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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 71 - Khand 2, Adhyaya 71

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ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन

सुकर्मा कहते हैं-पिप्पल! महाराज ययाति कामदेवके गीत, नृत्य और ललित हास्यसे मोहित होकर स्वयं भी नट-स्वरूप हो गये। वे मल-मूत्रका त्याग करके आये और पैरोंको धोये बिना ही आसनपर बैठ गये। यह छिद्र पाकर वृद्धावस्था तथा कामदेवने राजाके शरीरमें प्रवेश किया। नृपश्रेष्ठ उन सबने मिलकर इन्द्रका कार्य पूरा कर दिया। नाटक समाप्त हो गया। सब लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। तत्पश्चात् धर्मात्मा राजा ययाति जरावस्थासे पराजित हुए। उनका चित्त काम भोग में आसक्त हो गया। एक दिन वे कामयुक्त होकर वनमें शिकार खेलनेके लिये गये। उस समय उनके सामने एक हिरन निकला, जिसके चार सींग थे। उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। उसके सभी अंग सुन्दर थे। रोमावलियाँ सुनहरे रंगकी थीं, मस्तकपर रत्न-सा जढ़ा हुआ प्रतीत होता था। सारा शरीर चितकबरे रंगका था। वह मनोहर मृग देखने ही योग्य था राजा धनुष-बाण लेकर बड़े वेगसे उसके पीछे दौड़े। मृग भी उन्हें बहुत दूर ले गया और उनके देखते-देखते वहाँ अन्तर्धान हो गया। राजाको वहाँ नन्दनवन के समान एक अद्भुत वन दिखायी दिया,जो सभी गुणोंसे युक्त था। उसके भीतर राजाने एक बहुत सुन्दर तालाब देखा, जो दस योजन लंबा और पाँच योजन चौड़ा था । सब ओर कल्याणमय जलसे भरा वह सर्वतोभद्र नामक तालाब दिव्य भावोंसे शोभा पा रहा था। राजा रथके वेगपूर्वक चलनेसे खिन्न हो गये थे। परिश्रमके कारण उन्हें कुछ पीड़ा हो रही थी; अतः सरोवर के तटपर ठंडी छायाका आश्रय लेकर बैठ गये।

थोड़ी देर बाद स्नान करके उन्होंने कमलकी सुगन्धसे सुवासित सरोवरका शीतल जल पिया। इतनेमें ही उन्हें अत्यन्त मधुर स्वरमें गाया जानेवाला एक दिव्य संगीत सुनायी पड़ा, जो ताल और मूर्च्छनासे युक्त था। राजा तुरंत उठकर उस स्थानकी ओर चल दिये, जहाँ गीतकी मनोहर ध्वनि हो रही थी। जलके निकट एक विशाल एवं सुन्दर भवन था । उसीके ऊपर बैठकर रूप, शील और गुणसे सुशोभित एक सुन्दरी नारी मनोहर गीत गा रही थी। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं। रूप और तेज उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। चराचर जगत् में उसके जैसी सुन्दरी स्त्री दूसरी कोई नहीं थी। महाराज ययातिके शरीरमें जरायुक्त कामका संचार पहले ही हो चुका था । उस स्त्रीको देखते ही वह काम विशाल रूपमें प्रकटहुआ। राजा कामाग्निसे जलने और कामज्वरसे पीड़ित होने लगे। उन्होंने उस सुन्दरीसे पूछा - 'शुभे ! तुम कौन हो? किसकी कन्या हो? तुम्हारे पास यह कौन बैठी है? कल्याणी! मुझे सब बातोंका परिचय दो। मैं नहुषका पुत्र हूँ। मेरा जन्म चन्द्रवंशमें हुआ है। पृथ्वीके सातों द्वीपोंपर मेरा अधिकार है। मैं तीनों लोकोंमें विख्यात हूँ। मेरा नाम ययाति है। सुन्दरी! मुझे दुर्जय काम मारे डालता है। मैं उत्तम शीलसे युक्त हूँ। मेरी रक्षा करो। तुम्हारे समागमके लिये मैं अपना राज्य समूची पृथ्वी और यह शरीर भी अर्पण कर दूँगा। यह त्रिलोकी तुम्हारी ही है।

राजाकी बात सुनकर सुन्दरीने अपनी सखी विशालाको उत्तर देनेके लिये प्रेरित किया। तब विशाला ने कहा - 'नरश्रेष्ठ! यह रतिकी पुत्री है। इसका नाम अनुविन्दुमती है मैं इसके प्रेम और सौहार्दवश सदा इसके साथ रहती हूँ। हम दोनोंमें स्वाभाविक मित्रता है, जिससे में सर्वदा प्रसन्न रहती है। मेरा नाम विशाला है। मैं वरुणकी पुत्री हूँ। महाराज! मेरी यह सुन्दरी सखी योग्य वरकी प्राप्तिके लिये तपस्या कर रही है। इस प्रकार मैंने आपसे अपनी इस सखीका तथा अपना भी पूरा-पूरा परिचय दे दिया।'

ययाति बोले शुभे मेरी बात सुनो यह सुन्दर मुखवाली रतिकुमारी मुझे ही पतिरूपमें स्वीकार करे। यह वाला जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करेगी, वह सब मैं इसे प्रदान करूँगा।

विशालाने कहा- राजन्! मैं इसका नियम बतलाती हूँ, पहले उसे सुन लीजिये। यह स्थिर यौवनसे युक्तः सर्वज्ञ, वीरके लक्षणोंसे सुशोभित, देवराजके समान तेजस्वी, धर्मका आचरण करनेवाले, जिलोकपूजित, सुबुद्धि, सुप्रिय तथा उत्तम गुणोंसे युक पुरुषको अपना पति बनाना चाहती है।

ययाति बोले- मुझे इन सभी गुणोंसे युक्त समझो मैं इसके योग्य पति हो सकता हूँ।

विशालाने कहा- राजन्! मैं जानती हूँ, आप अपने पुण्यके लिये तीनों लोकोंमें विख्यात हैं। मैंनेपहले जिन-जिन गुणोंकी चर्चा की है, वे सभी आपके भीतर विद्यमान हैं; केवल एक ही दोषके कारण यह मेरी सखी आपको पसंद नहीं करती आपके शरीरमें वृद्धावस्थाका प्रवेश हो गया है। यदि आप उससे मुक हो सकें, तो यह आपकी प्रियतमा हो सकती है। राजन् ! यही इसका निश्चय है। मैंने सुना है, पुत्र, भ्राता और भूत्य- जिसके शरीरमें भी इस जरावस्थाको डाला जाय, उसीमें इसका संचार हो जाता है। अतः भूपाल! आप अपना बुढ़ापा तो पुत्रको दे दीजिये और स्वयं उसका यौवन लेकर परम सुन्दर बन जाइये मेरी सखी जिस रूपमें आपका उपभोग करना चाहती है,

उसीके अनुकूल व्यवस्था कीजिये। ययाति बोले- महाभागे ! एवमस्तु, मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगा।

राजा ययाति काम भोगमें आसक्त होकर अपनी विवेकशक्ति खो बैठे थे वे घर जाकर अपने पुत्रोंसे बोले- 'तुमलोगोंमें से कोई एक मेरी दुःखदायिनी जरावस्थाको ग्रहण कर ले और अपनी जवानी मुझे दे दे, जिससे मैं इच्छानुसार भोग भोग सकूँ। जो मेरी वृद्धावस्थाको ग्रहण करेगा, वह पुत्रोंमें श्रेष्ठ समझा जायगा और वही मेरे राज्यका स्वामी होगा। उसको सुख, सम्पत्ति, धन-धान्य, बहुत-सी सन्तानें तथा यश और कीर्ति प्राप्त होगी।'

तुरुने कहा- पिताजी इसमें सन्देह नहीं कि पिता-माताकी कृपासे ही पुत्रको शरीरको प्राप्ति होती है; अतः उसका कर्तव्य है कि वह विशेष चेष्टाके साथ माता-पिताकी सेवा करे। परन्तु महाराज! यौवन दान करनेका यह मेरा समय नहीं है।

तुरुकी बात सुनकर धर्मात्मा राजाको बड़ा क्रोध हुआ। वे उसे शाप देते हुए बोले-'तूने मेरी आज्ञाका अनादर किया है, अतः तू सब धर्मोसे बहिष्कृत और - पापी हो जा तेरा हृदय पवित्र ज्ञानसे शून्य हो जाय और तू कोढ़ी हो जा।' तुरुको इस प्रकार शाप देकर वे अपने दूसरे पुत्र पसे बोले-'बेटा! तू मेरी जस्को ग्रहण कर और मेरा अकण्टक राज्य भोग।' यह सुनकरयदुने हाथ जोड़कर कहा-पिताजी कृपा कीजिये। मैं बुढापेका भार नहीं ढो सकता। शीतका कष्ट सहना, अधिक राह चलना, कदन्न भोजन करना, जिनकी जवानी बीत गयी हो ऐसी स्त्रियोंसे सम्पर्क रखना और मनकी प्रतिकूलताका सामना करना ये वृद्धावस्थाके पाँच हेतु हैं।' यदुके यों कहनेपर महाराज ययातिने कुपित होकर उन्हें भी शाप दिया- 'जा, तेरा वंश राज्यहीन होगा, उसमें कभी कोई राजा न होगा।'

यदुने कहा- महाराज मैं निर्दोष हूँ। आपने मुझे शाप क्यों दे दिया? मुझ दीनपर दया कीजिये, प्रसन्न हो जाइये।

ययाति बोले- बेटा! महान् देवता भगवान् विष्णु जब तेरे वंशमें अपने अंशसहित अवतार लेंगे, उस समय तेरा कुल पवित्र - शापसे मुक्त हो जायगा राजा ययातिने कुरुको शिशु समझकर छोड़ दिया और शर्मिष्ठाके पुत्र पूरुको बुलाकर कहा- 'बेटा! तू मेरी वृद्धावस्था ग्रहण कर ले।' पूरुने कहा-'राजन् ! मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा। मुझे अपनी वृद्धावस्था दीजिये और आज ही मेरी युवावस्थासे सुन्दर रूप धारण कर उत्तम भोग भोगिये।' यह सुनकर महामनस्वी राजाका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वे पूरुसे बोले 'महामते! तूने मेरी वृद्धावस्था ग्रहण की और अपना यौवन मुझे दिया इसलिये मेरे दिये हुए राज्यका उपभोग कर।' अब राजाकी बिलकुल नयी अवस्था हो गयी। वे सोलह वर्षके तरुण प्रतीत होने लगे। देखने में अत्यन्त सुन्दर, मानो दूसरे कामदेव हों। महाराजने पुरुको अपना धनुष, राज्य, छत्र, घोड़ा, हाथी, धन, खजाना, देश, सेना, चँवर और व्यजन-सब कुछ दे डाला। धर्मात्मा नहुपकुमार अब कामात्मा हो गये। वे कामासक्त होकर बारंबार उस स्त्रीका चिन्तन करने लगे। उन्हें अपने पहले वृत्तान्तका स्मरण न रहा। नयी ब जवानी पाकर वे बड़ी शीघ्रताके साथ कदम बढ़ते हुए अश्रुबिन्दुमतीके पास गये। उस समय उनका चित्त कामसे उन्मत्त हो रहा था। वे विशाल नेत्रोंवाली व विशालाको देखकर बोले- 'भद्रे मैं प्रबल दोषरूपवृद्धावस्थाको त्यागकर यहाँ आया अब मैं तरुण हूँ, अत: तुम्हारी सखी मुझे स्वीकार करे।'

विशाला बोली- राजन् ! आप दोषरूपा जरावस्थाको त्यागकर आये हैं, यह बड़ी अच्छी बात है; परन्तु अब भी आप एक दोषसे लिप्त हैं, जिससे यह आपको स्वीकार करना नहीं चाहती। आपकी दो सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ है- शर्मिष्ठा और देवयानी ऐसी दशामें आप मेरी इस सखीके वशमें कैसे रह सकेंगे ? जलती हुई आगमें समा जाना और पर्वतके शिखरसे कूद पड़ना अच्छा है; किन्तु रूप और तेजसे युक्त होनेपर भी ऐसे पतिसे विवाह करना अच्छा नहीं है, जो सौतरूपी विषसे युक्त हो। यद्यपि आप गुणोंके समुद्र हैं, तो भी इसी एक दोषके कारण यह आपको पति बनाना पसंद नहीं करती।

ययातिने कहा- शुभे! मुझे देवयानी और शर्मिष्ठासे कोई प्रयोजन नहीं है। इस बातके लिये मैं सत्यधर्मसे युक्त अपने शरीरको छूकर शपथ करता हूँ। अश्रुबिन्दुमती बोली- राजन्! मैं ही आपके राज्य और शरीरका उपभोग करूँगी। जिस-जिस कार्यके लिये मैं कहूँ, उसे आपको अवश्य पूर्ण करना होगा। इस बातका विश्वास दिलानेके लिये अपना हाथ मेरे हाथमें दीजिये।

ययातिने कहा- राजकुमारी मैं तुम्हारी सिवा किसी दूसरी स्वीको नहीं ग्रहण करूंगा। वरानने। मेरा राज्य, समूची पृथ्वी, मेरा यह शरीर और खजाना सबका तुम इच्छानुसार उपभोग करो सुन्दरी लो, मैंने तुम्हारे हाथमें अपना हाथ दे दिया।

अश्रुबिन्दुमती बोली- महाराज! अब मैं आपकी पत्नी बनूँगी। इतना सुनते ही महाराज ययातिकी आँखें हर्षसे खिल उठीं; उन्होंने गान्धर्व विवाहकी विधिसे काम-कुम्हारी अनुमदुमतीको ग्रहण किया और युवावस्थाके द्वारा से उसके साथ विहार करने लगे। अनुविन्दुमतीमें आसक्त होकर वहाँ रहते हुए राजाको बीस हजार वर्ष बीत गये। इस प्रकार इन्द्रके लिये किये हुए कामदेवके प्रयोगसे उस स्त्रीने महाराजको भलीभाँतिमोहित कर लिया। एक दिनकी बात है-कामनन्दिनी अनुविन्दुमतीने मोहित हुए राजा ययातिसे कहा 'प्राणनाथ! मेरे हृदयमें कुछ अभिलाषा जाग्रत हुई है। आप मेरे उस मनोरथको पूर्ण कीजिये पृथ्वीपते। आप यज्ञोंमें प्रधान अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करें।'

राजा बोले- महाभागे ! एवमस्तु, मैं तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूँगा। ऐसा कहकर महाराजने राज्य-भोगसे नि:स्पृह अपने पुत्र पूरुको बुलाया। पिताका आह्वान सुनकर पूरु आये उन्होंने भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर राजाके चरणों में प्रणाम किया और अनुविन्दुमतीके युगल चरणोंमें भी मस्तक झुकाया। इसके बाद वे पितासे बोले 'महाप्राज्ञ! मैं आपका दास हूँ; बताइये, मेरे लिये आपकी क्या आज्ञा है, मैं कौन-सा कार्य करूँ ?'

राजाने कहा- बेटा! पुण्यात्मा द्विजों, ऋत्विजों और भूमिपालको आमन्त्रित करके तुम अश्वमेध यज्ञकी तैयारी करो।

महातेजस्वी पूरु बड़े धार्मिक थे। उन्होंने पिताके कहनेपर उनकी आज्ञाका पूर्णतया पालन किया। तत्पश्चात् राजा ययातिने काम-कन्याके साथ यज्ञकी दीक्षा ली। उन्होंने अश्वमेध यज्ञमें ब्राह्मणों और दोनोंको अनेक प्रकारके दान दिये। यज्ञ समाप्त होनेपर महाराजने उस सुमुखीसे पूछा—'बाले! और कोई कार्य भी, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हो, बताओ; मैं तुम्हारा कौन-सा कार्य करूँ?' यह सुनकर उसने राजासे कहा- 'महाराज ! मैं इन्द्रलोक, ब्रह्मलोक, शिवलोक तथा विष्णुलोकका दर्शन करना चाहती हूँ।' राजा बोले- 'महाभागे ! तुमने जो प्रस्ताव किया है, वह इस समय मुझे असाध्य प्रतीत होता है। वह तो पुण्य, दान, यज्ञ और तपस्यासे ही साध्य है। मैंने आजतक ऐसा कोई मनुष्य नहीं देखा या सुना है, जो पुण्यात्मा होकर भी मर्त्यलोकसे इस शरीरके साथ ही स्वर्गको गया हो। अतः सुन्दरी ! तुम्हारा बताया हुआ कार्य मेरे लिये असाध्य है। प्रिये ! दूसरा कोई कार्य बताओ, उसे अवश्य पूर्ण करूंगा।' अश्रुविन्दुमती बोली- राजन् ! इसमें सन्देहनहीं कि यह कार्य दूसरे मनुष्योंके लिये सर्वथा असाध्य है; पर आपके लिये तो साध्य ही है-यह मैं बिलकुल सच-सच कह रही हूँ। इसी उद्देश्यसे मैंने आपको अपना स्वामी बनाया था आप सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और सब धर्मोसे युक्त हैं। मैं जानती हूँ- आप भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वैष्णवोंमें परम श्रेष्ठ हैं। जिसके ऊपर भगवान् विष्णुकी कृपा होती है, वह सर्वत्र जा सकता है। इसी आशासे मैंने आपको पति- रूपमें अंगीकार किया था। राजन्! केवल आपने ही मृत्युलोकमें आकर सम्पूर्ण मनुष्योंको जरावस्थाकी पीड़ासे रहित और मृत्युहीन बनाया है। नरश्रेष्ठ! आपने इन्द्र और यमराजका विरोध करके मर्त्यलोकको रोग और पापसे शून्य कर दिया है। महाराज! आपके समान दूसरा कोई भी राजा नहीं है। बहुत से पुराणोंमें भी आपके जैसे राजाका वर्णन नहीं मिलता। मैं अच्छी तरह जानती हूँ, आप सब धर्मो के ज्ञाता हैं।

राजाने कहा- भद्रे ! तुम्हारा कहना सत्य है, मेरे लिये कोई साध्य असाध्यका प्रश्न नहीं है। जगदीश्वरकी कृपासे मुझे स्वर्गलोकमें सब कुछ सुलभ है। तथापि मैं स्वर्गमें जो नहीं जाता हूँ, इसका कारण सुनो। मेरे छोड़ देनेपर मानवलोककी सारी प्रजा मृत्युका शिकार हो जायगी, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। सुमुखि ! यही सोचकर मैं स्वर्गमें नहीं चलता है यह मैंने तुम्हें सच्ची बात बतायी है।

रानी बोली- महाराज! उन लोकोंको देखकर मैं फिर मर्त्यलोकमें लौट आऊँगी। इस समय उन्हें देखनेके लिये मेरे मनमें इतनी उत्सुकता हुई है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है।

राजाने कहा- देवि! तुमने जो कुछ कहा है, उसे निस्सन्देह पूर्ण करूँगा।

अपनी प्रिया अश्रुबिन्दुमती यों कहकर राजा सोचने लगे - 'मत्स्य पानीके भीतर रहता है, किन्तु वह भी जालसे बँध जाता है। स्वर्गमें या पृथ्वीपर जो स्थावर आदि प्राणी हैं, उन सबपर कालका प्रभाव है। एकमात्र काल ही इस जगत्के रूपमें उपलब्ध होता है। कालसेपीड़ित मनुष्यको मन्त्र, तप, दान, मित्र और बन्धु बान्धव-कोई भी नहीं बचा सकते। विवाह, जन्म और मृत्यु-ये कालके रचे हुए तीन बन्धन हैं। ये जहाँ, जैसे और जिस हेतुसे होनेको होते हैं, होकर ही रहते हैं; कोई उन्हें मेट नहीं सकता। उपद्रव, आघातदोष, सर्प और व्याधियाँ- ये सभी कर्मसे प्रेरित होकर मनुष्यको प्राप्त होते हैं। आयु कर्म, धन, विद्या और मृत्यु- ये पाँच बातें जीवके गर्भमें रहते समय ही रच दी जाती है।" जीवको देवत्व मनुष्य पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनियाँ और स्थावर योनि- ये सब कुछ अपने-अपने कर्मानुसार ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य जैसा करता है, वैसा भोगता है; उसे अपने किये हुएको हो सदा भोगना पड़ता है। वह अपना ही बनाया हुआ दुःख और अपना ही रचा हुआ सुख भोगता है जो लोग अपने धन और बुद्धिसे किसी वस्तुको अन्यथा करनेकी बुद्धि रखते हैं, वे भी अपने उपार्जित सुख-दुःखाँका उपभोग करते हैं। जैसे बछड़ा हजारों गौओंके बीचमें खड़ी होनेपर भी अपने माताको पहचानकर उसके पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार पूर्व जन्मके किये हुए शुभाशुभ कर्म कर्ताका अनुसरण करते हैं। पहलेका किया हुआ कर्म कतकि सोनेपर उसके साथ ही सोता है, उसके खड़े होनेपर खड़ा होता है और चलनेपर पीछे-पीछे चलता है। तात्पर्य यह कि कर्म छायाकी भाँति कतक साथ लगा रहता है। जैसे छाया और धूप सदा एक-दूसरेसे सम्बद्ध होते हैं, उसी प्रकार कर्म और कर्ताका भी परस्पर सम्बन्ध है। शस्त्र, अग्नि, विष आदिसे जो बचाने योग्य वस्तु है, उसको भी दैव ही बचाता है। जो वास्तवमें अरक्षित वस्तु है, उसकी दैव ही रक्षा करता है। दैवने जिसका नाश करदिया हो, उसकी रक्षा नहीं देखी जाती। यह मेरे पूर्वकमका परिणाम ही है, दूसरा कुछ नहीं है। इस | स्त्रीके रूपमें दैव ही यहाँ आ पहुँचा है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मेरे घरमें जो नाटक खेलनेवाले नट और नर्तक आये थे, उन्हीं के संगसे मेरे शरीरमें जरावस्थाने प्रवेश किया है। इन सब बातोंको मैं अपने कमका ही परिणाम मानता हूँ।"

इस प्रकारकी चिन्तामें पड़कर राजा ययाति बहुत दुःखी हो गये। उन्होंने सोचा- 'यदि मैं प्रसन्नतापूर्वक इसकी बात नहीं मानूंगा तो मेरे सत्य और धर्म-दोनों ही चले जायेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जैसा कर्म मैंने किया था, उसके अनुरूप ही फल आज दृष्टिगोचर हुआ है। यह निश्चित बात है कि दैवका विधान टाला नहीं जा सकता है।'

इस तरह सोच-विचारमें पड़े हुए राजा ययाति सबके क्लेश दूर करनेवाले भगवान् श्रीहरिकी शरणमें गये। उन्होंने मन ही मन भगवान् मधुसूदनका ध्यान और नमस्कारपूर्वक स्तवन किया तथा कातरभावसे कहा- 'लक्ष्मीपते मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मेरा उद्धार कीजिये।'

सुकर्मा कहते हैं- परम धर्मात्मा राजा ययाति इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि रतिकुमारी देवी अश्रुबिन्दुमतीने कहा- 'राजन् ! अन्यान्य प्राकृत मनुष्योंकी भाँति आप दुःखपूर्ण चिन्ता कैसे कर रहे हैं। जिसके कारण आपको दुःख हो, वह कार्य मुझे कभी नहीं करना है।' उसके यों कहनेपर राजाने उस वरांगनासे 1 कहा-'देवि! मुझे जिस बातकी चिन्ता हुई है, उसे बताता हूँ; सुनो। मेरे स्वर्ग चले जानेपर सारी प्रजा दीनहो जायगी। तथापि अब मैं तुम्हारे साथ स्वर्गलोकको चलूँगा।' यों कहकर राजाने अपने उत्तम पुत्र पुरुको, जो सब धर्मो के ज्ञाता, वृद्धावस्थासे युक्त और परम बुद्धिमान् थे, बुलाया और इस प्रकार कहा- 'धर्मात्मन् ! मेरी आज्ञासे तुमने धर्मका पालन किया है, अब मेरी वृद्धावस्था दे दो और अपनी युवावस्था ग्रहण करो। खजाना, सेना तथा सवारियोंसहित मेरा यह राज्य तथा समुद्रसहित समूची पृथ्वीको भोगो। मैंने इसे तुम्हें ही दिया है। दुष्टोंको दण्ड देना और साधु पुरुषोंकी रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है।

तात! तुम्हें धर्मशास्त्रको प्रमाण मानकर उसीके अनुसार सब कार्य करना चाहिये। महाभाग ! शास्त्रीय विधिके अनुसार भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंका पूजन करना, क्योंकि वे तीनों लोकोंमें पूजनीय हैं पाँचवें सातवें दिन खजानेकी देखभाल करते रहना, सेवकोंको धन और भोजन आदिसे प्रसन्न करके सदा इनका आदर करना। गुप्तचरोंको नियुक्त करके राज्यके प्रत्येक अंगपर दृष्टि रखना, सदा दान देते रहना, शत्रुपर अनुराग या विश्वास न करना, विद्वान् पुरुषोंके द्वारा सदा अपनी रक्षाका प्रबन्ध रखना। बेटा! अपने मनको काबू में रखना, कभी शिकार खेलनेके लिये न जाना। स्त्री, खजाना, सेना और शत्रुपर कभी विश्वास न करना। सुयोग्य पात्रों और सब प्रकारके बलोंका संग्रह करना। यज्ञोंके द्वारा भगवान् हृषीकेशका पूजन करना और सदा पुण्यात्मा बने रहना प्रजाको जिस वस्तुकी इच्छा हो, वह सब उन्हें प्रतिदिन देते रहना। बेटा! तुम प्रजाको सुख पहुँचाओ, प्रजाका पालन-पोषण करो। पराये धन और परायी स्त्रियोंके प्रति कभी दूषित विचार मनमें न लाना। वेद और शास्त्रोंका निरन्तर चिन्तन करना और सदा अस्त्र-शस्त्रोंके अभ्यासमें लगे रहना। हाथी और रथ हाँकनेका अभ्यास भी बढ़ाते रहना।'

पुत्रको ऐसा आदेश देकर राजाने आशीर्वादके द्वारा उसे प्रसन्न किया और अपने हाथसे राजसिंहासनपर बिठाया। फिर अपनी वृद्धावस्था ले पुत्रको यौवन समर्पित करके महाराजने समस्त प्रजाओंको बुलाया औरबड़े हर्षमें भरकर यह वचन कहा—'सज्जनो! मैं अपनी इस पत्नी के साथ पहले इन्द्रलोकमें जाता हूँ, फिर क्रमशः ब्रह्मलोक और शिवलोकमें जाऊँगा। इसके बाद समस्त लोकोंके पाप दूर करनेवाले तथा जीवोंको सद्गति प्रदान करनेवाले विष्णुधामको प्राप्त होऊंगा इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरी समस्त प्रजाको कुटुम्बसहित यहीं सुखपूर्वक रहना चाहिये। यही मेरी आज्ञा है। आजसे ये महाबाहु पूरु आपलोगोंके रक्षक हैं। इनका स्वभाव धीर है, मैंने इन्हें शासनका अधिकार देकर राजाके पदपर प्रतिष्ठित किया है।'

महाराजके यों कहनेपर प्रजाजनोंने कहा- नृपश्रेष्ठ सम्पूर्ण वेदोंमें धर्मका हो श्रवण होता है. पुराणोंमें भी धर्मको ही व्याख्या की गयी है, किन्तु पूर्वकालमें किसीने धर्मका साक्षात् दर्शन नहीं किया। केवल हमलोगोंने ही चन्द्रवंशमें राजा नहुषके घर उत्पन्न हुए आपके रूपमें उस दशांग धर्मका साक्षात्कार किया है। महाराज! आप सत्यप्रिय, ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न, पुण्यकी महान् राशि, गुणोंके आधार तथा सत्यके ज्ञाता हैं। सत्यका पालन करनेवाले महान् ओजस्वी पुरुष परम धर्मका अनुष्ठान करते हैं। आपसे बढ़कर दूसरा कोई पुरुष हमारे देखनेमें नहीं आया है। आप जैसे धर्मपालक एवं सत्यवादी राजाको हम मन, वाणी और शरीर किसीकी भी क्रियाद्वारा छोड़नेमें असमर्थ है। महाराज! जब आप ही नहीं रहेंगे, तब स्त्री, धन, भोग और जीवन लेकर हम क्या करेंगे। अतः राजेन्द्र ! अब हमें यहाँ रहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। आपके साथ ही हम भी चलेंगे।'

प्रजाजनोंकी यह बात सुनकर राजा ययातिको बड़ा हर्ष हुआ। वे बोले-'आप सब लोग परम पुण्यात्मा हैं, मेरे साथ चलें।' यो कहकर वे कामकन्याके साथ रथपर सवार हुए। वह रथ चन्द्रमण्डलके समान जान पड़ता था। सेवकगण हाथमें चँवर और व्यजन लेकर महाराजको हवा कर रहे थे। राजाके मनमें किसी प्रकारकी पीड़ा नहीं थी। उनके राज्यमें ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य तथा शूद्र- सभी वैष्णव थे। इनके सिवा जो अन्त्यज थे, उनके मनमें भी भगवान् विष्णुके प्रति भक्ति थी। सभी दिव्य माला धारण किये तुलसीदलों से शोभा पा रहे थे। उनकी संख्या अरबों-खरबोंतक पहुँच गयी। सभी भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर और जप एवं दानमें संलग्न रहनेवाले थे। सब-के-सब विष्णु भक्त और पुण्यात्मा थे। उन सबने महाराजके साथ दिव्य लोकोंकी यात्रा की। उस समय सबके हृदयमें महान् आनन्द छा रहा था। राजा ययाति सबसे पहले इन्द्रलोकमें गये, उनके तेज, पुण्य, धर्म और तपोबलसे और लोग भी साथ-साथ गये। वहाँ पहुँचनेपर देवता, गन्धर्व, किन्नर तथा चारणसहित देवराज इन्द्र उनके सामने आये और उनका सम्मान करते हुए बोले- 'महाभाग ! आपका स्वागत है! आइये, मेरे घरमें पधारिये और दिव्य, पावन एवं मनोरम भोगोंका उपभोग कीजिये।'

राजाने कहा- देवराज आपके चरणारविन्दों में प्रणाम करके हमलोग सनातन ब्रह्मलोकमें जा रहे हैं।

यह कहकर देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे ब्रह्मलोकमें गये। वहाँ मुनिवरोंके साथ महातेजस्वी ब्रह्माजीने अर्ध्यादि सुविस्तृत उपचारोंके द्वारा उनका आतिथ्य सत्कार किया और कहा 'राजन्! तुम अपने शुभ कर्मोंके फलस्वरूप विष्णुलोकको जाओ।' ब्रह्माजीके यों कहनेपर के पहले शिवलोकमें गये, वहाँ भगवान् शंकरने पार्वतीजीके साथ उनका स्वागत-सत्कार किया और इस प्रकार कहा— 'महाराज ! तुम भगवान् विष्णुके भक्त हो, अतः मेरे भी अत्यन्त प्रिय हो, क्योंकि मुझमें और विष्णुमें कोई अन्तर नहीं है। जो विष्णु हैं, वही मैं हूँ तथा मुझीको विष्णु समझो, पुण्यात्मा विष्णुभक्तके लिये भी यही स्थान है। अतः महाराज! तुम यहाँ इच्छानुसार रह सकते हो।"

भगवान् शिवके यों कहनेपर श्रीविष्णुके प्रिय भक्त ययातिने मस्तक झुकाकर उनके चरणोंमें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और कहा-'महादेव! आपने इस समय जो कुछ भी कहा है, सत्य है, आप दोनोंमें वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है। एक ही परमात्माके स्वरूपकी ब्रह्मा,विष्णु और शिव-तीन रूपोंमें अभिव्यक्ति हुई है। तथापि मेरी विष्णुलोक में जानेकी इच्छा है, अतः आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। भगवान् शिव बोले-'महाराज! एवमस्तु तुम विष्णुलोकको जाओ।' उनको आज्ञा पाकर राजाने कल्याणमयी भगवती उमाको नमस्कार किया और उन परमपावन विष्णुभक्तोंके साथ वे विष्णुधामको चल दिये। ऋषि और देवता सब ओर खड़े हो उनकी स्तुति कर रहे थे। गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध, पुण्यात्मा, चारण, साध्य, विद्याधर, उनचास मरुद्गण, आठों वसु, ग्यारहों रुद्र बारहों आदित्य, लोकपाल तथा समस्त त्रिलोकी चारों और उनका गुणगान कर रही थी महाराज ययातिने रोग-शोकसे रहित अनुपम विष्णुलोकका दर्शन किया। सब प्रकारकी शोभासे सम्पन्न सोनेके विमान उस लोककी सुषमा बढ़ा रहे थे चारों ओर दिव्य छटा छा रही थी वह मोक्षका उत्तम धाम वैष्णवोंसे शोभा पा रहा था। देवताओंकी वहाँ भीड़ सी लगी थी।

नहुषनन्दन ययातिने सब प्रकारके दाहसे रहित उस दिव्य धाममें प्रवेश करके क्लेशहारी भगवान् नारायणका दर्शन किया। भगवान्‌के ऊपर चंदोवे तने हुए थे, जिनसे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। वे सब प्रकारके आभूषण और पीत वस्त्रोंसे विभूषित थे। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न शोभा पा रहा था। सबके महान् आश्रय भगवान् जगन्नाथ लक्ष्मीके साथ गरुड़पर विराजमान थे वे ही परात्पर परमेश्वर हैं। सम्पूर्ण देवलोककी गति हैं परमानन्दमय कैवल्यसे सुशोभित हैं। बड़े-बड़े लोक, पुण्यात्मा वैष्णव, देवता तथा गन्धर्व उनकी सेवामें रहते हैं। राजा ययातिने अपनी पत्नीसहित निकट जाकर गन्धर्वोद्वारा सेवित, देववृन्दसे घिरे दुःख-क्लेशहारी प्रभु नारायणको नमस्कार किया तथा उनके साथ जो अन्य वैष्णव पधारे थे, उन्होंने भी भक्तिपूर्वक भगवान्‌के दोनों चरण कमलोंमें मस्तक झुकाया। परम तेजस्वी राजाको प्रणाम करते देख भगवान् हृषीकेशने कहा- महाराज! मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ। तुम मेरे भक्त हो; अतः तुम्हारे मनमें यदि कोई दुर्लभ मनोरथ हो तो लिये वरमाँगो। मैं उसे निस्सन्देह पूर्ण करूँगा ।'

राजा बोले- मधुसूदन! जगत्पते! देवेश्वर! यदि आप मुझपर सन्तुष्ट हैं तो सदाके लिये मुझे अपना दास बना लीजिये।

भगवान् श्रीविष्णुने कहा- -महाभाग ! ऐसा ही होगा। तुम मेरे भक्त हो, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। राजन् ! तुम अपनी पत्नीके साथ सदा मेरे लोकमें निवास करो।

भगवान्‌की ऐसी आज्ञा पाकर उनकी कृपासे महाराज ययाति परम प्रकाशमान विष्णुलोकमें निवास करने लगे।

सुकर्मा कहते हैं—पिप्पलजी! यह सम्पूर्ण पापनाशक चरित्र मैंने आपको सुना दिया। संसारमें राजा ययातिका दिव्य एवं शुभ जीवनचरित्र परम कल्याणदायक तथा पितृभक्त पुत्रोंका उद्धार करनेवाला है। पिताकी सेवाके प्रभावसे पूरुको राज्य प्राप्त हुआ। पिता-माताके समान अभीष्ट फल देनेवाला दूसरा कोई नहीं है। जो पुत्र माताके बुलानेपर हर्षमें भरकर उसकी ओर जाता है, उसे गंगास्नानका फल मिलता है। जो माता और पिताके चरण पखारता है, वह महायशस्वी पुत्र उन दोनोंकी कृपासे समस्त तीर्थोंके सेवनका फल भोगता है। उनके शरीरको दबाकर व्यथा दूर करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। जो भोजन और वस्त्र देकर माता पिताका पालन करता है, उसे पृथ्वीदानका पुण्य प्राप्त होता है। गंगा और माता सर्वतीर्थमयी मानी गयी हैं।इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जैसे जगत्‌में समुद्र परम पुण्यमय एवं प्रतिष्ठित माना गया है, उसी प्रकार इस संसारमें पिता-माताका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऐसा पौराणिक विद्वानोंका कथन है। जो पुत्र माता पिताको कटुवचन सुनाता और कोसता है, वह बहुत दुःख देनेवाले नरकमें पड़ता है। जो गृहस्थ होकर भी बूढ़े माता-पिताका पालन नहीं करता, वह पुत्र नरकमें पड़ता और भारी यातना भोगता है। जो दुर्बुद्धि एवं पापाचारी पुरुष पिताकी निन्दा करता है, उसके उस पापका प्रायश्चित्त प्राचीन विद्वानोंको भी कभी दृष्टिगोचर नहीं हुआ है।

विप्रवर! यही सब सोचकर मैं प्रतिदिन माता पिताकी भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ और चरण दबाने आदिकी सेवामें लगा रहता हूँ। मेरे पिता मुझे बुलाकर जो कुछ भी आज्ञा देते हैं, उसे मैं अपनी शक्तिके अनुसार बिना विचारे पूर्ण करता हूँ। इससे मुझे सद्गति प्रदान करनेवाला उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ है। पिता माताकी कृपासे संसारमें तीनों कालोंका ज्ञान सुलभ हो जाता है। पृथ्वीपर रहनेवाले जो मनुष्य माता-पिताकी भक्ति करते हैं, उन्हें यह ज्ञान प्राप्त होता है। मैं यहीं रहकर स्वर्गलोकतककी बातें जानता हूँ। विद्याधर श्रेष्ठ ! आप भी जाइये और भगवत्स्वरूप माता-पिताकी आराधना कीजिये। देखिये, इन माता-पिताके प्रसादसे ही मुझे ऐसा ज्ञान मिला है।सुकर्माके मुखसे ये उपदेश सुनकर पिप्पलको अपनी करतूतपर बड़ी लज्जा आयी और वे द्विजश्रेष्ठ सुकर्माको प्रणाम करके स्वर्गको चले गये। तत्पश्चात् धर्मात्मासुकर्मा माता- -पिताकी सेवामें लग गये। महामते ! पितृतीर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दीं; बोलो अब और किस विषयका वर्णन करूँ ?

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार