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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 57 - Khand 2, Adhyaya 57

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राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन

ऋषियोंने कहा – महाभाग सूतजी ! आप महात्मा राजा पृथुके जन्मका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये । हम उनकी कथा सुननेके लिये उत्सुक हैं। महाराज पृथुने जिस प्रकार इस पृथ्वीका दोहन किया तथा देवताओं, पितरों और तत्त्ववेत्ता मुनियोंने भी जिस प्रकार उसको दुहा था, वह सब प्रसंग मुझे सुनाइये ।। सूतजी बोले- द्विजवरो। मैं वेनकुमार पृथुके जन्म, पराक्रम और क्षत्रियोचित पुरुषार्थका विस्तारके साथ वर्णन करूँगा ऋषियोंने जो रहस्यकी बातें कही हैं, उन्हें भी बताऊँगा। जो प्रतिदिन वेननन्दन पृथुकीकथाको विस्तारपूर्वक कहेगा, उसके सात जन्मके पाप नष्ट हो जायँगे। पृथुका जन्म - वृत्तान्त तथा सम्पूर्ण चरित्र ही पापोंका नाश करनेवाला और पवित्र है।

पूर्वकालमें अंग नामके प्रजापति थे, जिनका जन्म अत्रिवंशमें हुआ था। वे अत्रिके समान ही प्रभावशाली, धर्मके रक्षक, परम बुद्धिमान् तथा वेद और शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ थे। उन्होंने ही सम्पूर्ण धर्मोंकी सृष्टि की थी । मृत्युकी एक परम सौभाग्यवती कन्या थी, जिसका नाम था सुनीथा। महाभाग अंगने उसीके साथ विवाह किया और उसके गर्भसे वेन नामक पुत्रको जन्म दिया, जोधर्मका नाश करनेवाला था। राजा वेन वेदोक्त सदाचाररूप धर्मका परित्याग करके काम, लोभ और महामोहवश पापका ही आचरण करता था। मद और मात्सर्यसे मोहित होकर पापके ही रास्ते चलता था। उस समय सम्पूर्ण द्विज वेदाध्ययनसे विमुख हो गये। वेनके राजा होनेपर प्रजाजनोंमें स्वाध्याय और यज्ञका नाम भी नहीं सुनायी पड़ता था । यज्ञमें आये हुए देवता यजमानके द्वारा अर्पण किये हुए सोमरसका पान नहीं करते थे। वह दुष्टात्मा राजा ब्राह्मणोंसे प्रतिदिन यही कहता था कि 'स्वाध्याय न करो, होम करना छोड़ दो, दान न दो और यज्ञ भी न करो।' प्रजापति वेनका विनाशकाल उपस्थित था; इसीलिये उसने यह क्रूर घोषणा की थी। वह सदा यही कहा करता था कि 'मैं ही यजन करनेके योग्य देवता, मैं ही यज्ञ करनेवाला यजमान तथा मैं ही यज्ञ-कर्म हूँ। मेरे ही उद्देश्यसे यज्ञ और होमका अनुष्ठान होना चाहिये। मैं ही सनातन विष्णु, मैं ही ब्रह्मा, मैं ही रुद्र, मैं ही इन्द्र तथा सूर्य और वायु हूँ। हव्य और कव्यका भोक्ता भी सदा मैं ही हूँ। मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं है।'

यह सुनकर महान् शक्तिशाली मुनियोंको वेनके प्रति बड़ा क्रोध हुआ। वे सब एकत्रित हो उस पापबुद्धि राजाके पास जाकर बोले- राजाको धर्मका मूर्तिमान् स्वरूप माना गया है। इसलिये प्रत्येक राजाका यह कर्तव्य है कि वह धर्मकी रक्षा करे। हमलोग बारह वर्षोंमें समाप्त होनेवाले यज्ञकी दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं। तुम अधर्म न करो; क्योंकि ऐसा करना सत्पुरुषोंका धर्म नहीं है। महाराज! तुमने यह प्रतिज्ञा की है कि 'मैं राजा होकर धर्मका पालन करूँगा, अतः उस प्रतिज्ञाके अनुसार धर्म करो और सत्य एवं पुण्यको आचरणमें लाओ।'

ऋषियोंकी उपर्युक्त बातें सुनकर वह क्रोधसे आगबबूला हो उठा और उनकी ओर दृष्टिपात करके द्वितीय यमराजकी भाँति बोला-'अरे! तुमलोग मूर्ख हो, तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है। अतः निश्चय ही तुमलोग मुझे नहीं जानते। भला ज्ञान, पराक्रम, तपस्या और सत्यके द्वारा मेरी समानता करनेवाला इस पृथ्वीपर दूसराकौन है मैं ही सम्पूर्ण भूतों और विशेषतः सब धर्मोकी उत्पत्तिका कारण हैं। यदि चाहूँ तो इस पृथ्वीको जला सकता हूँ, जलमें दबा सकता हूँ तथा पृथ्वी और आकाशको रुँध सकता हूँ।'

जब वेनको किसी प्रकार भी अधर्म मार्गसे हटाया न जा सका, तब महर्षियोंने क्रोधमें भरकर उसे बलपूर्वक पकड़ लिया। वह विवश होकर छटपटाने लगा। उधर क्रोधमें भरे हुए ऋषियोंने राजा वेनकी बायीं जाँपको मधना आरम्भ किया। उससे काले अंजनकी राशिके समान एक नाटे कदका मनुष्य प्रकट हुआ। उसकी आकृति विलक्षण थी लंबा मुँह, विकराल आँखें नीले कवचके समान काला रंग, मोटे और चौड़े कान, बेडौल बढ़ी हुई बाँहें और विशाल भद्दा-सा पेट-यही उसका हुलिया था। ऋषियोंने उसकी ओर देखा और कहा-'निषीद (बैठ जाओ)।' उनकी बात सुनकर वह भयसे व्याकुल हो बैठ गया । [ ऋषियोंने 'निषीद' कहकर उसे बैठनेकी आज्ञा दी थी; इसलिये उसका नाम 'निषाद' पड़ गया।] पर्वतों और वनोंमें ही उसके वंशकी प्रतिष्ठा हुई। निषाद, किरात, भील, नाहलक, भ्रमर, पुलिन्द तथा और जितने भी म्लेच्छजातिके पापाचारी मनुष्य हैं, वे सब वेनके उसी अंगसे उत्पन्न हुए हैं।

तब यह जानकर कि राजा वेनका पाप निकल गया, समस्त ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। अब उन्होंने राजाके दाहिने हाथका मन्धन आरम्भ किया। उससे पहले तो पसीना प्रकट हुआ; किन्तु जब पुनः जोरसे मन्थन किया गया, तब वेनके उस सुन्दर हाथसे एक पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ, जो बारह आदित्योंके समान तेजस्वी थे। उनके मस्तकपर सूर्यके समान चमचमाता हुआ मुकुट और कानोंमें कुण्डल शोभा पा रहे थे। उन महाबली राजकुमारने आजगव नामका आदि धनुष, दिव्य बाण और रक्षाके लिये कान्तिमान् कवच धारण कर रखे थे। उनका नाम 'पृथु' हुआ। वे बड़े सौभाग्यशाली, वीर और महात्मा थे। उनके जन्म लेते ही सम्पूर्ण प्राणियोंमें हर्ष छा गया। उस समय समस्तlब्राह्मणोंने मिलकर पृथुका राज्याभिषेक किया। तदनन्तर ब्रह्माजी, सब देवता तथा नाना प्रकारके स्थावर-जंगम प्राणियोंने महाराज पृथुका अभिषेक किया। उनके पिताने कभी भी सम्पूर्ण प्रजाको प्रसन्न नहीं किया था। किन्तु पृथुने सबका मनोरंजन किया। इसलिये सारी प्रजा सुखी होकर आनन्दका अनुभव करने लगी। प्रजाका अनुरंजन करनेके कारण ही वीर पृथुका नाम 'राजराज' हो गया।

द्विजवरो! उन महात्मा नरेशके भवसे समुद्रका जल भी शान्त रहता था। जब उनका रथ चलता, उस समय पर्वत दुर्गम मार्गको छिपाकर उन्हें उत्तम मार्ग देते थे। पृथ्वी बिना जोते ही अनाज तैयार करके देती थी। सर्वत्र गौएँ कामधेनु हो गयी थीं। मेघ प्रजाको इच्छाके अनुसार वर्षा करता था । सम्पूर्ण ब्राह्मण और क्षत्रिय देवयज्ञ तथा बड़े-बड़े उत्सव किया करते थे। राजा पृथुके शासनकालमें वृक्ष इच्छानुसार फलते थे, उनके पास जानेसे सबकी इच्छा पूर्ण होती थी। देशमें न कभी अकाल पड़ता, न कोई बीमारी फैलती और न मनुष्योंकी अकाल मृत्यु ही होती थी। सब लोग मुखसे जीवन बिताते और धर्मानुष्ठानमें लगे रहते थे।"

ब्राह्मणो! प्रजाओंने अपनी जीवन रक्षाके लिये पहले जो अन्नका बीज बो रखा था, उसे एक बार यह पृथ्वी पचाकर स्थिर हो गयी। उस समय सारी प्रजा राजा पृथुके पास दौड़ी गयी और मुनियोंके कथनानुसार बोली- 'राजन्! हमारे लिये उत्तम जीविकाका प्रबन्ध कीजिये।' राजाओंमें श्रेष्ठ पृथुने देखा प्रजाके ऊपर बहुत बड़ा भय उपस्थित हुआ है। यह देखकर तथा महर्षियोंकी बात मानकर महाराज पृथुने धनुष और बाण हाथमें लिया और क्रोधमें भरकर बड़े वेगसे पृथ्वीके ऊपर धावा किया। पृथ्वी गायका रूप धारण करके तीव्र गतिसे स्वर्गकी ओर भागी। फिर क्रमशः ब्रह्माजी, भगवान् श्रीविष्णु तथा रुद्र आदि देवताओंकी शरण में गयी; किन्तु कहीं भी उसे अपने बचावका स्थान नमिला। अन्तमें अपनी रक्षाका कोई उपाय न देखकर वह वेनकुमार पृथुकी ही शरणमें आयी और बाणोंके आपातसे व्याकुल हो उन्हींके पास खड़ी हो गयी। उसने नमस्कार करके राजा पृथुसे कहा "महाराज! रक्षा करो, रक्षा करो। महाप्राज्ञ! मैं

धारण करनेवाली भूमि हूँ। मेरे ही आधारपर सब लोग टिके हुए हैं। राजन्। यदि मैं मारी गयी तो सात लोक नष्ट हो जायँगे। गौओंकी हत्यामें बहुत बड़ा पाप है, इस बातका श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है। मेरा नाश होनेपर सारी प्रजा नष्ट हो जायगी। राजन्! यदि मैं न रही तो तुम प्रजाको कैसे धारण कर सकोगे। अतः यदि तुम प्रजाका कल्याण करना चाहते हो तो मुझे मारनेका विचार छोड़ दो। भूपाल ! मैं तुम्हें हितकी बात बताती हैं, सुनो। अपने क्रोधका नियन्त्रण करो, मैं अन्नमयी हो जाऊँगी, समस्त प्रजाको धारण करूँगी। मैं स्त्री है। स्त्री अवध्य मानी गयी है। मुझे मारकर तुम्हें प्रायश्चित्तका भागी होना पड़ेगा।' राजा पृथु बोले- यदि किसी एक महापापी एवंदुराचारीका वध कर डालनेपर सब लोग सुखसे जी सकें, तथा पुण्यदर्शी साधु पुरुषोंको सुख मिलता हो तो एक पापिष्ठ पुरुषका विनाश करना कर्तव्य माना गया है। वसुधे तुमने भी प्रजाके सम्पूर्ण स्वार्थीका विनाश किया है। इस समय जितने भी बीज थे, उन सबको तुम पचा गयीं। बीजोंको हड़पकर स्वयं तो स्थिर हो गयीं और प्रजाको मार रही हो। ऐसी दशामें [मेरे हाथसे बचकर] अब कहाँ जाओगी वसुन्धरे। संसारके हितके लिये मेरा यह कार्य उत्तम ही माना जायगा। तुमने मेरी आज्ञाका उल्लंघन किया है, इसलिये इन तीखे बाणोंसे मारकर मैं तुम्हें मौतके घाट उतार दूँगा। तुम्हारे न रहनेपर मैं त्रिलोकीमें रहनेवाली पावन प्रजाको अपने ही तेज और धर्मके बलसे धारण करूंगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है वसुन्धरे मेरा शासन धर्मके अनुकूल है, अतः इसे मानकर मेरी आज्ञासे तुम प्रजाके जीवनकी सदा ही रक्षा करो। भद्रे ! यदि इस प्रकार आज ही मेरी आज्ञा मान लोगी तो मैं प्रसन्न होकर सदा तुम्हारी रखवाली करूँगा।

पृथ्वी देवी गौके रूपमें खड़ी थीं उनका शरीर बाणोंसे आच्छादित हो रहा था। उन्होंने धर्मात्मा और परम बुद्धिमान् राजा पृथुसे कहा- 'महाराज! तुम्हारी आज्ञा सत्य और पुण्यसे युक्त है। अतः प्रजाके लिये मैं उसका विशेषरूपसे पालन करूँगी। राजेन्द्र ! तुम स्वयं ही कोई उपाय सोचो, जिससे तुम्हारे सत्यका पालन हो सके और तुम इन प्रजाओंको भी धारण कर सको मैं भी जिस प्रकार समूची प्रजाकी वृद्धि कर सकूँ- ऐसा कोई उपाय बताओ। महाराज! मेरे शरीरमें तुम्हारे उत्तम बाण धँसे हुए हैं, उन्हें निकाल दो और सब ओरसे मुझे समतल बना दो, जिससे मेरे भीतर दुग्ध स्थिर रह सके।'

सूतजी कहते हैं— ब्राह्मणो पृथ्वीकी बात सुनकर राजा पृथुने अपने धनुषके अग्रभागसे विभिन्न रूपवाले भारी-भारी पर्वतोंको उखाड़ डाला और भूमिको समतल बना दिया। राजकुमार पृथुने पृथ्वीके शरीरसे अपने वार्णोंको स्वयं ही निकाल लिया। उनके अविर्भावसे पहले केवल प्रजाओंकी हो उत्पत्ति हुईथी। कोई सच्चा राजा नहीं हुआ था। उन दिनों यह सारी प्रजा कहीं भूमिमें गुफा बनाकर, कहीं पर्वतपर, कहीं नदी के किनारे, जंगली झाड़ियोंमें, सम्पूर्ण तीर्थोंमें तथा समुद्र के किनारों पर निवास करती थी। सब लोग पुण्य कर्मोंमें लगे रहते थे फल, फूल और मधु यही उनका आहार था । वेनकुमार पृथुने प्रजाके इस कष्टको देखा और उसे दूर करनेके लिये स्वायम्भुव मनुको बछड़ा तथा अपने हाथको ही दुग्धपात्र बनाकर पृथ्वीसे सब प्रकारके धान्य और गुणकारी अन्नमय दूधका दोहन किया। सुधाके समान लाभ पहुँचानेवाले उस पवित्र अन्नसे प्रजा पितरों तथा ब्रह्मा आदि देवताओंका यजन पूजन करने लगी। द्विजवरो। उस समयकी सारी प्रजा पुण्यकर्ममें संलग्न रहती थी; अतः देवताओं, पितरों, विशेषतः ब्राह्मणों और अतिथियोंको अन्न देकर पश्चात् स्वयं भोजन करती थी। उसी अन्नसे अन्यान्य यज्ञोंका अनुष्ठान करके वह देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुका यजन और तर्पण करती तथा उसी अन्नके द्वारा सम्पूर्ण देवता तृप्त होते थे। फिर श्रीभगवान्‌की प्रेरणासे मेघ पानी बरसाता और उससे पवित्र अन्न आदि उत्पन्न होता था।

तदनन्तर समस्त ऋषियों, महामना ब्राह्मणों तथा सत्यवादी देवताओंने भी इस पृथ्वीका दोहन किया। अब मैं यह बताता हूँ कि पितर आदिने किस प्रकार बछड़ोंकी कल्पना करके पूर्वकालमें वसुधाको दुहा था । द्विजोत्तमो! पितरोंने चाँदीका दोहन पात्र बनाकर यमको बछड़ा बनाया, अन्तकने दुहनेवाले ग्वालेका काम किया और 'स्वधा' रूपी दुग्धको दुहा। इसके बाद सर्पों और नागने तक्षकको बछड़ा बनाकर तूंबीका पात्र हाथमें ले विषरूपी दूध दुहा। वे महाबली और महाकाय भयानक सर्प उस विषसे ही जीवन धारण करते हैं। विष ही उनका आधार, विष ही आचार, विष ही बल और विष ही पराक्रम है। इसी प्रकार समस्त असुरों और दानवोंने भी अन्नके अनुरूप लोहेका पात्र बनाकर सम्पूर्ण कामनाओंके साधनभूत मायामय दूधका दोहन किया, जो उनके समस्त शत्रुओंका विनाश करनेवाला है। वही उनका बल और पुरुषार्थ है, उसीसे दानव जीवन धारणकरते हैं। उसीको पाकर आज भी समस्त दानव मायामें प्रवीण देखे जाते हैं। इसके बाद गन्धर्वो और अप्सराओंने पृथ्वीका दोहन किया। नृत्य और संगीतकी विद्या ही उनका दूध थी। उसीसे गन्धर्व, यक्ष और अप्सराओंकी जीविका चलती है। परम पुण्यमय पर्वतोंने भी इस पृथ्वीसे नाना प्रकारके रत्न और अमृतके समान ओषधियोंका दोहन किया। वृक्षोंने पत्तोंके पात्रमें पृथ्वीका दूध दुहा। जलने और कटनेके बाद भी फिरसे अंकुर निकल आना - यही उनका दूध था। उस समय पाकरका पेड़ बछड़ा बना था और शालके पवित्र वृक्षने दुहनेका काम किया था।

गुह्यक, चारण, सिद्ध और विद्याधरोंने भी सबको धारण करनेवाली इस पृथ्वीको दुहा था। उस समय यह वसुन्धरा सम्पूर्ण अभिलषित पदार्थोंको देनेवाली कामधेनु बन गयी थी। जो लोग जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करते थे, उन्हें भिन्न-भिन्न पात्र और बछड़ोंके द्वारा वह वस्तु यह दूधके रूपमें प्रदान करती थी । यह धात्री (धारण करनेवाली) और विधात्री (उत्पन्न करनेवाली) है। यह श्रेष्ठ वसुन्धरा है, यह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली धेनु है तथा यह पुण्योंसे अलंकृत, परम पावन, पुण्यदायिनी, पुण्यमयी और सब प्रकारके धान्यको अंकुरित करनेवाली है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत्की प्रतिष्ठा और योनि (उत्पत्तिस्थान) है। यही महालक्ष्मी और सब प्रकारकेकल्याणकी जननी है। यही पाँचों भूतोंका प्रकाश और रूप है। यह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पहले 'मेदिनी' के नामसे प्रसिद्ध थी। फिर अपनेको वेनकुमार राजा पृथुकी पुत्री स्वीकार करनेके कारण यह 'पृथ्वी' कहलाने लगी।

ब्राह्मणो! पृथुके प्रयत्नसे इस पृथ्वीपर घर और गाँवोंकी नींव पड़ी। फिर बड़े-बड़े कस्बे और शहर इसकी शोभा बढ़ाने लगे। यह धन-धान्यसे सम्पन्न हुई और सब प्रकारके तीर्थ इसके ऊपर प्रकट हुए। इस वसुमती देवीकी ऐसी ही महिमा बतलायी गयी है। यह सर्वदा सर्वलोकमयी मानी गयी है। वेनकुमार महाराज पृथुका ऐसा ही प्रभाव पुराणोंमें वर्णित है। ये महाभाग नरेश सम्पूर्ण धर्मोके प्रकाशक, वर्णों और आश्रमोंके संस्थापक तथा समस्त लोकोंके धारण-पोषण करनेवाले थे। जो सौभाग्यशाली राजा इस लोकमें वास्तविक राजपद प्राप्त करना चाहते हों, उन्हें परम प्रतापी राजा वेनकुमार पृथुको नमस्कार करना चाहिये। जो धनुर्वेदका ज्ञान और युद्धमें सदा ही विजय प्राप्त करना चाहते हों, उन्हें भी महाराज पृथुको प्रणाम करना चाहिये। सम्राट् पृथु राजा-महाराजाओंको भी जीविका प्रदान करनेवाले थे। द्विजवरो! यह प्रसंग धन, यश, आरोग्य और पुण्य प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य महाराज पृथुके चरित्रका श्रवण करता है, उसे प्रतिदिन गंगास्नानका फल मिलता है तथा वह सब पापोंसे शुद्ध होकर भगवान् श्रीविष्णुके परमधामको जाता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार