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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 130 - Khand 4, Adhyaya 130

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वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना

शेषजी कहते हैं—मुने! सुमतिने जो वाल्मीकि मुनिके आश्रमपर रहनेवाले दो बालकोंकी चर्चा की, उसे सुनकर श्रीरामचन्द्रजी समझ गये वे दोनों मेरे ही पुत्र हैं तो भी उन्होंने अपने यज्ञमें पधारे हुए महर्षि वाल्मीकिसे पूछा- मुनिवर! आपके आश्रमपर मेरे समान रूप धारण करनेवाले दो महाबली बालक कौन हैं? वहाँकिसलिये रहते हैं? सुननेमें आया है, वे धनुर्विद्यामें बड़े प्रवीण हैं। अमात्यके मुखसे उनका वर्णन सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है! वे कैसे बालक हैं, जिन्होंने खेल-खेलमें ही शत्रुघ्नको भी मूच्छित कर दिया और हनुमान्जीको भी बाँध लिया था ? महर्षे! कृपा करके उन बालकोंका सारा चरित्र सुनाइये ।वाल्मीकिने कहा- प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं; मनुष्योंके सम्बन्धकी हर एक बातका ज्ञान आपको क्यों न होगा ? तथापि आपके सन्तोषके लिये मैं कह रहा हूँ। जिस समय आपने जनककिशोरी सीताको बिना किसी अपराधके वनमें त्याग दिया, उस समय वह गर्भवती थी और बारम्बार विलाप करती हुई घोर वनमें भटक रही थी। परमपवित्र जनककिशोरीको दुःखसे आतुर होकर कुररीकी भाँति रोती-बिलखती देख मैं उसे अपने आश्रमपर ले गया। मुनियोंके बालकोंने उसके रहनेके लिये एक बड़ी सुन्दर पर्णशाला तैयार कर दी। उसीमें उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए। जो अपनी कान्तिसे दसों दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। उनमेंसे एकका नाम मैंने कुश रख दिया और दूसरेका लव। वे दोनों बालक शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति वहाँ प्रतिदिन बढ़ने लगे। समय समयपर उनके उपनयन आदि जो-जो आवश्यक संस्कार थे, उनको भी मैंने सम्पन्न किया तथा उन्हें अंगसहित सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कराया। इसके सिवा आयुर्वेद, धनुर्वेद और शस्त्रविद्या आदि सभी शास्त्रोंकी उनके रहस्योंसहित शिक्षा दी। इस प्रकार सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान कराकर मैंने उनके मस्तकपर हाथ रखा। वे दोनों संगीतमें भी बड़े प्रवीण हुए। उन्हें देखकर सब लोगोंको विस्मय होने लगा। षडज, मध्यम, गान्धार आदि स्वरोंकी विद्यामें उन्होंने बड़ी कुशलता प्राप्त की। उनकी ऐसी योग्यता देखकर मैं प्रतिदिन उनसे परम मनोहर रामायण काव्यका गान कराया करता हूँ। भविष्य ज्ञानकी शक्ति होनेके कारण इस रामायणको मैंने पहलेसे बना रखा था। मृदंग, पणव, यन्त्र और वीणा आदि बाजे बजानेमें भी वे दोनों बालक बड़े चतुर हैं। वन-वनमें घूमकर रामायण गाते हुए मृग और पक्षियोंको भी मोहित कर लेते वे हैं। श्रीराम उन बालकोंके गीतका माधुर्य अद्भुत है। एक दिन उनका संगीत सुननेके लिये वरुणदेवता उन दोनों बालकोको विभावरी पुरोमें ले गये। उनकी अवस्था, उनका रूप सभी मनोहर हैं ये गान विद्यारूपी समुद्रके पारगामी है। लोकपाल वरुणके आदेशसे उन्होंने मधुरस्वरमैआपके परम सुन्दर, मृदु एवं पवित्र चरित्रका गान किया। वरुणने दूसरे दूसरे गायकों तथा अपने समस्त परिवारके साथ सुना। मित्र देवता भी उनके साथ थे। रघुनन्दन! आपका चरित्र सुधासे भी अधिक सरस एवं स्वादिष्ट है। उसे सुनते-सुनते मित्र और वरुणकी तृप्ति नहीं हुई।

तत्पश्चात् मैं भी उत्तम वरुणलोकमें गया। वहाँ वरुणने प्रेमसे द्रवीभूत होकर मेरी पूजा की। वे उन दोनों बालकोंके गाने-बजानेकी विद्या, अवस्था और गुणोंसे बहुत प्रसन्न थे। उस समय उन्होंने सीताके सम्बन्धमै [आपसे कहनेके लिये मुझसे इस प्रकार बातचीत की-सीता पतिव्रताओंमें अग्रगण्य हैं। वे शील, रूप और अवस्था - सभी सद्गुणोंसे सम्पन्न हैं। उन्होंने वीर पुत्रको जन्म दिया है। ये बड़ी सौभाग्यशालिनी हैं; कदापि त्याग करनेके योग्य नहीं हैं। उनका चरित्र सदासे ही पवित्र है-इस बातके हम सभी देवता साक्षी हैं। जो लोग सीताजीके चरणोंका चिन्तन करते हैं, उन्हें तत्काल सिद्धि प्राप्त होती है। सीताके संकल्पमात्र से ही संसारको सृष्टि, स्थिति और लय आदि कार्य होते हैं। ईश्वरीय व्यापार भी उन्हींसे सम्पन्न होते हैं। सीता ही मृत्यु और अमृत हैं। वे ही ताप देती और वे ही वर्षा करती हैं। श्रीरघुनाथजी आपकी जानकी ही स्वर्ग, मोक्ष, तप और दान हैं। ब्रह्मा, शिव तथा हम सभी लोकपालको वे ही उत्पन्न करती हैं। आप सम्पूर्ण जगत्के पिता और सीता सबकी माता हैं। आप सर्व हैं, साक्षात् भगवान् हैं; अतः आप भी इस बातको जानते हैं कि सीता नित्य शुद्ध हैं। ये आपको प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय हैं; इसलिये जनककिशोरी सीताको शुद्ध एवं अपनी प्रिया जानकर आप सदा उनका आदर करें। प्रभो! आपका या सीताका किसी शापके कारण पराभव नहीं हो सकता-मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिजी ! मेरी ये सभी बातें आप साक्षात् महाराज श्रीरामचन्द्रजीसे कहियेगा।"

इस प्रकार सीताको स्वीकार करने के सम्बन्धमे वरुणने मुझसे अपना विचार प्रकट किया था। इसी तरह अन्य सब लोकपालोंने भी अपनी-अपनी सम्मति दी है।देवता, असुर और गन्धर्व - सबने कौतूहलवश आपके पुत्रोंके मुखसे रामायणका गान सुना है। सुनकर सभी प्रसन्न हो हुए हैं। उन्होंने आपके पुत्रोंकी बड़ी प्रशंसा की है। उन दोनों बालकोंने अपने रूप, गान, अवस्था और गुणोंके द्वारा तीनों लोकोंको मोह लिया है। लोकपालाने आशीर्वादरूपसे जो कुछ दिया उसे आपके पुत्रोंने स्वीकार किया। उन्होंने ऋषियों तथा 1 अन्य लोकोंसे भी बढ़कर कीर्ति पायी है। पुण्यश्लोक (पवित्र यशवाले) पुरुषोंके शिरोमणि श्रीरघुनाथजी! आप त्रिलोकीनाथ होकर भी इस समय गृहस्थ धर्मकी तीता कर रहे हैं; अतः विद्या, शील एवं सद्गुणोंसे विभूषित अपने दोनों पुत्रोंको उनकी मातासहित ग्रहण कीजिये। सीताने ही आपकी मरी हुई सेनाको जिलाकर उसे प्राण दान दिया है-इससे सब लोगोंको उनकी शुद्धिका विश्वास हो गया है [ यह लोगोंकी प्रतीतिके लिये प्रत्यक्ष प्रमाण है] यह प्रसंग पतित पुरुषोंको भी पावन बनानेवाला है। मानद! सीताकी शुद्धिके विषय में न तो आपसे कोई बात छिपी है. न हमलोगोंसे और न देवताओंसे ही। केवल साधारण लोगोंको कुछ भ्रम हो गया था, किन्तु उपर्युक्त घटनासे वह भी अवश्य दूर हो गया।

शेषजी कहते हैं- मुने! भगवान् श्रीराम यद्यपि सर्वज्ञ हैं, तो भी जब वाल्मीकिजीने उन्हें इस प्रकार समझाया, तो वे उनकी स्तुति और नमस्कार करके लक्ष्मणसे बोले-'तात! तुम सुमित्रसहित रथपर बैठकर धर्मचारिणी सीताको पुत्रोंसहित ले आनेके लिये अभी जाओ। वहाँ मेरे तथा मुनिके इन वचनोंको सुनाना और सीताको समझा-बुझाकर शीघ्र ही अयोध्यापुरीमें ले आना।' लक्ष्मणने कहा प्रभो। मैं अभी जाऊँगा, यदि आप सब लोगोंका प्रिय संदेश सुनकर महारानी सीताजी यहाँ पधारेंगी तो समझेंगा, मेरी यात्रा सफल हो गयी। श्रीरामचन्द्रजीसे ऐसा कहकर लक्ष्मण उनकी आज्ञासे रथपर बैठे और मुनिके एक शिष्य तथा सुमित्रको साथ लेकर आश्रमको गये। रास्तेमें यह सोचते जाते थे कि 'भगवती सीताको किस प्रकार प्रसन्न करनाशाहिये?' ऐसा विचार करनेसे उनके हृदयमें कभी हर्ष होता था और कभी संकोच। वे दोनों भावोंके बीचकी स्थिति में थे। इसी अवस्थामें सीताके आश्रमपर पहुँचे, जो उनके श्रमको दूर करनेवाला था। वहाँ लक्ष्मण रथसे उतरकर सीताके समीप गये और आँखोंमें आँसू "भरकर आयें पूजनीये!! भगवति !! कल्याणमयी!' इत्यादि सम्बोधनोंका बारम्बार उच्चारण करते हुए उनके चरणोंमें गिर पड़े। भगवती सीताने वात्सल्य प्रेमसे विह्वल होकर लक्ष्मणको उठाया और इस प्रकार पूछा—'सौम्य ! मुनिजनोंको ही प्रिय लगनेवाले इस वनमें तुम कैसे आये ? बताओ, माता कौसल्याके गर्भरूपी शुक्तिसे जो मौक्तिकके समान प्रकट हुए हैं, वे मेरे आराध्यदेव श्रीरघुनाथजी तो कुशलसे हैं न? देवर! उन्होंने अकीर्तिसे डरकर तुम्हें मेरे परित्यागका कार्य सौंपा था। यदि इससे भी संसारमें उनकी निर्मल 'कीर्तिका विस्तार हो सके तो मुझे संतोष ही होगा। मैं ने अपने प्राण देकर भी पतिदेवके सुयशको स्थिर रखना चाहती हूँ। उन्होंने मुझे त्याग दिया है तो भी मैंने उनका थोड़ी देरके लिये भी कभी त्याग नहीं किया है [निरन्तर उन्होंका चिन्तन करती रहती हूँ। मेरे ऊपर सदा कृपा रखनेवाली माता कौसल्याको तो कोई कष्ट नहीं है? वे कुशलसे हैं न? भरत आदि भाई भी तो सकुशल हैं न? तथा महाभागा सुमित्रा, जो मुझे अपने प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय मानती हैं, कैसी हैं? उनकी कुशल बताओ।'

इस प्रकार सीताने जब बारम्बार सबकी कुशल पूछी तो लक्ष्मणने कहा- 'देवि! महाराज कुशलसे हैं और आपकी भी कुशलता पूछ रहे हैं। माता कौसल्या, सुमित्रा तथा राजभवनकी अन्य सभी देवियोंने प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देते हुए आपकी कुशल पूछी है। भरत और शत्रुघ्नने कुशल प्रश्नके साथ ही आपके श्रीचरणों में प्रणाम कहलाया है, जिसे मैं सेवामें निवेदन करता है। गुरुओं तथा समस्त गुरुपत्नियोंने भी आशीर्वाद दिया है, साथ ही कुशल-मंगल भी पूछा है। महाराज श्रीराम आपको बुला रहे हैं। हमारे स्वामीने कुछ रोते-रोते आपके प्रति जो सन्देश दिया है, उसे सुनिये। वक्ताकेहृदयमें जो बात रहती है, वह उसकी वाणीमें निस्सन्देह व्यक्त हो जाती है [ओरघुनाथजीने कहा है-] 'सतीशिरोमणि सीते। लोग मुझे ही सबके ईश्वरका भी ईश्वर कहते हैं; किन्तु मैं कहता हूँ, जगत्में जो कुछ हो रहा है, इसका स्वतन्त्र कारण अदृष्ट (प्रारब्ध) ही है। जो सबका ईश्वर है, वह भी प्रत्येक कार्यमें अदृष्टका ही अनुसरण करता है। मेरे धनुष तोड़ने में, कैकेयीकी बुद्धि भ्रष्ट होनेमें, पिताकी मृत्युमें, मेरे वन जानेमें, वहाँ तुम्हारा हरण होनेमें, समुद्रके पार जानेमें, राक्षसराज रावणके मारनेमें, प्रत्येक युद्धके अवसरपर वानर, भालू और राक्षसोंकी सहायता मिलनेमें तुम्हारी प्राप्तिमें, मेरी प्रतिज्ञाके पूर्ण होनेमें, पुनः अपने बन्धुओंके साथ संयोग होनेमें, राज्यकी प्राप्तिमें तथा फिर मुझसे मेरी प्रियाका वियोग होनेमें एकमात्र अदृष्ट ही अनिवार्य कारण है। देवि! आज वही अदृष्ट फिर हम दोनों का संयोग करानेके लिये प्रसन्न हो रहा है। ज्ञानीलोग भी अदृष्टका ही अनुसरण करते हैं। उस अदृष्टका भोगसे ही क्षय होता है; अतः तुमने वनमें रहकर उसका भोग पूरा कर लिया है। सीते! तुम्हारे प्रति जो मेरा अकृत्रिम स्नेह है, वह निरन्तर बढ़ता रहता है, आज वही स्नेह निन्दा करनेवाले लोगोंकी उपेक्षा करके तुम्हें आदरपूर्वक बुला रहा है। दोषकी आशंका मात्रसे भी स्नेहकी निर्मलता नष्ट हो जाती है; इसलिये विद्वानोंको [दोषके मार्जनद्वारा] स्नेहको शुद्ध करके ही उसका आस्वादन करना चाहिये। कल्याणी ! [ तुम्हें वनमें भेजकर] मैंने तुम्हारे प्रति अपने स्नेहकी शुद्धि ही की है; अत: तुम्हें इस विषय में कुछ अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये [मैंने तुम्हारा त्याग किया है-ऐसा नहीं मानना चाहिये] शिष्ट पुरुषोंके मार्गका अनुसरण करके मैंने निन्दा करनेवाले लोगोंकी भी रक्षा ही की है। देवि! हम दोनोंकी जो निन्दा की गयी है. इससे हमारी तो प्रत्येक अवस्थामें शुद्धि ही होगी किन्तु ये मूर्खलोग जो महापुरुषोंके चरित्रको लेकर निन्दा करते हैं; इससे वे स्वयं ही नष्ट हो जायेंगे हम दोनोंकी कीर्ति उज्वल है, हम दोनोंका स्नेह रस उज्ज्वल है, हमलोगोंके वंशउज्ज्वल हैं तथा हमारे सम्पूर्ण कर्म भी उज्ज्वल हैं। इस पृथ्वीपर जो हम दोनोंकी कीर्तिका गान करनेवाले पुरुष हैं, वे भी उज्ज्वल रहेंगे। जो हम दोनोंके प्रति भक्ति रखते हैं, वे संसार सागरसे पार हो जायेंगे।' इस प्रकार आपके गुणोंसे प्रसन्न होकर श्रीरघुनाथजीने यह संदेश दिया है; अतः अब आप अपने पतिदेवके चरणकमलोंका दर्शन करनेके लिये अपने मनको उनके प्रति सदय बनाइये महारानी आपके दोनों कुमार हाथीपर बैठकर आगे-आगे चलें, आप शिविकामें आरूढ़ होकर मध्यमें रहे और मैं आपके पीछे-पीछे चलूँ इस तरह आप अपनी पुरी अयोध्या में पधारें। वहाँ चलकर जब आप अपने प्रियतम श्रीरामसे मिलेंगी, उस समय यज्ञशालामें सब ओरसे आयी हुई सम्पूर्ण राज महिलाओंको, समस्त ऋषि पत्नियोंको तथा माता कौसल्याको भी बड़ा आनन्द होगा। नाना प्रकारके बाजे बजेंगे, मंगलगान होंगे तथा अन्य ऐसे ही समारोहोंके द्वारा आज आपके शुभागमनका महान् उत्सव मनाया जायगा।'

शेषजी कहते हैं—मुने! यह सन्देश सुनकर महारानी सीताने कहा- 'लक्ष्मण में धर्म, अर्थ और कामसे शून्य हूँ। भला मेरे द्वारा महाराजका कौन-सा कार्य सिद्ध होगा? पाणिग्रहणके समय जो उनका मनोहर रूप मेरे हृदयमें बस गया, वह कभी अलग नहीं होता। ये दोनों कुमार उन्हींके तेजसे प्रकट हुए हैं। ये वंशके अंकुर और महान् वीर हैं। इन्होंने धनुर्विद्यामें विशिष्ट योग्यता प्राप्त की है। इन्हें पिता के समीप ले जाकर बलपूर्वक इनका लालन-पालन करना। मैं तो अब यहीं रहकर तपस्याके द्वारा अपनी इच्छाके अनुसार श्रीरघुनाथजीकी आराधना करूँगी। महाभाग ! तुम वहाँ जाकर सभी पूज्यजनोंके चरणोंमें मेरा प्रणाम कहना और सबसे कुशल बताकर मेरी ओरसे भी सबकी कुशल पूछना।'

इसके बाद सीताने अपने दोनों बालकोंको आदेश दिया - 'पुत्रो अब तुम अपने पिताके पास जाओ। उनकी सेवा-शुश्रूषा करना। वे तुम दोनोंको अपना पदप्रदान करेंगे।' कुमार कुश और लव नहीं चाहते थे कि हम माताके चरणोंसे अलग हों; फिर भी उनकी आज्ञा मानकर वे लक्ष्मणके साथ गये। वहाँ पहुँचनेपर भी वे वाल्मीकिजीके ही चरणोंके निकट गये। लक्ष्मणने भी बालकोंके साथ जाकर पहले महर्षिको ही प्रणाम किया। फिर वाल्मीकि, लक्ष्मण तथा वे दोनों कुमार सब एक साथ मिलकर चले और श्रीरामचन्द्रजीको सभामें स्थित जान उनके दर्शनके लिये उत्कण्ठित हो वहीं गये। लक्ष्मणने श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रणाम करके सीताके साथ जो कुछ बातचीत हुई थी, वह सब उनसे कह सुनायी। उस समय परम बुद्धिमान् लक्ष्मण हर्ष और शोक दोनों भावोंमें मग्न हो रहे थे।

श्रीरामचन्द्रजीने कहा- सखे एक बार फिर वहाँ जाओ और महान् प्रयत्न करके सीताको शीघ्र यहाँ ले आओ। तुम्हारा कल्याण हो। मेरी ये बातें जानकीसे कहना' देवि! क्या वनमें तपस्या करके तुमने मेरे सिवा कोई दूसरी गति प्राप्त करनेका विचार किया है? अथवा मेरे अतिरिक्त और कोई गति सुनी या देखी है जो मेरे बुलानेपर भी नहीं आ रही हो? तुम अपनी हीइच्छाके कारण यहाँसे मुनियोंको प्रिय लगनेवाले वनमें गयी थीं। वहाँ तुमने मुनिपत्नियोंका पूजन किया और मुनियोंके भी दर्शन किये; अब तो तुम्हारी इच्छा पूरी हुई। अब क्यों नहीं आतीं ? जानकी स्त्री कहीं भी क्यों न जाय, पति ही उसके लिये एकमात्र गति है। वह गुणहीन होनेपर भी पत्नीके लिये गुणोंका सागर है। फिर यदि वह मनके अनुकूल हुआ तब तो उसकी मान्यताके विषयमें कहना ही क्या है। उत्तम कुलकी स्त्रियाँ जो जो कार्य करती हैं, वह सब पतिको सन्तुष्ट करनेके लिये ही होता है। परन्तु मैं तो तुमपर पहलेसे ही विशेष सन्तुष्ट हूँ और इस समय वह सन्तोष और भी बढ़ गया है। त्याग, जप, तप, दान, व्रत, तीर्थ और दया आदि सभी साधन मेरे प्रसन्न होनेपर ही सफल होते हैं मेरे सन्तुष्ट होनेपर सम्पूर्ण देवता सन्तुष्ट हो जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।'

लक्ष्मणने कहा- भगवन्! सीताको ले आनेके उद्देश्यसे प्रसन्न होकर आपने जो जो बातें कही हैं, वह सब मैं उन्हें विनयपूर्वक सुनाऊँगा।

ऐसा कहकर लक्ष्मणने श्रीरघुनाथजीके चरणों में प्रणाम किया और अत्यन्त वेगशाली रथपर सवार हो वे तुरंत सीताके आश्रमपर चल दिये। तदनन्तर वाल्मीकिजीने श्रीरामचन्द्रजीके दोनों पुत्रोंकी ओर, जो परम शोभायमान और अत्यन्त तेजस्वी थे, देखा तथा किंचित् मुसकराकर कहा- 'वत्स! तुम दोनों वीणा बजाते हुए मधुर स्वरसे श्रीरामचन्द्रजीके अद्भुत चरित्रका गान करो।' महर्षिके इस प्रकार आज्ञा देनेपर उन बड़भागी बालकोंने महान् पुण्यदायक श्रीरामचरित्रका गान किया, जो सुन्दर वाक्यों और उत्तम पदोंमें चित्रित हुआ था, जिसमें धर्मकी साक्षात् विधि, पातिव्रत्यके उपदेश महान् भ्रातृ-स्नेह तथा उत्तम गुरुभक्तिका वर्णन है। जहाँ स्वामी और सेवककी नीति मूर्तिमान् दिखायी देती है तथा जिसमें साक्षात् श्रीरघुनाथजीके हाथसे पापाचारियोंको दण्ड मिलनेका वर्णन है। बालकोंके उस गानसे सारा जगत् मुग्ध हो गया। स्वर्गके देवता भी विस्मयमें -पड़ गये किन्नर भी वह गान सुनकर मूच्छितहो गये। श्रीराम आदि सभी राजा नेत्रोंसे आनन्दके आँस बहाने लगे। वे गीतके पंचम स्वरका आलाप सुनकर ऐसे मोहित हुए कि हिल-डुल नहीं सकते थे; चित्र लिखित से जान पड़ते थे।

तत्पश्चात् महर्षि वाल्मीकिने कुश और लवसे कृपापूर्वक कहा- 'वत्स! तुमलोग नीतिके विद्वानोंमें श्रेष्ठ हो, अपने पिताको पहचानो [ये श्रीरघुनाथजी तुम्हारे पिता हैं; इनके प्रति पुत्रोचित बर्ताव करो]। ' मुनिका यह वचन सुनकर दोनों बालक विनीतभावसे पिताके चरणोंमें लग गये। माताकी भक्तिके कारण उन दोनोंके हृदय अत्यन्त निर्मल हो गये थे। श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने दोनों बालकोंको छातीसे लगा लिया। उस समय उन्होंने ऐसा माना कि मेरा धर्म ही इन दोनों पुत्रोंके रूपमें मूर्तिमान् होकर उपस्थित हुआ है। वात्स्यायनजी सभामें बैठे हुए लोगोंने भी श्रीरामचन्द्रजीके पुत्रोंका मनोहर मुख देखकर जानकीजीकी पतिभक्तिको सत्य माना।

शेषजीके मुखसे इतनी कथा सुनकर वात्स्यायनको सम्पूर्ण धर्मोसे युक्त रामायणके विषयमें कुछ सुननेकी इच्छा हुई: अतएव उन्होंने पूछा-'स्वामिन् । महर्षिवाल्मीकिने इस रामायण नामक महान् काव्यकी रचना किस समय की, किस कारणसे की तथा इसके भीतर किन-किन बातोंका वर्णन है ?"

शेषजीने कहा- एक समयकी बात है वाल्मीकिजी महान बनके भीतर गये, जहाँ ताल, तमाल और खिले हुए पलाशके वृक्ष शोभा पा रहे थे। कोयलकी मीठी तान और भ्रमरोंकी गुंजारसे गूँजते रहनेके कारण वह वन्यप्रदेश सब ओरसे रमणीय जान पड़ता था। कितने ही मनोहर पक्षी वहाँ बसेरा ले रहे थे। महर्षि जहाँ खड़े थे, उसके पास ही दो सुन्दर क्रौंचपक्षी कामयाणसे पीड़ित हो रमण कर रहे थे। दोनों में परस्पर स्नेह था और दोनों एक-दूसरेके सम्पर्क में रहकर अत्यन्त हर्षका अनुभव करते थे। इसी समय एक व्याध वहाँ आया और उस निर्दयीने उन पक्षियोंमेंसे एकको जो बड़ा सुन्दर था, बाणसे मार गिराया। यह देख मुनिको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने सरिताका पावन जल हाथमें लेकर क्रौंचकी हत्या करनेवाले उस निषादको शाप दिया ओ निषाद तुझे कभी भी शाश्वत शान्ति नहीं मिलेगी क्योंकि तूने इन क्रौंच पक्षियोंमेंसे एककी, जो कामसे मोहित हो रहा था,[बिना किसी अपराधके] हत्या कर डाली है।" यह वाक्य छन्दोबद्ध श्लोकके रूपमें निकला; इसे सुनकर मुनिके शिष्योंने प्रसन्न होकर कहा- 'स्वामिन्! आपने शाप देनेके लिये जिस वाक्यका प्रयोग किया है उसमें सरस्वती देवीने श्लोकका विस्तार किया है। मुनिश्रेष्ठ! यह वाक्य अत्यन्त मनोहर श्लोक बन गया हूँ।' उस समय ब्रह्मर्षि वाल्मीकिजीके मनमें भी बड़ी प्रसन्नता हुई। उसी अवसरपर ब्रह्माजीने आकर वाल्मीकिजी से कहा- 'मुनीश्वर ! तुम धन्य हो। आज सरस्वती तुम्हारे मुखमें स्थित होकर श्लोकरूपमें प्रकट हुई है। इसलिये अब तुम मधुर अक्षरोंमें सुन्दर रामायणकी रचना करो। मुखसे निकलनेवाली वही वाणी धन्य है, जो श्रीरामनामसे युक्त हो। इसके सिया, अन्य जितनी बातें हैं, सब कामको कथाएँ हैं, ये मनुष्योंके लिये केवल सूतक (अपवित्रता ) उत्पन्न करती हैं। अत: तुम श्रीरामचन्द्रजीके लोकप्रसिद्ध चरित्रको लेकर काव्य रचना करो, जिससे पद पदपर पापियोंके पापका निवारण होगा।' इतना कहकर ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओंके साथ अन्तर्धान हो गये।तदनन्तर एक दिन वाल्मीकिजी नदीके मनोहर तटपर ध्यान लगा रहे थे। उस समय उनके हृदयमें सुन्दर रूपधारी श्रीरामचन्द्रजी प्रकट हुए। नील पद्म दलके समान श्याम विग्रहवाले कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन पाकर मुनिने उनके भूत, वर्तमान और भविष्य - तीनों कालके चरित्रोंका साक्षात्कार किया। फिर तो उन्हें बड़ा आनन्द मिला और उन्होंने मनोहर पदों तथा नाना प्रकारके छन्दोंमें रामायणकी रचना की। उसमें अत्यन्त मनोरम छः काण्ड हैं— बाल, आरण्यक, किष्किन्धा, सुन्दर, युद्ध तथा उत्तर महामते। जो इन काण्डोंको सुनता है, वह मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। बालकाण्डमें - राजा दशरथने प्रसन्नतापूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार पुत्र प्राप्त किये, जो साक्षात् सनातन ब्रह्म श्रीहरिके अवतार थे। फिर श्रीराम चन्द्रजीका विश्वामित्रके यज्ञमें जाना, वहाँसे मिथिलामें जाकर सीतासे विवाह करना, मार्गमें परशुरामजी से मिलते हुए अयोध्यापुरीमें आना, वहाँ युवराजपदपर अभिषेक होने की तैयारी, फिरमाता कैकेयीके कहनेसे वनमें जाना, गंगापार करके चित्रकूट पर्वतपर पहुँचना तथा वहाँ सीता और लक्ष्मणके साथ निवास करना इत्यादि प्रसंगोंका वर्णन है। इसके अतिरिक्त न्यायके अनुसार चलनेवाले भरतने जब अपने भाई श्रीरामके वनमें जानेका समाचार सुना तो वे भी उन्हें लौटानेके लिये चित्रकूट पर्वतपर गये, किन्तु उन्हें जब न लौटा सके तो स्वयं भी उन्होंने अयोध्यासे बाहर नन्दिग्राममें वास किया। ये सब बातें भी बालकाण्डके ही अन्तर्गत हैं। इसके बाद आरण्यककाण्डमें आये हुए विषयोंका वर्णन सुनिये। सीता और लक्ष्मणसहित श्रीरामका भिन्न भिन्न मुनियोंके आश्रमोंमें निवास करना, वहाँ-वहाँके स्थान आदिका वर्णन, शूर्पणखाकी नाकका काटा जाना, खर और दूषणका विनाश, मायामय मृगके रूपमें आये हुए मारीचका मारा जाना, राक्षस रावणके द्वारा राम- पत्नी सीताका हरण, श्रीरामका विरहाकुल होकर वनमें भटकना और मानवोचित लीलाएँ करना, फिर कबन्धसे भेंट होना, पम्पासरोवरपर जाना और श्रीहनुमान्जीसे मिलाप होना—ये सभी कथाएँ आरण्यककाण्डके नामसे प्रसिद्ध हैं। तदनन्तर श्रीरामद्वारा सप्त ताल-वृक्षोंका भेदन, बालिका अद्भुत वध, सुग्रीवको राज्यदान, लक्ष्मणके द्वारा सुग्रीवको कर्तव्य पालनका सन्देश देना, सुग्रीवका नगरसे निकलना, सैन्यसंग्रह, सीताकी खोजके लिये वानरोंका भेजा जाना। वानरोंकी सम्पातीसे भेंट, हनुमान्जीके द्वारासमुद्र-लंघन और दूसरे तटपर उनका सब प्रसंग किष्किन्धाकाण्डके अन्तर्गत हैं। यह काण्ड अद्भुत है। अब सुन्दरकाण्डका वर्णन सुनिये, जहाँ श्रीरामचन्द्रजीकी अद्भुत कथाका उल्लेख है। हनुमान्जीका सीताकी खोजके लिये लंकाके प्रत्येक घरमें घूमना तथा वहाँके विचित्र-विचित्र दृश्योंका देखना, फिर सीताका दर्शन, उनके साथ बातचीत तथा वनका विध्वंस, कुपित हुए राक्षसोंके द्वारा हनुमान्जीका बन्धन, हनुमान्जीके द्वारा लंकाका दाह, फिर समुद्रके इस पार आकर उनका वानरोंसे मिलना। श्रीरामचन्द्रजीको सीताकी दी हुई पहचान अर्पण करना, सेनाका लंकाके लिये प्रस्थान, समुद्रमें पुल बाँधना तथा सेनामें शुक और सारणका आना- ये सब विषय सुन्दरकाण्डमें हैं। इस प्रकार सुन्दरकाण्डका परिचय दिया गया। युद्धकाण्डमें युद्ध और सीताकी प्राप्तिका वर्णन है। उत्तरकाण्डमें श्रीरामका ऋषियोंके साथ संवाद तथा यज्ञका आरम्भ आदि है। उसमें श्रीरामचन्द्रजीकी अनेकों कथाओंका वर्णन है, जो श्रोताओंके पापको नाश करनेवाली हैं। इस प्रकार मैंने छः काण्डोंका वर्णन किया। ये ब्रह्महत्याके पापको भी दूर करनेवाले हैं। उनकी कथाएँ बड़ी मनोहर हैं। मैंने यहाँ संक्षेपसे ही इनका परिचय दिया है। जो छः काण्डोंसे चिह्नित और चौबीस हजार श्लोकोंसे युक्त है, उसी वाल्मीकिनिर्मित ग्रन्थको रामायण नाम दिया गया है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार