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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 54 - Khand 2, Adhyaya 54

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वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश

सोमशर्माने पूछा- कल्याणी! मैं किस प्रकार सर्वज्ञ और गुणवान् पुत्र प्राप्त कर सकूँगा? सुमना बोली- स्वामिन् । आप महामुनि वसिष्ठजीके पास जाइये; वे धर्मके ज्ञाता हैं, उन्हींसे प्रार्थना कीजिये। उनसे आपको धर्मज्ञ एवं धर्मवत्सल पुत्रको प्राप्ति होगी।

सूतजी कहते हैं-पत्नीके यों कहनेपर द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा सब बातोंके जाननेवाले, तेजस्वी और तपस्वी महात्मा वसिष्ठजीके पास गये। वे गंगाजीके तटपर स्थित अपने पवित्र आश्रम में विराजमान थे। सोमशर्माने बड़ी भक्तिके साथ बारंबार उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। तब पापरहित महातेजस्वी ब्रह्मपुत्र वसिष्ठजी उनसे बोले-'महामते! इस पवित्र आसनपर सुखसे बैठो।' यह कहकर उन योगीश्वरने पूछा-'महाभाग ! तुम्हारे पुण्यकर्म और अग्निहोत्र आदि कार्य कुशलसे हो रहे हैं न? शरीरसे तो नीरोग रहते हो न ? धर्मका पालन तो सदा करते ही होगे द्विजश्रेष्ठ बताओ, मैं तुम्हारी कौन सी प्रिय कामना पूर्ण करूँ?' इस प्रकार संभाषण करके वसिष्ठजी चुप हो गये। तब सोमशमनि कहा- 'तात! किस पापके कारण मुझे दरिद्रताका कष्ट भोगना पड़ता है? मुझे पुत्रका सुख क्यों नहीं मिलता, इस बातका मेरे मनमें बड़ा सन्देह है। किस पापसे ऐसा हो रहा है, यह बताइये। महामते। मैं महान् पापसे मोहित एवं विवेकशून्य हो गया था, अपनी प्यारी पत्नीके समझाने और भेजनेसे आज आपके पास आया हूँ।

वसिष्ठजीने कहा- द्विजश्रेष्ठ मैं तुम्हारे सामने पुत्रके पवित्र लक्षणका वर्णन करता हूँ। जिसका मन पुण्यमें आसक्त हो, जो सदा सत्यधर्मके पालनमें तत्पर रहता हो और जो बुद्धिमान्, ज्ञानसम्पन्न, तपस्वी, बताओंमें श्रेष्ठ, सब कर्मोंमें कुशल, धीर, वेदाध्ययन परायण, सम्पूर्ण शास्त्रोंका वक्ता, देवता और ब्राह्मणोंका पुजारी, समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला, ध्यानी,त्यागी, प्रिय वचन बोलनेवाला, भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर, नित्य शान्त, जितेन्द्रिय सदा जप करनेवाला पितृभक्तिपरायण, सदा समस्त स्वजनोंपर स्नेह रखनेवाला, कुलका उद्धारक, विद्वान् तथा कुलको सन्तुष्ट करनेवाला हो ऐसे गुणोंसे युक्त उत्तम पुरुष ही सुख देनेवाला होता है। इसके सिवा दूसरे तरहके पुत्र सम्बन्ध जोड़कर केवल शोक और सन्ताप देते हैं। ऐसा पुत्र किस कामका। उसके होनेसे कोई लाभ नहीं है महाप्राज्ञ तुम पूर्वजन्ममें शुद्र थे तुम्हें धर्माधर्मका ज्ञान नहीं था, तुम बड़े लोभी थे। तुम्हारे एक स्त्री और बहुत से पुत्र थे। तुम दूसरोंके साथ सदा द्वेष रखते थे। तुमने सत्यका कभी श्रवण नहीं किया था। तीर्थोकी यात्रा नहीं की थी। महामते। तुमने एक ही काम किया था- खेती करना। बार-बार तुम उसीमें लगे रहते थे। द्विजश्रेष्ठ ! तुम पशुओंका पालन भी करते थे। पहले गाय पालते थे, फिर भैंस और घोड़ोंको भी पालने लगे। तुमने अन्नको बहुत महँगा कर रखा था। तुम इतने निर्दयी थे कि कभी किसीको किंचित् भी दान नहीं किया। देवताओंकी पूजा नहीं की। पर्व आनेपर ब्राह्मणोंको धन नहीं दिया तथा श्राद्धकाल उपस्थित होनेपर भी तुमने श्रद्धापूर्वक कुछ नहीं किया। तुम्हारी साध्वी स्त्री कहती थी 'आज श्राद्धका दिन है। यह श्वशुरके श्राद्धका समय है और यह सासके।' महामते। उसकी ये बातें सुनकर तुम घर छोड़ कहीं अन्यत्र भाग जाते थे। तुमने धर्मका मार्ग न कभी देखा था न सुना ही था लोभ ही तुम्हारी माता, लोभ ही पिता, लोभ ही भ्राता और लोभ ही स्वजन एवं बन्धु था तुमने सदाके लिये धर्मको तिलांजलि देकर एकमात्र लोभका ही आश्रय लिया था इसीलिये तुम दुःखी और गरीबी से पीड़ित हुए हो। तुम्हारे हृदयमें प्रतिदिन महातृष्णा बढ़ती जाती थी।

रात में सो जानेपर भी तुम सदा धनकी ही चिन्तामें लगेरहते थे। इस प्रकार क्रमशः हजार, लाख करोड़ अरब, खरब और दस खरब सोनेकी मुहरें तुम्हें प्राप्त हो गया; फिर भी तृष्णा तुम्हारा पिंड नहीं छोड़ती थी। वह सदा बढ़ती ही रहती थी। तुमने कभी दान, होम या धनका उपभोग भी नहीं किया। जितना कमाया, सब जमीनके अंदर गाड़ दिया। तुम्हारे पुत्रोंको भी उस गड़े हुए धनका पता न था तुम्हारे हृदयमें तृष्णाकी आग प्रज्वलित होती रहती थी उसीके दुःखसे तुम्हें कभी सुख नहीं मिलता था। तृष्णाकी आगसे संतप्त होकर तुम हाहाकार मचाते और अचेत रहते थे। विप्रवर! इस प्रकार मोहमें पड़े-पड़े ही तुम कालके अधीन हो गये। स्त्री और पुत्र पूछते ही रह गये; किन्तु तुमने उन्हें न तो उस धनका पता बताया और न उन्हें दिया ही तुम प्राण त्यागकर यमलोकमें चले गये। इस प्रकार मैंने तुम्हारे पूर्वजन्मका सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

विप्रवर! उसी कर्मके कारण तुम निर्धन और दरिद्र हो। जिसके ऊपर भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं, उसीके घरमें सदा सुशील, ज्ञानी और सत्यधर्मपरायण पुत्र होते हैं। संसारमें जिसको भक्तिमान् श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्ति हुई है, वह भगवान्का कृपापात्र है। भगवान् श्रीविष्णुको कृपाके बिना कोई भी स्त्री, पुत्र, उत्तम जन्म तथा उत्तम कुलको और श्रीविष्णुके परम धामको नहीं पा सकता।

सोमशर्माने पूछा- ज्ञान-विज्ञानके पण्डित विप्रवर वसिष्ठजी। यदि ऐसी बात है तो मुझे ब्राह्मण-वंशमें जन्म कैसे मिला? इसका सारा कारण बतलाइये। वसिष्ठजी बोले- ब्रह्मन् ! पूर्वजन्ममें तुम्हारे द्वारा एक धर्मसम्बन्धी कार्य भी बन गया था, उसे बताता हूँ; उन दिनों एक निष्पाप, सदाचारी, अच्छे विद्वान्, विष्णुभक्त और धर्मात्मा ब्राह्मण थे, जो तीर्थ यात्राके व्याजसे समूची पृथ्वीपर अकेले विचरण किया करते थे। एक दिन वे महामुनि घूमते-घामते तुम्हारे घरपर आये द्विजश्रेष्ठ ! उस 1 समय उन्होंने अपने ठहरनेके लिये तुमसे कोई स्थान माँगा तुम बड़ी प्रसन्नताके साथ बोले 'विद्वन्! अहा, आज मैं धन्य हो गया। आज मैंने पावन तीर्थकी यात्रा कर ली तथा इस समय मुझे।आपके दर्शनसे तीर्थसेवनका फल प्राप्त हो गया। यह कहकर तुमने उन्हें ठहरनेके लिये परम पवित्र गोशालाका स्थान दिखलाया और वहाँ ठहराकर उनके शरीरको सेवा करके दोनों पैरोंको भी दबाया। फिर उनके चरणोंको जलसे धोकर चरणोदकसे अपने मस्तकका अभिषेक किया। तत्पश्चात् तुरंत हो दूध, दही, घी और मट्ठेके साथ उन ब्राह्मण-देवताको अन्न अर्पण किया।

महामते ! इस प्रकार अपनी स्त्रीसहित सेवा करके तुमने ब्राह्मणको बहुत सन्तुष्ट कर लिया। दूसरे दिन प्रातःकाल अत्यन्त शुभकारक पुण्य दिवस आया। उस दिन शुद्ध आषाढ़ मास की शुक्ला द्वादशी थी, जो सब पापका नाश करनेवाली है; उसी तिथिको भगवान् श्रीविष्णु योगनिद्राका आश्रय लेते हैं। वह तिथि आनेपर बुद्धिमान् और विद्वान् पुरुष घरके सारे काम छोड़कर भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न हो गये। गीत और मंगलवाद्योंके द्वारा परम उत्सव मनाने लगे। समस्त ब्राह्मण वेदके सूक्तों और मंगलमय स्तोत्रोंद्वारा भगवान्की स्तुति करने लगे। ऐसे महोत्सवका अवसर पाकर वे श्रेष्ठ ब्राह्मण उस दिन वहीं ठहर गये। उन्होंने एकादशीका व्रत किया और उसका माहात्म्य भी पढ़कर सुनाया। तुमने अपनी स्त्री और पुत्रोंके साथ एकादशीसे होनेवाले उत्तम पुण्यका वर्णन सुना। उस महापुण्यमय प्रसंगको सुनकर स्त्री और पुत्रोंसे प्रेरित हो ब्राह्मणके संसर्गसे तुमने भी एकादशी व्रतका आचरण किया। स्त्री और पुत्रोंके साथ जाकर प्रात:काल स्नान किया और प्रसन्न मनसे गन्ध- पुष्प आदि पवित्र उपचारों तथा सब प्रकारके नैवेद्यद्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजा की। फिर नृत्य और गीत आदिके द्वारा उत्सव मनाते हुए रात्रिमें जागरण किया। तत्पश्चात् भगवान्‌को स्नान कराकर भक्तिके साथ बारंबार उनके चरणों में मस्तक झुकाया और महात्मा ब्राह्मणके दिये हुए भगवान्के चरणोदकका पान किया, जो परम शान्ति प्रदान करनेवाला है। इसके बाद ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तुमने उन्हें उत्तम दक्षिणा दी और पुत्र एवं पत्नी आदिके साथ व्रतका पारण किया। इस प्रकार भक्ति और सद्भावके द्वारा तुमने ब्राह्मणकोभलीभाँति प्रसन्न कर लिया। अतः ब्राह्मणके संग और भगवान् श्रीविष्णुके प्रसादसे सत्यधर्ममें स्थित होनेके कारण तुम्हें ब्राह्मणका शरीर प्राप्त हुआ है।

तुमने धनके लालच में आकर पुत्रका स्नेह त्याग दिया। उसी पापका यह फल है कि तुम पुत्रहीन हो गये। विप्रवर! उत्तम पुत्र, उत्तम कुल, धन, धान्य, पृथ्वी, स्त्री, उत्तम जन्म, श्रेष्ठ मृत्यु, सुन्दर भोग, सुख, राज्य, स्वर्ग तथा मोक्ष आदि जो-जो दुर्लभ वस्तुएँ हैं, वे सभी परमात्मा भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे प्राप्त होती हैं। इसलिये अबसे भगवान् नारायणकी आराधना करके तुमउस उत्कृष्ट पदको प्राप्त कर सकोगे, जो श्रीविष्णुका परमपद कहलाता है। महाभाग ! यह जानकर तुम श्रीनारायणके भजनमें लग जाओ।

सूतजी कहते हैं- वसिष्ठजीके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर वे महानुभाव ब्राह्मण हर्षमें भर गये और भक्तिपूर्वक महर्षि वसिष्ठके चरणोंमें प्रणाम करके उनकी आज्ञा ले अपने घरको पधारे। वहाँ पहुँचकर अपनी स्त्री सुमनासे प्रसन्नतापूर्वक बोले-'प्रिये! तुम्हारी कृपासे ब्रह्मर्षि वसिष्ठजीके द्वारा ही मुझे अपने पूर्वजन्मकी सारी चेष्टाएँ ज्ञात हो गयीं।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य