श्रीमहादेवजी कहते हैं— महादेवि! तदनन्तर उस तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ परम साध्वी गिरिकन्या वार्त्रघ्नी के साथ इन्द्रका समागम हुआ था। जो मनुष्य अपने मनको संयममें रखते हुए वहाँ स्नान करते हैं, उन्हें दस अश्वमेधयज्ञोंका फल प्राप्त होता है। जो पुरुष वहाँ तिलके चूर्णसे पिण्ड बनाकर श्राद्ध करता है, वह अपनेसे पहलेकी सात और बादकी सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। संगममें विधिपूर्वक स्नान करके गणेशजीका भलीभाँति पूजन करनेवाला मनुष्य कभी विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता और लक्ष्मी भी कभी उसका त्याग नहीं करती।
पूर्वकालमें वृत्रासुर और इन्द्रमें रोमांचकारी युद्ध हुआ था, जो लगातार ग्यारह हजार वर्षोंतक चलता रहा। उसमें इन्द्रकी पराजय हुई और वे वृत्रासुरसे पुनः लौटने की शर्त करके युद्ध छोड़कर मेरी शरण में आये। उन्होंने वार्त्रघ्नीके पवित्र संगमपर आराधनाके द्वारा मुझे सन्तुष्ट किया। तब मैंने आकाशमें प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिया। उस समय काश्यपी गंगाके तटपर मेरे शरीरसे कुछ भस्म झड़कर गिरा, जिससे एक पवित्र लिंग प्रकट हो गया। उस शिवलिंगकी 'भस्मगात्र' नामसे प्रसिद्धि हुई। तब मैंने प्रसन्न होकर महात्मा इन्द्रसे कहा- 'देव! तुम जो जो चाहते हो, वह सब तुम्हें दूँगा। इस वज्रकी सहायतासे तुम शीघ्र ही वृत्रासुरका वध करोगे।'इन्द्रने कहा— भगवन्! आपकी कृपासे उस दुर्धर्ष दैत्यको आपके देखते-देखते ही इस वज्रसे मारूँगा।
पार्वती यों कहकर इन्द्र पुनः वृत्रासुरके पास गये। उस समय देवताओंकी सेनामें दुन्दुभि बज उठी। एक ही क्षणमें इन्द्र प्रबल शक्तिसे सम्पन्न हो गये। युद्धकी इच्छासे वृत्रासुरके पास जाते हुए इन्द्रका रूप अत्यन्त तेजस्वी दिखायी देता था। महर्षिगण उनकीकर रहे थे। उधर युद्धके मुहाने पर खड़े हुए वृत्रासुरके शरीरमें जो सहसा पराजयके चिह्न प्रकट हुए, उनका वर्णन करता हूँ सुनो। वृत्रासुरका मुख अत्यन्त भयानक और जलता हुआ-सा प्रतीत होने लगा। । उसके शरीरका तेज फीका पड़ गया। सारे अंग काँपने लगे। जोर-जोरसे गरम साँस चलने लगी। सूरके रोंगटे खड़े हो गये। उसके उसकी गति अत्यन्त तीव्र हो गयी। आकाशसे महाभयानक उल्कापात हुआ। उस दैत्यके पास गिद्ध, बाज और कंक आदि पक्षी आकर अत्यन्त कठोर शब्द करने लगे। वे सब वृत्रासुरके ऊपर मण्डल बनाकर घूमने लगे। इतनेमें ही इन्द्र ऐरावत हाथीपर चढ़कर वहाँ आये। उनके उठे हुए हाथमें वज्र शोभा पा रहा था। इन्द्र ज्यों ही दैत्यके समीप पहुँचे, उसने अमानुषिक गर्जना की और वह उनके ऊपर टूट पड़ा। वृत्रासुरको अपनी ओर आते देख इन्द्रने उसके ऊपर वज्रका प्रहार किया और उस दैत्यको समुद्रके तटपर मार गिराया। उस समय इन्द्रके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा होने लगी। उस भयंकर दानवराजका करके अमरोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए इन्द्रने देवलोककी राजधानीमें प्रवेश किया।
तदनन्तर अत्यन्त भयंकर ब्रह्महत्या रौद्ररूप धारण किये वृत्रके शरीरसे निकली और इन्द्रको ढूँढ़ने लगी। उसने दौड़कर महातेजस्वी इन्द्रका पीछा किया और जब वे दिखायी दिये, तब उसने उनका गला पकड़ लिया। इन्द्रको ब्रह्महत्या लग गयी। वे किसी तरह उसे हटाने में समर्थ न हो सके। उसी दशामें ब्रह्माजीके पास जाकर उन्होंने मस्तक झुकाया। इन्द्रको ब्रह्महत्यासे गृहीत जानकर ब्रह्माजीने उसका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही ब्रह्महत्या ब्रह्माजीके पास उपस्थित हुई।
ब्रह्माजीने कहा-देवि ! मेरा प्रिय कार्य करो। देवराज इन्द्रको छोड़ दो। बताओ, तुम क्या चाहती हो? मैं तुम्हारी कौन-सी इच्छा पूर्ण करूँ ?
ब्रह्महत्या बोली - सुरश्रेष्ठ! मैं आपकी आज्ञा मानकर इन्द्रके शरीरसे अलग हो जाऊँगी, किन्तु देवदेव मुझे कोई दूसरा निवासस्थान दीजिये आपको नमस्कार है। भगवन्। आपने ही तो लोकरक्षाके लिये यह मर्यादा बनायी है।
हत्या दूर करनेके उपायपर विचार किया। उन्होंने अग्निदेवको बुलाकर कहा- 'अग्ने ! तुम इन्द्रकी ब्रह्महत्याका चौथाई भाग ग्रहण करो।'
अग्निने कहा- प्रभो! इस ब्रह्महत्याके दोषसे मेरे छूटनेका क्या उपाय है ? ब्रह्माजी बोले- अग्ने ! जो तुम्हें प्रज्वलित रूपमें पाकर कभी बीज, औषधि, तिल, फल मूल समिधा और कुश आदिके द्वारा तुममें आहुति नहीं डालेगा, उस समय ब्रह्महत्या तुम्हें छोड़कर उसीमें प्रवेश कर जायगी।
यह सुनकर अग्निने ब्रह्माजीको आज्ञा शिरोधार्य की। तत्पश्चात् पितामहने वृक्ष, ओषधि और तृण आदिको बुलाकर उनके सामने भी यही प्रस्ताव रखा। यह बात सुनकर उन्हें भी अग्निकी ही भाँति कष्ट हुआ; अतः वे ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले- 'पितामह! हमारी ब्रह्महत्याका अन्त कैसे होगा ?'
ब्रह्माजीने कहा- जो मनुष्य महान् मोहके वशीभूत होकर अकारण तुम्हें काटे या चौरेगा, ब्रह्महत्या उसीको लग जायगी।
तब औषधि और तृण आदिने 'हाँ' कहकर अपनीतब ब्रह्माजीने ब्रह्महत्यासे 'तथास्तु' कहकर इन्द्रकीस्वीकृति दे दी। फिर लोकपितामह ब्रह्माजीने अप्सराओंको बुलाकर मधुर वाणीमें उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- 'अप्सराओ! यह ब्रह्महत्या वृत्रासुरके शरीरसे आयी है; इसके चौथे भागको तुमलोग ग्रहण करो।'
अप्सराएं बोलीं- देवेश्वर आपकी आज्ञासे हम इसे ग्रहण करनेको तैयार हैं; परन्तु हमारे उद्धारका कोई उपाय भी आपको सोचना चाहिये।
ब्रह्माजीने कहा- जो रजस्वला स्त्रीसे मैथुन करेगा, उसीके अंदर यह तुरंत चली जायगी। 'बहुत अच्छा' कहकर अप्सराओंने हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की और अपने-अपने स्थानपर जाकर वे विहार करने लगीं। तदनन्तर लोकविधाता ब्रह्माजीने जलका स्मरण किया। जब जल उपस्थित हुआ, तब ब्रह्माजीने कहा- 'यह भयानक ब्रह्महत्या वृत्रासुरके शरीरसे निकलकर इन्द्रके ऊपर आयी है। इसका चौथा भाग तुम ग्रहण करो।'
जलने कहा- लोकेश्वर! आप हमें जो आज्ञा देते हैं, वही होगा; परन्तु हमारे उद्धारके उपायका भी विचार कीजिये।ब्रह्माजी बोले- जो मनुष्य अज्ञानसे मोहित होकर तुम्हारे भीतर थूक या मल-मूत्र डालेगा, उसीके भीतर यह शीघ्र चली जायगी और वहीं निवास इससे तुम्हे छुटकारा मिल जायगा।
श्रीमहादेवजी कहते हैं-सुरेश्वरि! इस प्रकार आता वह ब्रह्महत्या देवराज इन्द्रको कर चली गयी। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई पूर्वकालमें इन्द्रको इसी प्रकार ब्रह्महत्या प्राप्त हुई थी। वार्त्रघ्नी तीर्थमें तपस्या करके शुद्धचित्त होकर वे स्वर्गमें गये थे। पार्वती! साभ्रमतीके तीर्थोंमें 'वार्त्रघ्नी' का ऐसा ही माहात्म्य है। इस वानी संगमसे आगे जानेपर देवनदी साभ्रमती भद्रानदीके साथ-साथ वरुणके निवासभूत समुद्रमें जा मिली है। समुद्र भी साभ्रमतीके अनुरागसे उसका प्रिय करनेके लिये आगे बढ़ आया है और उसके प्रिय मिलनको उसने अंगीकार किया है। भद्रानदी पूर्वकालमें सुभद्राको सखी थी। उसने मार्गमें मूर्तिमती साक्षात् लक्ष्मीकी भाँति प्रकट होकर साभ्रमती गंगाकी सहायता की उन दोनों नदियोंका पवित्र संगम समुद्रके उत्तर तटपर हुआ है। उस तीर्थमें स्नान करके जो भगवान् महावराहको नमस्कार करता और स्वच्छ जलका दान करता है, वह वरुणलोकको प्राप्त होता है। उसी मार्गसे वराहरूपधारी भगवान् विष्णुने समुद्रमें प्रवेश करके देवताओंके वैरी सम्पूर्ण दानवोंपर विजय पायी थी। भगवान्ने जो वाराहका रूप धारण किया था, उसका उद्देश्य देवताओंका कार्य सिद्ध करना ही था वह रूप धारण करके वे समुद्रमें जा घुसे और पृथ्वीदेवीको अपनी दाड़ोंपर रखकर कर्दमालय में आ निकले इससे वहाँ वाराहतीर्थके नामसे एक महान् तीर्थ बन गया। जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, वह निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। यहाँ पितरौकी मुक्तिके लिये श्राद्ध करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष पितरोंके साथ ही मुक होकर अत्यन्त सुखद लोकमें जाता है। वाराहतीर्थसे आगे संगम नामक तीर्थ है, जहाँ साभ्रमती गंगा समुद्रसे मिली है। यहाँ विधिपूर्वक स्नानऔर दान करना चाहिये। इस तीर्थमें स्नान करनेसे महापातकी भी मुक्त हो जाते हैं। स्वजनोंका हित चाहनेवाले पुरुषोंको वहाँ श्राद्धका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। वहाँ श्राद्ध करनेसे मनुष्य निश्चय ही पितृलोकमें निवास करता है। जहाँ समुद्रसे साभ्रमती गंगाका नित्य संगम हुआ है, उस स्थानपर ब्रह्महत्यारा भी मुक्त हो जाता है। फिर अन्य पापोंसे युक्त मनुष्योंके लिये तो कहना ही क्या है। मन्दबुद्धि लोग जहाँ तीर्थ नहीं जानते, वहाँ मेरे नामसे उत्तम तीर्थकी स्थापना कर लेनी चाहिये।
संगमके पास ही आदित्य नामक उत्तम तीर्थ है, जो सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात है। उसका दर्शन अवश्य करना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे पुष्करमें स्नान करनेका फल होता है। मदार और कनेरके फूलोंसे भगवान् सूर्यका पूजन, श्राद्ध तथा दान करना चाहिये। यह आदित्यतीर्थ परम पवित्र और पापोंका नाशक है। महापातकी मनुष्योंको भी यह पुण्य प्रदान करनेवाला है। उस तीर्थके बाद नीलकण्ठ नामका एक उत्तम तीर्थ है। मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको उसका दर्शन अवश्य करना चाहिये। पार्वती! जो मनुष्य बिल्वपत्र तथा धूप-दीपसे नीलकण्ठका पूजन करता है, उसे मनोवांछित फलकी प्राप्ति होती है जो निर्जन स्थानमें रहकर वहाँ उपवास करते हैं, वे लोग जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करते हैं, उसे वह तीर्थ प्रदान करता है।
पार्वती। जहाँ साभ्रमती नदी दुर्गासे मिली है तथा जहाँ उसका समुद्रसे संगम हुआ है, वहाँ स्नान करना चाहिये जो कलियुगमें वहाँ स्नान करेंगे, वे निश्चय ही निष्पाप हो जायेंगे। दुर्गा-संगमपर श्राद्ध करना चाहिये। वहाँ जानेपर विशेषरूपसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना और विधिपूर्वक गाय-भैंसका दान देना उचित है यह साभ्रमती नदी पवित्र, पापका नाश करनेवाली और परम धन्य है इसका दर्शन करके मनुष्य पापोंसे । मुक्त हो जाते हैं। पार्वती! साभ्रमती नदीको गंगाके समान ही जानना चाहिये। कलियुगमें वह विशेषरूपसे प्रचुर फल देनेवाली है।