शेषजी कहते हैं- उस श्रेष्ठ अश्वको अनेकों राजाओंसे भरे हुए भारतवर्षमें लीलापूर्वक भ्रमण करते सात महीने व्यतीत हो गये। उसने हिमालयके निकट बहुत से देशों में विचरण किया, किन्तु श्रीरामचन्द्रजीके बलका स्मरण करके कोई उसे पकड़ न सका। अंग, बंग और कलिंग देशके राजाओंने तो उस अश्वका भलीभाँति स्तवन किया। वहाँसे आगे बढ़नेपर वह राजा सुरथके मनोहर नगरमें पहुँचा, जो अदितिका कुण्डल गिरनेके कारण कुण्डलके ही नामसे प्रसिद्ध था। वहाँके लोग कभी धर्मका उल्लंघन नहीं करते थे। वहाँकी जनता प्रतिदिन प्रेमपूर्वक श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया करती थी। उस नगरके मनुष्य नित्यप्रति अश्वत्थ और तुलसीकी पूजा करते थे। वे सब-के सब श्रीरघुनाथजीके सेवक थे। पापसे कोसों दूर रहते थे वहाँकै सुन्दर देवालयोंमें श्रीरघुनाथजीकी प्रतिमा शोभा पाती थी तथा कपटरहित शुद्ध चित्तवाले नगर निवासी प्रतिदिन वहाँ जाकर भगवान्की पूजा करते थे। उनकी जिह्वापर केवल भगवान्का नाम शोभा पाता था, झगड़े-फसादकी चर्चा नहीं। उनके हृदयमें भगवान्का ही ध्यान होता; कामना या फलकी स्मृति नहीं होती थी। वहाँके सभी देहधारी पवित्र थे। श्रीरामचन्द्रजीकी कथा-वार्तासे ही उनका मनवहलाव होता था। वे सब प्रकारके दुर्व्यसनोंसे रहित थे अत: कभी भी जुआ नहीं खेलते थे। उस नगरमें धर्मात्मा, सत्यवादी एवं महाबली राजा सुरथ निवास करते थे, जिनका चित्त श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्मरण करके सदा आनन्दमग्न रहा करता था। वे भगवद् प्रेममें मस्त रहते थे। राम भक्त राजा सुरथकी महिमाका मैं क्या वर्णन करूँ ? उनके समस्त गुण भूमण्डलमें विस्तृत होकर सबके पापोंका परिमार्जन कर रहे हैं।
एक समय राजाके कुछ सेवक टहल रहे थे। उन्होंने देखा, चन्दनसे चर्चित अश्वमेधका अश्व आ रहा है। निकटसे देखनेपर उन्हें मालूम हुआ कि यह नेत्र औरमनको मोहनेवाला अश्व श्रीरामचन्द्रजीका छोड़ा हुआ है। यह जानकर वे बड़े प्रसन्न हुए और उत्सुक भावसे राजसभामें जा वहाँ बैठे हुए महाराजको सूचना देते हुए बोले-'स्वामिन्! अयोध्या नगरीके स्वामी जो श्रीरघुनाथजी हैं. उनका छोड़ा हुआ अश्वमेधयोग्य अश्व सर्वत्र भ्रमण कर रहा है। वह अनुचरोंसहित आपके नगरके निकट आ पहुँचा है। महाराज ! वह अश्व अत्यन्त मनोहर है, आप उसे पकड़ें।'
सुरथ बोले- हम सेवकोंसहित धन्य हैं; क्योंकि हमें श्रीरामचन्द्रजीके मुखचन्द्रका दर्शन होगा। करोड़ों योद्धाओंसे घिरे हुए उस अश्वको आज मैं कहूँगा और तभी छोड़ेंगा जब श्रीरघुनाथजी चिरकालसे अपना चिन्तन करनेवाले मुझे भक्तपर कृपा करनेके लिये स्वयं यहाँ पदार्पण करें।
शेषजी कहते हैं—ऐसा कहकर राजाने सेवकोंको आज्ञा दी 'जाओ, अश्वको बलपूर्वक पकड़ लाओ। सामने पड़ जानेपर उसे कदापि न छोड़ना मुझे ऐसा विश्वास है कि इससे अपना महान् लाभ होगा। ब्रह्मा और इन्द्रके लिये भी जिनका दर्शन दुर्लभ है, उन्हीं श्रीरामचरणोंकी झाँकी हमारे लिये सुलभ होगी। वही स्वजन, पुत्र, बान्धव, पशु अथवा वाहन धन्य है, जिससे श्रीरामचन्द्रजीकी प्राप्ति सम्भव हो; अतः जो स्वर्णपत्रसे शोभा पा रहा है, इच्छानुसार वेगसे चलता है तथा देखनेमें अत्यन्त मनोरम जान पड़ता है, उस यज्ञसम्बन्धी अश्वको पकड़कर घुड़सालमें बाँध दो।' महाराजके ऐसा कहनेपर सेवकोंने जाकर श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर अश्वको पकड़ लिया और दरबारमें लाकर उन्हें अर्पण कर दिया। वात्स्यायनजी! आप एकाग्रचित्त होकर सुनें। राजा सुरथके राज्यमें कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं था, जो परायी स्वीसे अनुराग रखता हो। दूसरोंके धन लेनेवाले तथा कामलम्पट पुरुषका वहाँ सर्वथा अभाव था। जिससे श्रीरघुनाथजीका कीर्तन करनेकेसिवा दूसरी कोई अनुचित बात किसीके मुँहसे नहीं निकलती थी। वहाँ सभी एकपत्नीव्रतका पालन करनेवाले थे दूसरोंपर झूठा कलंक लगानेवाला और वेदविरुद्ध पथपर चलनेवाला उस राज्यमें एक भी मनुष्य नहीं था। राजाके सभी सैनिक प्रतिदिन श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करते रहते थे उनके देशमें पापिष्ठ नहीं थे. किसीके मनमें भी पापका विचार नहीं उठता था । भगवान् का ध्यान करनेसे सबके समस्त पाप नष्ट हो गये थे। सभी आनन्दमग्न रहते थे।
उस देशके राजा जब इस प्रकार धर्मपरायण हो गये तो उनके राज्यमें रहनेवाले सभी मनुष्य मरनेके बाद शान्ति प्राप्त करने लगे। सुरथके नगरमें यमदूतोंका प्रवेश नहीं होने पाता था। जब ऐसी अवस्था हो गयी, तो एक दिन यमराज मुनिका रूप धारण करके राजाके पास गये। उनके शरीरपर वल्कल वस्त्र और मस्तकपर जटा शोभा पा रही थी। राजसभामें पहुँचकर वे भगवद्भक्क महाराज सुरवसे मिले। उनके मस्तकपर तुलसी और जिह्वापर भगवान्का उत्तम नाम था। वे अपने सैनिकोंको धर्म-कर्मकी बात सुना रहे थे। राजाने भी मुनिको देखा;वे तपस्या के साक्षात् विग्रह से जान पड़ते थे। उन्होंने मुनिके चरणोंमें प्रणाम करके उन्हें अर्घ्य, पाच आदि निवेदन किया। तत्पश्चात् जब वे सुखपूर्वक आसनपर विराजमान हो विश्राम कर चुके, तब राजाओं में अग्रगण्य सुरथने उनसे कहा- 'मुनिवर ! आज मेरा जीवन धन्य है! आज मेरा घर धन्य हो गया !! आप मुझे श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कथाएँ सुनाइये जिन्हें सुननेवाले मनुष्योंका पद-पदपर पाप नाश होता है।' राजाका ऐसा वचन सुनकर मुनि अपने दाँत दिखाते हुए जोर-जोर से हँसने और ताली पीटने लगे। राजाने पूछा- 'मुने! आपके हँसनेका क्या कारण है? कृपा करके बताइये, जिससे मनको सुख मिले।' तब मुनि बोले- 'राजन् ! बुद्धि लगाकर मेरी बात सुनो, मैं तुम्हें अपने हँसनेका उत्तम कारण बताता हूँ। तुमने अभी कहा है कि 'मेरे सामने भगवान्की कीर्तिका वर्णन कीजिये।' मगर मैं पूछता हूँ-भगवान् हैं कौन? वे किसके हैं और उनकी कीर्ति क्या है? संसारके सभी मनुष्य अपने कर्मो के अधीन हैं। कर्मसे ही स्वर्ग मिलता है, कर्मसे ही नरकमें जाना पड़ता है तथा कर्मसे ही पुत्र, पौत्र आदि सभी वस्तुओंकी प्राप्ति होती है। इन्द्रने सौ यह करके स्वर्गका उत्कृष्ट स्थान प्राप्त किया तथा ब्रह्माजीको भी कर्मसे ही सत्य नामक अद्भुत लोक उपलब्ध हुआ। कर्मसे बहुतोंको सिद्धि प्राप्त हुई है। मरुत् आदि कर्मसे ही लोकेश्वर पदको प्राप्त हुए हैं; इसलिये तुम भी यज्ञ-कर्मोंमें लगो, देवताओंका पूजन करो। इससे सम्पूर्ण भूमण्डलमें तुम्हारी उज्ज्वल कीर्तिका विस्तार होगा।' राजा सुरथका मन एकमात्र श्रीरघुनाथजीमें लगा हुआ था; अतः मुनिके उपर्युक्त वचन सुनकर उनका हृदय क्रोधसे क्षुब्ध हो उठा और वे कर्मविशारद ब्राह्मण देवतासे इस प्रकार बोले- 'ब्राह्मणाधम ! यहाँ नश्वर फल देनेवाले कर्मकी बात न करो। तुम लोकमें निन्दाके पात्र हो, इसलिये मेरे नगर और प्रान्तसे बाहर चले जाओ [इन्द्र और ब्रह्माका दृष्टान्त क्या दे रहे हो ?] इन्द्र शीघ्र ही अपने पदसे भ्रष्ट होंगे, किन्तु श्रीरामचन्द्रजीकी सेवा करनेवाले मनुष्य कभी नीचे नहीं गिरेंगे। ध्रुव,प्रह्लाद और विभीषणको देखो तथा अन्य रामभक्तोंपर भी दृष्टिपात करो; वे कभी अपनी स्थितिसे भ्रष्ट नहीं होते। जो दुष्ट श्रीरामकी निन्दा करते हैं, उन्हें यमराजके दूत कालपाशसे बांधकर लोहेके मुद्गरोंसे पोटते हैं। तुम ब्राह्मण हो, इसलिये तुम्हें शारीरिक दण्ड नहीं दे सकता। मेरे सामनेसे जाओ, चले जाओ; नहीं तो तुम्हारी ताड़ना करूँगा।' महाराज सुरथके ऐसा कहनेपर उनके सेवक मुनिको हाथसे पकड़कर निकाल देनेको उद्यत हुए। तब यमराजने अपना विश्ववन्दित रूप धारण करके राजासे कहा-' श्रीरामभक्त! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, माँगो । सुव्रत ! मैंने बहुत-सी बातें बनाकर तुम्हें प्रलोभनमें डालनेका प्रयत्न किया, किन्तु तुम श्रीरामचन्द्रजीकी सेवासे विचलित नहीं हुए। क्यों न हो, तुमने साधु पुरुषका सेवन - महात्माओंका सत्संग किया है।' यमराजको संतुष्ट देखकर राजा सुरथने कहा- 'धर्मराज ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो यह उत्तम वर प्रदान कीजिये - जबतक मुझे श्रीराम न मिलें, तबतक मेरी मृत्यु न हो। आपसे मुझे कभी भय न हो।' तब यमराजने कहा- 'राजन् ! तुम्हारा यह कार्य सिद्ध होगा। श्रीरघुनाथजी तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण करेंगे।' यो कहकर धर्मराजने हरिभक्तिपरायण राजाकी प्रशंसा की और वहाँसे अदृश्य होकर वे अपने लोकको चले गये।
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीको सेवामें लगे रहनेवाले धर्मात्मा राजाने अत्यन्त हर्षमें भरकर अपने सेवकोंसे कहा- 'मैंने महाराज श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको पकड़ा है; इसलिये तुम सब लोग युद्धके लिये तैयार हो जाओ। मैं जानता हूँ, तुमने युद्ध कलामें पूरी प्रवीणता प्राप्त की है।' महाराजकी ऐसी आज्ञा पाकर उनके सभी महाबली योद्धा थोड़ी ही देरमें तैयार हो गये और शीघ्रतापूर्वक दरबारके सामने उपस्थित हुए। राजाके दस वीर पुत्र थे, जिनके नाम थे चम्पक, मोहक, रिपुंजय, दुर्वार, प्रतापी, बलमोदक, हर्यक्ष, सहदेव, भूरिदेव तथा असुतापन। ये सभी अत्यन्त उत्साहपूर्वक तैयार हो युद्धक्षेत्रमें जानेकी इच्छा प्रकट करने लगे। इधर शत्रुघ्नने शीघ्रताके साथ आकर अपनेसेवकोंसे पूछा- 'यहसम्बन्धी अश्व कहाँ है?' ये बोले-'महाराज हमलोग पहचानते तो नहीं, परन्तु कुछ योद्धा आये थे, जो हमें हटाकर घोड़ेको साथ ले इस नगरमें गये हैं।' उनकी बात सुनकर शत्रुघ्नने सुमतिसे कहा- 'मन्त्रिवर! यह किसका नगर है ? कौन इसका स्वामी है, जिसने मेरे अश्वका अपहरण किया है?' मन्त्री बोले- 'राजन्! यह परम मनोहर नगर कुण्डलपुरके नामसे प्रसिद्ध है। इसमें महाबली धर्मात्मा राजा सुरथ निवास करते हैं। वे सदा धर्ममें लगे रहते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणोंके उपासक हैं। श्रीहनुमानजी की भाँति ये भी मन, वाणी और क्रियाद्वारा भगवान्की सेवामें ही तत्पर रहते हैं।'
शत्रुघ्न बोले- यदि इन्होंने ही श्रीरघुनाथजीके अश्वका अपहरण किया हो तो इनके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये ?
सुमतिने कहा- महाराज ! राजा सुरथके पास कोई बातचीत करनेमें कुशल दूत भेजना चाहिये।
यह सुनकर शत्रुघ्नने अंगदसे विनययुक्त वचन कहा-'बालिकुमार! यहाँसे पास ही जो राजा सुरथका विशाल नगर है, वहाँ दूत बनकर जाओ और राजासे कहो कि आपने जानकर या अनजानमें यदि श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको पकड़ लिया हो तो उसे लौटा दें अथवा वीरोंसे भरे हुए युद्धक्षेत्र पधारें।' अंगदने 'बहुत अच्छा' कहकर शत्रुघ्नकी आज्ञा स्वीकार की और राजसभामें गये। वहाँ उन्होंने राजा सुरथको देखा, जो वीरोंके समूहसे घिरे हुए थे। उनके मस्तकपर तुलसीको मंजरी थी और जिह्वासे श्रीरामचन्द्रजीका नाम लेते हुए वे अपने सेवकोंको उन्हींकी कथा सुना रहे थे। राजा भी मनोहर शरीरधारी वानरको देखकर समझ गये कि ये शत्रुघ्नके दूत हैं; तथापि बालिकुमारसे इस बोले-'वानरराज। बताओ, तुम किसलिये और प्रकार कैसे यहाँ आये हो! तुम्हारे आनेका सारा कारण जानकर मैं उसके अनुसार कार्य करूँगा।' यह सुनकर वानरराज अंगद मन-ही-मन बहुत विस्मित श्रीरामचन्द्रजीकी उपासनामें लगे रहनेवाले उन नरेशसेखोले–'नृपश्रेष्ठ! मुझे बालिपुत्र अंगद समझो। श्रीशत्रुघ्नजीने मुझे दूत बनाकर तुम्हारे निकट भेजा है।
इस समय तुम्हारे कुछ सेवकोंने आकर मेरे यज्ञ सम्बन्धी घोड़ेको पकड़ लिया है। अज्ञानवश उनके द्वारा सहसा यह बहुत बड़ा अन्याय हो गया है; अब तुम प्रसन्नतापूर्वक श्रीशत्रुघ्नजीके पास चलो और उनके चरणोंमें पड़कर अपने राज्य और पुत्रोंसहित वह अश्व शीघ्र ही समर्पित कर दो। अन्यथा श्रीशत्रुघ्नके बाणोंसे घायल होकर पृथ्वीतलकी शोभा बढ़ाते हुए सदाके लिये सो जाओगे तुम्हें अपना मस्तक कटा देना होगा।' अंगदके मुखसे इस तरहकी बातें सुनकर राजा सुरथने उत्तर दिया- 'कपिश्रेष्ठ! तुम सब कुछ ठीक ही कह रहे हो, तुम्हारा कहना मिथ्या नहीं है; परंतु मैं शत्रुघ्न आदिके भयसे उस अश्वको नहीं छोड़ सकता। यदि भगवान् श्रीराम स्वयं ही आकर मुझे दर्शन दें तो मैं उनके चरणोंमें प्रणाम करके पुत्रसहित अपना राज्य, कुटुम्ब, धन, धान्य तथा प्रचुर सेना सब कुछ समर्पण कर दूंगा। क्षत्रियोंका धर्म ही ऐसा है कि उन्हें स्वामीसे भी विरोध करना पड़ता है। उसमें भी यह धार्मिक युद्ध है।मैं केवल श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकी इच्छासे ही युद्ध 1 कर रहा हूँ। यदि श्रीरघुनाथजी मेरे घरपर नहीं पधारेंगे तो मैं इस समय शत्रुघ्न आदि सभी प्रधान वीरोंको क्षणभरमें जीतकर कैद कर लूँगा ।'
अंगद बोले- राजन्! जिन्होंने मान्धाताके शत्रु लवण नामक दैत्यको खेलमें ही मार डाला था, जिनके द्वारा संग्राममें कितने ही बलवान् वैरी परास्त हुए हैं तथा जिन्होंने इच्छानुसार चलनेवाले विमानपर बैठे हुए विद्युन्माली नामक राक्षसका वध किया है, उन्हीं वीरशिरोमणि श्रीशत्रुघ्नको तुम कैद करोगे! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है। श्रेष्ठ अस्त्रोंका ज्ञाता महाबली पुष्कल, जिसने युद्धमें रुद्रके प्रधान गण वीरभद्रके छक्के छुड़ा दिये थे, श्रीशत्रुघ्नका भतीजा है। श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंका चिन्तन करनेवाले हनुमान्जी भी सदा उनके निकट ही रहते हैं। तुमने हनुमान्जीके अनेकों पराक्रम सुने होंगे। उन्होंने त्रिकूट पर्वतसहित समूची लंकापुरीको क्षणभरमें फूँक डाला और दुष्ट बुद्धिवाले राक्षसराज रावणके पुत्र अक्षकुमारको मौतके घाट उतार दिया। अपने सैनिकोंकी जीवन-रक्षाके लिये वे देवताओंसहित द्रोण पर्वतको अपनी पूँछके अग्रभागमें लपेटकर कई बार लाये हैं। हनुमान्जीका चरित्रबल कैसा है, इस बातको श्रीरघुनाथजी ही जानते हैं; इसीलिये अपने प्रिय सेवक इन पवनकुमारको वे मनसे तनिक भी नहीं बिसारते। वानरराज सुग्रीव आदि वीर, जो सारी पृथ्वीको ग्रस लेनेकी शक्ति रखते हैं, राजा शत्रुघ्नका रुख जोहते हुए उनकी सेवा करते हैं। कुशध्वज, नीलरत्न, महान् अस्त्रवेत्ता रिपुताप, प्रतापाग्रय, सुबाहु, विमल, सुमद और श्रीरामभक्त सत्यवादी राजा वीरमणि-ये तथा अन्य भूपाल श्रीशत्रुघ्नकी सेवामें रहते हैं। इन वीरोंके समुद्रमें एक मच्छरके समान तुम्हारी क्या हस्ती है। इन बातोंको भलीभाँति समझकर चलो। शत्रुघ्नजी बड़े दयालु हैं; उन्हें पुत्रोंसहित अश्व समर्पित करके तुम कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीके पास जाना। वहीं उनका दर्शन करके अपने शरीर और जन्म दोनोंको सफल बना सकते हो।शेषजी कहते हैं- इस प्रकार अनेक तरहकी बातें करते हुए दूतसे राजाने कहा- 'यदि मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा श्रीरामका ही भजन करता हूँ, तो वे मुझे शीघ्र दर्शन देंगे, अन्यथा श्रीरामभक्त हनुमान् आदि वीर मुझे बलपूर्वक बाँध लें और घोड़ेको छीन ले जायँ ।दूत ! तुम जाओ, राजा शत्रुघ्नसे मेरी कही हुई बातें सुना दो। अच्छे-अच्छे योद्धा तैयार हों, मैं अभी युद्धके लिये चलता हूँ।' यह सुनकर वीर अंगद मुसकराते हुए वहाँसे चल दिये। वहाँ पहुँचकर राजा सुरथकी कही हुई बातें उन्होंने ज्यों-की-त्यों कह सुनायीं l