सोमशर्माने पूछा- कल्याणी! मैं किस प्रकार सर्वज्ञ और गुणवान् पुत्र प्राप्त कर सकूँगा? सुमना बोली- स्वामिन् । आप महामुनि वसिष्ठजीके पास जाइये; वे धर्मके ज्ञाता हैं, उन्हींसे प्रार्थना कीजिये। उनसे आपको धर्मज्ञ एवं धर्मवत्सल पुत्रको प्राप्ति होगी।
सूतजी कहते हैं-पत्नीके यों कहनेपर द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा सब बातोंके जाननेवाले, तेजस्वी और तपस्वी महात्मा वसिष्ठजीके पास गये। वे गंगाजीके तटपर स्थित अपने पवित्र आश्रम में विराजमान थे। सोमशर्माने बड़ी भक्तिके साथ बारंबार उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। तब पापरहित महातेजस्वी ब्रह्मपुत्र वसिष्ठजी उनसे बोले-'महामते! इस पवित्र आसनपर सुखसे बैठो।' यह कहकर उन योगीश्वरने पूछा-'महाभाग ! तुम्हारे पुण्यकर्म और अग्निहोत्र आदि कार्य कुशलसे हो रहे हैं न? शरीरसे तो नीरोग रहते हो न ? धर्मका पालन तो सदा करते ही होगे द्विजश्रेष्ठ बताओ, मैं तुम्हारी कौन सी प्रिय कामना पूर्ण करूँ?' इस प्रकार संभाषण करके वसिष्ठजी चुप हो गये। तब सोमशमनि कहा- 'तात! किस पापके कारण मुझे दरिद्रताका कष्ट भोगना पड़ता है? मुझे पुत्रका सुख क्यों नहीं मिलता, इस बातका मेरे मनमें बड़ा सन्देह है। किस पापसे ऐसा हो रहा है, यह बताइये। महामते। मैं महान् पापसे मोहित एवं विवेकशून्य हो गया था, अपनी प्यारी पत्नीके समझाने और भेजनेसे आज आपके पास आया हूँ।
वसिष्ठजीने कहा- द्विजश्रेष्ठ मैं तुम्हारे सामने पुत्रके पवित्र लक्षणका वर्णन करता हूँ। जिसका मन पुण्यमें आसक्त हो, जो सदा सत्यधर्मके पालनमें तत्पर रहता हो और जो बुद्धिमान्, ज्ञानसम्पन्न, तपस्वी, बताओंमें श्रेष्ठ, सब कर्मोंमें कुशल, धीर, वेदाध्ययन परायण, सम्पूर्ण शास्त्रोंका वक्ता, देवता और ब्राह्मणोंका पुजारी, समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला, ध्यानी,त्यागी, प्रिय वचन बोलनेवाला, भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर, नित्य शान्त, जितेन्द्रिय सदा जप करनेवाला पितृभक्तिपरायण, सदा समस्त स्वजनोंपर स्नेह रखनेवाला, कुलका उद्धारक, विद्वान् तथा कुलको सन्तुष्ट करनेवाला हो ऐसे गुणोंसे युक्त उत्तम पुरुष ही सुख देनेवाला होता है। इसके सिवा दूसरे तरहके पुत्र सम्बन्ध जोड़कर केवल शोक और सन्ताप देते हैं। ऐसा पुत्र किस कामका। उसके होनेसे कोई लाभ नहीं है महाप्राज्ञ तुम पूर्वजन्ममें शुद्र थे तुम्हें धर्माधर्मका ज्ञान नहीं था, तुम बड़े लोभी थे। तुम्हारे एक स्त्री और बहुत से पुत्र थे। तुम दूसरोंके साथ सदा द्वेष रखते थे। तुमने सत्यका कभी श्रवण नहीं किया था। तीर्थोकी यात्रा नहीं की थी। महामते। तुमने एक ही काम किया था- खेती करना। बार-बार तुम उसीमें लगे रहते थे। द्विजश्रेष्ठ ! तुम पशुओंका पालन भी करते थे। पहले गाय पालते थे, फिर भैंस और घोड़ोंको भी पालने लगे। तुमने अन्नको बहुत महँगा कर रखा था। तुम इतने निर्दयी थे कि कभी किसीको किंचित् भी दान नहीं किया। देवताओंकी पूजा नहीं की। पर्व आनेपर ब्राह्मणोंको धन नहीं दिया तथा श्राद्धकाल उपस्थित होनेपर भी तुमने श्रद्धापूर्वक कुछ नहीं किया। तुम्हारी साध्वी स्त्री कहती थी 'आज श्राद्धका दिन है। यह श्वशुरके श्राद्धका समय है और यह सासके।' महामते। उसकी ये बातें सुनकर तुम घर छोड़ कहीं अन्यत्र भाग जाते थे। तुमने धर्मका मार्ग न कभी देखा था न सुना ही था लोभ ही तुम्हारी माता, लोभ ही पिता, लोभ ही भ्राता और लोभ ही स्वजन एवं बन्धु था तुमने सदाके लिये धर्मको तिलांजलि देकर एकमात्र लोभका ही आश्रय लिया था इसीलिये तुम दुःखी और गरीबी से पीड़ित हुए हो। तुम्हारे हृदयमें प्रतिदिन महातृष्णा बढ़ती जाती थी।
रात में सो जानेपर भी तुम सदा धनकी ही चिन्तामें लगेरहते थे। इस प्रकार क्रमशः हजार, लाख करोड़ अरब, खरब और दस खरब सोनेकी मुहरें तुम्हें प्राप्त हो गया; फिर भी तृष्णा तुम्हारा पिंड नहीं छोड़ती थी। वह सदा बढ़ती ही रहती थी। तुमने कभी दान, होम या धनका उपभोग भी नहीं किया। जितना कमाया, सब जमीनके अंदर गाड़ दिया। तुम्हारे पुत्रोंको भी उस गड़े हुए धनका पता न था तुम्हारे हृदयमें तृष्णाकी आग प्रज्वलित होती रहती थी उसीके दुःखसे तुम्हें कभी सुख नहीं मिलता था। तृष्णाकी आगसे संतप्त होकर तुम हाहाकार मचाते और अचेत रहते थे। विप्रवर! इस प्रकार मोहमें पड़े-पड़े ही तुम कालके अधीन हो गये। स्त्री और पुत्र पूछते ही रह गये; किन्तु तुमने उन्हें न तो उस धनका पता बताया और न उन्हें दिया ही तुम प्राण त्यागकर यमलोकमें चले गये। इस प्रकार मैंने तुम्हारे पूर्वजन्मका सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
विप्रवर! उसी कर्मके कारण तुम निर्धन और दरिद्र हो। जिसके ऊपर भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं, उसीके घरमें सदा सुशील, ज्ञानी और सत्यधर्मपरायण पुत्र होते हैं। संसारमें जिसको भक्तिमान् श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्ति हुई है, वह भगवान्का कृपापात्र है। भगवान् श्रीविष्णुको कृपाके बिना कोई भी स्त्री, पुत्र, उत्तम जन्म तथा उत्तम कुलको और श्रीविष्णुके परम धामको नहीं पा सकता।
सोमशर्माने पूछा- ज्ञान-विज्ञानके पण्डित विप्रवर वसिष्ठजी। यदि ऐसी बात है तो मुझे ब्राह्मण-वंशमें जन्म कैसे मिला? इसका सारा कारण बतलाइये। वसिष्ठजी बोले- ब्रह्मन् ! पूर्वजन्ममें तुम्हारे द्वारा एक धर्मसम्बन्धी कार्य भी बन गया था, उसे बताता हूँ; उन दिनों एक निष्पाप, सदाचारी, अच्छे विद्वान्, विष्णुभक्त और धर्मात्मा ब्राह्मण थे, जो तीर्थ यात्राके व्याजसे समूची पृथ्वीपर अकेले विचरण किया करते थे। एक दिन वे महामुनि घूमते-घामते तुम्हारे घरपर आये द्विजश्रेष्ठ ! उस 1 समय उन्होंने अपने ठहरनेके लिये तुमसे कोई स्थान माँगा तुम बड़ी प्रसन्नताके साथ बोले 'विद्वन्! अहा, आज मैं धन्य हो गया। आज मैंने पावन तीर्थकी यात्रा कर ली तथा इस समय मुझे।आपके दर्शनसे तीर्थसेवनका फल प्राप्त हो गया। यह कहकर तुमने उन्हें ठहरनेके लिये परम पवित्र गोशालाका स्थान दिखलाया और वहाँ ठहराकर उनके शरीरको सेवा करके दोनों पैरोंको भी दबाया। फिर उनके चरणोंको जलसे धोकर चरणोदकसे अपने मस्तकका अभिषेक किया। तत्पश्चात् तुरंत हो दूध, दही, घी और मट्ठेके साथ उन ब्राह्मण-देवताको अन्न अर्पण किया।
महामते ! इस प्रकार अपनी स्त्रीसहित सेवा करके तुमने ब्राह्मणको बहुत सन्तुष्ट कर लिया। दूसरे दिन प्रातःकाल अत्यन्त शुभकारक पुण्य दिवस आया। उस दिन शुद्ध आषाढ़ मास की शुक्ला द्वादशी थी, जो सब पापका नाश करनेवाली है; उसी तिथिको भगवान् श्रीविष्णु योगनिद्राका आश्रय लेते हैं। वह तिथि आनेपर बुद्धिमान् और विद्वान् पुरुष घरके सारे काम छोड़कर भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न हो गये। गीत और मंगलवाद्योंके द्वारा परम उत्सव मनाने लगे। समस्त ब्राह्मण वेदके सूक्तों और मंगलमय स्तोत्रोंद्वारा भगवान्की स्तुति करने लगे। ऐसे महोत्सवका अवसर पाकर वे श्रेष्ठ ब्राह्मण उस दिन वहीं ठहर गये। उन्होंने एकादशीका व्रत किया और उसका माहात्म्य भी पढ़कर सुनाया। तुमने अपनी स्त्री और पुत्रोंके साथ एकादशीसे होनेवाले उत्तम पुण्यका वर्णन सुना। उस महापुण्यमय प्रसंगको सुनकर स्त्री और पुत्रोंसे प्रेरित हो ब्राह्मणके संसर्गसे तुमने भी एकादशी व्रतका आचरण किया। स्त्री और पुत्रोंके साथ जाकर प्रात:काल स्नान किया और प्रसन्न मनसे गन्ध- पुष्प आदि पवित्र उपचारों तथा सब प्रकारके नैवेद्यद्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजा की। फिर नृत्य और गीत आदिके द्वारा उत्सव मनाते हुए रात्रिमें जागरण किया। तत्पश्चात् भगवान्को स्नान कराकर भक्तिके साथ बारंबार उनके चरणों में मस्तक झुकाया और महात्मा ब्राह्मणके दिये हुए भगवान्के चरणोदकका पान किया, जो परम शान्ति प्रदान करनेवाला है। इसके बाद ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तुमने उन्हें उत्तम दक्षिणा दी और पुत्र एवं पत्नी आदिके साथ व्रतका पारण किया। इस प्रकार भक्ति और सद्भावके द्वारा तुमने ब्राह्मणकोभलीभाँति प्रसन्न कर लिया। अतः ब्राह्मणके संग और भगवान् श्रीविष्णुके प्रसादसे सत्यधर्ममें स्थित होनेके कारण तुम्हें ब्राह्मणका शरीर प्राप्त हुआ है।
तुमने धनके लालच में आकर पुत्रका स्नेह त्याग दिया। उसी पापका यह फल है कि तुम पुत्रहीन हो गये। विप्रवर! उत्तम पुत्र, उत्तम कुल, धन, धान्य, पृथ्वी, स्त्री, उत्तम जन्म, श्रेष्ठ मृत्यु, सुन्दर भोग, सुख, राज्य, स्वर्ग तथा मोक्ष आदि जो-जो दुर्लभ वस्तुएँ हैं, वे सभी परमात्मा भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे प्राप्त होती हैं। इसलिये अबसे भगवान् नारायणकी आराधना करके तुमउस उत्कृष्ट पदको प्राप्त कर सकोगे, जो श्रीविष्णुका परमपद कहलाता है। महाभाग ! यह जानकर तुम श्रीनारायणके भजनमें लग जाओ।
सूतजी कहते हैं- वसिष्ठजीके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर वे महानुभाव ब्राह्मण हर्षमें भर गये और भक्तिपूर्वक महर्षि वसिष्ठके चरणोंमें प्रणाम करके उनकी आज्ञा ले अपने घरको पधारे। वहाँ पहुँचकर अपनी स्त्री सुमनासे प्रसन्नतापूर्वक बोले-'प्रिये! तुम्हारी कृपासे ब्रह्मर्षि वसिष्ठजीके द्वारा ही मुझे अपने पूर्वजन्मकी सारी चेष्टाएँ ज्ञात हो गयीं।