View All Puran & Books

पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 112 - Khand 4, Adhyaya 112

Previous Page 112 of 266 Next

राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण

शेषजी कहते हैं— मुने! उधर राजा सुबाहुने जब देखा कि मेरे सैनिक रक्तमें डूबे हुए आ रहे हैं तो उनका शोक शान्त-सा करते हुए उन्होंने अपने पुत्रकी करतूत पूछी। राजाका प्रश्न सुनकर उनके सेवकोंने, जो खूनसे लथपथ हो रहे थे तथा जिन्होंने रक्तसे भीगे हुए वस्त्र धारण कर रखा था, इस प्रकार उत्तर दिया- 'राजन् ! आपके पुत्रने स्वर्णमय पत्र आदिके चिह्नोंसे अलंकृत यज्ञसम्बन्धी अश्वको जब आते देखा तो वीरताके गर्वसे शत्रुघ्नको तिनकेके समान समझकर उनकी कुछ भी परवा न करके उसे पकड़वा लिया। इतनेहीमें घोड़ेके पीछे चलनेवाला रक्षक थोड़ी-सी सेनाके साथ वहाँ आपहुँचा। उसके साथ राजकुमारका बड़ा भारी युद्ध हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। आपके पुत्र दमन अपने बाणोंसे उस अश्व-रक्षकको मूर्च्छित करके ज्यों ही स्थिर हुए त्यों ही शत्रुघ्न भी अपनी सेनाओंसे घिरे हुए उपस्थित हो गये । तदनन्तर दोनों दलोंमें बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ा, उसमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग होने लगा। उस युद्धमें आपके महाबली पुत्रने अनेकों बार विजय पायी है, किन्तु इस समय शत्रुघ्नके भतीजेने वज्रास्त्र छोड़कर आपके वीर पुत्रको रणभूमिमें मूच्छित कर दिया है।'

सेवकोंकी यह बात सुनकर राजा सुबाहु राजधानीसेनिकलकर उस स्थानको चले, जहाँ उनके पुत्रको पीड़ा पहुँचानेवाले शत्रुघ्न मौजूद थे।

राजा सुबाहुको सुवर्णभूषित रथपर सवार हो नगरसे निकलते देख समस्त शत्रुओंपर प्रहार करनेवाली शत्रुघ्नकी सेना युद्धके लिये तैयार हो गयी। राजा सुबाहुके भाईका नाम था सुकेतु, वे गदायुद्धमें प्रवीण थे। वे भी अपने रथपर सवार होकर युद्धके लिये आये राजाका पुत्र चित्रांग सब प्रकारकी युद्धकलामें निपुण था। वह भी रथारूढ़ होकर शीघ्र ही शत्रुघ्नकी मतवाली सेनापर चढ़ आया। उसके छोटे भाईका नाम था विचित्र वह विचित्र प्रकारसे संग्राम करनेमें कुशल था। अपने भाईका दुःख सुनकर उसके मनमें बड़ी व्यथा हो रही थी, इसलिये वह भी सोनेके रथपर सवार हो युद्धके लिये उपस्थित हुआ । इनके सिवा और भी अनेकों धनुर्धर वीर, जो सभी अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता थे, राजाकी आज्ञा पाकर वीरोंसे भरी हुई संग्रामभूमिमें गये। राजा सुबाहुने बड़े रोषमें भरकर युद्धक्षेत्रमें पदार्पण किया और वहाँ अपने पुत्रको बाणोंसे पीड़ित एवं मूच्छित देखा। अपने प्यारे पुत्र दमनको रथकी बैठकमें मूर्च्छित होकर पड़ा देख राजाको बड़ा दुःख हुआ और वे पल्लवोंसे उसके ऊपर हवा करने लगे। उन्होंने कुमारके शरीरपर जलका छींटा दिया और अपने कोमल हाथसे उसका स्पर्श किया। इससे महान् अस्त्रवेत्ता वीरवर दमनको धीरे-धीरे चेत हो आया। होशमें आते ही दमनउठ बैठा और बोला- 'मेरा धनुष कहाँ है? और पुष्कल यहाँसे कहाँ चला गया ? मुझसे भिड़कर मेरे बाणके आघातसे पीड़ित होकर वह युद्ध छोड़कर कहाँ भाग गया ?' पुत्रके ये वचन सुनकर राजा सुबाहु बड़े प्रसन्न हुए और उसे छातीसे लगा लिया। पिताको उपस्थित देख दमनने लज्जासे गर्दन झुका ली। उसका सारा शरीर अस्त्रोंकी मारसे घायल हो गया था, तो भी उसने बड़ी भक्तिके साथ पिताके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया। बेटेको पुनः रथपर बिठाकर युद्धकर्ममें कुशल राजा सुबाहुने सेनापतिसे कहा - 'इस युद्धमें तुम अपनी सेनाको क्रौंच - व्यूहके रूपमें खड़ी करो; उस व्यूहको जीतना शत्रुके लिये अत्यन्त कठिन है। उसीका आश्रय लेकर मैं राजा शत्रुघ्नकी सेनापर विजय प्राप्त करूँगा।' महाराज सुबाहुकी बात सुनकर सेनापतिने अपने सैनिकोंका क्रौंच नामक सुन्दर व्यूह बनाया उसमें मुखके स्थानपर सुकेतु और कण्ठकी जगह चित्रांग खड़े हुए। पंखोंके स्थानपर दोनों राजकुमार दमन और विचित्र थे। स्वयं राजा सुबाहु व्यूहके पुच्छ भागमें स्थित हुए। मध्यभागमें उनकी विशाल सेना थी, जो रथ, गज, अश्व और पैदल-इन चारों अंगोंसे शोभा पा रही थी। इस प्रकार विचित्र क्रौंच - व्यूहकी रचना करके सेनाध्यक्षने राजासे निवेदन किया- 'महाराज ! व्यूह सम्पन्न हो गया।'

Previous Page 112 of 266 Next

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान