सुमति कहते हैं - सुमित्रानन्दन। गण्डकी नदीका यह अनुपम माहात्म्य सुनकर राजा रत्नग्रीवने अपनेको 1 कृताथ माना। उन्होंने उस तीर्थ स्नान करके अपने समस्त पितरोंका तर्पण किया। इससे उनको बड़ा हर्ष हुआ। फिर शालग्रामशिलाकी पूजाके उद्देश्यसे उन्होंने गण्डकी नदीसे चौबीस शिलाएँ ग्रहण की और चन्दन आदि उपचार चढ़ाकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा की। तत्पश्चात् वहाँ दीनों और अंधोंको विशेष दान देकर राजाने पुरुषोत्तममन्दिरको जानेके लिये प्रस्थान किया। इस प्रकार क्रमशः यात्रा करते हुए वे उस तीर्थमें पहुँचे, जहाँ गंगा और समुद्रका संगम हुआ है वहाँ जाकर उन्होंने ब्राह्मणोंसे प्रसन्नतापूर्वक पूछा—'स्वामिन्! बताइये, नीलाचल यहाँसे कितनी दूर है? जहाँ साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं तथा देवता और असुर भी जिनके सामने मस्तक नवाते हैं।'
उस समय तपस्वी ब्राह्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने राजासे बड़े आदरके साथ कहा- 'राजन् ! नीलपर्वतका विश्ववन्दित स्थान है तो यही; किन्तु न जाने वह हमें दिखायी क्यों नहीं देता।' वे बारंबार इस बातको दुहराने लगे कि 'नीलाचलका वह स्थान, जो महान् पुण्यफल प्रदान करनेवाला है तथा जहाँ भगवान् पुरुषोत्तमका निवास है, यही है। उसका दर्शन क्यों नहीं होता? यह बात समझमें नहीं आती। इसी स्थानपर मैंने स्नान किया था, यहीं मुझे वे भील दिखायी दिये थे और इसी मार्गसे मैं पर्वतके ऊपर चढ़ा था।' यह बात सुनकर राजाके मनमें बड़ी व्यथा हुई, वे कहने लगे- 'विप्रवर मुझे पुरुषोत्तमका दर्शन कैसे होगा ? तथा वह नीलपर्वत कैसे दिखायी देगा ? मुझे इसका कोई उपाय बताइये।' तब तपस्वी ब्राह्मणने विस्मित होकर कहा—' राजन् ! हमलोग गंगासागर-संगममें स्नान करके यहाँ तबतक ठहरे रहें जबतक कि नीलाचलका दर्शन न हो जाय। भगवान् पुरुषोत्तम पापहारी कहलातेहैं। वे भक्तवत्सल नाम धारण करते हैं; अतः हमलोगों पर शीघ्र ही कृपा करेंगे। वे देवाधिदेवोंके भी शिरोमणि हैं. अपने भक्तौका कभी परित्याग नहीं करते। अबतक उन्होंने अनेकों भक्तोंकी रक्षा की है, इसलिये महामते ! तुम उन्हींका गुणगान करो।' ब्राह्मणकी बात सुनकर राजाने व्यथित चित्तसे गंगासागर संगममें स्नान किया। इसके बाद उन्होंने उपवासका व्रत लिया। 'जब भगवान् पुरुषोत्तम दर्शन देनेकी कृपा करेंगे तभी उनकी पूजा करके भोजन करूँगा, अन्यथा निराहार ही रहेंगा।' ऐसा नियम करके वे गंगासागरके तटपर बैठ गये और भगवान्का गुणगान करते हुए उपवासव्रतका पालन करने लगे।
राजा बोले- प्रभो! आप दीनोंपर दया करनेवाले हैं; आपकी जय हो। भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले पुरुषोत्तम! आपका नाम मंगलमय है, आपकी जय हो। भक्तजनोंकी पीड़ाका नाश करनेके लिये ही आपने सगुण विग्रह धारण किया है, आप दुष्टोंका विनाश करनेवाले हैं; आपकी जय हो! जय हो !! आपके भक्त प्रह्लादको उसके पिता दैत्यराजने बड़ी व्यथा पहुँचायी शूलीपर चढ़ाया, फाँसी दी पानीमें डुबोया, आगमें जलाया और पर्वतसे नीचे गिराया; किन्तु आपने नृसिंहरूप धारण करके प्रह्लादको तत्काल संकटसे बचा लिया उसका पिता देखता ही रह गया। मतवाले गजराजका पैर ग्राहके मुखमें पड़ा था और वह अत्यन्त दुःखी हो रहा था उसकी दशा देख आपके हृदय में करुणा भर आयी और आप उसे बचानेके लिये शीघ्र ही गरुड़पर सवार हुए किन्तु आगे चलकर आपने पक्षिराज गरुड़को भी छोड़ दिया और हाथमें चक्र लिये बड़े वेगसे दौड़े। उस समय अधिक वेगके कारण आपकी वनमाला जोर-जोर से हिल रही थी और पीताम्बरका छोर आकाशमें फहरा रहा था। आपने | तत्काल पहुँचकर गजराजको ग्राहके चंगुलसे छुड़ायाऔर ग्राहको मौत के घाट उतार दिया। जहाँ-जहाँ आपके सेवकोंपर संकट आता है वहीं-वहीं आप देह धारण करके अपने भक्तोंकी रक्षा करते हैं। आपकी लीलाएँ मनको मोहने तथा पापको हर लेनेवाली हैं। उन्होंके द्वारा आप भक्तोंका पालन करते हैं। भक्तवल्लभ ! आप दीनोंके नाथ हैं, देवताओंके मुकुटमें जड़े हुए हीरे आपके चरणोंका स्पर्श करते हैं। प्रभो आप करोड़ों पापको भस्म करनेवाले हैं। मुझे अपने चरण कमलौका दर्शन दीजिये यदि मैं पापी हूँ तो भी आपके मानसमें आपको प्रिय लगनेवाले इस पुरुषोत्तमक्षेत्रमें आया हूँ; अतः अब मुझे दर्शन दीजिये देव-दानववन्दित परमेश्वर ! हम आपके ही हैं। आप पाप - राशिका नाश करनेवाले हैं। आपकी यह महिमा मुझे भूली नहीं है। सबके दुःखोंको दूर करनेवाले दयामय! जो लोग आपके पवित्र नामका कीर्तन करते हैं, वे पाप समुद्रसे तर जाते हैं। यदि संतोंके मुखसे सुनी हुई मेरी यह बात सच्ची है तो आप मुझे प्राप्त होइये - मुझे दर्शन देकर कृतार्थ कीजिये।
सुमति कहते हैं- इस प्रकार राजा रत्नग्रीव रात-दिन भगवान्का गुणगान करते रहे। उन्होंने क्षणभरके लिये भी न तो कभी विश्राम किया, न नींद ली और न कोई सुख ही उठाया। वे चलते-फिरते, ठहरते, गीत गाते तथा वार्तालाप करते समय भी निरन्तर यही कहते कि- 'पुरुषोत्तम ! कृपानाथ! आप मुझे अपने स्वरूपकी झाँकी कराइये।' इस तरह गंगासागर के तटपर रहते हुए राजाके पाँच दिन व्यतीत हो गये। तब दयासागर श्रीगोपालने कृपापूर्वक विचार किया कि 'यह राजा मेरी महिमाका गान करनेके कारण सर्वथा पापरहित हो गया है; अतः अब इसे मेरे देव-दानववन्दित प्रियतम विग्रहका दर्शन होना चाहिये।' ऐसा सोचकर भगवान्का हृदय करुणासे भर गया और वे संन्यासीका वेष धारण करके राजाके समीप गये। तपस्वी ब्राह्मणने देखा, भगवान् अपने भक्तपर कृपा करनेके लिये हाथमें त्रिदण्ड ले यतिका वेष बनाये यहाँ उपस्थित हुए हैं। नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने 'ॐ नमो नारायणाय' कहकरसंन्यासी बाबाको नमस्कार किया और अर्घ्य, पाद्य तथा आसन आदि निवेदन करके उनका विधिवत् पूजन किया। इसके बाद वे बोले-'महात्मन्! आज मेरे सौभाग्यकी कोई तुलना नहीं है; क्योंकि आज आप जैसे साधु पुरुषने कृपापूर्वक मुझे दर्शन दिया है। मैं समझता हूँ, इसके बाद अब भगवान् गोविन्द भी मुझे अपना दर्शन देंगे।' यह सुनकर संन्यासी बाबाने कहा
'राजन्! मेरी बात सुनो, मैं अपनी ज्ञानशक्तिसे भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालकी बात जानता हूँ, इसलिये जो कुछ भी कहूँ, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनना, कल दोपहरके समय भगवान् तुम्हें दर्शन देंगे, वही दर्शन, जो ब्रह्माजीके लिये भी दुर्लभ है, तुम्हें सुलभ होगा। तुम अपने पाँच आत्मीय जनोंके साथ - परमपदको प्राप्त होओगे। तुम, तुम्हारे मन्त्री, तुम्हारी रानी, ये तपस्वी ब्राह्मण तथा तुम्हारे नगरमें रहनेवाला करम्ब नामका साधु, जो जातिका तन्तुवाय- कपड़ा बुननेवाला जुलाहा है— इन सबके साथ तुम पर्वत श्रेष्ठ नीलगिरिपर जा सकोगे। वह पर्वत देवताओंद्वारा पूजित तथा ब्रह्मा और इन्द्रद्वारा अभिवन्दित है।' यह कहकर संन्यासी बाबा अन्तर्धान हो गये, अब वे कहीं दिखायी नहीं देते थे। उनकी बात सुनकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ। साथ ही विस्मय भी उन्होंने तपस्वी ब्राह्मणसे पूछा- स्वामिन्! वे संन्यासी कौन थे, जो यहाँ आकर मुझसे बात कर गये हैं, इस समय वे फिर दिखायी नहीं देते, कहाँ चले गये? उन्होंने मेरे चित्तको बड़ा हर्ष प्रदान किया है।
तपस्वी ब्राह्मणने कहा- राजन् ! वे समस्त पापका नाश करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तम ही थे, जो तुम्हारे महान् प्रेमसे आकृष्ट होकर यहाँ आये थे। कल दोपहरके समय महान् पर्वत नीलगिरि तुम्हारे सामने प्रकट होगा, तुम उसपर चढ़कर भगवान्का दर्शन करके कृतार्थ हो जाओगे।
ब्राह्मणका यह वचन अमृत-राशिके समान सुखदायी प्रतीत हुआ; उसने राजाके हृदयकी सारी चिन्ताओंका नाश कर दिया। उस समय कांची नरेशकोजो आनन्द मिला, उसका ब्रह्माजी भी अनुभव नहीं कर सकते। दुन्दुभी बजने लगी तथा वीणा, पणव और गोमुख आदि बाजे भी बज उठे। महाराज रत्नग्रीवके मनमें उस समय बड़ा उल्लास छा गया था। वे प्रतिक्षण भगवान्का गुणगान करते हुए, बचते खड़े होते हँसते बोलते और बात करते थे। उन्हें सब सन्तापका नाश करनेवाले घनीभूत आनन्दकी प्राप्ति हुई थी। तदनन्तर सारा दिन भगवान्के कोन और स्मरणमें बिताकर राजा रत्नग्रीव रातमें गंगाजीके तटपर, जो महान् फल प्रदान करनेवाला हूँ सो रहे सपने में उन्होंने देखा, 'मेरा स्वरूप चतुर्भुज हो गया है। मैं शंख, चक्र, गदा, पद्म और धनुष धारण किये हुए हूँ तथा भगवान् पुरुषोत्तमके सामने रुद्र आदि देवताओंके साथ नृत्य कर रहा हूँ।'
उन्हें यह भी दिखायी दिया कि शंख, चक्र, गदा और पद्म आदि आयुध तथा विष्वक्सेन आदि पार्षदगण परम सुन्दर दिव्य स्वरूपसे प्रकट हो सदा श्रीलक्ष्मीपतिकी उपासनामें संलग्न रहते हैं। यह सब देखकर उन्हें अद्भुत हर्ष और आश्चर्य हुआ। अपनी मनोवांछित कामना पूर्ण करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन पाकरमहाबुद्धिमान् राजाने अपनेको उनका कृपापात्र माना। स्वप्नमें ये सारी बातें देखकर जब वे प्रातः काल नींद से उठे तो तपस्वी ब्राह्मणको बुलाकर उन्होंने अपने देखे हुए सपनेका सारा समाचार उनसे कह सुनाया। उसे सुनकर बुद्धिमान् ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने कहा-'राजन् तुमने जिन भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन किया है, वे तुम्हें अपना शंख, चक्र आदि चिह्नोंसे विभूषित स्वरूप प्रदान करना चाहते हैं।' यह सुनकर महामना रत्नग्रीवने दीन दुःखियाँको उनकी इच्छा के अनुसार दान दिलाया। फिर गंगासागर संगममें स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण किया तथा भगवान्के गुणका गान करते हुए वे उनके दर्शनकी प्रतीक्षा करने लगे। तदनन्तर जब दोपहरका समय हुआ तो आकाशमें बारंबार दुन्दुभियाँ बजने लगीं देवताओंके 1 हाथसे बजाये जानेके कारण उनसे बड़े जोरकी आवाज होती थी। सहसा राजाके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा हुई देवता कहने लगे-'नृपश्रेष्ठ! तुम धन्य हो ! नीलाचलका प्रत्यक्ष दर्शन करो।' देवताओंकी कही हुई यह बात ज्यों ही राजाके कानोंमें पड़ी, त्यों ही नीलगिरिके नामसे प्रसिद्ध वह महान् पर्वत उनकी आँखोंके समक्ष प्रकट हो गया। करोड़ों सूर्योके समान उसका प्रकाश छा रहा था। चारों ओरसे सोने और चाँदीके शिखर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। राजा सोचने लगे - क्या यह अग्नि प्रज्वलित हो रहा है या दूसरे सूर्यका उदय हुआ है? अथवा स्थिर कान्ति धारण करनेवाला विद्युतपुंज ही सहसा सामने प्रकट हो गया है?"
तपस्वी ब्राह्मणने अत्यन्त शोभासम्पन्न नीलगिरिको देखकर राजासे कहा-'महाराज! यही वह परम पवित्र महान् पर्वत है।' यह सुनकर नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने मस्तक झुकाकर उसे प्रणाम किया और कहा-'मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया क्योंकि इस समय मुझे नीलाचलका प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा है। राजमन्त्री, रानी और करम्ब नामका जुलाहा ये भी नीलाचलका दर्शन पाकर बड़े प्रसन्न हुए। नरश्रेष्ठ! उपर्युक्त पाँचों व्यक्तियोंनेविजय नामक मुहूर्तमें नीलगिरिपर चढ़ना आरम्भ प्र किया। उस समय उन्हें देवताओंद्वारा बजायी हुई महान् दुन्दुभियोंकी ध्वनि सुनायी दे रही थी। पर्वतके ऊपरी 3 शिखरपर, जो विचित्र वृक्षोंसे सुशोभित हो रहा था, र उन्होंने एक सुवर्णजटित परम सुन्दर देवालय देखा। जहाँ प्रतिदिन ब्रह्माजी आकर भगवान्की पूजा करते हैं तथा श्रीहरिको सन्तोष देनेवाला नैवेद्य भोग लगाते हैं वह अद्भुत एवं उज्ज्वल देवालय देखकर राजा सबके साथ उसके भीतर प्रविष्ट हुए। वहाँ एक सोनेका सिंहासन था, जो बहुमूल्य मणियोंसे जटित होनेके कारण अत्यन्त विचित्र दिखायी दे रहा था। उसके ऊपर भगवान् चतुर्भुज रूपसे विराजमान थे। उनकी झाँकी बड़ी मनोहर दिखायी देती थी। चण्ड, प्रचण्ड और विजय आदि पार्षद उनकी सेवामें खड़े थे नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने अपनी रानी और सेवकोंसहित भगवान्को प्रणाम किया।प्रणामके पश्चात् वेदोक्त मन्त्रोंद्वारा उन्हें विधिवत् स्नान कराया और प्रसन्नचित्तसे अर्घ्य, पाद्य आदि उपचार अर्पण किये। इसके बाद भगवान्के श्रीविग्रहमें चन्दन लगाकर उन्हें वस्त्र निवेदन किया तथा धूप-आरती करके सब प्रकारके स्वादसे युक्त मनोहर नैवेद्य भोग लगाया। अन्तमें पुनः प्रणाम करके तापस ब्राह्मणके साथ वे भगवान्की स्तुति करने लगे। उसमें उन्होंने अपनी बुद्धिके अनुसार श्रीहरिके गुण-समुदायसे ग्रथित स्तोत्रोंका संग्रह सुनाया था।
राजा बोले- भगवन्! एकमात्र आप ही पुरुष ( अन्तर्यामी) हैं। आप ही प्रकृतिसे परे साक्षात् भगवान् हैं। आप कार्य और कारणसे भिन्न तथा महत्तत्त्व आदिसे पूजित हैं सृष्टि रचनाएँ कुशल ब्रह्माजी आपहीके नाभि कमलसे उत्पन्न हुए हैं तथा संहारकारी स्द्रका आविर्भाव भी आपहीके नेत्रोंसे हुआ है। आपकी ही आज्ञासे ब्रह्माजी इस संसारकी सृष्टि करते हैं । पुराणपुरुष! आदिकालका जो स्थावर जंगमरूप जगत् दिखायी देता है, वह सब आपसे ही उत्पन्न हुआ है। आप ही इसमें चेतनाशक्ति डालकर इस संसारको चेतन बनाते हैं। जगदीश्वर! वास्तवमें आपका जन्म तो कभी होता ही नहीं है; अतएव आपका अन्त भी नहीं है। प्रभो! आपमें वृद्धि, क्षय और परिणाम- इन तीनों विकारोंका सर्वथा अभाव है, तथापि आप भक्तोंकी रक्षा और धर्मकी स्थापनाके लिये अपने अनुरूप गुणोंसे युक्त दिव्य जन्म-कर्म स्वीकार करते हैं। आपने मत्स्यावतार धारण करके शंखासुरको मारा और वेदोंकी रक्षा की। ब्रह्मन् ! आप महापुरुष (पुरुषोत्तम) और सबके पूर्वज हैं। महाविष्णो! शेष भी आपकी महिमाको नहीं जानते भगवती वाणी भी आपको समझ नहीं पाती. फिर मेरे-जैसे अन्यान्य अज्ञानी जीव कैसे आपकी स्तुति करनेमें समर्थ हो सकते हैं?'इस प्रकार स्तुति करके राजाने भगवान् के चरणोंमें मस्तक नवाकर पुनः प्रणाम किया। उस समय उनका स्वर गद्गद हो रहा था। समस्त अंगोंमें रोमांच हो आया था। उनकी इस स्तुतिसे भगवान् पुरुषोत्तम बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राजासे सत्य और सार्थक वचन कहा।
श्रीभगवान् बोले- राजन् ! तुम्हारे द्वारा की हुई इस स्तुतिसे मुझे बड़ा हर्ष हुआ है। महाराज तुम यह जान लो कि मैं प्रकृतिसे परे रहनेवाला परमात्मा हूँ। 1 अब तुम शीघ्र ही मेरा नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहण करो । इससे परम मनोहर चतुर्भुज रूपको प्राप्त होकर परमपदको जाओगे। जो मनुष्य तुम्हारे किये हुए इस स्तोत्ररत्नसे मेरी स्तुति करेगा; उसे भी मैं अपना उत्तम दर्शन दूँगा, जो भोग और मोक्ष- दोनों प्रदान करनेवाला है।
भगवान्के कहे हुए इस वचनको सुनकर राजाने अपनी सेवामें रहनेवाले चारों स्वजनोंके साथ नैवेद्य भक्षण किया। तदनन्तर क्षुद्रघण्टिकाओं से सुशोभित सुन्दर विमान उपस्थित हुआ उस समय धर्मात्मा राजा रत्नग्रीवने, जो भगवान्के कृपापात्र हो चुके थे, श्रीपुरुषोत्तमदेवका दर्शन करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया तथा उनकी आज्ञा ले अपनी रानीके साथ विमानपर जा बैठे। फिर भगवान्के देखते-देखते अद्भुत वैकुण्ठलोकमें चले गये। राजाके मन्त्री भी धर्मपरायण तथा धर्मवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ थे अतः वे भी विमानपर बैठकर उनके साथ ही गये। सम्पूर्ण तीथोंमें स्नान करनेवाले तपस्वी ब्राह्मण भी चतुर्भुज - स्वरूपको प्राप्त होकर वैकुण्ठको चले गये। इसी प्रकार करम्वने भी भगवान्के गुणोंका गायन करनेके पुण्यसे उनका दर्शन पाया और सम्पूर्ण देवताओंके लिये दुर्लभ भगवद्-धामको प्रस्थान किया। सभी एक ही साथ परम अद्भुत विष्णुलोककी ओर प्रस्थित हुए। सबके चार-चार भुजाएँथीं। सबके हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे थे। सभी मेघके समान श्यामसुन्दर और विशुद्ध स्वभाववाले थे। सबके हाथ कमलोंकी भाँति सुशोभित थे। हार, केयूर और कड़ोंसे सभीके अंग विभूषित थे। इस प्रकार उन सब लोगोंने वैकुण्ठधामकी यात्रा की। साथमें आये हुए प्रजावर्गके लोगोंने विमानोंकी पंक्तियाँ देखीं तथा दुन्दुभीकी ध्वनिको भी श्रवण किया। उस समय एक ब्राह्मण भी वहाँ गये थे, जो भगवान्के चरणारविन्दोंमें बड़ा प्रेम रखनेवाले थे। उनके चित्तपर भगवद्विरहका इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वे चतुर्भुज-स्वरूप हो गये। यह अद्भुत बात देखकर सब लोग ब्राह्मणके महान् सौभाग्यकी सराहना करने लगे और गंगासागर संगममें स्नान करके कांचीनगरीमें लौट आये। सब लोग कहते थे कि 'उत्तम बुद्धिवाले महाराज रत्नग्रीवका अहोभाग्य है, जो वे इसी शरीरसे श्रीविष्णुके परमधामको चले गये।'
[ सुमति कहते हैं- ] राजन् ! यही वह नीलगिरि है, जिसका भगवान् पुरुषोत्तमने आदर बढ़ाया है। इसका दर्शन करनेमात्रसे मनुष्य परमपद - वैकुण्ठधामको प्राप्त हो जाते हैं। जो सौभाग्यशाली पुरुष नीलगिरिके इस माहात्म्यको सुनता है तथा जो दूसरे लोगोंको सुनाता है, वे दोनों ही परमधामको प्राप्त होते हैं। इसका श्रवण और स्मरण करनेमात्रसे बुरे सपने नष्ट हो जाते हैं तथा अन्तमें भगवान् पुरुषोत्तम इस संसारसे उद्धार कर देते हैं। ये नीलाचलनिवासी पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रके ही स्वरूप हैं तथा देवी सीता साक्षात् महालक्ष्मी हैं। ये दोनों दम्पत्ति ही समस्त कारणोंके भी कारण हैं। भगवान् श्रीराम अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करके सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र कर देंगे। उनका नाम ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्तमें भी जपनेके लिये बताया गयाहै । [ रामनाम लेनेसे ब्रह्महत्या जैसे पातक भी दूर हो जाते हैं।] सुमित्रानन्दन! इस समय तुम्हारा यज्ञ सम्बन्धी घोड़ा पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिके निकट जा पहुँचा है। महामते ! तुम भी वहाँ चलकर भगवान् पुरुषोत्तमको नमस्कार करो। वहाँ जानेसे हम सब लोग निष्पाप होकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होंगे; क्योंकि भगवान्के प्रसादसे अबतक अनेक मनुष्य भवसागरके पार हो चुके हैं।सुमति भगवान्की महिमाका वर्णन कर रहे थे; इतने हमें वह अश्व पृथ्वीको अपनी टापोंसे खोदता हुआ वायुके समान वेगसे चलकर नीलाचलपर पहुँच गया। तब राजा शत्रुघ्न भी उसके पीछे-पीछे जाकर नीलगिरिपर पहुँचे और गंगासागर-संगममें स्नान करके पुरुषोत्तमका दर्शन करनेके लिये गये। निकट जाकर उन्होंने देव दानववन्दित भगवान्को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करके अपनेको कृतार्थ माना ।