सुकर्मा कहते हैं-पिप्पल! महाराज ययाति कामदेवके गीत, नृत्य और ललित हास्यसे मोहित होकर स्वयं भी नट-स्वरूप हो गये। वे मल-मूत्रका त्याग करके आये और पैरोंको धोये बिना ही आसनपर बैठ गये। यह छिद्र पाकर वृद्धावस्था तथा कामदेवने राजाके शरीरमें प्रवेश किया। नृपश्रेष्ठ उन सबने मिलकर इन्द्रका कार्य पूरा कर दिया। नाटक समाप्त हो गया। सब लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। तत्पश्चात् धर्मात्मा राजा ययाति जरावस्थासे पराजित हुए। उनका चित्त काम भोग में आसक्त हो गया। एक दिन वे कामयुक्त होकर वनमें शिकार खेलनेके लिये गये। उस समय उनके सामने एक हिरन निकला, जिसके चार सींग थे। उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। उसके सभी अंग सुन्दर थे। रोमावलियाँ सुनहरे रंगकी थीं, मस्तकपर रत्न-सा जढ़ा हुआ प्रतीत होता था। सारा शरीर चितकबरे रंगका था। वह मनोहर मृग देखने ही योग्य था राजा धनुष-बाण लेकर बड़े वेगसे उसके पीछे दौड़े। मृग भी उन्हें बहुत दूर ले गया और उनके देखते-देखते वहाँ अन्तर्धान हो गया। राजाको वहाँ नन्दनवन के समान एक अद्भुत वन दिखायी दिया,जो सभी गुणोंसे युक्त था। उसके भीतर राजाने एक बहुत सुन्दर तालाब देखा, जो दस योजन लंबा और पाँच योजन चौड़ा था । सब ओर कल्याणमय जलसे भरा वह सर्वतोभद्र नामक तालाब दिव्य भावोंसे शोभा पा रहा था। राजा रथके वेगपूर्वक चलनेसे खिन्न हो गये थे। परिश्रमके कारण उन्हें कुछ पीड़ा हो रही थी; अतः सरोवर के तटपर ठंडी छायाका आश्रय लेकर बैठ गये।
थोड़ी देर बाद स्नान करके उन्होंने कमलकी सुगन्धसे सुवासित सरोवरका शीतल जल पिया। इतनेमें ही उन्हें अत्यन्त मधुर स्वरमें गाया जानेवाला एक दिव्य संगीत सुनायी पड़ा, जो ताल और मूर्च्छनासे युक्त था। राजा तुरंत उठकर उस स्थानकी ओर चल दिये, जहाँ गीतकी मनोहर ध्वनि हो रही थी। जलके निकट एक विशाल एवं सुन्दर भवन था । उसीके ऊपर बैठकर रूप, शील और गुणसे सुशोभित एक सुन्दरी नारी मनोहर गीत गा रही थी। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं। रूप और तेज उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। चराचर जगत् में उसके जैसी सुन्दरी स्त्री दूसरी कोई नहीं थी। महाराज ययातिके शरीरमें जरायुक्त कामका संचार पहले ही हो चुका था । उस स्त्रीको देखते ही वह काम विशाल रूपमें प्रकटहुआ। राजा कामाग्निसे जलने और कामज्वरसे पीड़ित होने लगे। उन्होंने उस सुन्दरीसे पूछा - 'शुभे ! तुम कौन हो? किसकी कन्या हो? तुम्हारे पास यह कौन बैठी है? कल्याणी! मुझे सब बातोंका परिचय दो। मैं नहुषका पुत्र हूँ। मेरा जन्म चन्द्रवंशमें हुआ है। पृथ्वीके सातों द्वीपोंपर मेरा अधिकार है। मैं तीनों लोकोंमें विख्यात हूँ। मेरा नाम ययाति है। सुन्दरी! मुझे दुर्जय काम मारे डालता है। मैं उत्तम शीलसे युक्त हूँ। मेरी रक्षा करो। तुम्हारे समागमके लिये मैं अपना राज्य समूची पृथ्वी और यह शरीर भी अर्पण कर दूँगा। यह त्रिलोकी तुम्हारी ही है।
राजाकी बात सुनकर सुन्दरीने अपनी सखी विशालाको उत्तर देनेके लिये प्रेरित किया। तब विशाला ने कहा - 'नरश्रेष्ठ! यह रतिकी पुत्री है। इसका नाम अनुविन्दुमती है मैं इसके प्रेम और सौहार्दवश सदा इसके साथ रहती हूँ। हम दोनोंमें स्वाभाविक मित्रता है, जिससे में सर्वदा प्रसन्न रहती है। मेरा नाम विशाला है। मैं वरुणकी पुत्री हूँ। महाराज! मेरी यह सुन्दरी सखी योग्य वरकी प्राप्तिके लिये तपस्या कर रही है। इस प्रकार मैंने आपसे अपनी इस सखीका तथा अपना भी पूरा-पूरा परिचय दे दिया।'
ययाति बोले शुभे मेरी बात सुनो यह सुन्दर मुखवाली रतिकुमारी मुझे ही पतिरूपमें स्वीकार करे। यह वाला जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करेगी, वह सब मैं इसे प्रदान करूँगा।
विशालाने कहा- राजन्! मैं इसका नियम बतलाती हूँ, पहले उसे सुन लीजिये। यह स्थिर यौवनसे युक्तः सर्वज्ञ, वीरके लक्षणोंसे सुशोभित, देवराजके समान तेजस्वी, धर्मका आचरण करनेवाले, जिलोकपूजित, सुबुद्धि, सुप्रिय तथा उत्तम गुणोंसे युक पुरुषको अपना पति बनाना चाहती है।
ययाति बोले- मुझे इन सभी गुणोंसे युक्त समझो मैं इसके योग्य पति हो सकता हूँ।
विशालाने कहा- राजन्! मैं जानती हूँ, आप अपने पुण्यके लिये तीनों लोकोंमें विख्यात हैं। मैंनेपहले जिन-जिन गुणोंकी चर्चा की है, वे सभी आपके भीतर विद्यमान हैं; केवल एक ही दोषके कारण यह मेरी सखी आपको पसंद नहीं करती आपके शरीरमें वृद्धावस्थाका प्रवेश हो गया है। यदि आप उससे मुक हो सकें, तो यह आपकी प्रियतमा हो सकती है। राजन् ! यही इसका निश्चय है। मैंने सुना है, पुत्र, भ्राता और भूत्य- जिसके शरीरमें भी इस जरावस्थाको डाला जाय, उसीमें इसका संचार हो जाता है। अतः भूपाल! आप अपना बुढ़ापा तो पुत्रको दे दीजिये और स्वयं उसका यौवन लेकर परम सुन्दर बन जाइये मेरी सखी जिस रूपमें आपका उपभोग करना चाहती है,
उसीके अनुकूल व्यवस्था कीजिये। ययाति बोले- महाभागे ! एवमस्तु, मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगा।
राजा ययाति काम भोगमें आसक्त होकर अपनी विवेकशक्ति खो बैठे थे वे घर जाकर अपने पुत्रोंसे बोले- 'तुमलोगोंमें से कोई एक मेरी दुःखदायिनी जरावस्थाको ग्रहण कर ले और अपनी जवानी मुझे दे दे, जिससे मैं इच्छानुसार भोग भोग सकूँ। जो मेरी वृद्धावस्थाको ग्रहण करेगा, वह पुत्रोंमें श्रेष्ठ समझा जायगा और वही मेरे राज्यका स्वामी होगा। उसको सुख, सम्पत्ति, धन-धान्य, बहुत-सी सन्तानें तथा यश और कीर्ति प्राप्त होगी।'
तुरुने कहा- पिताजी इसमें सन्देह नहीं कि पिता-माताकी कृपासे ही पुत्रको शरीरको प्राप्ति होती है; अतः उसका कर्तव्य है कि वह विशेष चेष्टाके साथ माता-पिताकी सेवा करे। परन्तु महाराज! यौवन दान करनेका यह मेरा समय नहीं है।
तुरुकी बात सुनकर धर्मात्मा राजाको बड़ा क्रोध हुआ। वे उसे शाप देते हुए बोले-'तूने मेरी आज्ञाका अनादर किया है, अतः तू सब धर्मोसे बहिष्कृत और - पापी हो जा तेरा हृदय पवित्र ज्ञानसे शून्य हो जाय और तू कोढ़ी हो जा।' तुरुको इस प्रकार शाप देकर वे अपने दूसरे पुत्र पसे बोले-'बेटा! तू मेरी जस्को ग्रहण कर और मेरा अकण्टक राज्य भोग।' यह सुनकरयदुने हाथ जोड़कर कहा-पिताजी कृपा कीजिये। मैं बुढापेका भार नहीं ढो सकता। शीतका कष्ट सहना, अधिक राह चलना, कदन्न भोजन करना, जिनकी जवानी बीत गयी हो ऐसी स्त्रियोंसे सम्पर्क रखना और मनकी प्रतिकूलताका सामना करना ये वृद्धावस्थाके पाँच हेतु हैं।' यदुके यों कहनेपर महाराज ययातिने कुपित होकर उन्हें भी शाप दिया- 'जा, तेरा वंश राज्यहीन होगा, उसमें कभी कोई राजा न होगा।'
यदुने कहा- महाराज मैं निर्दोष हूँ। आपने मुझे शाप क्यों दे दिया? मुझ दीनपर दया कीजिये, प्रसन्न हो जाइये।
ययाति बोले- बेटा! महान् देवता भगवान् विष्णु जब तेरे वंशमें अपने अंशसहित अवतार लेंगे, उस समय तेरा कुल पवित्र - शापसे मुक्त हो जायगा राजा ययातिने कुरुको शिशु समझकर छोड़ दिया और शर्मिष्ठाके पुत्र पूरुको बुलाकर कहा- 'बेटा! तू मेरी वृद्धावस्था ग्रहण कर ले।' पूरुने कहा-'राजन् ! मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा। मुझे अपनी वृद्धावस्था दीजिये और आज ही मेरी युवावस्थासे सुन्दर रूप धारण कर उत्तम भोग भोगिये।' यह सुनकर महामनस्वी राजाका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वे पूरुसे बोले 'महामते! तूने मेरी वृद्धावस्था ग्रहण की और अपना यौवन मुझे दिया इसलिये मेरे दिये हुए राज्यका उपभोग कर।' अब राजाकी बिलकुल नयी अवस्था हो गयी। वे सोलह वर्षके तरुण प्रतीत होने लगे। देखने में अत्यन्त सुन्दर, मानो दूसरे कामदेव हों। महाराजने पुरुको अपना धनुष, राज्य, छत्र, घोड़ा, हाथी, धन, खजाना, देश, सेना, चँवर और व्यजन-सब कुछ दे डाला। धर्मात्मा नहुपकुमार अब कामात्मा हो गये। वे कामासक्त होकर बारंबार उस स्त्रीका चिन्तन करने लगे। उन्हें अपने पहले वृत्तान्तका स्मरण न रहा। नयी ब जवानी पाकर वे बड़ी शीघ्रताके साथ कदम बढ़ते हुए अश्रुबिन्दुमतीके पास गये। उस समय उनका चित्त कामसे उन्मत्त हो रहा था। वे विशाल नेत्रोंवाली व विशालाको देखकर बोले- 'भद्रे मैं प्रबल दोषरूपवृद्धावस्थाको त्यागकर यहाँ आया अब मैं तरुण हूँ, अत: तुम्हारी सखी मुझे स्वीकार करे।'
विशाला बोली- राजन् ! आप दोषरूपा जरावस्थाको त्यागकर आये हैं, यह बड़ी अच्छी बात है; परन्तु अब भी आप एक दोषसे लिप्त हैं, जिससे यह आपको स्वीकार करना नहीं चाहती। आपकी दो सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ है- शर्मिष्ठा और देवयानी ऐसी दशामें आप मेरी इस सखीके वशमें कैसे रह सकेंगे ? जलती हुई आगमें समा जाना और पर्वतके शिखरसे कूद पड़ना अच्छा है; किन्तु रूप और तेजसे युक्त होनेपर भी ऐसे पतिसे विवाह करना अच्छा नहीं है, जो सौतरूपी विषसे युक्त हो। यद्यपि आप गुणोंके समुद्र हैं, तो भी इसी एक दोषके कारण यह आपको पति बनाना पसंद नहीं करती।
ययातिने कहा- शुभे! मुझे देवयानी और शर्मिष्ठासे कोई प्रयोजन नहीं है। इस बातके लिये मैं सत्यधर्मसे युक्त अपने शरीरको छूकर शपथ करता हूँ। अश्रुबिन्दुमती बोली- राजन्! मैं ही आपके राज्य और शरीरका उपभोग करूँगी। जिस-जिस कार्यके लिये मैं कहूँ, उसे आपको अवश्य पूर्ण करना होगा। इस बातका विश्वास दिलानेके लिये अपना हाथ मेरे हाथमें दीजिये।
ययातिने कहा- राजकुमारी मैं तुम्हारी सिवा किसी दूसरी स्वीको नहीं ग्रहण करूंगा। वरानने। मेरा राज्य, समूची पृथ्वी, मेरा यह शरीर और खजाना सबका तुम इच्छानुसार उपभोग करो सुन्दरी लो, मैंने तुम्हारे हाथमें अपना हाथ दे दिया।
अश्रुबिन्दुमती बोली- महाराज! अब मैं आपकी पत्नी बनूँगी। इतना सुनते ही महाराज ययातिकी आँखें हर्षसे खिल उठीं; उन्होंने गान्धर्व विवाहकी विधिसे काम-कुम्हारी अनुमदुमतीको ग्रहण किया और युवावस्थाके द्वारा से उसके साथ विहार करने लगे। अनुविन्दुमतीमें आसक्त होकर वहाँ रहते हुए राजाको बीस हजार वर्ष बीत गये। इस प्रकार इन्द्रके लिये किये हुए कामदेवके प्रयोगसे उस स्त्रीने महाराजको भलीभाँतिमोहित कर लिया। एक दिनकी बात है-कामनन्दिनी अनुविन्दुमतीने मोहित हुए राजा ययातिसे कहा 'प्राणनाथ! मेरे हृदयमें कुछ अभिलाषा जाग्रत हुई है। आप मेरे उस मनोरथको पूर्ण कीजिये पृथ्वीपते। आप यज्ञोंमें प्रधान अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करें।'
राजा बोले- महाभागे ! एवमस्तु, मैं तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूँगा। ऐसा कहकर महाराजने राज्य-भोगसे नि:स्पृह अपने पुत्र पूरुको बुलाया। पिताका आह्वान सुनकर पूरु आये उन्होंने भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर राजाके चरणों में प्रणाम किया और अनुविन्दुमतीके युगल चरणोंमें भी मस्तक झुकाया। इसके बाद वे पितासे बोले 'महाप्राज्ञ! मैं आपका दास हूँ; बताइये, मेरे लिये आपकी क्या आज्ञा है, मैं कौन-सा कार्य करूँ ?'
राजाने कहा- बेटा! पुण्यात्मा द्विजों, ऋत्विजों और भूमिपालको आमन्त्रित करके तुम अश्वमेध यज्ञकी तैयारी करो।
महातेजस्वी पूरु बड़े धार्मिक थे। उन्होंने पिताके कहनेपर उनकी आज्ञाका पूर्णतया पालन किया। तत्पश्चात् राजा ययातिने काम-कन्याके साथ यज्ञकी दीक्षा ली। उन्होंने अश्वमेध यज्ञमें ब्राह्मणों और दोनोंको अनेक प्रकारके दान दिये। यज्ञ समाप्त होनेपर महाराजने उस सुमुखीसे पूछा—'बाले! और कोई कार्य भी, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हो, बताओ; मैं तुम्हारा कौन-सा कार्य करूँ?' यह सुनकर उसने राजासे कहा- 'महाराज ! मैं इन्द्रलोक, ब्रह्मलोक, शिवलोक तथा विष्णुलोकका दर्शन करना चाहती हूँ।' राजा बोले- 'महाभागे ! तुमने जो प्रस्ताव किया है, वह इस समय मुझे असाध्य प्रतीत होता है। वह तो पुण्य, दान, यज्ञ और तपस्यासे ही साध्य है। मैंने आजतक ऐसा कोई मनुष्य नहीं देखा या सुना है, जो पुण्यात्मा होकर भी मर्त्यलोकसे इस शरीरके साथ ही स्वर्गको गया हो। अतः सुन्दरी ! तुम्हारा बताया हुआ कार्य मेरे लिये असाध्य है। प्रिये ! दूसरा कोई कार्य बताओ, उसे अवश्य पूर्ण करूंगा।' अश्रुविन्दुमती बोली- राजन् ! इसमें सन्देहनहीं कि यह कार्य दूसरे मनुष्योंके लिये सर्वथा असाध्य है; पर आपके लिये तो साध्य ही है-यह मैं बिलकुल सच-सच कह रही हूँ। इसी उद्देश्यसे मैंने आपको अपना स्वामी बनाया था आप सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और सब धर्मोसे युक्त हैं। मैं जानती हूँ- आप भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वैष्णवोंमें परम श्रेष्ठ हैं। जिसके ऊपर भगवान् विष्णुकी कृपा होती है, वह सर्वत्र जा सकता है। इसी आशासे मैंने आपको पति- रूपमें अंगीकार किया था। राजन्! केवल आपने ही मृत्युलोकमें आकर सम्पूर्ण मनुष्योंको जरावस्थाकी पीड़ासे रहित और मृत्युहीन बनाया है। नरश्रेष्ठ! आपने इन्द्र और यमराजका विरोध करके मर्त्यलोकको रोग और पापसे शून्य कर दिया है। महाराज! आपके समान दूसरा कोई भी राजा नहीं है। बहुत से पुराणोंमें भी आपके जैसे राजाका वर्णन नहीं मिलता। मैं अच्छी तरह जानती हूँ, आप सब धर्मो के ज्ञाता हैं।
राजाने कहा- भद्रे ! तुम्हारा कहना सत्य है, मेरे लिये कोई साध्य असाध्यका प्रश्न नहीं है। जगदीश्वरकी कृपासे मुझे स्वर्गलोकमें सब कुछ सुलभ है। तथापि मैं स्वर्गमें जो नहीं जाता हूँ, इसका कारण सुनो। मेरे छोड़ देनेपर मानवलोककी सारी प्रजा मृत्युका शिकार हो जायगी, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। सुमुखि ! यही सोचकर मैं स्वर्गमें नहीं चलता है यह मैंने तुम्हें सच्ची बात बतायी है।
रानी बोली- महाराज! उन लोकोंको देखकर मैं फिर मर्त्यलोकमें लौट आऊँगी। इस समय उन्हें देखनेके लिये मेरे मनमें इतनी उत्सुकता हुई है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है।
राजाने कहा- देवि! तुमने जो कुछ कहा है, उसे निस्सन्देह पूर्ण करूँगा।
अपनी प्रिया अश्रुबिन्दुमती यों कहकर राजा सोचने लगे - 'मत्स्य पानीके भीतर रहता है, किन्तु वह भी जालसे बँध जाता है। स्वर्गमें या पृथ्वीपर जो स्थावर आदि प्राणी हैं, उन सबपर कालका प्रभाव है। एकमात्र काल ही इस जगत्के रूपमें उपलब्ध होता है। कालसेपीड़ित मनुष्यको मन्त्र, तप, दान, मित्र और बन्धु बान्धव-कोई भी नहीं बचा सकते। विवाह, जन्म और मृत्यु-ये कालके रचे हुए तीन बन्धन हैं। ये जहाँ, जैसे और जिस हेतुसे होनेको होते हैं, होकर ही रहते हैं; कोई उन्हें मेट नहीं सकता। उपद्रव, आघातदोष, सर्प और व्याधियाँ- ये सभी कर्मसे प्रेरित होकर मनुष्यको प्राप्त होते हैं। आयु कर्म, धन, विद्या और मृत्यु- ये पाँच बातें जीवके गर्भमें रहते समय ही रच दी जाती है।" जीवको देवत्व मनुष्य पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनियाँ और स्थावर योनि- ये सब कुछ अपने-अपने कर्मानुसार ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य जैसा करता है, वैसा भोगता है; उसे अपने किये हुएको हो सदा भोगना पड़ता है। वह अपना ही बनाया हुआ दुःख और अपना ही रचा हुआ सुख भोगता है जो लोग अपने धन और बुद्धिसे किसी वस्तुको अन्यथा करनेकी बुद्धि रखते हैं, वे भी अपने उपार्जित सुख-दुःखाँका उपभोग करते हैं। जैसे बछड़ा हजारों गौओंके बीचमें खड़ी होनेपर भी अपने माताको पहचानकर उसके पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार पूर्व जन्मके किये हुए शुभाशुभ कर्म कर्ताका अनुसरण करते हैं। पहलेका किया हुआ कर्म कतकि सोनेपर उसके साथ ही सोता है, उसके खड़े होनेपर खड़ा होता है और चलनेपर पीछे-पीछे चलता है। तात्पर्य यह कि कर्म छायाकी भाँति कतक साथ लगा रहता है। जैसे छाया और धूप सदा एक-दूसरेसे सम्बद्ध होते हैं, उसी प्रकार कर्म और कर्ताका भी परस्पर सम्बन्ध है। शस्त्र, अग्नि, विष आदिसे जो बचाने योग्य वस्तु है, उसको भी दैव ही बचाता है। जो वास्तवमें अरक्षित वस्तु है, उसकी दैव ही रक्षा करता है। दैवने जिसका नाश करदिया हो, उसकी रक्षा नहीं देखी जाती। यह मेरे पूर्वकमका परिणाम ही है, दूसरा कुछ नहीं है। इस | स्त्रीके रूपमें दैव ही यहाँ आ पहुँचा है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मेरे घरमें जो नाटक खेलनेवाले नट और नर्तक आये थे, उन्हीं के संगसे मेरे शरीरमें जरावस्थाने प्रवेश किया है। इन सब बातोंको मैं अपने कमका ही परिणाम मानता हूँ।"
इस प्रकारकी चिन्तामें पड़कर राजा ययाति बहुत दुःखी हो गये। उन्होंने सोचा- 'यदि मैं प्रसन्नतापूर्वक इसकी बात नहीं मानूंगा तो मेरे सत्य और धर्म-दोनों ही चले जायेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जैसा कर्म मैंने किया था, उसके अनुरूप ही फल आज दृष्टिगोचर हुआ है। यह निश्चित बात है कि दैवका विधान टाला नहीं जा सकता है।'
इस तरह सोच-विचारमें पड़े हुए राजा ययाति सबके क्लेश दूर करनेवाले भगवान् श्रीहरिकी शरणमें गये। उन्होंने मन ही मन भगवान् मधुसूदनका ध्यान और नमस्कारपूर्वक स्तवन किया तथा कातरभावसे कहा- 'लक्ष्मीपते मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मेरा उद्धार कीजिये।'
सुकर्मा कहते हैं- परम धर्मात्मा राजा ययाति इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि रतिकुमारी देवी अश्रुबिन्दुमतीने कहा- 'राजन् ! अन्यान्य प्राकृत मनुष्योंकी भाँति आप दुःखपूर्ण चिन्ता कैसे कर रहे हैं। जिसके कारण आपको दुःख हो, वह कार्य मुझे कभी नहीं करना है।' उसके यों कहनेपर राजाने उस वरांगनासे 1 कहा-'देवि! मुझे जिस बातकी चिन्ता हुई है, उसे बताता हूँ; सुनो। मेरे स्वर्ग चले जानेपर सारी प्रजा दीनहो जायगी। तथापि अब मैं तुम्हारे साथ स्वर्गलोकको चलूँगा।' यों कहकर राजाने अपने उत्तम पुत्र पुरुको, जो सब धर्मो के ज्ञाता, वृद्धावस्थासे युक्त और परम बुद्धिमान् थे, बुलाया और इस प्रकार कहा- 'धर्मात्मन् ! मेरी आज्ञासे तुमने धर्मका पालन किया है, अब मेरी वृद्धावस्था दे दो और अपनी युवावस्था ग्रहण करो। खजाना, सेना तथा सवारियोंसहित मेरा यह राज्य तथा समुद्रसहित समूची पृथ्वीको भोगो। मैंने इसे तुम्हें ही दिया है। दुष्टोंको दण्ड देना और साधु पुरुषोंकी रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है।
तात! तुम्हें धर्मशास्त्रको प्रमाण मानकर उसीके अनुसार सब कार्य करना चाहिये। महाभाग ! शास्त्रीय विधिके अनुसार भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंका पूजन करना, क्योंकि वे तीनों लोकोंमें पूजनीय हैं पाँचवें सातवें दिन खजानेकी देखभाल करते रहना, सेवकोंको धन और भोजन आदिसे प्रसन्न करके सदा इनका आदर करना। गुप्तचरोंको नियुक्त करके राज्यके प्रत्येक अंगपर दृष्टि रखना, सदा दान देते रहना, शत्रुपर अनुराग या विश्वास न करना, विद्वान् पुरुषोंके द्वारा सदा अपनी रक्षाका प्रबन्ध रखना। बेटा! अपने मनको काबू में रखना, कभी शिकार खेलनेके लिये न जाना। स्त्री, खजाना, सेना और शत्रुपर कभी विश्वास न करना। सुयोग्य पात्रों और सब प्रकारके बलोंका संग्रह करना। यज्ञोंके द्वारा भगवान् हृषीकेशका पूजन करना और सदा पुण्यात्मा बने रहना प्रजाको जिस वस्तुकी इच्छा हो, वह सब उन्हें प्रतिदिन देते रहना। बेटा! तुम प्रजाको सुख पहुँचाओ, प्रजाका पालन-पोषण करो। पराये धन और परायी स्त्रियोंके प्रति कभी दूषित विचार मनमें न लाना। वेद और शास्त्रोंका निरन्तर चिन्तन करना और सदा अस्त्र-शस्त्रोंके अभ्यासमें लगे रहना। हाथी और रथ हाँकनेका अभ्यास भी बढ़ाते रहना।'
पुत्रको ऐसा आदेश देकर राजाने आशीर्वादके द्वारा उसे प्रसन्न किया और अपने हाथसे राजसिंहासनपर बिठाया। फिर अपनी वृद्धावस्था ले पुत्रको यौवन समर्पित करके महाराजने समस्त प्रजाओंको बुलाया औरबड़े हर्षमें भरकर यह वचन कहा—'सज्जनो! मैं अपनी इस पत्नी के साथ पहले इन्द्रलोकमें जाता हूँ, फिर क्रमशः ब्रह्मलोक और शिवलोकमें जाऊँगा। इसके बाद समस्त लोकोंके पाप दूर करनेवाले तथा जीवोंको सद्गति प्रदान करनेवाले विष्णुधामको प्राप्त होऊंगा इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरी समस्त प्रजाको कुटुम्बसहित यहीं सुखपूर्वक रहना चाहिये। यही मेरी आज्ञा है। आजसे ये महाबाहु पूरु आपलोगोंके रक्षक हैं। इनका स्वभाव धीर है, मैंने इन्हें शासनका अधिकार देकर राजाके पदपर प्रतिष्ठित किया है।'
महाराजके यों कहनेपर प्रजाजनोंने कहा- नृपश्रेष्ठ सम्पूर्ण वेदोंमें धर्मका हो श्रवण होता है. पुराणोंमें भी धर्मको ही व्याख्या की गयी है, किन्तु पूर्वकालमें किसीने धर्मका साक्षात् दर्शन नहीं किया। केवल हमलोगोंने ही चन्द्रवंशमें राजा नहुषके घर उत्पन्न हुए आपके रूपमें उस दशांग धर्मका साक्षात्कार किया है। महाराज! आप सत्यप्रिय, ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न, पुण्यकी महान् राशि, गुणोंके आधार तथा सत्यके ज्ञाता हैं। सत्यका पालन करनेवाले महान् ओजस्वी पुरुष परम धर्मका अनुष्ठान करते हैं। आपसे बढ़कर दूसरा कोई पुरुष हमारे देखनेमें नहीं आया है। आप जैसे धर्मपालक एवं सत्यवादी राजाको हम मन, वाणी और शरीर किसीकी भी क्रियाद्वारा छोड़नेमें असमर्थ है। महाराज! जब आप ही नहीं रहेंगे, तब स्त्री, धन, भोग और जीवन लेकर हम क्या करेंगे। अतः राजेन्द्र ! अब हमें यहाँ रहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। आपके साथ ही हम भी चलेंगे।'
प्रजाजनोंकी यह बात सुनकर राजा ययातिको बड़ा हर्ष हुआ। वे बोले-'आप सब लोग परम पुण्यात्मा हैं, मेरे साथ चलें।' यो कहकर वे कामकन्याके साथ रथपर सवार हुए। वह रथ चन्द्रमण्डलके समान जान पड़ता था। सेवकगण हाथमें चँवर और व्यजन लेकर महाराजको हवा कर रहे थे। राजाके मनमें किसी प्रकारकी पीड़ा नहीं थी। उनके राज्यमें ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य तथा शूद्र- सभी वैष्णव थे। इनके सिवा जो अन्त्यज थे, उनके मनमें भी भगवान् विष्णुके प्रति भक्ति थी। सभी दिव्य माला धारण किये तुलसीदलों से शोभा पा रहे थे। उनकी संख्या अरबों-खरबोंतक पहुँच गयी। सभी भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर और जप एवं दानमें संलग्न रहनेवाले थे। सब-के-सब विष्णु भक्त और पुण्यात्मा थे। उन सबने महाराजके साथ दिव्य लोकोंकी यात्रा की। उस समय सबके हृदयमें महान् आनन्द छा रहा था। राजा ययाति सबसे पहले इन्द्रलोकमें गये, उनके तेज, पुण्य, धर्म और तपोबलसे और लोग भी साथ-साथ गये। वहाँ पहुँचनेपर देवता, गन्धर्व, किन्नर तथा चारणसहित देवराज इन्द्र उनके सामने आये और उनका सम्मान करते हुए बोले- 'महाभाग ! आपका स्वागत है! आइये, मेरे घरमें पधारिये और दिव्य, पावन एवं मनोरम भोगोंका उपभोग कीजिये।'
राजाने कहा- देवराज आपके चरणारविन्दों में प्रणाम करके हमलोग सनातन ब्रह्मलोकमें जा रहे हैं।
यह कहकर देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे ब्रह्मलोकमें गये। वहाँ मुनिवरोंके साथ महातेजस्वी ब्रह्माजीने अर्ध्यादि सुविस्तृत उपचारोंके द्वारा उनका आतिथ्य सत्कार किया और कहा 'राजन्! तुम अपने शुभ कर्मोंके फलस्वरूप विष्णुलोकको जाओ।' ब्रह्माजीके यों कहनेपर के पहले शिवलोकमें गये, वहाँ भगवान् शंकरने पार्वतीजीके साथ उनका स्वागत-सत्कार किया और इस प्रकार कहा— 'महाराज ! तुम भगवान् विष्णुके भक्त हो, अतः मेरे भी अत्यन्त प्रिय हो, क्योंकि मुझमें और विष्णुमें कोई अन्तर नहीं है। जो विष्णु हैं, वही मैं हूँ तथा मुझीको विष्णु समझो, पुण्यात्मा विष्णुभक्तके लिये भी यही स्थान है। अतः महाराज! तुम यहाँ इच्छानुसार रह सकते हो।"
भगवान् शिवके यों कहनेपर श्रीविष्णुके प्रिय भक्त ययातिने मस्तक झुकाकर उनके चरणोंमें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और कहा-'महादेव! आपने इस समय जो कुछ भी कहा है, सत्य है, आप दोनोंमें वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है। एक ही परमात्माके स्वरूपकी ब्रह्मा,विष्णु और शिव-तीन रूपोंमें अभिव्यक्ति हुई है। तथापि मेरी विष्णुलोक में जानेकी इच्छा है, अतः आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। भगवान् शिव बोले-'महाराज! एवमस्तु तुम विष्णुलोकको जाओ।' उनको आज्ञा पाकर राजाने कल्याणमयी भगवती उमाको नमस्कार किया और उन परमपावन विष्णुभक्तोंके साथ वे विष्णुधामको चल दिये। ऋषि और देवता सब ओर खड़े हो उनकी स्तुति कर रहे थे। गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध, पुण्यात्मा, चारण, साध्य, विद्याधर, उनचास मरुद्गण, आठों वसु, ग्यारहों रुद्र बारहों आदित्य, लोकपाल तथा समस्त त्रिलोकी चारों और उनका गुणगान कर रही थी महाराज ययातिने रोग-शोकसे रहित अनुपम विष्णुलोकका दर्शन किया। सब प्रकारकी शोभासे सम्पन्न सोनेके विमान उस लोककी सुषमा बढ़ा रहे थे चारों ओर दिव्य छटा छा रही थी वह मोक्षका उत्तम धाम वैष्णवोंसे शोभा पा रहा था। देवताओंकी वहाँ भीड़ सी लगी थी।
नहुषनन्दन ययातिने सब प्रकारके दाहसे रहित उस दिव्य धाममें प्रवेश करके क्लेशहारी भगवान् नारायणका दर्शन किया। भगवान्के ऊपर चंदोवे तने हुए थे, जिनसे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। वे सब प्रकारके आभूषण और पीत वस्त्रोंसे विभूषित थे। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न शोभा पा रहा था। सबके महान् आश्रय भगवान् जगन्नाथ लक्ष्मीके साथ गरुड़पर विराजमान थे वे ही परात्पर परमेश्वर हैं। सम्पूर्ण देवलोककी गति हैं परमानन्दमय कैवल्यसे सुशोभित हैं। बड़े-बड़े लोक, पुण्यात्मा वैष्णव, देवता तथा गन्धर्व उनकी सेवामें रहते हैं। राजा ययातिने अपनी पत्नीसहित निकट जाकर गन्धर्वोद्वारा सेवित, देववृन्दसे घिरे दुःख-क्लेशहारी प्रभु नारायणको नमस्कार किया तथा उनके साथ जो अन्य वैष्णव पधारे थे, उन्होंने भी भक्तिपूर्वक भगवान्के दोनों चरण कमलोंमें मस्तक झुकाया। परम तेजस्वी राजाको प्रणाम करते देख भगवान् हृषीकेशने कहा- महाराज! मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ। तुम मेरे भक्त हो; अतः तुम्हारे मनमें यदि कोई दुर्लभ मनोरथ हो तो लिये वरमाँगो। मैं उसे निस्सन्देह पूर्ण करूँगा ।'
राजा बोले- मधुसूदन! जगत्पते! देवेश्वर! यदि आप मुझपर सन्तुष्ट हैं तो सदाके लिये मुझे अपना दास बना लीजिये।
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- -महाभाग ! ऐसा ही होगा। तुम मेरे भक्त हो, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। राजन् ! तुम अपनी पत्नीके साथ सदा मेरे लोकमें निवास करो।
भगवान्की ऐसी आज्ञा पाकर उनकी कृपासे महाराज ययाति परम प्रकाशमान विष्णुलोकमें निवास करने लगे।
सुकर्मा कहते हैं—पिप्पलजी! यह सम्पूर्ण पापनाशक चरित्र मैंने आपको सुना दिया। संसारमें राजा ययातिका दिव्य एवं शुभ जीवनचरित्र परम कल्याणदायक तथा पितृभक्त पुत्रोंका उद्धार करनेवाला है। पिताकी सेवाके प्रभावसे पूरुको राज्य प्राप्त हुआ। पिता-माताके समान अभीष्ट फल देनेवाला दूसरा कोई नहीं है। जो पुत्र माताके बुलानेपर हर्षमें भरकर उसकी ओर जाता है, उसे गंगास्नानका फल मिलता है। जो माता और पिताके चरण पखारता है, वह महायशस्वी पुत्र उन दोनोंकी कृपासे समस्त तीर्थोंके सेवनका फल भोगता है। उनके शरीरको दबाकर व्यथा दूर करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। जो भोजन और वस्त्र देकर माता पिताका पालन करता है, उसे पृथ्वीदानका पुण्य प्राप्त होता है। गंगा और माता सर्वतीर्थमयी मानी गयी हैं।इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जैसे जगत्में समुद्र परम पुण्यमय एवं प्रतिष्ठित माना गया है, उसी प्रकार इस संसारमें पिता-माताका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऐसा पौराणिक विद्वानोंका कथन है। जो पुत्र माता पिताको कटुवचन सुनाता और कोसता है, वह बहुत दुःख देनेवाले नरकमें पड़ता है। जो गृहस्थ होकर भी बूढ़े माता-पिताका पालन नहीं करता, वह पुत्र नरकमें पड़ता और भारी यातना भोगता है। जो दुर्बुद्धि एवं पापाचारी पुरुष पिताकी निन्दा करता है, उसके उस पापका प्रायश्चित्त प्राचीन विद्वानोंको भी कभी दृष्टिगोचर नहीं हुआ है।
विप्रवर! यही सब सोचकर मैं प्रतिदिन माता पिताकी भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ और चरण दबाने आदिकी सेवामें लगा रहता हूँ। मेरे पिता मुझे बुलाकर जो कुछ भी आज्ञा देते हैं, उसे मैं अपनी शक्तिके अनुसार बिना विचारे पूर्ण करता हूँ। इससे मुझे सद्गति प्रदान करनेवाला उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ है। पिता माताकी कृपासे संसारमें तीनों कालोंका ज्ञान सुलभ हो जाता है। पृथ्वीपर रहनेवाले जो मनुष्य माता-पिताकी भक्ति करते हैं, उन्हें यह ज्ञान प्राप्त होता है। मैं यहीं रहकर स्वर्गलोकतककी बातें जानता हूँ। विद्याधर श्रेष्ठ ! आप भी जाइये और भगवत्स्वरूप माता-पिताकी आराधना कीजिये। देखिये, इन माता-पिताके प्रसादसे ही मुझे ऐसा ज्ञान मिला है।सुकर्माके मुखसे ये उपदेश सुनकर पिप्पलको अपनी करतूतपर बड़ी लज्जा आयी और वे द्विजश्रेष्ठ सुकर्माको प्रणाम करके स्वर्गको चले गये। तत्पश्चात् धर्मात्मासुकर्मा माता- -पिताकी सेवामें लग गये। महामते ! पितृतीर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दीं; बोलो अब और किस विषयका वर्णन करूँ ?