शेषजी कहते हैं—मुने! सुमतिने जो वाल्मीकि मुनिके आश्रमपर रहनेवाले दो बालकोंकी चर्चा की, उसे सुनकर श्रीरामचन्द्रजी समझ गये वे दोनों मेरे ही पुत्र हैं तो भी उन्होंने अपने यज्ञमें पधारे हुए महर्षि वाल्मीकिसे पूछा- मुनिवर! आपके आश्रमपर मेरे समान रूप धारण करनेवाले दो महाबली बालक कौन हैं? वहाँकिसलिये रहते हैं? सुननेमें आया है, वे धनुर्विद्यामें बड़े प्रवीण हैं। अमात्यके मुखसे उनका वर्णन सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है! वे कैसे बालक हैं, जिन्होंने खेल-खेलमें ही शत्रुघ्नको भी मूच्छित कर दिया और हनुमान्जीको भी बाँध लिया था ? महर्षे! कृपा करके उन बालकोंका सारा चरित्र सुनाइये ।वाल्मीकिने कहा- प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं; मनुष्योंके सम्बन्धकी हर एक बातका ज्ञान आपको क्यों न होगा ? तथापि आपके सन्तोषके लिये मैं कह रहा हूँ। जिस समय आपने जनककिशोरी सीताको बिना किसी अपराधके वनमें त्याग दिया, उस समय वह गर्भवती थी और बारम्बार विलाप करती हुई घोर वनमें भटक रही थी। परमपवित्र जनककिशोरीको दुःखसे आतुर होकर कुररीकी भाँति रोती-बिलखती देख मैं उसे अपने आश्रमपर ले गया। मुनियोंके बालकोंने उसके रहनेके लिये एक बड़ी सुन्दर पर्णशाला तैयार कर दी। उसीमें उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए। जो अपनी कान्तिसे दसों दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। उनमेंसे एकका नाम मैंने कुश रख दिया और दूसरेका लव। वे दोनों बालक शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति वहाँ प्रतिदिन बढ़ने लगे। समय समयपर उनके उपनयन आदि जो-जो आवश्यक संस्कार थे, उनको भी मैंने सम्पन्न किया तथा उन्हें अंगसहित सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कराया। इसके सिवा आयुर्वेद, धनुर्वेद और शस्त्रविद्या आदि सभी शास्त्रोंकी उनके रहस्योंसहित शिक्षा दी। इस प्रकार सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान कराकर मैंने उनके मस्तकपर हाथ रखा। वे दोनों संगीतमें भी बड़े प्रवीण हुए। उन्हें देखकर सब लोगोंको विस्मय होने लगा। षडज, मध्यम, गान्धार आदि स्वरोंकी विद्यामें उन्होंने बड़ी कुशलता प्राप्त की। उनकी ऐसी योग्यता देखकर मैं प्रतिदिन उनसे परम मनोहर रामायण काव्यका गान कराया करता हूँ। भविष्य ज्ञानकी शक्ति होनेके कारण इस रामायणको मैंने पहलेसे बना रखा था। मृदंग, पणव, यन्त्र और वीणा आदि बाजे बजानेमें भी वे दोनों बालक बड़े चतुर हैं। वन-वनमें घूमकर रामायण गाते हुए मृग और पक्षियोंको भी मोहित कर लेते वे हैं। श्रीराम उन बालकोंके गीतका माधुर्य अद्भुत है। एक दिन उनका संगीत सुननेके लिये वरुणदेवता उन दोनों बालकोको विभावरी पुरोमें ले गये। उनकी अवस्था, उनका रूप सभी मनोहर हैं ये गान विद्यारूपी समुद्रके पारगामी है। लोकपाल वरुणके आदेशसे उन्होंने मधुरस्वरमैआपके परम सुन्दर, मृदु एवं पवित्र चरित्रका गान किया। वरुणने दूसरे दूसरे गायकों तथा अपने समस्त परिवारके साथ सुना। मित्र देवता भी उनके साथ थे। रघुनन्दन! आपका चरित्र सुधासे भी अधिक सरस एवं स्वादिष्ट है। उसे सुनते-सुनते मित्र और वरुणकी तृप्ति नहीं हुई।
तत्पश्चात् मैं भी उत्तम वरुणलोकमें गया। वहाँ वरुणने प्रेमसे द्रवीभूत होकर मेरी पूजा की। वे उन दोनों बालकोंके गाने-बजानेकी विद्या, अवस्था और गुणोंसे बहुत प्रसन्न थे। उस समय उन्होंने सीताके सम्बन्धमै [आपसे कहनेके लिये मुझसे इस प्रकार बातचीत की-सीता पतिव्रताओंमें अग्रगण्य हैं। वे शील, रूप और अवस्था - सभी सद्गुणोंसे सम्पन्न हैं। उन्होंने वीर पुत्रको जन्म दिया है। ये बड़ी सौभाग्यशालिनी हैं; कदापि त्याग करनेके योग्य नहीं हैं। उनका चरित्र सदासे ही पवित्र है-इस बातके हम सभी देवता साक्षी हैं। जो लोग सीताजीके चरणोंका चिन्तन करते हैं, उन्हें तत्काल सिद्धि प्राप्त होती है। सीताके संकल्पमात्र से ही संसारको सृष्टि, स्थिति और लय आदि कार्य होते हैं। ईश्वरीय व्यापार भी उन्हींसे सम्पन्न होते हैं। सीता ही मृत्यु और अमृत हैं। वे ही ताप देती और वे ही वर्षा करती हैं। श्रीरघुनाथजी आपकी जानकी ही स्वर्ग, मोक्ष, तप और दान हैं। ब्रह्मा, शिव तथा हम सभी लोकपालको वे ही उत्पन्न करती हैं। आप सम्पूर्ण जगत्के पिता और सीता सबकी माता हैं। आप सर्व हैं, साक्षात् भगवान् हैं; अतः आप भी इस बातको जानते हैं कि सीता नित्य शुद्ध हैं। ये आपको प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय हैं; इसलिये जनककिशोरी सीताको शुद्ध एवं अपनी प्रिया जानकर आप सदा उनका आदर करें। प्रभो! आपका या सीताका किसी शापके कारण पराभव नहीं हो सकता-मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिजी ! मेरी ये सभी बातें आप साक्षात् महाराज श्रीरामचन्द्रजीसे कहियेगा।"
इस प्रकार सीताको स्वीकार करने के सम्बन्धमे वरुणने मुझसे अपना विचार प्रकट किया था। इसी तरह अन्य सब लोकपालोंने भी अपनी-अपनी सम्मति दी है।देवता, असुर और गन्धर्व - सबने कौतूहलवश आपके पुत्रोंके मुखसे रामायणका गान सुना है। सुनकर सभी प्रसन्न हो हुए हैं। उन्होंने आपके पुत्रोंकी बड़ी प्रशंसा की है। उन दोनों बालकोंने अपने रूप, गान, अवस्था और गुणोंके द्वारा तीनों लोकोंको मोह लिया है। लोकपालाने आशीर्वादरूपसे जो कुछ दिया उसे आपके पुत्रोंने स्वीकार किया। उन्होंने ऋषियों तथा 1 अन्य लोकोंसे भी बढ़कर कीर्ति पायी है। पुण्यश्लोक (पवित्र यशवाले) पुरुषोंके शिरोमणि श्रीरघुनाथजी! आप त्रिलोकीनाथ होकर भी इस समय गृहस्थ धर्मकी तीता कर रहे हैं; अतः विद्या, शील एवं सद्गुणोंसे विभूषित अपने दोनों पुत्रोंको उनकी मातासहित ग्रहण कीजिये। सीताने ही आपकी मरी हुई सेनाको जिलाकर उसे प्राण दान दिया है-इससे सब लोगोंको उनकी शुद्धिका विश्वास हो गया है [ यह लोगोंकी प्रतीतिके लिये प्रत्यक्ष प्रमाण है] यह प्रसंग पतित पुरुषोंको भी पावन बनानेवाला है। मानद! सीताकी शुद्धिके विषय में न तो आपसे कोई बात छिपी है. न हमलोगोंसे और न देवताओंसे ही। केवल साधारण लोगोंको कुछ भ्रम हो गया था, किन्तु उपर्युक्त घटनासे वह भी अवश्य दूर हो गया।
शेषजी कहते हैं- मुने! भगवान् श्रीराम यद्यपि सर्वज्ञ हैं, तो भी जब वाल्मीकिजीने उन्हें इस प्रकार समझाया, तो वे उनकी स्तुति और नमस्कार करके लक्ष्मणसे बोले-'तात! तुम सुमित्रसहित रथपर बैठकर धर्मचारिणी सीताको पुत्रोंसहित ले आनेके लिये अभी जाओ। वहाँ मेरे तथा मुनिके इन वचनोंको सुनाना और सीताको समझा-बुझाकर शीघ्र ही अयोध्यापुरीमें ले आना।' लक्ष्मणने कहा प्रभो। मैं अभी जाऊँगा, यदि आप सब लोगोंका प्रिय संदेश सुनकर महारानी सीताजी यहाँ पधारेंगी तो समझेंगा, मेरी यात्रा सफल हो गयी। श्रीरामचन्द्रजीसे ऐसा कहकर लक्ष्मण उनकी आज्ञासे रथपर बैठे और मुनिके एक शिष्य तथा सुमित्रको साथ लेकर आश्रमको गये। रास्तेमें यह सोचते जाते थे कि 'भगवती सीताको किस प्रकार प्रसन्न करनाशाहिये?' ऐसा विचार करनेसे उनके हृदयमें कभी हर्ष होता था और कभी संकोच। वे दोनों भावोंके बीचकी स्थिति में थे। इसी अवस्थामें सीताके आश्रमपर पहुँचे, जो उनके श्रमको दूर करनेवाला था। वहाँ लक्ष्मण रथसे उतरकर सीताके समीप गये और आँखोंमें आँसू "भरकर आयें पूजनीये!! भगवति !! कल्याणमयी!' इत्यादि सम्बोधनोंका बारम्बार उच्चारण करते हुए उनके चरणोंमें गिर पड़े। भगवती सीताने वात्सल्य प्रेमसे विह्वल होकर लक्ष्मणको उठाया और इस प्रकार पूछा—'सौम्य ! मुनिजनोंको ही प्रिय लगनेवाले इस वनमें तुम कैसे आये ? बताओ, माता कौसल्याके गर्भरूपी शुक्तिसे जो मौक्तिकके समान प्रकट हुए हैं, वे मेरे आराध्यदेव श्रीरघुनाथजी तो कुशलसे हैं न? देवर! उन्होंने अकीर्तिसे डरकर तुम्हें मेरे परित्यागका कार्य सौंपा था। यदि इससे भी संसारमें उनकी निर्मल 'कीर्तिका विस्तार हो सके तो मुझे संतोष ही होगा। मैं ने अपने प्राण देकर भी पतिदेवके सुयशको स्थिर रखना चाहती हूँ। उन्होंने मुझे त्याग दिया है तो भी मैंने उनका थोड़ी देरके लिये भी कभी त्याग नहीं किया है [निरन्तर उन्होंका चिन्तन करती रहती हूँ। मेरे ऊपर सदा कृपा रखनेवाली माता कौसल्याको तो कोई कष्ट नहीं है? वे कुशलसे हैं न? भरत आदि भाई भी तो सकुशल हैं न? तथा महाभागा सुमित्रा, जो मुझे अपने प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय मानती हैं, कैसी हैं? उनकी कुशल बताओ।'
इस प्रकार सीताने जब बारम्बार सबकी कुशल पूछी तो लक्ष्मणने कहा- 'देवि! महाराज कुशलसे हैं और आपकी भी कुशलता पूछ रहे हैं। माता कौसल्या, सुमित्रा तथा राजभवनकी अन्य सभी देवियोंने प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देते हुए आपकी कुशल पूछी है। भरत और शत्रुघ्नने कुशल प्रश्नके साथ ही आपके श्रीचरणों में प्रणाम कहलाया है, जिसे मैं सेवामें निवेदन करता है। गुरुओं तथा समस्त गुरुपत्नियोंने भी आशीर्वाद दिया है, साथ ही कुशल-मंगल भी पूछा है। महाराज श्रीराम आपको बुला रहे हैं। हमारे स्वामीने कुछ रोते-रोते आपके प्रति जो सन्देश दिया है, उसे सुनिये। वक्ताकेहृदयमें जो बात रहती है, वह उसकी वाणीमें निस्सन्देह व्यक्त हो जाती है [ओरघुनाथजीने कहा है-] 'सतीशिरोमणि सीते। लोग मुझे ही सबके ईश्वरका भी ईश्वर कहते हैं; किन्तु मैं कहता हूँ, जगत्में जो कुछ हो रहा है, इसका स्वतन्त्र कारण अदृष्ट (प्रारब्ध) ही है। जो सबका ईश्वर है, वह भी प्रत्येक कार्यमें अदृष्टका ही अनुसरण करता है। मेरे धनुष तोड़ने में, कैकेयीकी बुद्धि भ्रष्ट होनेमें, पिताकी मृत्युमें, मेरे वन जानेमें, वहाँ तुम्हारा हरण होनेमें, समुद्रके पार जानेमें, राक्षसराज रावणके मारनेमें, प्रत्येक युद्धके अवसरपर वानर, भालू और राक्षसोंकी सहायता मिलनेमें तुम्हारी प्राप्तिमें, मेरी प्रतिज्ञाके पूर्ण होनेमें, पुनः अपने बन्धुओंके साथ संयोग होनेमें, राज्यकी प्राप्तिमें तथा फिर मुझसे मेरी प्रियाका वियोग होनेमें एकमात्र अदृष्ट ही अनिवार्य कारण है। देवि! आज वही अदृष्ट फिर हम दोनों का संयोग करानेके लिये प्रसन्न हो रहा है। ज्ञानीलोग भी अदृष्टका ही अनुसरण करते हैं। उस अदृष्टका भोगसे ही क्षय होता है; अतः तुमने वनमें रहकर उसका भोग पूरा कर लिया है। सीते! तुम्हारे प्रति जो मेरा अकृत्रिम स्नेह है, वह निरन्तर बढ़ता रहता है, आज वही स्नेह निन्दा करनेवाले लोगोंकी उपेक्षा करके तुम्हें आदरपूर्वक बुला रहा है। दोषकी आशंका मात्रसे भी स्नेहकी निर्मलता नष्ट हो जाती है; इसलिये विद्वानोंको [दोषके मार्जनद्वारा] स्नेहको शुद्ध करके ही उसका आस्वादन करना चाहिये। कल्याणी ! [ तुम्हें वनमें भेजकर] मैंने तुम्हारे प्रति अपने स्नेहकी शुद्धि ही की है; अत: तुम्हें इस विषय में कुछ अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये [मैंने तुम्हारा त्याग किया है-ऐसा नहीं मानना चाहिये] शिष्ट पुरुषोंके मार्गका अनुसरण करके मैंने निन्दा करनेवाले लोगोंकी भी रक्षा ही की है। देवि! हम दोनोंकी जो निन्दा की गयी है. इससे हमारी तो प्रत्येक अवस्थामें शुद्धि ही होगी किन्तु ये मूर्खलोग जो महापुरुषोंके चरित्रको लेकर निन्दा करते हैं; इससे वे स्वयं ही नष्ट हो जायेंगे हम दोनोंकी कीर्ति उज्वल है, हम दोनोंका स्नेह रस उज्ज्वल है, हमलोगोंके वंशउज्ज्वल हैं तथा हमारे सम्पूर्ण कर्म भी उज्ज्वल हैं। इस पृथ्वीपर जो हम दोनोंकी कीर्तिका गान करनेवाले पुरुष हैं, वे भी उज्ज्वल रहेंगे। जो हम दोनोंके प्रति भक्ति रखते हैं, वे संसार सागरसे पार हो जायेंगे।' इस प्रकार आपके गुणोंसे प्रसन्न होकर श्रीरघुनाथजीने यह संदेश दिया है; अतः अब आप अपने पतिदेवके चरणकमलोंका दर्शन करनेके लिये अपने मनको उनके प्रति सदय बनाइये महारानी आपके दोनों कुमार हाथीपर बैठकर आगे-आगे चलें, आप शिविकामें आरूढ़ होकर मध्यमें रहे और मैं आपके पीछे-पीछे चलूँ इस तरह आप अपनी पुरी अयोध्या में पधारें। वहाँ चलकर जब आप अपने प्रियतम श्रीरामसे मिलेंगी, उस समय यज्ञशालामें सब ओरसे आयी हुई सम्पूर्ण राज महिलाओंको, समस्त ऋषि पत्नियोंको तथा माता कौसल्याको भी बड़ा आनन्द होगा। नाना प्रकारके बाजे बजेंगे, मंगलगान होंगे तथा अन्य ऐसे ही समारोहोंके द्वारा आज आपके शुभागमनका महान् उत्सव मनाया जायगा।'
शेषजी कहते हैं—मुने! यह सन्देश सुनकर महारानी सीताने कहा- 'लक्ष्मण में धर्म, अर्थ और कामसे शून्य हूँ। भला मेरे द्वारा महाराजका कौन-सा कार्य सिद्ध होगा? पाणिग्रहणके समय जो उनका मनोहर रूप मेरे हृदयमें बस गया, वह कभी अलग नहीं होता। ये दोनों कुमार उन्हींके तेजसे प्रकट हुए हैं। ये वंशके अंकुर और महान् वीर हैं। इन्होंने धनुर्विद्यामें विशिष्ट योग्यता प्राप्त की है। इन्हें पिता के समीप ले जाकर बलपूर्वक इनका लालन-पालन करना। मैं तो अब यहीं रहकर तपस्याके द्वारा अपनी इच्छाके अनुसार श्रीरघुनाथजीकी आराधना करूँगी। महाभाग ! तुम वहाँ जाकर सभी पूज्यजनोंके चरणोंमें मेरा प्रणाम कहना और सबसे कुशल बताकर मेरी ओरसे भी सबकी कुशल पूछना।'
इसके बाद सीताने अपने दोनों बालकोंको आदेश दिया - 'पुत्रो अब तुम अपने पिताके पास जाओ। उनकी सेवा-शुश्रूषा करना। वे तुम दोनोंको अपना पदप्रदान करेंगे।' कुमार कुश और लव नहीं चाहते थे कि हम माताके चरणोंसे अलग हों; फिर भी उनकी आज्ञा मानकर वे लक्ष्मणके साथ गये। वहाँ पहुँचनेपर भी वे वाल्मीकिजीके ही चरणोंके निकट गये। लक्ष्मणने भी बालकोंके साथ जाकर पहले महर्षिको ही प्रणाम किया। फिर वाल्मीकि, लक्ष्मण तथा वे दोनों कुमार सब एक साथ मिलकर चले और श्रीरामचन्द्रजीको सभामें स्थित जान उनके दर्शनके लिये उत्कण्ठित हो वहीं गये। लक्ष्मणने श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रणाम करके सीताके साथ जो कुछ बातचीत हुई थी, वह सब उनसे कह सुनायी। उस समय परम बुद्धिमान् लक्ष्मण हर्ष और शोक दोनों भावोंमें मग्न हो रहे थे।
श्रीरामचन्द्रजीने कहा- सखे एक बार फिर वहाँ जाओ और महान् प्रयत्न करके सीताको शीघ्र यहाँ ले आओ। तुम्हारा कल्याण हो। मेरी ये बातें जानकीसे कहना' देवि! क्या वनमें तपस्या करके तुमने मेरे सिवा कोई दूसरी गति प्राप्त करनेका विचार किया है? अथवा मेरे अतिरिक्त और कोई गति सुनी या देखी है जो मेरे बुलानेपर भी नहीं आ रही हो? तुम अपनी हीइच्छाके कारण यहाँसे मुनियोंको प्रिय लगनेवाले वनमें गयी थीं। वहाँ तुमने मुनिपत्नियोंका पूजन किया और मुनियोंके भी दर्शन किये; अब तो तुम्हारी इच्छा पूरी हुई। अब क्यों नहीं आतीं ? जानकी स्त्री कहीं भी क्यों न जाय, पति ही उसके लिये एकमात्र गति है। वह गुणहीन होनेपर भी पत्नीके लिये गुणोंका सागर है। फिर यदि वह मनके अनुकूल हुआ तब तो उसकी मान्यताके विषयमें कहना ही क्या है। उत्तम कुलकी स्त्रियाँ जो जो कार्य करती हैं, वह सब पतिको सन्तुष्ट करनेके लिये ही होता है। परन्तु मैं तो तुमपर पहलेसे ही विशेष सन्तुष्ट हूँ और इस समय वह सन्तोष और भी बढ़ गया है। त्याग, जप, तप, दान, व्रत, तीर्थ और दया आदि सभी साधन मेरे प्रसन्न होनेपर ही सफल होते हैं मेरे सन्तुष्ट होनेपर सम्पूर्ण देवता सन्तुष्ट हो जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।'
लक्ष्मणने कहा- भगवन्! सीताको ले आनेके उद्देश्यसे प्रसन्न होकर आपने जो जो बातें कही हैं, वह सब मैं उन्हें विनयपूर्वक सुनाऊँगा।
ऐसा कहकर लक्ष्मणने श्रीरघुनाथजीके चरणों में प्रणाम किया और अत्यन्त वेगशाली रथपर सवार हो वे तुरंत सीताके आश्रमपर चल दिये। तदनन्तर वाल्मीकिजीने श्रीरामचन्द्रजीके दोनों पुत्रोंकी ओर, जो परम शोभायमान और अत्यन्त तेजस्वी थे, देखा तथा किंचित् मुसकराकर कहा- 'वत्स! तुम दोनों वीणा बजाते हुए मधुर स्वरसे श्रीरामचन्द्रजीके अद्भुत चरित्रका गान करो।' महर्षिके इस प्रकार आज्ञा देनेपर उन बड़भागी बालकोंने महान् पुण्यदायक श्रीरामचरित्रका गान किया, जो सुन्दर वाक्यों और उत्तम पदोंमें चित्रित हुआ था, जिसमें धर्मकी साक्षात् विधि, पातिव्रत्यके उपदेश महान् भ्रातृ-स्नेह तथा उत्तम गुरुभक्तिका वर्णन है। जहाँ स्वामी और सेवककी नीति मूर्तिमान् दिखायी देती है तथा जिसमें साक्षात् श्रीरघुनाथजीके हाथसे पापाचारियोंको दण्ड मिलनेका वर्णन है। बालकोंके उस गानसे सारा जगत् मुग्ध हो गया। स्वर्गके देवता भी विस्मयमें -पड़ गये किन्नर भी वह गान सुनकर मूच्छितहो गये। श्रीराम आदि सभी राजा नेत्रोंसे आनन्दके आँस बहाने लगे। वे गीतके पंचम स्वरका आलाप सुनकर ऐसे मोहित हुए कि हिल-डुल नहीं सकते थे; चित्र लिखित से जान पड़ते थे।
तत्पश्चात् महर्षि वाल्मीकिने कुश और लवसे कृपापूर्वक कहा- 'वत्स! तुमलोग नीतिके विद्वानोंमें श्रेष्ठ हो, अपने पिताको पहचानो [ये श्रीरघुनाथजी तुम्हारे पिता हैं; इनके प्रति पुत्रोचित बर्ताव करो]। ' मुनिका यह वचन सुनकर दोनों बालक विनीतभावसे पिताके चरणोंमें लग गये। माताकी भक्तिके कारण उन दोनोंके हृदय अत्यन्त निर्मल हो गये थे। श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने दोनों बालकोंको छातीसे लगा लिया। उस समय उन्होंने ऐसा माना कि मेरा धर्म ही इन दोनों पुत्रोंके रूपमें मूर्तिमान् होकर उपस्थित हुआ है। वात्स्यायनजी सभामें बैठे हुए लोगोंने भी श्रीरामचन्द्रजीके पुत्रोंका मनोहर मुख देखकर जानकीजीकी पतिभक्तिको सत्य माना।
शेषजीके मुखसे इतनी कथा सुनकर वात्स्यायनको सम्पूर्ण धर्मोसे युक्त रामायणके विषयमें कुछ सुननेकी इच्छा हुई: अतएव उन्होंने पूछा-'स्वामिन् । महर्षिवाल्मीकिने इस रामायण नामक महान् काव्यकी रचना किस समय की, किस कारणसे की तथा इसके भीतर किन-किन बातोंका वर्णन है ?"
शेषजीने कहा- एक समयकी बात है वाल्मीकिजी महान बनके भीतर गये, जहाँ ताल, तमाल और खिले हुए पलाशके वृक्ष शोभा पा रहे थे। कोयलकी मीठी तान और भ्रमरोंकी गुंजारसे गूँजते रहनेके कारण वह वन्यप्रदेश सब ओरसे रमणीय जान पड़ता था। कितने ही मनोहर पक्षी वहाँ बसेरा ले रहे थे। महर्षि जहाँ खड़े थे, उसके पास ही दो सुन्दर क्रौंचपक्षी कामयाणसे पीड़ित हो रमण कर रहे थे। दोनों में परस्पर स्नेह था और दोनों एक-दूसरेके सम्पर्क में रहकर अत्यन्त हर्षका अनुभव करते थे। इसी समय एक व्याध वहाँ आया और उस निर्दयीने उन पक्षियोंमेंसे एकको जो बड़ा सुन्दर था, बाणसे मार गिराया। यह देख मुनिको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने सरिताका पावन जल हाथमें लेकर क्रौंचकी हत्या करनेवाले उस निषादको शाप दिया ओ निषाद तुझे कभी भी शाश्वत शान्ति नहीं मिलेगी क्योंकि तूने इन क्रौंच पक्षियोंमेंसे एककी, जो कामसे मोहित हो रहा था,[बिना किसी अपराधके] हत्या कर डाली है।" यह वाक्य छन्दोबद्ध श्लोकके रूपमें निकला; इसे सुनकर मुनिके शिष्योंने प्रसन्न होकर कहा- 'स्वामिन्! आपने शाप देनेके लिये जिस वाक्यका प्रयोग किया है उसमें सरस्वती देवीने श्लोकका विस्तार किया है। मुनिश्रेष्ठ! यह वाक्य अत्यन्त मनोहर श्लोक बन गया हूँ।' उस समय ब्रह्मर्षि वाल्मीकिजीके मनमें भी बड़ी प्रसन्नता हुई। उसी अवसरपर ब्रह्माजीने आकर वाल्मीकिजी से कहा- 'मुनीश्वर ! तुम धन्य हो। आज सरस्वती तुम्हारे मुखमें स्थित होकर श्लोकरूपमें प्रकट हुई है। इसलिये अब तुम मधुर अक्षरोंमें सुन्दर रामायणकी रचना करो। मुखसे निकलनेवाली वही वाणी धन्य है, जो श्रीरामनामसे युक्त हो। इसके सिया, अन्य जितनी बातें हैं, सब कामको कथाएँ हैं, ये मनुष्योंके लिये केवल सूतक (अपवित्रता ) उत्पन्न करती हैं। अत: तुम श्रीरामचन्द्रजीके लोकप्रसिद्ध चरित्रको लेकर काव्य रचना करो, जिससे पद पदपर पापियोंके पापका निवारण होगा।' इतना कहकर ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओंके साथ अन्तर्धान हो गये।तदनन्तर एक दिन वाल्मीकिजी नदीके मनोहर तटपर ध्यान लगा रहे थे। उस समय उनके हृदयमें सुन्दर रूपधारी श्रीरामचन्द्रजी प्रकट हुए। नील पद्म दलके समान श्याम विग्रहवाले कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन पाकर मुनिने उनके भूत, वर्तमान और भविष्य - तीनों कालके चरित्रोंका साक्षात्कार किया। फिर तो उन्हें बड़ा आनन्द मिला और उन्होंने मनोहर पदों तथा नाना प्रकारके छन्दोंमें रामायणकी रचना की। उसमें अत्यन्त मनोरम छः काण्ड हैं— बाल, आरण्यक, किष्किन्धा, सुन्दर, युद्ध तथा उत्तर महामते। जो इन काण्डोंको सुनता है, वह मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। बालकाण्डमें - राजा दशरथने प्रसन्नतापूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार पुत्र प्राप्त किये, जो साक्षात् सनातन ब्रह्म श्रीहरिके अवतार थे। फिर श्रीराम चन्द्रजीका विश्वामित्रके यज्ञमें जाना, वहाँसे मिथिलामें जाकर सीतासे विवाह करना, मार्गमें परशुरामजी से मिलते हुए अयोध्यापुरीमें आना, वहाँ युवराजपदपर अभिषेक होने की तैयारी, फिरमाता कैकेयीके कहनेसे वनमें जाना, गंगापार करके चित्रकूट पर्वतपर पहुँचना तथा वहाँ सीता और लक्ष्मणके साथ निवास करना इत्यादि प्रसंगोंका वर्णन है। इसके अतिरिक्त न्यायके अनुसार चलनेवाले भरतने जब अपने भाई श्रीरामके वनमें जानेका समाचार सुना तो वे भी उन्हें लौटानेके लिये चित्रकूट पर्वतपर गये, किन्तु उन्हें जब न लौटा सके तो स्वयं भी उन्होंने अयोध्यासे बाहर नन्दिग्राममें वास किया। ये सब बातें भी बालकाण्डके ही अन्तर्गत हैं। इसके बाद आरण्यककाण्डमें आये हुए विषयोंका वर्णन सुनिये। सीता और लक्ष्मणसहित श्रीरामका भिन्न भिन्न मुनियोंके आश्रमोंमें निवास करना, वहाँ-वहाँके स्थान आदिका वर्णन, शूर्पणखाकी नाकका काटा जाना, खर और दूषणका विनाश, मायामय मृगके रूपमें आये हुए मारीचका मारा जाना, राक्षस रावणके द्वारा राम- पत्नी सीताका हरण, श्रीरामका विरहाकुल होकर वनमें भटकना और मानवोचित लीलाएँ करना, फिर कबन्धसे भेंट होना, पम्पासरोवरपर जाना और श्रीहनुमान्जीसे मिलाप होना—ये सभी कथाएँ आरण्यककाण्डके नामसे प्रसिद्ध हैं। तदनन्तर श्रीरामद्वारा सप्त ताल-वृक्षोंका भेदन, बालिका अद्भुत वध, सुग्रीवको राज्यदान, लक्ष्मणके द्वारा सुग्रीवको कर्तव्य पालनका सन्देश देना, सुग्रीवका नगरसे निकलना, सैन्यसंग्रह, सीताकी खोजके लिये वानरोंका भेजा जाना। वानरोंकी सम्पातीसे भेंट, हनुमान्जीके द्वारासमुद्र-लंघन और दूसरे तटपर उनका सब प्रसंग किष्किन्धाकाण्डके अन्तर्गत हैं। यह काण्ड अद्भुत है। अब सुन्दरकाण्डका वर्णन सुनिये, जहाँ श्रीरामचन्द्रजीकी अद्भुत कथाका उल्लेख है। हनुमान्जीका सीताकी खोजके लिये लंकाके प्रत्येक घरमें घूमना तथा वहाँके विचित्र-विचित्र दृश्योंका देखना, फिर सीताका दर्शन, उनके साथ बातचीत तथा वनका विध्वंस, कुपित हुए राक्षसोंके द्वारा हनुमान्जीका बन्धन, हनुमान्जीके द्वारा लंकाका दाह, फिर समुद्रके इस पार आकर उनका वानरोंसे मिलना। श्रीरामचन्द्रजीको सीताकी दी हुई पहचान अर्पण करना, सेनाका लंकाके लिये प्रस्थान, समुद्रमें पुल बाँधना तथा सेनामें शुक और सारणका आना- ये सब विषय सुन्दरकाण्डमें हैं। इस प्रकार सुन्दरकाण्डका परिचय दिया गया। युद्धकाण्डमें युद्ध और सीताकी प्राप्तिका वर्णन है। उत्तरकाण्डमें श्रीरामका ऋषियोंके साथ संवाद तथा यज्ञका आरम्भ आदि है। उसमें श्रीरामचन्द्रजीकी अनेकों कथाओंका वर्णन है, जो श्रोताओंके पापको नाश करनेवाली हैं। इस प्रकार मैंने छः काण्डोंका वर्णन किया। ये ब्रह्महत्याके पापको भी दूर करनेवाले हैं। उनकी कथाएँ बड़ी मनोहर हैं। मैंने यहाँ संक्षेपसे ही इनका परिचय दिया है। जो छः काण्डोंसे चिह्नित और चौबीस हजार श्लोकोंसे युक्त है, उसी वाल्मीकिनिर्मित ग्रन्थको रामायण नाम दिया गया है।