व्यासजी कहते हैं— द्विजवरो! इस प्रकार आयुके दो भाग व्यतीत होनेतक गृहस्थ आश्रममें रहकर पत्नी तथा अग्निसहित वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करे अथवा पत्नीका भार पुत्रोंपर रखकर या पुत्रके पुत्रको देख लेनेके पश्चात् जरा-जीर्ण कलेवरको लेकर वनके लिये प्रस्थान करे। उत्तरायणका श्रेष्ठ काल आनेपर शुक्लपक्षकेपूर्वाह्न भागमें वनमें जाय और वहाँ नियमोंका पालन करते हुए एकाग्रचित्त होकर तपस्या करे। प्रतिदिन फल मूलका पवित्र आहार ग्रहण करे। जैसा अपना आहार हो, उसीसे देवताओं और पितरोंका पूजन किया करे। नित्यप्रति अतिथि सत्कार करता रहे। स्नान करके देवताओंकी पूजा करे। घरसे लाकर एकाग्रचित्त हो आठग्रास भोजन करे। सदा जटा धारण किये रहे। नख और रोएँ न कटाये। सर्वथा स्वाध्याय किया करे। अन्य समयमें मौन रहे। अग्निहोत्र करता रहे तथा अपने आप उत्पन्न हुए भाँति-भाँतिके पदार्थों और शाक या मूल फलके द्वारा पंचमहायज्ञोंका अनुष्ठान करे। सदा फटा पुराना वस्त्र पहने तीनों समय स्नान करे। पवित्रतासे रहे। प्रतिग्रह न लेकर सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करता रहे।
द्विजको चाहिये कि वह नियमपूर्वक दर्श एवं पौर्णमास नामक यज्ञोंका अनुष्ठान करे। ऋत्विष्टि, आग्रयण तथा चातुर्मास्य व्रतोंका भी आचरण करे। क्रमशः उत्तरायण और दक्षिणायन यज्ञ करे। वसन्त और शरद् ऋतुओं में उत्पन्न हुए पवित्र पदार्थोंको स्वयं लाकर उनके द्वारा पुरोडाश और चरु बनाये और विधिपूर्वक पृथक्-पृथक् देवताओंको अर्पण करे। परम पवित्र जंगली अन्नद्वारा निर्मित हविष्यका देवताओंके निमित्त हवन करके स्वयं भी यज्ञशेष अन्नका भोजन करे। मद्य-मांसका त्याग करे। जमीनपर उगा हुआ तृण, घास तथा बहेड़ेके फल न खाय हलसे जोते हुए खेतका अन्न किसीके देनेपर भी न खाय, कष्टमें पढ़नेपर भी ग्रामीण फूलों और फलोंका उपभोग न करे। श्रौत-विधिके अनुसार सदा अग्निदेवकी उपासना अग्निहोत्र करता रहे। किसी भी प्राणीसे द्रोह न करे। निर्द्वन्द्व और निर्भय रहे। रातमें कुछ भी न खाय, उस समय केवल परमात्माके ध्यानमें संलग्न रहे। इन्द्रियोंको वशमें करके क्रोधको काबूमें रखे तत्त्वज्ञानका चिन्तन करे। सदा ब्रह्मचर्य का पालन करता रहे। अपनी पत्नीसे भी संसर्ग न करे। जो पत्नीके साथ वनमें जाकर कामनापूर्वक मैथुन करता है, उसका वानप्रस्थ-व्रत नष्ट हो जाता है तथा वह द्विज प्रायश्चित्तका भागी होता है वहाँ उससे जो बच्चा पैदा होता है, वह द्विजातियोंके स्पर्श करनेयोग्य नहीं रहता। उस बालकका वेदाध्ययनमें अधिकार नहीं होता। यही बात उसके वंशमें होनेवाले अन्य लोगोंके लिये भी लागू होती है। वानप्रस्थीको सदा भूमिपर शयन करना और गायत्रीके जपमें तत्पर रहना चाहिये। वहसब भूतोंकी रक्षा तत्पर रहे तथा सत्पुरुषीका सदा अन्नका भाग देता रहे। उसे निन्दा, मिथ्या अपवाद, अधिक निद्रा और आलस्यका परित्याग करना चाहिये। वह एकमात्र अग्निका सेवन करे। कोई घर बनाकर न रहे भूमिपर जल छिड़ककर बैठे जितेन्द्रिय होकर मृगोंके साथ विचरे और उन्होंके साथ निवास करे। एकाग्रचित होकर पत्थर या कंकड़पर सो रहे वानप्रस्थ. आश्रमके नियममें स्थित होकर केवल फूल, फल और मूलके द्वारा सदा जीवन-निर्वाह करे। वह भी तोड़कर नहीं; जो स्वभावतः पककर अपने-आप झड़ गये हो, उन्हींका उपभोग करे पृथ्वीपर लोटता रहे अथवा पंजोंके बलपर दिनभर खड़ा रहे। कभी धैर्यका त्याग न करे।
गर्मी में पंचाग्निका सेवन करे। वर्षकि समय खुले मैदानमें रहे। हेमन्त ऋतु भीगा वस्त्र पहने रहे। इस प्रकार क्रमशः अपनी तपस्याको बढ़ाता रहे। तीनों समय स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। एक पैरसे खड़ा रहे अथवा सदा सूर्यकी किरणोंका पान करे। पंचाग्निके धूम, गर्मी अथवा सोमरसका पान करे। शुक्लपक्षमें जल और कृष्णपक्षमें गोबरका पान करे अथवा सूखे पत्ते चबाकर रहे अथवा और किसी क्लेशमय वृत्तिसे सदा जीवन निर्वाह करे योगाभ्यासमें तत्पर रहे। प्रतिदिन रुद्राष्टाध्यायीका पाठ किया करे। अथर्ववेदका अध्ययन और वेदान्तका अभ्यास करे। आलस्य छोड़कर सदा यम-नियमोंका सेवन करें। काला मृगचर्म और उत्तरीय वस्त्र धारण करे। श्वेत यज्ञोपवीत पहने। अग्नियों को अपने आत्मामें आरोपित करके ध्यानपरायण हो जाय अथवा अग्नि और गृहसे रहित हो मुनिभावसे रहते हुए मोक्षपरायण हो जाय। यात्राके समय तपस्वी ब्राह्मणोंसे ही भिक्षा ग्रहण करे अथवा वनमें निवास करनेवाले अन्य गृहस्थ द्विजोंसे भी वह भिक्षा ले सकता है। यह भी सम्भव न हो तो वह गाँवसे ही आठ ग्रास लाकर भोजन करे और सदा बनमें ही रहे। दोनेमें, हाथमें अथवा टुकड़ेमें लेकर खाय । आत्मज्ञानके लिये नाना प्रकारके उपनिषदोंका अभ्यासकरे। किसी विशेष मन्त्र, गायत्री मन्त्र तथा रुद्राष्टाध्यायीका जप करता रहे अथवा वह महाप्रस्थान आमरण यात्राआरम्भ करके निरन्तर उपवास करे अथवा ब्रह्मार्पण विधिमें स्थित होकर और कोई ऐसा ही कार्य करे।