ब्राह्मणोंने पूछा— द्विजश्रेष्ठ। इस मर्त्यलोकमें कौन ऐसा मनुष्य है, जो पुण्यात्माओं में श्रेष्ठ परम पवित्र, सबके लिये सुलभ, मनुष्योंके द्वारा पूजन करनेयोग्यतथा मुनियों और तपस्वियोंका भी आदरपात्र हो ? व्यासजी बोले- विप्रगण ! रुद्राक्षकी माला धारण करनेवाला पुरुष सब प्राणियोंमें श्रेष्ठ है। उसकेदर्शनमात्र लोगोंकी पाप राशि विलीन हो जाती है। रुद्राक्षके स्पर्शसे मनुष्य स्वर्गका सुख भोगता है और उसे धारण करनेसे वह मोक्षको प्राप्त होता है। जो मस्तकपर तथा हृदय और बाँहमें भी रुद्राक्ष धारण करता है, वह इस संसारमें साक्षात् भगवान् शंकरके समान है। रुद्राक्षधारी ब्राह्मण जहाँ रहता है, वह देश पुण्यवान् होता है। रुद्राक्षका फल तीर्थोंमें महान् तीर्थके समान हैं। ब्रह्म-ग्रन्थिसे युक्त मंगलमयी रुद्राक्षकी माला लेकर जो जप-दान स्तोत्र, मन्त्र और देवताओंका पूजन तथा दूसरा कोई पुण्य कर्म करता है, वह सब अक्षय हो जाता है तथा उससे पापका क्षय होता है।
श्रेष्ठ द्विजगण ! अब मैं मालाका लक्षण बतलाता हूँ, सुनो। उसका लक्षण जानकर तुमलोग मोक्ष-मार्ग प्राप्त कर लोगे। जिस रुद्राक्षमें योनिका चिह्न न हो जिसमें कोड़ोंने छेद कर दिया हो, जिसका लिंगचिह्न मिट गया हो तथा जिसमें दो बीज एक साथ सटे हुए हों, ऐसे रुद्राक्षके दानेको मालामें नहीं लेना चाहिये। जो माला अपने हाथसे गूँथी हुई और ढीली-ढाली हो, जिसके दाने एक-दूसरे से सटे हुए हो अथवा शूद्र आदि नीच मनुष्योंने जिसे गूँथा हो ऐसी माला अशुद्ध होती है। उसका दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये। जो सर्पके समान आकारवाली ( एक ओरसे बड़ी और क्रमशः छोटी), नक्षत्रोंकी-सी शोभा धारण करनेवाली, सुमेरसे युक्त तथा सटी हुई ग्रन्थिके कारण शुद्ध है, वही माला उत्तम मानी गयी है। विद्वान् पुरुषको वैसी ही मालापर जप करना चाहिये। उपर्युक्त लक्षणोंसे शुद्ध रुद्राक्षको माला हाथमें लेकर मध्यमा अंगुलिसे लगे हुए दानोंको क्रमश: अँगूठेसे सरकाते हुए जप करना चाहिये। मेरुके पास पहुँचनेपर मालाको हाथसे बार-बार घुमा लेना चाहिये मेरुका उल्लंघन करना उचित नहीं है। वैदिक, पौराणिक तथा आगमोक्त जितने भी मन्त्र हैं, सब रुद्राक्षमालापर जप करनेसे अभीष्ट फलके उत्पादक और मोक्षदायक होते हैं। जो रुद्राक्षमालासे चूते हुए जलको मस्तकपर धारण करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर अक्षयपुण्यका भागी होता है। रुद्राक्षमालाका एक-एक बीज एक-एक देवताके समान है। जो मनुष्य अपने शरीर में रुद्राक्ष धारण करता है, वह देवताओंमें श्रेष्ठ होता है।
ब्राह्मणोंने पूछा- गुरुदेव ! रुद्राक्षकी उत्पत्ति कहाँसे हुई है ? तथा वह इतना पवित्र कैसे हुआ ?
व्यासजी बोले- ब्राह्मणो! पहले किसी सत्ययुगमें एक त्रिपुर नामका दानव रहता था, वह देवताओंका वध करके अपने अन्तरिक्षचारी नगरमें छिप जाता था। ब्रह्माजीके वरदानसे प्रबल होकर वह सम्पूर्ण लोकोंके विनाशकी चेष्टा कर रहा था। एक समय देवताओंके निवेदन करनेपर भगवान् शंकरने यह भयंकर समाचार सुना। सुनते ही उन्होंने अपने आजगव नामक धनुषपर विकराल बाण चढ़ाया और उस दानवको दिव्य दृष्टिसे देखकर मार डाला। दानव आकाशसे टूटकर गिरनेवाली बहुत बड़ी लूकाके समान इस पृथ्वीपर गिरा। इस कार्यमें अत्यन्त श्रम होनेके कारण रुद्रदेवके शरीरसे पसीने की बूँदै टपकने लगीं। उन बूँदोंसे तुरंत ही पृथ्वीपर रुद्राक्षका महान् वृक्ष प्रकट हुआ। इसका फल अत्यन्त गुप्त होनेके कारण साधारण जीव उसे नहीं जानते। तदनन्तर एक दिन कैलासके शिखरपर विराजमान हुए देवाधिदेव भगवान् शंकरको प्रणाम करके कार्तिकेयजीने कहा- 'तात! मैं रुद्राक्षका यथार्थ फल जानना चाहता हूँ। उसपर जप करने तथा उसका धारण, दर्शन अथवा स्पर्श करनेसे क्या फल मिलता है?'
भगवान् शिवने कहा- रुद्राक्षके धारण करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है। यदि कोई हिंसक पशु भी कण्ठमें रुद्राक्ष धारण करके मर जाय तो रुद्रस्वरूप हो जाता है, फिर मनुष्य आदिके लिये तो कहना ही क्या है। जो मनुष्य मस्तक और हृदयमें रुद्राक्षकी माला धारण करके चलता है, उसे पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है [ रुद्राक्षमें एकसे लेकर चौदहतक मुख होते हैं।] जो कितने भी मुखवाले रुद्राक्षको धारण करता है, वह मेरे समान होता है; इसलिये पुत्र! तुम पूरा प्रयत्न करके रुद्राक्ष धारण करोजो रुद्राक्ष धारण करके इस भूतलपर प्राण त्याग करता है; वह सब देवताओंसे पूजित होकर मेरे रमणीय धामको जाता है। जो मृत्युकालमें मस्तकपर एक रुद्राक्षको माला धारण करता है, वह शैव, वैष्णव, शाक्त, गणेशोपासक और सूर्योपासक सब कुछ है जो इस प्रसंगको पढ़ता-पढ़ता, सुनता और सुनाता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर सुखपूर्वक मोक्ष-लाभ करता है।
कार्तिकेयजीने कहा- जगदीश्वर! मैं अन्यान्य फलोंकी पवित्रताके विषयमें भी प्रश्न कर रहा हूँ। सब लोगोंके हितके लिये यह बतलाइये कि कौन-कौन से फल उत्तम हैं।
ईश्वरने कहा- बेटा आँवलेका फल समस्त लोकोंमें प्रसिद्ध और परम पवित्र है। उसे लगानेपर स्त्री और पुरुष सभी जन्म-मृत्युके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। यह पवित्र फल भगवान् श्रीविष्णुको प्रसन्न करनेवाला एवं शुभ माना गया है, इसके भक्षणमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। आंवला खानेसे आयु बढ़ती है, उसका जल पीनेसे धर्म-संचय होता है और उसके द्वारा स्नान करनेसे दरिद्रता दूर होती है तथा सब प्रकारके ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। कार्तिकेय ! जिस परमें आँवला सदा मौजूद रहता है, वहाँ दैत्य और राक्षस नहीं जाते। एकादशीके दिन यदि एक ही आँवला मिल जाय तो उसके सामने गंगा, गया, काशी और पुष्कर आदि तीर्थ कोई विशेष महत्त्व नहीं रखते। जो दोनों पक्षको एकादशीको आँवलेसे स्नान करता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं और वह श्रीविष्णुलोक में सम्मानित होता है। षडानन जो आँवले के रससे सदा अपने केश साफ करता है, वह पुनः माताके स्तनका दूध नहीं पीता। आँवलेका दर्शन, स्पर्श तथा उसके नामका उच्चारण करनेसे सन्तुष्ट होकर वरदायक भगवान् श्रीविष्णु अनुकूल हो जाते हैं जहाँ आँवलेका फल मौजूद होता है, वहाँ भगवान् श्रीविष्णु सदा विराजमान रहते हैं तथा उस घरमें ब्रह्मा एवं सुस्थिर लक्ष्मीका भी वास होता है। इसलिये अपने घरमें आँवला अवश्य रखना चाहिये। जो आँवलेका बना मुरब्बा एवं बहुमूल्य नैवेद्य अर्पणकरता है, उसके ऊपर भगवान् श्रीविष्णु बहुत सन्तुष्ट होते हैं। उतना सन्तोष उन्हें सैकड़ों यज्ञ करनेपर भी नहीं हो सकता।
स्कन्द ! योगी, मुनियों तथा ज्ञानियोंको जो गति प्राप्त होती है, वही आँवलेका सेवन करनेवाले मनुष्यको भी मिलती है तीथोंमें वास एवं तीर्थ यात्रा करनेसे तथा नाना प्रकारके व्रतोंसे मनुष्यको जो गति प्राप्त होती है, वही आँवलेके फलका सेवन करनेसे भी मिल जाती है तात प्रत्येक रविवार तथा विशेषतः सप्तमी तिथिको आँवलेका फल दूरसे ही त्याग देना चाहिये। संक्रान्तिके दिन, शुक्रवारको तथा षष्ठी, प्रतिपदा, नवमी और अमावास्याको आँवलेका दूरसे ही परित्याग करना उचित है। जिस मृतकके मुख, नाक, कान अथवा बालोंमें आँवलेका फल हो, वह विष्णुलोकको जाता है। आँवलेके सम्पर्कमात्रसे मृत व्यक्ति भगवद्धामको प्राप्त होता है जो धार्मिक मनुष्य शरीरमें आँवलेका रस लगाकर स्नान करता है, उसे पद-पदपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। उसके दर्शन मात्रसे जितने भी पापी जन्तु हैं, वे भाग जाते हैं तथा कठोर एवं दुष्ट ग्रह पलायन कर जाते हैं।
स्कन्द ! पूर्वकालकी बात है- एक चाण्डाल शिकार खेलनेके लिये वनमें गया। वहाँ अनेकों मृगों और पक्षियोंको मारकर जब वह भूख-प्याससे अत्यन्त पीड़ित हो गया, तब सामने ही उसे एक आँवलेका वृक्ष दिखायी दिया। उसमें खूब मोटे-मोटे फल लगे थे। चाण्डाल सहसा वृक्षके ऊपर चढ़ गया और उसके उत्तम उत्तम फल खाने लगा। प्रारब्धवश वह वृक्षके शिखरसे पृथ्वीपर गिर पड़ा और वेदनासे व्यथित होकर इस लोकसे चल बसा। तदनन्तर सम्पूर्ण प्रेत, राक्षस, भूतगण तथा यमराजके सेवक बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ आये; किन्तु उसे ले न जा सके। यद्यपि वे महान् बलवान् थे, तथापि उस मृतक चाण्डालकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते थे। जब कोई भी उसे पकड़कर ले जा न सका, तब वे अपनी असमर्थता देख मुनियोंके पास जाकर बोले-'ज्ञानी महर्षियो !चाण्डाल तो बड़ा पापी था; फिर क्या कारण है कि हमलोग तथा ये यमराजके सेवक उसकी ओर देख भी न सके ?' 'यह मेरा है, यह मेरा है' कहते हुए हमलोग झगड़ा कर रहे हैं, किन्तु उसे ले जानेको शक्ति नहीं रखते क्यों और किसके प्रभावसे वह सूर्यको भौति दुष्प्रेक्ष्य हो रहा है-उसकी ओर दृष्टिपात करना भी कठिन जान पड़ता है।'
मुनियोंने कहा- प्रेतगण इस चाण्डालने आँवलेके पके हुए फल खाये थे उसकी डाल टूट जानेसे उसके सम्पर्क में ही इसकी मृत्यु हुई है। मृत्युकालमें भी इसके आस-पास बहुत से फल बिखरे पड़े थे। इन्हीं सब कारणोंसे तुमलोगोंका इसकी ओर देखना कठिन हो रहा है। इस पापीका आँवलेसे सम्पर्क रविवारको या और किसी निषिद्ध वेलामें नहीं हुआ है; इसलिये यह दिव्य लोकको प्राप्त होगा ।
प्रेत बोले- मुनीश्वरो! आपलोगोंका ज्ञान उत्तम है, इसलिये हम आपसे एक प्रश्न पूछते हैं। जबतक यहाँ श्रीविष्णुलोक से विमान नहीं आता, तबतक आपलोग हमारे प्रश्नका उत्तर दे दें। जहाँ वेदों और नाना प्रकारके मन्त्रोंका गम्भीर घोष होता है, जहाँ पुराणों और स्मृतियोंका स्वाध्याय किया जाता है, वहाँ हम एक क्षणके लिये भी नहीं ठहर सकते। यज्ञ, होम, जप तथा देवपूजा आदि शुभ कार्योंके सामने हमारा ठहरना असम्भव है; इसलिये हमें यह बताइये कि कौन-सा कर्म करके मनुष्य प्रेतयोनियोंको प्राप्त होते हैं। हमें यह सुनने की भी इच्छा है कि उनका शरीर विकृत क्योंकर हो जाता है।
ब्रह्मर्षियोंने कहा- जो झूठी गवाही देते तथा वध और बन्धनमें पड़कर मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे नरकमें पड़े हुए जीव ही प्रेत होते हैं। जो ब्राह्मणोंके दोष ढूँढ़ने में लगे रहते हैं और गुरुजनोंके शुभ कर्मोंमें बाधा पहुँचाते हैं तथा जो श्रेष्ठ ब्राह्मणको दिये जानेवाले दानमें रुकावट डाल देते हैं, वे चिरकालतक प्रेतयोनिमें पड़कर नरकसे कभी उद्धार नहीं पाते जो मूर्ख अपने और दूसरेके बैलोंको 11 कष्ट दे उनसे बोझ ढोनेका काम लेकर उनकीरक्षा नहीं करते, जो अपनी प्रतिज्ञाका त्याग करते, असत्य बोलते और व्रत भंग करते हैं तथा जो कमलके पत्तेपर भोजन करते हैं, वे सब इस पृथ्वीपर कर्मानुसार प्रेत होते हैं। जो अपने चाचा और मामा आदिकी सदाचारिणी कन्या तथा साध्वी स्त्रीको बेच देते हैं, वे भूतलपर प्रेत होते हैं।
प्रेतोंने पूछा- ब्राह्मणो! किस प्रकार और किस कर्मके आचरणसे मनुष्य प्रेत नहीं होते ?
ब्राह्मणोंने कहा- जिस बुद्धिमान् पुरुषने तीर्थोंके जलमें स्नान तथा शिवको नमस्कार किया है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जो एकादशी अथवा द्वादशीको उपवास करके विशेषतः भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करते हैं तथा जो वेदोंके अक्षर, सूक्त, स्तोत्र और मन्त्र आदिके द्वारा देवताओंके पूजनमें संलग्न रहते हैं, उन्हें भी प्रेत नहीं होना पड़ता। पुराणोंके धर्मयुक्त दिव्य वचन सुनने, पढ़ने और पढ़ानेसे तथा नाना प्रकारके व्रतोंका अनुष्ठान करने और रुद्राक्ष धारण करनेसे जो पवित्र हो चुके हैं एवं जो रुद्राक्षकी मालापर जप करते हैं, वे प्रेतयोनिको नहीं प्राप्त होते। जो आँवलेके फलके रससे स्नान करके प्रतिदिन आँवला खाया करते हैं तथा आँवलेके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुका पूजन भी करते हैं, वे कभी पिशाचयोनिमें नहीं जाते।
प्रेत बोले- महर्षियो ! संतोंके दर्शनसे पुण्य होता है - इस बातको पौराणिक विद्वान् जानते हैं। हमें भी आपका दर्शन हुआ है; इसलिये आपलोग हमारा कल्याण करें। धीर महात्माओ! जिस उपायसे हम सब लोगोंको प्रेतयोनिसे छुटकारा मिले, उसका उपदेश कीजिये। हम आपलोगोंकी शरणमें आये हैं।
ब्राह्मण बोले- हमारे वचनसे तुमलोग आँवलेका भक्षण कर सकते हो। वह तुम्हारे लिये कल्याणकारक होगा। उसके प्रभावसे तुम उत्तम लोकमें जानेके योग्य बन जाओगे।
महादेवजी कहते हैं - इस प्रकार ऋषियोंसे सुनकर पिशाच आँवलेके वृक्षपर चढ़ गये और उसका फल ले-लेकर उन्होंने बड़ी मौजके साथ खाया। तबदेवलोक से तुरंत ही एक पीले रंगका सुवर्णमय विमान उतरा, जो परम शोभायमान था। पिशाचोंने उसपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोककी यात्रा की बेटा अनेक व्रतों और यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी जो अत्यन्त दुर्लभ है, वही लोक उन्हें आँवलेका भक्षण करने मात्रसे मिल गया।
कार्तिकेयजीने पूछा- पिताजी! जब आँवलेके फलका भक्षण करने मात्रसे प्रेत पुण्यात्मा होकर स्वर्गको चले गये, तब मनुष्य आदि जितने प्राणी हैं, वे भी आंवला खानेसे क्यों नहीं तुरंत स्वर्गमें चले जाते ? महादेवजीने कहा- बेटा स्वर्गकी प्राप्ति तो उन्हें भी होती है; किन्तु] तुरंत ऐसा न होनेमें एक कारण है उनका ज्ञान लुप्त रहता है, वे अपने हित और अहितकी बात नहीं जानते। [इसलिये आँवलेके महत्त्वमे उनकी श्रद्धा नहीं होती।]
जिस घरकी मालकिन सहज ही काबू न आने वाली, पवित्रता और संयमसे रहित, गुरुजनोद्वारा निकाली हुई तथा दुराचारिणी होती है, वहाँ प्रेत रहा करते हैं। जो कुल और जातिसे नीच, बल और उत्साहसे रहित, बहरे, दुर्बल और दीन हैं, वे कर्मजनित पिशाच हैं। जो माता, पिता, गुरु और देवताओंकी निन्दा करते हैं. पाखण्डी और वाममार्गी हैं, जो गलेमें फाँसी लगाकर, पानीमें डूबकर तलवार या छुरा भोंककर अथवा जहर खाकर आत्मघात कर लेते हैं, वे प्रेत होनेके पश्चात् इस लोकमें चाण्डाल आदि योनियोंके भीतर जन्म ग्रहण करते हैं। जो माता-पिता आदिसे द्रोह करते, ध्यान और अध्ययनसे दूर रहते हैं, व्रत और देवपूजा नहीं करते, मन्त्र और स्नानसे होन रहकर गुरुपत्नी- गमनमें प्रवृत्त होते हैं तथा जो दुर्गतिमें पड़ी हुई चाण्डाल आदिको स्त्रियोंसे समागम करते हैं, ये भी प्रेत होते हैं। म्लेच्छों के देशमें जिनको मृत्यु होती है, जो म्लेच्छोंके समान आचरण करते और स्त्रीके धनसे जीविका चलाते हैं, जिनके द्वारा स्त्रियोंकी रक्षा नहीं होती, वे निस्सन्देह प्रेत होते हैं जो सुधासे पीड़ित थके-माँदै, गुणवान् और पुण्यात्मा अतिथिके रूपमें घरपर आये हुए ब्राह्मणको लौटा देते हैं-उसका यथावत् सत्कार नहीं करते, जो गोभक्षी म्लेच्छोंहाथ गौएँ बेच देते हैं, जो जीवनभर स्नान, सन्ध्या, वेद-पाठ, यज्ञानुष्ठान और अक्षरज्ञानसे दूर रहते हैं, जो लोग जूठे शकोरे आदि और शरीरके मल-मूत्र तीर्थ भूमिमें गिराते हैं वे निस्सन्देह प्रेत होते हैं जो स्त्र पतिका परित्याग करके दूसरे लोगोंके साथ रहती हैं, वे चिरकालतक प्रेतलोकमें निवास करनेके पश्चात् चाण्डालयोनिमें जन्म लेती हैं जो विषय और इन्द्रियोंसे मोहित होकर पतिको धोखा देकर स्वयं मिठाइयाँ उड़ाती हैं, वे पापाचारिणी स्त्रियं चिरकालतक इस पृथ्वीपर प्रेत होती हैं जो मनुष्य बलपूर्वक दूसरेकी वस्तुएँ लेकर उन्हें अपने अधिकारमें कर लेते हैं और अतिथियोंका अनादर करते हैं, वे प्रेत होकर नरकमें पड़े रहते हैं।
इसलिये जो आँवला खाकर उसके रससे स्नान करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होते हैं। अतः सब प्रकारसे प्रयत्न करके तुम आँवलेके कल्याणमय फलका सेवन करो। जो इस पवित्र और मंगलमय उपाख्यानका प्रतिदिन श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे शुद्ध होकर भगवान् श्रीविष्णु लोकमें सम्मानित होता है जो सदा ही लोगोंमें, विशेषतः वैष्णवोंमें आँवलेके माहात्म्यका श्रवण कराता है, वह भगवान् श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है-ऐसा पौराणिकोंका कथन है।
कार्तिकेयजीने कहा- प्रभो! रुद्राक्ष और आँवला इन दोनों फलोंकी पवित्रताको तो मैं जान गया। अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि कौन सा ऐसा वृक्ष है, जिसका पत्ता और फूल भी मोक्ष प्रदान करनेवाला है। महादेवजी बोले- बेटा! सब प्रकारके पत्तों और पुष्पोंकी अपेक्षा तुलसी ही श्रेष्ठ मानी गयी है। वह परम मंगलमयी, समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली, शुद्ध, श्रीविष्णुको अत्यन्त प्रिय तथा 'वैष्णवी' नाम धारण करनेवाली है। वह सम्पूर्ण लोकमें श्रेष्ठ, शुभ तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। भगवान् श्रीविष्णुने पूर्वकालमें सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये तुलसीका वृक्ष रोपा था। तुलसीके पत्ते और पुष्प सब धर्मोमेंप्रतिष्ठित हैं। जैसे भगवान् श्रीविष्णुको लक्ष्मी और मैं दोनों प्रिय हैं, उसी प्रकार यह तुलसीदेवी भी परम प्रिय है। हम तीनके सिवा कोई चौथा ऐसा नहीं जान पड़ता, जो भगवान्को इतना प्रिय हो। तुलसीदलके बिना दूसरे दूसरे फूलों, पत्तों तथा चन्दन आदिके पोंसे भगवान् श्रीविष्णुको उतना सन्तोष नहीं होता। जिसने तुलसीदलके द्वारा पूर्ण श्रद्धाके साथ प्रतिदिन भगवान् श्रीविष्णुका पूजन किया है, उसने दान, होम, यज्ञ और व्रत आदि सब पूर्ण कर लिये। तुलसीदलसे भगवान्की पूजा कर लेनेपर कान्ति, सुख, भोगसामग्री, यश, लक्ष्मी, श्रेष्ठ कुल, शील, पत्नी, पुत्र, कन्या, धन, राज्य, आरोग्य, ज्ञान, विज्ञान, वेद, वेदांग, शास्त्र, पुराण, तन्त्र और संहिता - सब कुछ मैं करतलगत समझता हूँ। जैसे पुण्यसलिला गंगा मुक्ति प्रदान करनेवाली हैं, उसी प्रकार यह तुलसी भी कल्याण करनेवाली है। स्कन्द ! यदि मंजरीयुक्त तुलसीपत्रोंके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी पूजा की जाय तो उसके पुण्यफलका वर्णन करना असम्भव है। जहाँ तुलसीका बन है, वहीं भगवान् श्रीकृष्णकी समीपता है तथा वहीं ब्रह्मा और लक्ष्मीजी भी सम्पूर्ण देवताओंके साथ विराजमान हैं। इसलिये अपने निकटवर्ती स्थानमें तुलसीदेवीको रोपकर उनकी पूजा करनी चाहिये। तुलसीके निकट जो स्तोत्र-मन्त्र आदिका जप किया जाता है, वह सब अनन्तगुना फल देनेवाला होता है। प्रेत, पिशाच, कुष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, भूत और दैत्य आदि सब तुलसीके वृक्षसे दूर भागते हैं। ब्रह्महत्या आदि पाप तथा पाप और खोटे विचारसे उत्पन्न होनेवाले रोग—ये सब तुलसीवृक्षके समीप नष्ट हो जाते हैं। जिसने श्रीभगवान्की पूजाके लिये पृथ्वीपर तुलसीका बगीचा लगा रखा है, उसने उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त सी यहाँका विधिवत् अनुष्ठान पूर्ण कर लिया है। जो श्रीभगवान्की प्रतिमाओं तथा शालग्रामशिलाओंपर चढ़े हुए तुलसीदलको प्रसादके रूपमें ग्रहण करता है, वह श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। जो श्रीहरिकी पूजा करके उन्हें निवेदन किये हुए तुलसीदलको अपने मस्तकपर धारण करता है, वह पापसे शुद्ध होकर स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। कलियुगमें तुलसीका पूजन, कीर्तन, ध्यान, रोपण और धारण करनेसे वह पापको जलाती और स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करती है। जो तुलसीके पूजन आदिका दूसरोंको उपदेश देता और स्वयं भी आचरण करता है, वह | भगवान् श्रीलक्ष्मीपतिके परम धामको प्राप्त होता है। * जो वस्तु भगवान् श्रीविष्णुको प्रिय जान पड़ती है, वह मुझे भी अत्यन्त प्रिय है। श्राद्ध और यज्ञ आदि कार्योंमें तुलसीका एक पत्ता भी महान् पुण्य प्रदान करनेवाला है। जिसने तुलसीकी सेवा की है, उसने गुरु, ब्राह्मण, देवता और तीर्थ -सबका भलीभाँति सेवन कर लिया। इसलिये षडानन ! तुम तुलसीका सेवन करो। जो शिखामें तुलसी स्थापित करके प्राणोंका परित्याग करता है, वह पापराशिसे मुक्त हो जाता है। राजसूय आदि यज्ञ, भाँति-भाँतिके व्रत तथा संयमके द्वारा धीर पुरुष जिस गतिको प्राप्त करता है, वही उसे तुलसीकी सेवासे मिल जाती है। तुलसीके एक पत्रसे श्रीहरिकी पूजा करके मनुष्य वैष्णवत्वको प्राप्त होता है। उसके लिये अन्यान्य शास्त्रोंके विस्तारकी क्या आवश्यकता जिसने तुलसीकी शाखा तथा कोमल पत्तियोंसे भगवान् श्रीविष्णुकी पूजा की है, वह कभी माताका दूध नहीं पीता - उसका पुनर्जन्म नहीं होता। कोमल तुलसीदलोंके द्वारा प्रतिदिन श्रीहरिकी पूजा करके मनुष्य अपनी सैकड़ों और हजारों पीढ़ियोंको पवित्र कर सकता है। तात ! ये मैंने तुमसे तुलसीके प्रधान प्रधान गुण बतलाये हैं। सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो बहुत अधिक समय लगानेपर भी नहीं हो सकता। यह उपाख्यानपुण्यराशिका संचय करनेवाला है। जो प्रतिदिन इसका श्रवण करता है, वह पूर्वजन्मके किये हुए पाप तथा जन्म-मृत्युके बन्धन से मुक्त हो जाता है। बेटा! इसअध्यायके पाठ करनेवाले पुरुषको कभी रोग नहीं सताते, अज्ञान उसके निकट नहीं आता। उसकी सदा विजय होती है।