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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 251 - Khand 5, Adhyaya 251

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वामन अवतारके वैभवका वर्णन

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती प्रह्लादके विरोचन नामक पुत्र हुआ। विरोचनसे महाबाहु बलिका जन्म हुआ। बलि धर्मज्ञों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरिके प्रियतम भक्त थे। वे महान् बलवान् थे। उन्होंने इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्गणको जीतकर तीनों लोकोंको अपने अधीन कर लिया था। इस प्रकार वे समस्त त्रिलोकीका राज्य करते थे। उनके शासनकालमें पृथ्वी बिना जोते ही पके धान पैदा करती थी और खेतीमें बहुत अधिक अन्नको उपज होती थी। सभी गौएँ पूरा दूध देतीं और सम्पूर्ण वृक्ष फल-फूलोंसे लदे रहते थे सब मनुष्य पापोंसे दूर हो अपने-अपने धर्ममें लगे रहते थे। किसीको किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं थी। सब लोग सदा भगवान् हृषीकेशकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार दैत्यराज बलि धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने लगे। इन्द्र आदि देवता दासभावसे उनकी सेवामें खड़े रहते थे। बलिको अपने बलका अभिमान था। वे तीनों लोकोंका ऐश्वर्य भोग रहे थे।

इधर महर्षि कश्यप अपने पुत्र इन्द्रको राज्यसे वंचित देख उनके हितकी इच्छासे श्रीहरिको प्रसन्न करनेके लिये पत्नीसहित तपस्या करने लगे। धर्मात्मा कश्यपने अपनी भार्या अदितिके साथ पयोव्रतका अनुष्ठान किया और उसमें देवताओंके स्वामी भगवान् जनार्दनका पूजन किया। उसके बाद भी एक सहस्र वर्षोंतक वे श्रीहरिकी आराधनामें संलग्न रहे। तब सनातन देवता भगवान् विष्णु भगवती लक्ष्मीके साथ उनके सामने प्रकट हुए। जगदीश्वर श्रीहरिको सामने देख द्विजश्रेष्ठ कश्यपका हृदय आनन्दमें मग्न हो गया। उन्होंने अदिति के साथ प्रणाम करके भगवान्‌की स्तुति की।तब भगवान् बोले- विप्रवर! तुम्हारा कल्याण हो। तुमने भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की है। इससे मैं सन्तुष्ट हूँ। तुम कोई वर माँगो। मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण बहुत करूँगा।

कश्यपजीने कहा- देवेश्वर ! दैत्यराज बलिने तीनों लोकोंको बलपूर्वक जीत लिया है। आप मेरे पुत्र होकर देवताओंका हित कीजिये। जिस किसी उपायसे भी मायापूर्वक बलिको परास्त करके मेरे पुत्र इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य प्रदान कीजिये।

कश्यपजीके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णुने 'तथास्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की और देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे वहीं अन्तर्धान हो गये। इसी समय महात्मा कश्यपके संयोगसे देवी अदितिके गर्भमें भूतभावन भगवान्‌का शुभागमन हुआ। तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतनेके बाद अदितिने वामनरूपधारी भगवान् विष्णुको जन्म दिया। वे ब्रह्मचारीका वेष धारण किये हुए थे। सम्पूर्ण वेदांगोंमें उन्हींका तत्त्व दृष्टिगोचर होता है। वे मेखला, मृगचर्म और दण्ड आदि चिह्नोंसे उपलक्षित हो रहे थे इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उनका दर्शन करके महर्षियोंके साथ उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान्ने प्रसन्न होकर उन श्रेष्ठ देवताओंसे कहा 'देवगण! बताइये, इस समय मुझे क्या करना है?'

देवता बोले- मधुसूदन इस समय राजा बलिका यज्ञ हो रहा है। अतः ऐसे अवसरपर वह कुछ देनेसे इनकार नहीं कर सकता। प्रभो! आप दैत्यराजसे तीनों लोक माँगकर इन्द्रको देनेकी कृपा करें।

देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवान् वामन यज्ञ शालामें महर्षियोंके साथ बैठे हुए राजा बलिके पास आये। ब्रह्मचारीको आया देख दैत्यराज सहसा उठकरखड़े हो गये और मुसकराते हुए बोले-'अभ्यागत सदा विष्णुका ही स्वरूप है। अतः आप साक्षात् विष्णु ही यहाँ पधारे हैं।' ऐसा कहकर उन्होंने ब्रह्मचारीको ऐ फूलोंके आसनपर बिठाकर उनका विधिपूर्वक पूजन किया और चरणोंमें गिरकर प्रणाम करके गद्गद वाणी में कहा- 'विप्रवर! आपका पूजन करके आज मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। मेरा जीवन सफल है। कहिये मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? द्विजश्रेष्ठ ! आप जिस वस्तुको पानेके उद्देश्यसे मेरे पास पधारे हैं, उसे शीघ्र बताइये। मैं अवश्य दूंगा।'

वामनजी बोले- महाराज! मुझे तीन पग भूमि दे दीजिये क्योंकि भूमिदान सब दानोंमें श्रेष्ठ है जो भूमिका दान करता और जो उस दानको ग्रहण करता है, वे दोनों ही पुण्यात्मा हैं। वे दोनों अवश्य ही स्वर्गगामी होते हैं। अतः आप मुझे तीन पग भूमिका दान कीजिये।

यह सुनकर राजा बलिने प्रसन्नतापूर्वक कहा 'बहुत अच्छा। ' तत्पश्चात् उन्होंने विधिपूर्वक भूमिदानका विचार किया। दैत्यराजको ऐसा करते देख उनके पुरोहित शुक्राचार्यजी बोले- 'राजन्! ये साक्षात् परमेश्वर विष्णु हैं। देवताओंकी प्रार्थनासे यहाँ पधारे हैं और तुम्हें चकमेमें डालकर सारी पृथ्वी हड़प लेना चाहते हैं। अतः इन महात्माको पृथ्वीका दान न देना मेरे कहनेसे कोई और ही वस्तु इन्हें दान करो, भूमि न दो।'

यह सुनकर राजा बलि हँस पड़े और धैर्यपूर्वक गुरुसे बोले-'ब्रह्मन् ! मैंने सारा पुण्य भगवान् वासुदेवकी प्रसन्नताके ही लिये किया है। अतः यदि स्वयं विष्णु ही यहाँ पधारे हैं, तब तो आज मैं धन्य हो गया। उनके लिये तो आज मुझे यह परम सुखमय जीवनतक दे डालने में संकोच न होगा। अतः इन ब्राह्मणदेवताको आज मैं तीनों लोकोंका भी निश्चय ही दान कर दूंगा।' ऐसा कहकर राजा बलिने बड़ी भक्तिके साथ ब्राह्मणके दोनों चरण पखारे और हाथमें जल लेकर विधिपूर्वक भूमिदानका संकल्प किया। दान दे, नमस्कार करके दक्षिणारूपसे धन दिया और प्रसन्न होकर कहा 'ब्रह्मन् ! आज आपको भूमिदान देकर मैं अपनेको धन्य और कृतकृत्य मानता हूँ। आप अपने इच्छानुसार इस पृथ्वीको ग्रहण कीजिये।'तब भगवान् विष्णुने दैत्यराज बलिसे कहा 'राजन्! मैं तुम्हारे सामने ही अब पृथ्वीको नापता हूँ।' ऐसा कहकर परमेश्वरने वामन ब्रह्मचारीका रूप त्याग दिया और विराट् रूप धारण करके इस पृथ्वीको ले लिया। समुद्र, पर्वत, द्वीप, देवता, असुर और मनुष्यसहित इस पृथ्वीका विस्तार पचास कोटि योजन है। किन्तु उसे भगवान् मधुसूदनने एक ही पैरसे नाप लिया। फिर दैत्यराजसे कहा- 'राजन्! अब क्या करूँ ?' भगवान्‌का वह विराट् रूप महान् तेजस्वी था और महात्मा ऋषियों तथा देवताओंके हितके लिये प्रकट हुआ था। मैं तथा ब्रह्माजी भी उसे नहीं देख सकते थे भगवान्‌का वह पग सारी पृथ्वीको लांघकर सौ योजनतक आगे बढ़ गया। उस समय सनातन भगवान्‌ने दैत्यराज बलिको दिव्यचक्षु प्रदान किया और उन्हें अपने स्वरूपका दर्शन कराया भगवानके विश्वरूपका दर्शन करके दैत्यराज बलिके हर्षकी सीमा न रही उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। उन्होंने भगवान्‌को नमस्कार करके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति की और प्रसन्नचित्तसे गद्गद वाणीमें कहा- 'परमेश्वर ! आपका दर्शन करके मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया। आप इन तीनों ही लोकोंको ग्रहण कीजिये।'

तब सर्वेश्वर विष्णुने अपने द्वितीय पगको ऊपरकी ओर फैलाया। वह नक्षत्र, ग्रह और देवलोकको लाँघता हुआ ब्रह्मलोकके अन्ततक पहुँच गया; किन्तु फिर भी पूरा न पड़ा उस समय पितामह ब्रह्माने देवाधिदेव भगवानके चक्र कमलादि चिह्नोंसे अंकित चरणको देख हर्षयुक्त चित्तसे अपनेको धन्य माना और अपने कमण्डलुके जलसे भक्तिपूर्वक उस चरणको धोया। श्रीविष्णुके प्रभावसे वह चरणोदक अक्षय हो गया। वह तीर्थभूत निर्मल जल मेरुपर्वतके शिखरपर गिरा और जगत्को पवित्र करनेके लिये चारों दिशाओंमें बह चला। वे चारों धाराएँ क्रमशः सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्राके नामसे प्रसिद्ध हुई। मेरुके दक्षिण ओर जो धारा चली, उसका नाम अलकनन्दा हुआ। वह तीन धाराओं में विभक्त होनेके कारण त्रिपथगा और त्रिस्रोता कहलायी। वह लोकपावनी गंगा तीन नामोंसे प्रसिद्ध हुई। ऊपर-स्वर्गलोकमें मन्दाकिनी, नीचे-पाताललोकमेंभोगवती तथा मध्य अर्थात् मर्त्यलोकमें वेगवती गंगा कहलाने लगी। ये गंगा मनुष्योंको पवित्र करनेके लिये प्रकट हुई हैं। इनका स्वरूप कल्याणमय है। पार्वती ! जब गंगा मेरुपर्वतसे नीचे गिर रही थीं, उस समय मैंने अपनेको पवित्र करनेके लिये उन्हें मस्तकपर धारण कर लिया। जो श्रीविष्णुचरणोंसे निकली हुई गंगाका पावन जल अपने मस्तकपर धारण करेगा अथवा उनके जलका पान करेगा, वह निःसन्देह सम्पूर्ण जगत्का पूज्य होगा।

तदनन्तर राजा भगीरथ और महातपस्वी गौतमने तपस्याके द्वारा मेरी पूजा करके गंगाजीके लिये मुझसे याचना की। तब मैंने सम्पूर्ण विश्वका हित करनेके लिये कल्याणमयी वैष्णवी गंगाका जल उन दोनों महानुभावोंके लिये प्रसन्नतापूर्वक दान किया। महर्षि गौतम जिन गंगाको ले गये, वे गौतमी (गोदावरी) कही गयी हैं और राजा भगीरथने जिनको भूमिपर उतारा, वे भागीरथीगंगाके नामसे प्रसिद्ध हुईं। यह मैंने प्रसंगवश तुमसे गंगाजीके प्रादुर्भावकी उत्तम कथा सुनायी है। तदनन्तर भक्तवत्सल भगवान् नारायणने दैत्यराज बलिको रसातलका उत्तम लोक प्रदान किया और उन्हें सब दानवों, नागों तथा जल-जन्तुओंका कल्पभरके लिये राजा बना दिया। इस प्रकार कश्यपनन्दन वामनका वेष धारण करके अविनाशी भगवान् विष्णुने बलिसे तीनों लोक लेकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रको दे दिया। तब देवता, गन्धर्व तथा परम तेजस्वी ऋषियोंने दिव्य स्तोत्रोंसे भगवान्का स्तवन और पूजन किया। तत्पश्चात् अपना विराट् रूप समेटकर भगवान् अच्युत वहीं अन्तर्धान हो गये। इस तरह प्रभावशाली श्रीविष्णुने इन्द्रकी रक्षा की और इन्द्रने उनकी कृपासे तीनों लोकोंका महान् ऐश्वर्य प्राप्त किया। शुभे ! यह मैंने तुमसे वामन अवतारके वैभवका वर्णन किया है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार