शेषजी कहते हैं-अंगदके मुखसे सुरथका सन्देश सुनकर युद्धकी कलामें निपुणता रखनेवाले समस्त योद्धा संग्रामके लिये तैयार हो गये। सभी वीर उत्साहसे भरे थे, सब-के-सब रण 1- कर्ममें कुशल थे। वे नाना प्रकारके स्वरोंमें ऐसी गर्जनाएँ करते थे, जिन्हें सुनकर कायरोंको भय होता था। इसी समय राजा सुरथ अपने पुत्रों और सैनिकोंके साथ युद्धक्षेत्रमें आये। जैसे समुद्र प्रलयकालमें पृथ्वीको जलसे आप्लावित कर देता है, उसी प्रकार वे हाथी, रथ, घोड़े और पैदल योद्धाओंको साथ ले सारी पृथ्वीको आच्छादित करते हुए दिखायी दिये। उनकी सेनामें शंखनाद और विजय गर्जनाका कोलाहल छा रहा था। इस प्रकार राजा सुरथको युद्धके लिये उद्यत देख शत्रुघ्नने सुमतिसे कहा- 'महामते ! ये राजा अपनी विशाल सेनासे घिरकर आ पहुँचे; अब हमलोगोंका जो कर्तव्य हो उसे बताओ।'
सुमतिने कहा- अब यहाँ सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान रखनेवाले पुष्कल आदि युद्ध विशारद वीरोंको अधिक संख्यामें उपस्थित होकर शत्रुओंसे लोहा लेना चाहिये। वायुनन्दन हनुमानजी महान् शौर्यसे सम्पन्न हैं; अतः ये ही राजा सुरथके साथ युद्ध करें।
शेषजी कहते हैं-प्रधान मन्त्री सुमति इस प्रकारकी बातें बता ही रहे थे कि सुरथके उद्धत राजकुमार रणभूमिमें पहुँचकर अपनी धनुषकी टंकारकरने लगे। उन्हें देखकर पुष्कल आदि महाबली योद्धा धनुष लिये अपने-अपने रथोंपर बैठकर आगे बढ़े। उत्तम अस्त्रोंके ज्ञाता वीर पुष्कल चम्पकके साथ भिड़ गये और महावीरजीसे सुरक्षित होकर द्वैरथ-युद्धकी रीतिसे लड़ने लगे। जनककुमार लक्ष्मीनिधिने कुशध्वजको साथ लेकर मोहकका सामना किया। रिपुंजयके साथ विमल, दुर्वारके साथ सुबाहु, प्रतापीके साथ प्रतापाग्रय, बलमोदसे अंगद, हर्यक्षसे नीलरत्न, सहदेवसे सत्यवान्, भूरिदेवसे महाबली राजा वीरमणि और असुतापके साथ उग्राश्व युद्ध करने लगे। ये सभी युद्ध कर्ममें कुशल, सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंमें प्रवीण तथा बुद्धिविशारद थे; अतः सबने घोर द्वन्द्वयुद्ध किया। वात्स्यायनजी ! इस प्रकार घमासान युद्ध छिड़ जाने पर सुरथके पुत्रोंद्वारा शत्रुघ्नकी सेनाका भारी संहार हुआ। युद्ध आरम्भ होनेके पहले पुष्कलने चम्पकसे कहा 'राजकुमार! तुम्हारा क्या नाम है? तुम धन्य हो, जो मेरे साथ युद्ध करनेके लिये आ पहुँचे।'
चम्पकने कहा – वीरवर! यहाँ नाम और कुलसे - युद्ध नहीं होगा; तथापि मैं तुम्हें अपने नाम और बलका परिचय देता हूँ। श्रीरघुनाथजी ही मेरी माता तथा वे ही मेरे पिता हैं, श्रीराम ही मेरे बन्धु और श्रीराम ही मेरे स्वजन हैं। मेरा नाम रामदास है, मैं सदा श्रीरामचन्द्रजीकी ही सेवामें रहता हूँ। भक्तोंपर कृपा करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी ही मुझे इस युद्धसे पार लगायेंगे। अब लौकिक दृष्टिसे अपना परिचय देताहूँ-में राजा सुरथका पुत्र हू, मेरी माताका नाम वीरवती है। [अपने नामका उच्चारण निषिद्ध है, इसलिये मैं उसे संकेतसे बता रहा हूँ मेरे नामका एक वृक्ष होता है, जो वसन्त ऋतु खिलकर अपने आस-पासके सभी प्रदेशोंको शोभासम्पन्न बना देता है। यद्यपि उसका पुष्प रसका भण्डार होता है; तथापि मधुसे मोहित भ्रमर उसका परित्याग कर देते हैं-उससे दूर ही रहते हैं। वह फूल जिस नामसे पुकारा जाता है, उसे ही मेरा भी मनोहर नाम समझो। अच्छा, अब तुम इस संग्राममें अपने बार्णोद्वारा युद्ध करो; मुझे कोई भी जीत नहीं सकता। मैं अभी अपना अद्भुत पराक्रम दिखाता हूँ।
चम्पककी बात सुनकर पुष्कलका चित्त सन्तुष्ट हो गया। अब वे उसके ऊपर करोड़ों बार्णोंकी वर्षा करने लगे। तब चम्पकने भी कुपित होकर अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ायी और शत्रु समुदायको विदीर्ण करनेवाले तीखे बाणों को छोड़ना आरम्भ किया। किन्तु महावीर पुष्कलने उसके उन बाणको काट डाला। यह देख चम्पकने पुष्कलकी छाती में प्रहार करनेके 21 लिये सौ बाणोंका सन्धान किया; किन्तु पुष्कलने तुरंत ही उनके भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले तथा अत्यन्त कोपमें भरकर बाणोंकी बौछार आरम्भ कर दी। बाणोंकी वह वर्षा अपने ऊपर आती देख चम्पकने 'साधु-साधु' कहकर पुष्कलकी प्रशंसा करते हुए उन्हें अच्छी तरह घायल किया। पुष्कल सब शस्त्रोंके ज्ञाता थे। उन्होंने चम्पकको महापराक्रमी जानकर अपने धनुषपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। उधर चम्पक भी कुछ कम नहीं था, उसने भी सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्वत्ता प्राप्त की थी। पुष्कलके छोड़े हुए अस्त्रको देखकर उसे शान्त करनेके लिये उसने भी ब्रह्मास्त्रका ही प्रयोग किया। दोनों अस्त्रोंके तेज जब एकत्रित हुए, तो लोगोंने समझा अब प्रलय हो जायगा। किन्तु जब शत्रुका अस्त्र अपने अस्वसे मिलकर एक हो गया तो चम्पकने पुनः उसे शान्त कर दिया।
चम्पकका वह अद्भुत कर्म देखकर पुष्कलने 'खड़ा रह, खड़ा रह' कहते हुए उसपर असंख्य बार्णोका प्रहारकिया। किन्तु महामना चम्पकने पुष्कलके छोड़े हुए बाणोंकी परवा न करके उनके प्रति भयंकर बाण रामास्त्रका प्रयोग किया। पुष्कल उसे काटनेका विचार कर रहे थे कि उस बाणने आकर उन्हें बाँध लिया। इस प्रकार वीरवर चम्पकने पुष्कलको बाँधकर अपने रथपर बिठा लिया। उनके बाँधे जानेपर सेनामें महान् हाहाकार मचा। समस्त योद्धा भागकर शत्रुघ्नके पास चले गये। उन्हें भागते देख शत्रुघ्नने हनुमानजीसे पूछा- 'मेरी सेना तो बहुतेरे वीरोंसे अलंकृत है; फिर किस बोरने उसे भगाया है।' तब हनुमानजीने कहा
'राजन्! शत्रुवीरोंका दमन करनेवाला वीरवर चम्पक पुष्कलको बाँधकर लिये जा रहा है। उनकी ऐसी बात सुनकर शत्रुघ्न क्रोधसे जल उठे और पवनकुमारसे बोले- 'आप शीघ्र ही पुष्कलको राजकुमारके बन्धनसे छुड़ाइये।' यह सुनकर हनुमानजीने कहा- 'बहुत अच्छा।' फिर वे पुष्कलको चम्पककी कैदसे मुक्त करनेके लिये चल दिये। हनुमानजीको उन्हें छुड़ानेके लिये आते देख चम्पकको बड़ा क्रोध हुआ और उसने उनके ऊपर सैकड़ों-हजारों बाणोंका प्रहार किया। परन्तु उन्होंने शत्रुके छोड़े हुए समस्त सायकोंको चूर्ण कर डाला और एक शाल हाथमें लेकर राजकुमारपर दे मारा। चम्पक भी बड़ा बलवान् था। उसने हनुमान्जीके चलाये हुए शालको तिल-तिल करके काट डाला। तब हनुमानजीने उसके ऊपर बहुत-सी शिलाएँ फेंकी; परन्तु उन सबको भी उसने क्षणभरमें चूर्ण कर दिया। यह देख हनुमान्जीके हृदयमें बहुत क्रोध हुआ। वे यह सोचकर कि यह राजकुमार बहुत पराक्रमी है; उसके पास आये और उसे हाथसे पकड़कर आकाशमै उड़ गये। अब चम्पक आकाशमें ही खड़ा होकर हनुमानजीसे युद्ध करने लगा। उसने बाहुयुद्ध करके कपिश्रेष्ठ हनुमानजीको बहुत चोट पहुँचायी। उसका बल देखकर हनुमान्जीने हँसते-हँसते पुनः उसका एक पैर पकड़ लिया और उसे सौ बार घुमाकर हाथीके हौदेपर पटक दिया। वहाँसे धरतीपर गिरकर वह बलवान् राजकुमार मूर्च्छित हो गया। उस समय चम्पकके अनुगामी सैनिकहाहाकर करके चीख उठे और हनुमानजीने चम्पकके पाशमें बँधे हुए पुष्कलको छुड़ा लिया।
चम्पकको पृथ्वीपर पड़ा देख बलवान् राजा सुरथ पुत्रके दुःखसे व्याकुल हो उठे और रथपर सवार हो हनुमान्जीके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कहा- 'कपिश्रेष्ठ! तुम धन्य हो ! तुम्हारा बल और पराक्रम महान् हैं; जिसके द्वारा राक्षसोंकी पुरी लंका में तुमने श्रीरघुनाथजीके बड़े-बड़े कार्य सिद्ध किये हैं निस्सन्देह तुम श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंके सेवक और भक्त हो। तुम्हारी वीरताके लिये क्या कहना है। तुमने मेरे बलवान् पुत्र चम्पकको रणभूमिमें गिरा दिया है। कपीश्वर! अब तुम सावधान हो जाओ। मैं इस समय तुम्हें बाँधकर अपने नगरमें ले जाऊँगा। मैंने बिलकुल सत्य कहा है।'
हनुमान्जीने कहा- राजन्! तुम श्रीरघुनाथजीके चरणोंका चिन्तन करनेवाले हो और मैं भी उन्हींका सेवक है। यदि मुझे बाँध लोगे तो मेरे प्रभु बलपूर्वक तुम्हारे हाथसे छुटकारा दिलायेंगे। वीर! तुम्हारे मनमें जो बात है, उसे पूर्ण करो। अपनी प्रतिज्ञा सत्य करो। वेद कहते हैं, जो श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करता है, उसे कभी दुःख नहीं होता।
शेषजी कहते हैं— उनके ऐसा कहनेपर राजा सुरथने पवनकुमारकी बड़ी प्रशंसा की और सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए भयंकर बाणोंद्वारा उन्हें अच्छी तरह घायल किया। वे बाण हनुमान्जीके शरीरसे रक्त निकाल रहे थे तो भी उन्होंने उनकी परवा न की और राजाके धनुषको अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर तोड़ डाला। हनुमान्जीके द्वारा अपने धनुषको प्रत्यंचासहित टूटा हुआ देख राजाने दूसरा धनुष हाथमें लिया। किन्तु पवनकुमारने उसे भी छीनकर क्रोधपूर्वक तोड़ डाला। इस प्रकार उन्होंने राजाके अस्सी धनुष खण्डित कर दिये तथा क्षण-क्षणपर महान् रोषमें भरकर वे बारम्बार गर्जना करते थे। तब राजाके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने भयंकर शक्ति हाथमें ली। उस शक्तिसे आहत होकर हनुमानजी गिर पड़े, किन्तु थोड़ी ही देरमें उठकर खड़े होगये। फिर अत्यन्त क्रोधमें भर उन्होंने राजाका रथ पकड़ लिया और उसे लेकर बड़े वेग से आकाशये उड़ गये। ऊपर जाकर बहुत दूरसे उन्होंने रथको छोड़ दिया और वह रथ धरतीपर गिरकर क्षणभरमें चकनाचूर हो गया। राजा दूसरे रथपर जा चढ़े और बड़े वेग से हनुमान्जीका सामना करनेके लिये आये। किन्तु क्रोधमें भरे हुए पवनकुमारने तुरंत ही उस रथको भी चौपट कर डाला। इस प्रकार उन्होंने राजाके उनचास रथ नष्ट कर दिये। उनका यह पराक्रम देखकर राजाके सैनिकों तथा स्वयं राजाको भी बड़ा विस्मय हुआ। वे कुपित होकर बोले— 'वायुनन्दन ! तुम धन्य हो। कोई भी पराक्रमी ऐसा कर्म न तो कर सकता है और न करेगा। अब तुम एक क्षणके लिये ठहर जाओ, जबतक कि मैं अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ा रहा हूँ। तुम वायुदेवताके सुपुत्र श्रीरघुनाथजीके चरण कमलोंके चंचरीक हो [अतः मेरी बात मान लो ] ।' ऐसा कहकर रोषमें भरे हुए राजा सुरथने अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ायी और भयंकर बाणमें पाशुपत अस्त्रका सन्धान किया। लोगोंने देखा हनुमान्जी पाशुपत अस्त्रसे बँध गये। किन्तु दूसरे ही क्षण उन्होंने मन-ही-मन भगवान् श्रीरामका स्मरण करके उस बन्धनको तोड़ डाला और सहसा मुक्त होकर वे राजासे युद्ध करने लगे। सुरथने जब उन्हें बन्धन से मुक्त देखा तो महाबलवान् मानकर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। परन्तु महावीर पवनकुमार उस अस्त्रको हँसते हँसते निगल गये। यह देख राजाने श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया। उनका स्मरण करके उन्होंने अपने धनुषपर रामास्त्रका प्रयोग किया और हनुमान्जीसे कहा- 'कपिश्रेष्ठ अब तुम बँध गये। हनुमानजी बोले- राजन्। क्या करूँ, तुमने मेरे स्वामीके असबसे ही मुझे बाँधा है, किसी दूसरे प्राकृत अस्त्रसे नहीं; अत: मैं उसका आदर करता हूँ। अब तुम मुझे अपने नगरमें ले चलो। मेरे प्रभु दयाके सागर हैं; वे स्वयं ही आकर मुझे छुड़ायेंगे।' हनुमान्जीके बाँधे जानेपर पुष्कल कुपित होराजके सामने आये उन्हें आते देख राजाने आठ बाणोंसे बींध डाला। यह देख बलवान् पुष्कलने राजापर कई हजार बाणोंका प्रहार किया। दोनों एक दूसरेपर मन्त्र-पाठपूर्वक दिव्यास्त्रोंका प्रयोग करते और दोनों ही करनेवाले अस्त्रोंका प्रयोग करके एक-दूसरे के चलाये हुए अस्त्रोंका निवारण करते थे। इस प्रकार उन दोनोंमें बड़ा घमासान युद्ध हुआ, जो वीरोंके रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। तब राजाको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने एक नाराचका प्रयोग किया। पुष्कल उसको काटना ही चाहते थे कि वह नाराच उनकी छातीमें आ लगा। वे महान् तेजस्वी थे, तो भी उसका आघात न सह सके, उन्हें मूर्च्छा आ गयी!
पुष्कलके गिर जानेपर शत्रुओंको ताप देनेवाले शत्रुघ्नको बड़ा क्रोध हुआ। वे रथपर बैठकर राजा सुरथके पास गये और उनसे कहने लगे- 'राजन् ! तुमने यह बड़ा भारी पराक्रम कर दिखाया, जो पवनकुमार हनुमानजीको बाँध लिया। अभी ठहरो, मेरे वोरोंको रणभूमिमें गिराकर तुम कहाँ जा रहे हो। अब मेरे सायकोंकी मार सहन करो।' शत्रुघ्नका यह वीरोचित भाषण सुनकर बलवान् राजा सुरथ मन-ही मन श्रीरामचन्द्रजीके मनोहर चरणकमलोंका चिन्तन करते हुए बोले- 'वीरवर! मैंने तुम्हारे पक्षके प्रधान वीर हनुमान् आदिको रणमें गिरा दिया अब तुम्हें भी समरांगणमें सुलाऊँगा। श्रीरघुनाथजीका स्मरण करो, जो यहाँ आकर तुम्हारी रक्षा करेंगे; अन्यथा मेरे सामने युद्धमें आकर जीवनकी रक्षा असम्भव है।' ऐसा कहकर राजा सुरथने शत्रुघ्नको हजारों बाणोंसे घायल किया। उन्हें बाण समूहों की बौछार करते देख शत्रुघ्नने आग्नेयास्त्रका प्रयोग किया। वे शत्रुके बाणको दग्ध करना चाहते थे शत्रुघ्नके छोड़े हुए उस अस्त्रको राजा सुरथने वारुणास्त्र के द्वारा बुझा दिया और करोड़ों बाणोंसे उन्हें घायल किया। तब शत्रुघ्नने अपने धनुषपर मोहन नामक महान् अस्त्रका सन्धान किया। वह अद्भुत अस्त्र समस्त वीरोंको मोहित करके उन्हें निद्रामें निमग्न कर देनेवाला था। उसे देख राजाने भगवान्का स्मरण करतेहुए कहा- 'मैं श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके ही मोहित रहता हूँ, दूसरी कोई वस्तु मुझे मोहनेवाली नहीं जान पड़ती। माया भी मुझसे भय खाती है।' वीर राजाके ऐसा कहनेपर भी शत्रुघ्नने वह महान् अस्त्र उनके ऊपर छोड़ ही दिया। किन्तु राजा सुरथके बाणसे कटकर वह रणभूमिमें गिर पड़ा। तदनन्तर सुरथने अपने धनुषपर एक प्रज्वलित बाण चढ़ाया और शत्रुघ्नको लक्ष्य करके छोड़ दिया। शत्रुघ्नने अपने पास पहुँचनेसे पहले उसे मार्ग ही काट दिया, तो भी उसका फलवाला अग्रिम भाग उनकी छातीमें धँस गया। उस बाणके आघातसे मूच्छित होकर शत्रुघ्न रथपर गिर पड़े; फिर तो सारी सेना हाहाकार करती हुई भाग चली। संग्राममें रामभक्त सुरथको विजय हुई। उनके दस पुत्रोंने भी अपने साथ लड़नेवाले दस वीरोंको मूच्छित कर दिया था। वे रणभूमिमें ही कहीं पड़े हुए थे।
तदनन्तर सुग्रीवने जब देखा कि सारी सेना भाग गयी और स्वामी भी मूच्छित होकर पड़े हैं, तो वे स्वयं ही राजा सुरथसे युद्ध करनेके लिये गये और बोले- 'राजन्! तुम हमारे पक्षके सब लोगोंको मूर्च्छित करके कहाँ चले जा रहे हो? आओ और शीघ्र ही मेरे साथ युद्ध करो।' यों कहकर उन्होंने डालियाँसहित एक विशाल वृक्ष उखाड़ लिया और | उसे बलपूर्वक राजाके मस्तकपर दे मारा। उसकी चोट खाकर महाबली नरेशने एक बार सुग्रीवकी ओर देखा और फिर अपने धनुषपर तीखे बाणोंका सन्धान करके अत्यन्त बल तथा पौरुषका परिचय देते हुए रोषमें भरकर उनकी छाती प्रहार किया किन्तु सुग्रीवने हँसते-हँसते उनके चलाये हुए सभी बाणोंको नष्ट कर दिया। इसके बाद वे राजा सुरथको अपने नखोंसे विदीर्ण करते हुए पर्वतों, शिखरों, वृक्षों तथा हाथियोंको फेंक-फेंककर उन्हें चोट पहुँचाने लगे। तब सुरथने अपने भयंकर रामास्वसे सुग्रीवको भी तुरंत ही बाँध लिया। बन्धनमें पड़ जानेपर कपिराज सुग्रीवको यह विश्वास हो गया कि राजा सुरथ वास्तवमें श्रीरामचन्द्रजीके सच्चे सेवक हैं।
इस प्रकार महाराज सुरथने विजय प्राप्त की। वेशत्रुपक्षके सभी प्रधान वीरोंको रथपर बिठाकर अपने नगरमें ले गये। वहाँ जाकर वे राज-सभामें बैठे और बँधे हुए हनुमान्जीसे बोले-'पवनकुमार! अब तुम भक्तोंकी रक्षा करनेवाले परमदयालु श्रीरघुनाथजीका स्मरण करो, जिससे सन्तुष्ट होकर वे तुम्हें तत्काल इस बन्धन से मुक्त कर दें।' उनका कथन सुनकर हनुमानजीने अपनेसहित समस्त वीरोंको बँधा देख रघुकुलमें अवतीर्ण, कमलके समान नेत्रोंवाले, परमदयालु सीतापति श्रीरामचन्द्रजीका सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे स्मरण किया। वे मन-ही-मन कहने लगे- 'हा नाथ ! हा पुरुषोत्तम !! हा दयालु सीतापते !!! [आप कहाँ हैं ? मेरी दशापर दृष्टिपात करें] प्रभो! आपका मुख स्वभावसे ही शोभासम्पन्न है, उसपर भी सुन्दर कुण्डलोंके कारण तो उसकी सुषमा और भी बढ़ गयी है। आप भक्तोंकी पीड़ाका नाश करनेवाले हैं। मनोहर रूप धारण करते हैं। दयामय! मुझे इस बन्धनसे शीघ्र मुक्त कीजिये; देर न लगाइये । आपने गजराज आदि भक्तोंको संकटसे बचाया है, दानव वंशरूपी अग्निकी ज्वालामें जलते हुए देवताओंकी रक्षा की है तथा दानवोंको मारकर उनकी पत्नियोंके मस्तककी केश-राशिको भी बन्धनसे मुक्त किया है [ वे विधवा होनेके कारण कभी केश नहीं बाँधतीं]; करुणानिधे! अब मेरी भी सुध लीजिये। नाथ! बड़े-बड़े सम्राट् भी आपके चरणोंका पूजन करते हैं, इस समय आप यज्ञकर्ममें लगेहैं, मुनीश्वरोंके साथ धर्मका विचार कर रहे हैं और यहाँ मैं सुरथके द्वारा गाढ बन्धनमें बाँधा गया हूँ। महापुरुष! देव। शीघ्र आकर मुझे छुटकारा दीजिये। प्रभो! सम्पूर्ण देवेश्वर भी आपके चरण कमलोंकी अर्चना करते हैं। यदि इतने स्मरणके बाद भी आप हमलोगोंको इस बन्धन से मुक्त नहीं करेंगे तो संसार खुश हो होकर आपकी हँसी उड़ायेगा; इसलिये अब आप विलम्ब न कीजिये, हमें शीघ्र छुड़ाइये।' *
जगत्के स्वामी कृपानिधान श्रीरघुवीरजीने हनुमान्जीकी प्रार्थना सुनी और अपने भक्तको बन्धनसे मुक्त करनेके लिये वे तीव्रगामी पुष्पक विमानपर चढ़कर तुरंत चल दिये। हनुमान्जीने देखा, भगवान् आ गये। उनके पीछे लक्ष्मण और भरत हैं तथा साथमें मुनियोंका समुदाय शोभा पा रहा है। अपने स्वामीको आया देख हनुमान्जीने सुरथसे कहा- 'राजन्! देखो, भगवान् दया करके अपने भक्तको छुड़ानेके लिये आ गये। पूर्वकालमें जिस प्रकार इन्होंने स्मरण करनेमात्र से पहुँचकर अनेक भक्तोंको संकटसे मुक्त किया है, उसी प्रकार आज बन्धनमें पड़े हुए मुझको भी छुड़ानेके लिये मेरे प्रभु आ पहुँचे।'
श्रीरामचन्द्रजी एक ही क्षणमें यहाँ आ पहुँचे, यह देखकर राजा सुरथ प्रेममग्न हो गये और उन्होंने भगवान्को सैकड़ों बार प्रणाम किया। श्रीरामने भी चतुर्भुज रूप धारणकर अपने भक्त सुरथको भुजाओंमेंकसकर छातीसे लगा लिया और आनन्दके आँसुओंसे उनका मस्तक भिगोते हुए कहा- 'राजन्! तुम धन्य हो । आज तुमने बड़ा भारी पराक्रम कर दिखाया। कपिराज हनुमान् सबसे बढ़कर बलवान् हैं, किन्तु इनको भी तुमने बाँध लिया।' यह कहकर श्रीरघुनाथजीने वानरश्रेष्ठ हनुमान्को बन्धनसे मुक्त किया तथा जितने योद्धा मूच्छित पड़े थे, उन सबपर अपनी दयादृष्टि डालकर उन्हें जीवित कर दिया। असुरोंका विनाश करनेवाले श्रीरामकी दृष्टि पड़ते ही वे सब मूर्च्छा त्यागकर उठ खड़े हुए और मनोहर रूपधारी श्रीरघुनाथजीकी झाँकी करके उनके चरणोंमें पड़ गये। भगवान्ने उनसे कुशल पूछी तो वे सुखी होकर बोले-'भगवन् ! आपकी कृपासे सब कुशल है।' राजा सुरथने सेवकपर कृपा करनेके लिये आये हुए श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करके उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अपना सारा राज्य समर्पित कर दिया और कहा-'रघुनन्दन ! मैंने आपके साथ अन्याय किया है, उसे क्षमा कीजिये।'
श्रीराम बोले- राजन् ! क्षत्रियोंका यह धर्म ही है। उन्हें स्वामीके साथ भी युद्ध करना पड़ता है। तुमने संग्राममें समस्त वीरोंको सन्तुष्ट करके बड़ा उत्तम कार्य किया । भगवान्के ऐसा कहनेपर राजा सुरथने अपने पुत्रोंके साथ उनका पूजन किया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी तीन दिनतक वहाँ ठहरे रहे। चौथे दिन राजाकी अनुमति लेकर वे इच्छानुसार चलनेवाले पुष्पक विमानद्वारा वहाँसे चले गये। उनका दर्शन करके सबको बड़ा विस्मय हुआ और सब लोग उनकी मनोहारिणी कथाएँ कहने सुनने लगे। इसके बाद महाबली राजा सुरथने चम्पकको 1 अपने नगरके राज्यपर स्थापित कर दिया और स्वयं शत्रुघ्नके साथ जानेका विचार किया। शत्रुघ्नने अपना अश्व पाकर भेरी बजवायी तथा सब ओर नाना प्रकारके शंखोंकी ध्वनि करायी। तत्पश्चात् उन्होंने यज्ञसम्बन्धी अश्वको आगे जानेके लिये छोड़ा और स्वयं राजा सुरथके साथ अनेकों देशोंमें भ्रमण करते रहे, किन्तु कहीं किसी भी बलवान्ने घोड़ेको नहीं पकड़ा।