थमें रहनेका विचार करता हूँ।'

शिवशर्माने कहा- बेटा! मेरे लिये भी अहंकारशून्य होकर चतुर्थ आश्रममें प्रवेश करनेका समय आ गया है, अतः मैं भी विषयोंको विषकी भाँति त्यागकर श्रीकेशवरूपी अमृतका सेवन करूँगा। अब मेरी वृद्धावस्था आ गयी, अतः घरमें मेरा मन नहीं लगता। तुम्हारा छोटा भाई सुशमा कुटुम्बका पालनपोषण करेगा। हम दोनों श्रीहरिके चरण-कमलोंका चिन्तन करते हुए अब यहाँसे चल दें।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! ऐसा निश्चय करके वे दोनों मुमुक्षु पिता-पुत्र अन्धकारपूर्ण आधी रातके समय घरसे चल दिये और घूमते हुए इस परम कल्याणदायक तीर्थ इन्द्रप्रस्थमें आये। यहाँ अपने पूर्वजन्मके किये हुए यज्ञयूपको देखकर विष्णुशर्माको श्रीहरिके समागमका स्मरण हो आया। उन्होंने अपने पितासे कहा- 'पिताजी! मैं पूर्वजन्ममें इन्द्र था। मैंने ही भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेकी इच्छासे यहाँ यज्ञ किये थे। यहीं मेरे ऊपर भक्तवत्सल भगवान् केशव प्रसन्न हुए थे। मैंने रत्नोंके प्रस्थ दान करके यहाँ ब्राह्मणों और सप्तर्षियोंको सन्तुष्ट किया था। उन्होंने ही मुझे विष्णुभक्तिकी प्राप्ति तथा इस जन्ममें मोक्ष होनेका आशीर्वाद दिया था। इस तीर्थको सर्वतीर्थमय बनाकर इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया था। उन मुनिवरोंने इसी स्थानपर मेरी मृत्यु होनेकी बात बतायी है और अन्तमें भगवान् के परमधामकी प्राप्ति होनेका आश्वासन दिया है। ये सब बातें मुझे इस समय याद आ रही हैं। यह निगमोद्बोधक नामक तीर्थ है, जिसे मेरे गुरु बृहस्पतिजीने स्थापित किया था। सप्ततीर्थ और निगमोद्बोध- इन दो तीर्थोंके बीचमें देवताओंने इस इन्द्रप्रस्थनामक महान् क्षेत्रकी स्थापना की है। पिताजी! यह पूर्वसे पश्चिमकी ओर एक योजन चौड़ा है और यमुनाके दक्षिण तटपर चार योजनकी लंबाईमें फैला हुआ है। महर्षियोंने इन्द्रप्रस्थकी इतनी ही सीमा बतायी है।'

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार