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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 127 - Khand 4, Adhyaya 127

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युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना

शेषजी कहते हैं— मुनिवर ! अपने वीरोंकी भुजाएँ कटी देख शत्रुघ्नजीको बड़ा क्रोध हुआ। वे रोषके मारे दाँतोंसे ओठ चबाते हुए बोले- 'योद्धाओ ! किस वीरने तुम्हारी भुजाएँ काटी हैं? आज मैं उसकी बाँहें काट डालूँगा; देवताओंद्वारा सुरक्षित होनेपर भी वह छुटकारा नहीं पा सकता।' शत्रुघ्नजीके इस प्रकार कहनेपर वे योद्धा विस्मित और अत्यन्त दुःखी होकर बोले- 'राजन्! एक बालकने जिसका स्वरूप श्रीरामचन्द्रजीसे बिलकुल मिलता-जुलता है, हमारी यह दुर्दशा की है।' बालकने घोड़ेको पकड़ रखा है, यह सुनकर शत्रुघ्नजीकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं और उन्होंने युद्धके लिये उत्सुक होकर कालजित् नामक सेनाध्यक्षको आदेश दिया- 'सेनापते! मेरी आज्ञासे सम्पूर्ण सेनाका व्यूह बना लो इस समय अत्यन्त बलवान् और पराक्रमी शत्रुपर चढ़ाई करनी है। यह घोड़ा पकड़नेवाला वीर कोई साधारण बालक नहीं है। निश्चय ही उसके रूपमें साक्षात् इन्द्र होंगे।' आज्ञा पाकर सेनापतिने चतुरंगिणी सेनाको दुर्भेद्य व्यूहके रूपमें सुसज्जित किया। सेनाको सजी देख शत्रुघ्नजीने उसे उस स्थानपर कूच करनेकी आज्ञा दी, जहाँ अश्वका अपहरण करनेवाला बालक खड़ा था। तब वह चतुरंगिणी सेना आगे बढ़ी सेनापतिने श्रीरामके समान रूपवाले उस बालकको देखा और कहा- 'कुमार! यह पराक्रमसे शोभा पानेवाले श्रीरामचन्द्रजीका श्रेष्ठ अश्व है, इसे छोड़ दो। तुम्हारी आकृति श्रीरामचन्द्रजीसे बहुत मिलती-जुलती है, इसलिये तुम्हें देखकर मेरे हृदयमें दया आती है। यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारे जीवनकी रक्षा नहीं हो सकती।'शत्रुघ्नजीके योद्धाकी यह बात सुनकर कुमार लव किंचित् मुसकराये और कुछ रोषमें आकर यह अद्भुत वचन बोले- "जाओ, तुम्हें छोड़ देता हूँ, श्रीरामचन्द्रजीसे इस घोड़ेके पकड़े जानेका समाचार कहो। वीर! तुम्हारे इस नीतियुक्त वचनको सुनकर मैं तुमसे भय नहीं खाता। तुम्हारे जैसे करोड़ों योद्धा आ जायें, तो भी मेरी दृष्टिमें यहाँ उनकी कोई गिनती नहीं है। मैं अपनी माताके चरणोंकी कृपासे उन सबको रूईकी ढेरीके तुल्य मानता हूँ, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तुम्हारी माताने जो तुम्हारा नाम 'कालजित्' रखा है, उसे सफल बनाओ। मैं तुम्हारा काल हूँ, मुझे जीत लेनेपर ही तुम अपना नाम सार्थक कर सकोगे।"कालजित्ने कहा – बालक! तुम्हारा जन्म किस हुआ है? तुम किस नामसे प्रसिद्ध हो ? मुझे तुम्हारे कुल, शाल, नाम और अवस्थाका कुछ भी पता नहीं है। इसके सिवा, मैं रथपर बैठा है और तुम पैदल हो । ऐसी दशामें मैं तुम्हें अधर्मपूर्वक कैसे परास्त करूँ ? लव बोले- कुल, शील, नाम और अवस्थासे क्या लेना है? मैं लव हूँ और लवमात्रमें ही समस्त शत्रु योद्धाओंको जीत लूंगा [मुझे पैदल जानकर संकोच मत [मो] लो, तुम्हें भी अभी पैदल किये देता हूँ।

ऐसा कहकर बलवान् लवने धनुषपर प्रत्यंचा चाची तथा पहले अपने गुरु वाल्मीकिका, फिर माता जानकीका स्मरण करके तीखे बाणोंको छोड़ना आरम्भ किया, जो तत्काल ही शत्रुके प्राण लेनेवाले थे। तब कालजित्ने भी कुपित होकर अपना धनुष चढ़ाया तथा अपने युद्ध कौशलका परिचय देते हुए बड़े वेग से तयपर बाणोंका प्रहार किया किन्तु कुशके छोटे भाईने क्षणभरमें उन सभी बाणोंको काटकर एक एकके सौ-सौ टुकड़े कर दिये और आठ बाण मारकर सेनापतिको भी रथहीन कर दिया। रथके नष्ट हो जानेपर वे अपने सैनिकोंद्वारा लाये हुए हाथीपर सवार हुए। वह हाथी बड़ा ही वेगशाली और मदसे उन्मत्त था । उसके मस्तकसे मदकी सात धाराएँ फूटकर वह रही थीं। कालजितुको हाथीपर बैठे देख सम्पूर्ण शत्रुओंपर विजय पानेवाले वीर लवने हँसकर उन्हें दस बाणोंसे बींध डाला। लवका पराक्रम देख कालजितके मनमें बड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने एक तीक्ष्ण एवं भयंकर परिघका प्रहार किया, जो शत्रुके प्राणोंका अपहरण करनेवाला था। किन्तु लवने तुरंत ही उसे काट गिराया। फिर उसी क्षण तलवार से हाथीकी सूँड़ काट डाली और उसके दाँतोंपर पैर रखकर वे तुरंत उसके मस्तकपर चढ़ गये। वहाँ सेनापतिके मुकुटके सी और कवचके हजार टुकड़े करके उनके मस्तकका बाल खींचकर उन्हें धरतीपर दिया दिया। फिर तो सेनापतिको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने लवका वध करनेके लिये तलवार हाथमें ली। उन्हें तलवार लेकर आते देख लवने उनकीदाहिनी भुजाको बीचसे काट डाला। कटा हुआ हाथ तलवारसहित पृथ्वीपर जा पड़ा। खड्गधारी हाथको कटा देख सेनापतिने क्रोधमें भरकर बायें हाथसे लवपर गदा मारनेकी तैयारी की। इतनेहीमें लवने अपने तीखे
वाणोंसे उनकी उस बाँहको भी भुजबंदसहित काट गिराया। तदनन्तर कालाग्निके समान प्रज्वलित खड्ग हाथमें लेकर उन्होंने सेनापतिके मुकुटमण्डित मस्तकको भी धड़से अलग कर दिया।

सेनाध्यक्षके मारे जानेपर सेनामै महान् हाहाकार मचा। सारे सैनिक क्रोधमें भरकर लवका वध करनेके लिये क्षणभरमै आगे बढ़ आये, परन्तु लवने अपने बाणोंकी मारसे उन सबको पीछे खदेड़ दिया। कितने ही छिन्न-भिन्न होकर वहीं देर हो गये और कितने ही रणभूमि छोड़कर भाग गये। इस प्रकार सम्पूर्ण योद्धाओंको पीछे हटाकर लव बड़ी प्रसन्नताके साथ सेनामें जा घुसे किन्होंकी बाँहें, किन्हीं के पैर, किन्हींके कान, किन्हींको नाक तथा किन्हींके कवच और कुण्डल कट गये। इस प्रकार सेनापतिके मारे जानेपर सैनिकोंका भयंकर संहार हुआ। युद्धमें आये हुए प्रायः सभी वीरमारे गये, कोई भी जीवित न बचा। इस प्रकार लवने शत्रु समुदायको परास्त करके युद्धमें विजय पायी तथा दूसरे योद्धाओंके आनेकी आशंकासे वे खड़े होकर प्रतीक्षा करने लगे। कोई-कोई योद्धा भाग्यवश उस युद्धसे बच गये। उन्होंने ही शत्रुघ्नके पास जाकर रण भूमिका सारा समाचार सुनाया। बालकके हाथसे कालजितकी मृत्यु तथा उसके विचित्र रण कौशलका वृत्तान्त सुनकर शत्रुघ्नको बड़ा विस्मय हुआ । वे बोले- 'वीरो! तुमलोग छल तो नहीं कर रहे हो ? तुम्हारा चित्त विकल तो नहीं है? कालजित्का मरण कैसे हुआ? वे तो यमराजके लिये भी दुर्धर्ष थे ? उन्हें एक बालक कैसे परास्त कर सकता है?" शत्रुघ्नकी बात सुनकर खून से लथपथ हुए उन योद्धाओंने कहा 'राजन्! हम छल या खेल नहीं कर रहे हैं; आप विश्वास कीजिये। कालजित्की मृत्यु सत्य है और वह लवके हाथसे ही हुई है। उसका युद्ध कौशल अनुपम है। उस बालकने सारी सेनाको मथ डाला। इसके बाद अब जो कुछ करना हो, खूब सोच-विचारकर करें। जिन्हें युद्धके लिये भेजना हो, वे सभी श्रेष्ठ पुरुष होने चाहिये।' उन वीरोंका कथन सुनकर शत्रुघ्नने श्रेष्ठ बुद्धिवाले मन्त्री सुमतिसे युद्धके विषयमें पूछा 'मन्त्रिवर! क्या तुम जानते हो कि किस बालकने मेरे अश्वका अपहरण किया है? उसने मेरी सारी सेनाका, जो समुद्रके समान विशाल थी, विनाश कर डाला है।'

सुमतिने कहा- स्वामिन्! यह यह मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिका महान् आश्रम है, क्षत्रियोंका यहाँ निवास नहीं है। सम्भव है इन्द्र हों और अमर्षमें आकर उन्होंने घोड़ेका अपहरण किया हो अथवा भगवान् शंकर ही बालक-वेषमें आये हों अन्यथा दूसरा कौन ऐसा है, जो तुम्हारे अश्वका अपहरण कर सके। मेरा तो ऐसा विचार है कि अब तुम्हीं वीर योद्धाओं तथा सम्पूर्ण राजाओंसे घिरे हुए वहाँ जाओ और विशाल सेना भी अपने साथ ले लो। तुम शत्रुका उच्छेद करनेवाले हो, अतः वहाँ जाकर उस वीरको जीते जी बाँध लो। मैं उसे ले जाकर कौतुक देखनेकी इच्छा रखनेवाले श्रीरघुनाथजीको दिखाऊँगा।मन्त्रीका यह वचन सुनकर शत्रुघ्नने सम्पूर्ण कूच वीरोंको आज्ञा दी- 'तुमलोग भारी सेनाके साथ चलो, मैं भी पीछेसे आता हूँ।' आज्ञा पाकर सैनिकोंने किया। वीरोंसे भरी हुई उस विशाल सेनाको आते देख लव सिंहके समान उठकर खड़े हो गये। उन्होंने समस्त योद्धाओंको मृगोंके समान तुच्छ समझा। वे सैनिक उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। उस समय उन्होंने घेरा डालनेवाले समस्त सैनिकको प्रज्वलित अग्निकी भाँति भस्म करना आरम्भ किया। किन्हींको तलवारके घाट उतारा, किन्हींको बाणोंसे मार परलोक पहुँचाया तथा किन्हींको प्रास, कुन्त, पट्टिश और परिध आदि शस्त्रोंका निशाना बनाया। इस प्रकार महात्मा लवने सभी घेरोंको तोड़ डाला। सातों घेरोंसे मुक्त होनेपर कुशके छोटे भाई लव शरद् ऋतुमें मेथोंके आवरण से उन्मुक्त हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाने लगे। उनके बाणोंसे पीड़ित होकर अनेकों वीर धराशायी हो गये। सारी सेना भाग चली। यह देख वीरवर पुष्कल युद्धके लिये आगे बढ़े। उनके नेत्र क्रोधसे भरे थे और वे 'खड़ा रह, खड़ा रह' कहकर लबको ललकार रहे थे। निकट आनेपर पुष्कलने लवसे कहा- 'वीर! मैं तुम्हें उत्तम घोड़ोंसे सुशोभित एक रथ प्रदान करता हूँ, उसपर बैठ जाओ। इस समय तुम पैदल हो; ऐसी दशामें मैं तुम्हारे साथ युद्ध कैसे कर सकता हूँ इसलिये पहले रथपर बैठो, फिर तुम्हारे साथ लोहा लूँगा।"

यह सुनकर लवने पुष्कलसे कहा- 'वीर! यदि मैं तुम्हारे दिये हुए रथापर बैठकर युद्ध करूंगा, तो मुझे पाप ही लगेगा और विजय मिलनेमें भी सन्देह रहेगा। हमलोग दान लेनेवाले ब्राह्मण नहीं हैं, अपितु स्वयं ही प्रतिदिन दान आदि शुभकर्म करनेवाले क्षत्रिय हैं [तुम मेरे पैदल होनेकी चिन्ता न करो]। मैं अभी क्रोध भरकर तुम्हारा रथ तोड़ डालता हूँ, फिर तुम भी पैदल ही हो जाओगे। उसके बाद युद्ध करना।' लवका यह धर्म और धैर्यसे युक्त वचन सुनकर पुष्कलका चित्त बहुत देरतक विस्मयमें पड़ा रहा। तत्पश्चात् उन्होंने धनुष चढ़ाया। उन्हें धनुष उठाते देख लवने कुपित होकर बाणमारा और पुष्कलके हाथका धनुष काट डाला। फिर जब वे दूसरे धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे तबतक उस उद्धत एवं बलवान् वीरने हँसते-हँसते उनके रथको भी तोड़ दिया। महात्मा लवके द्वारा अपने धनुषको छिन्न-भिन्न हुआ देख पुष्कल क्रोधमें भर गये और उस महाबली वीरके साथ बड़े वेगसे युद्ध करने लगे। लवने लवमात्रमें तरकशसे तीर निकाला, जो विषैले साँपकी भाँति जहरीला था। उसने वह तेजस्वी बाण क्रोधपूर्वक छोड़ा। धनुषसे छूटते ही वह पुष्कलकी छातीमें धँसगया और वह महावीरशिरोमणि मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। पुष्कलको मूर्च्छित होकर गिरा देख पवन कुमारने उठा लिया और श्रीरघुनाथजीके भ्राता शत्रुघ्नको अर्पित कर दिया। उन्हें अचेत देख शत्रुघ्नका चित्त शोकसे विह्वल हो गया। उन्होंने क्रोधमें भरकर हनुमानजीको लवका वध करनेकी आज्ञा दी। हनुमान्जी भी कुपित होकर महाबली लवको युद्धमें परास्त करनेके लिये बड़े वेगसे गये और उनके मस्तकको लक्ष्य करके उन्होंने वृक्षका प्रहार किया। वृक्षको अपने ऊपर आते देख लवने अपने बाणोंसे उसको सौ टुकड़े कर डाले। तब हनुमानजीने बड़ी-बड़ी शिलाएँ उखाड़कर बड़े वेगसे लवके मस्तकपर फेंकीं। शिलाओंका आघात पाकर उन्होंने अपना धनुष ऊपरको उठाया और बाणोंकी वर्षासे शिलाओंको चूर्ण कर दिया। फिर तो हनुमान्जीके क्रोधकी सीमा न रही; उन्होंने बलवान् लवको पूँछमें लपेट लिया। यह देख लवने अपनी माता जानकीका स्मरण किया और हनुमान्जीकी पूँछपर मुक्केसे मारा। इससे उनको बड़ी व्यथा हुई और उन्होंने लवको बन्धनसे मुक्त कर दिया। पूँछसे छूटनेपर उस बलवान् वीरने हनुमानजीपर बार्णोकी बौछार आरम्भ कर दी; जिससे उनके समस्त शरीरमें बड़ी पीड़ा होने लगी। उन्होंने लवकी बाणवर्षाको अपने लिये अत्यन्त दुःसह समझा और समस्त वीरोंके देखते-देखते वे मूर्च्छित होकर रणभूमिमें गिर पड़े। फिर लव अन्य सब राजाओंको मारने लगे। वे बाण छोड़नेमें बड़े निपुण थे ।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान