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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 3, अध्याय 81 - Khand 3, Adhyaya 81

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विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन

युधिष्ठिर बोले- नारदजी! महर्षि वसिष्ठके बताये हुए अन्यान्य तीर्थोका, जिनका नाम श्रवण करनेसे ही पाप नष्ट हो जाते हैं, मुझसे वर्णन कीजिये । नारदजीने कहा- 'धर्मज्ञ युधिष्ठिर! हिमालयके पुत्र अर्बुद पर्वतकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें पृथ्वी में छेद था। वहाँ महर्षि वसिष्ठका आश्रम हैं, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहाँ एक रात निवास करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक पिंगातीर्थमें आचमन करनेसे कपिला जातिकी सौ गौओंके दानका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् प्रभासक्षेत्रमें जाना चाहिये। वह विश्वविख्यात तीर्थ है।वहाँ साक्षात् अग्निदेव नित्य निवास करते हैं। उस श्रेष्ठ तीर्थमें शुद्ध एवं एकाग्रचित्त होकर स्नान करनेसे मानव अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञका फल प्राप्त करता है। उसके बाद सरस्वती और समुद्रके संगममें जाकर स्नान करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता और स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो वरुण देवताके उस तीर्थमें स्नान करके एकाग्रचित्त हो तीन राततक वहाँ निवास तथा देवता और पितरोंका तर्पण करता है, वह चन्द्रमाके समान कान्तिमान् होता और अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है।

भरतश्रेष्ठ ! वहाँसे वरदान नामक तीर्थकी यात्राकरनी चाहिये। वरदानमें स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल प्राप्त करता है। तदनन्तर नियमपूर्वक रहकर नियमित आहारका सेवन करते हुए द्वारकापुरीमें जाना चाहिये। उस तीर्थमें आज भी कमलके चिह्नसे चिलित मुद्राएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यह एक अद्भुत बात है। वहाँ कमलदलोंमें त्रिशूलके चिह्न दिखायी देते हैं। यहाँ महादेवजीका निवास है। जो समुद्र और सिन्धु नदीके संगमपर जाकर वरुण-तीर्थमें नहाता और एकाग्रचित्त हो देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण करता है, वह अपने तेजसे देदीप्यमान हो वरुणलोकमें जाता है। युधिष्ठिर। मनीषी पुरुष कहते हैं कि भगवान् शंकुकर्णेश्वरकी पूजा करनेसे दस अश्वमेधोंका फल होता है। शंकुकर्णेश्वर तीर्थकी प्रदक्षिणा करके तीनों लोकोंमें विख्यात तिमि नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वह सब पापको दूर करनेवाला तीर्थ है। वहाँ स्नान करके देवताओंसहित रुद्रको पूजा करनेसे मनुष्य जन्मभरके किये हुए पापोंको नष्ट कर डालता है। धर्मज्ञ तदनन्तर सबके द्वारा प्रशंसित वसुधारा तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ जानेमात्र से ही अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। कुरुश्रेष्ठ! जो मानव वहाँ स्नान करके एकाग्रचित्त हो देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करता है, वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहाँ वसुओंका एक दूसरा तीर्थ भी है, जहाँ स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य वसुओंका प्रिय होता है। तथा ब्रह्मलुंग नामक तीर्थमें जाकर पवित्र, शुद्धचित्त, पुण्यात्मा तथा रजोगुणरहित पुरुष ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। वहीं रेणुकाका भी तीर्थ है, जिसका देवता भी सेवन करते हैं। वहाँ स्नान करके ब्राह्मण चन्द्रमाकी भाँति निर्मल होता है।

तदनन्तर पंचनद तीर्थमें जाकर नियमित आहार ग्रहण करते हुए नियमपूर्वक रहना चाहिये। इससे पंचयज्ञोंके अनुष्ठानका फल प्राप्त होता है। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् भीमा नदीके उत्तम स्थानपर जाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य कभी गर्भमें नहीं आता तथा एक लाख गोदानोंका फल प्राप्त करता है। गिरिकुंज नामकतीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर पितामहको नमस्कार करनेसे सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त होता है। उसके बाद परम उत्तम विमलतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ आज भी सोने और चाँदी जैसे मत्स्य दिखायी देते हैं। नरश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करनेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है और मनुष्य सब पापोंसे शुद्ध हो परम गतिको प्राप्त होता है।

काश्मीरमें जो वितस्ता नामक तीर्थ है, वह नागराज तक्षकका भवन है। वह तीर्थ समस्त पापको दूर करनेवाला है। जो मनुष्य वहाँ स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, वह निश्चय ही वाजपेय यज्ञका फल पाता है। उसका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है तथा वह परम उत्तम गतिको प्राप्त होता है। वहाँसे मलद नामक तीर्थकी यात्रा करे। राजन्! वहाँ सायं-सन्ध्याके समय विधिपूर्वक आचमन करके जो अग्निदेवको यथाशक्ति चरु निवेदन करता है तथा पितरोंके निमित्त दान देता है, उसका वह दान आदि अक्षय हो जाता है—ऐसा विद्वान् पुरुषोंका कथन है। वहाँ अग्निको दिया हुआ चरु एक लाख गोदान, एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा एक सौ राजसूय यज्ञोंसे भी श्रेष्ठ है। धर्मके ज्ञाता युधिष्ठिर! वहाँसे दीर्घसत्र नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ जानेमात्रसे मानव राजसूय और अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। शशयान - तीर्थ बहुत ही दुर्लभ है। उस तीर्थ प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमाको लोग सरस्वती नदीमें स्नान करते हैं। जो वहाँ स्नान करता है, वह साक्षात् शिवकी भाँति कान्तिमान् होता है; साथ ही उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। कुरुनन्दन ! जो कुमारकोटि नामक तीर्थमें जाकर नियमपूर्वक स्नान करता और देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें संलग्न होता है, उसे दस हजार गोदानका फल मिलता है तथा वह अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। महाराज चहाँसे एकाग्रचित होकर रुद्रकोटि तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें करोड़ ऋषियोंने भगवान् शिक्के दर्शनकी इच्छासे बड़े हर्षके साथ ध्यान लगाया था। वहाँ स्नान करके पवित्र हुआ मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता और अपने कुलका भी उद्धार करता है। तदनन्तर लोकविख्यात संगम-तीर्थमें जाना चाहिये और वहाँ सरस्वती नदीमें परम पुण्यमय भगवान् जनार्दनकी उपासना करनी चाहिये। उस तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यका चित्त सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है। और वह शिवलोकको प्राप्त होता है।

राजेन्द्र ! तदनन्तर कुरुक्षेत्रकी यात्रा करनी चाहिये। उसकी सब लोग स्तुति करते हैं। वहाँ गये हुए समस्त प्राणी पापमुक्त हो जाते हैं धीर पुरुषको उचित है कि वह कुरुक्षेत्रमें सरस्वती नदीके तटपर एक मासतक निवास करे। युधिष्ठिर ! जो मनसे भी कुरुक्षेत्रका चिन्तन करता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह ब्रह्मलोकको जाता है। धर्मज्ञ ! वहाँसे भगवान् विष्णुके उत्तम स्थानको, जो 'सतत नामसे प्रसिद्ध है, जाना चाहिये। वहाँ भगवान् सदा मौजूद रहते हैं। जो उस तीर्थमें नहाकर त्रिभुवनके कारण भगवान् विष्णुका दर्शन करता है, वह विष्णुलोकमें जाता है। तत्पश्चात् पारिप्लवमें जाना चाहिये। वह तीनों लोकोंमें विख्यात तीर्थ है। उसके सेवनसे मनुष्यको अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञोंका फल मिलता है। तत्पश्चात् तीर्थसेवी मनुष्यको शाल्विकिनि नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ दशाश्वमेध घाटपर स्नान करनेसे भी वही फल प्राप्त होता है। तदनन्तर पंचनदमें जाकर नियमित आहार करते हुए नियमपूर्वक रहे। वहाँ कोटि तीर्थमें स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। तत्पश्चात् परम उत्तम वाराह तीर्थकी यात्रा करे, जहाँ पूर्वकालमें भगवान् विष्णु वराहरूपसे विराजमान हुए थे। उस तीर्थमें निवास करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त होता है। तदनन्तर जयिनीमें जाकर सोमतीर्थमें प्रवेश करे। वहाँ स्नान करके मानव राजसूय यज्ञका फल प्राप्त करता है। कृतशौच-तीर्थमें जाकर उसका सेवन करनेवाला पुरुष पुण्डरीक यज्ञका फल पाता है और स्वयं भी पवित्र हो जाता है। 'पम्पा' नामका तीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है, वहाँ जाकर स्नान करनेसे मनुष्य अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। कायशोधन-तीर्थमें जाकर स्नान करनेवालेकेशरीरकी शुद्धि होती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। तथा जिसका शरीर शुद्ध हो जाता है, वह कल्याणमय उत्तम लोकोंको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् लोकोद्धार नामक तीर्थको यात्रा करनी चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें सबकी उत्पत्तिके कारणभूत भगवान् विष्णुने समस्त लोकोंका उद्धार किया था राजन् वहाँ पहुँचकर उस उत्तम तीर्थमें स्नान करके मनुष्य आत्मीय जनोंका उद्धार कर देता है। जो कपिला-तीर्थमें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एकाग्रचित्त होकर स्नान तथा देवता पितरोंका पूजन करता है, वह मानव एक सहस्र कपिला- दानका फल पाता है। जो सूर्यतीर्थमें जाकर स्नान करता और मनको काबूमें रखते हुए उपवास परायण होकर देवताओं तथा पितरोंकी पूजा करता है, उसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है तथा वह सूर्यलोकको जाता है। गोभवन नामक तीर्थमें जाकर स्नान करनेवालेको सहस्र गोदानका फल मिलता है।

तदनन्तर ब्रह्मावर्तकी यात्रा करे। ब्रह्मावर्तमें स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। वहाँसे अन्यान्य तीर्थोंमें घूमते हुए क्रमशः काशीश्वरके तीर्थों में पहुँचकर स्नान करनेसे मनुष्य सब प्रकारके रोगोंसे छुटकारा पाता और ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर शौच-सन्तोष आदि नियमोंका पालन करते हुए शीतवनमें जाय वहाँ बहुत बड़ा तीर्थ है, जो अन्यत्र दुर्लभ है वह दर्शनमात्रसे एक दण्डमें पवित्र कर देता है। वहाँ एक दूसरा भी श्रेष्ठ तीर्थ है, जो स्नान करनेवाले लोगोंका दुःख दूर करनेवाला माना गया है। वहाँ तत्त्वचिन्तन-परायण विद्वान् ब्राह्मण स्नान करके परम गतिको प्राप्त होते हैं। स्वर्णलोमापनयन नामक तीर्थमें प्राणायामके द्वारा जिनका अन्तःकरण पवित्र हो चुका है, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं। दशाश्वमेध नामक तीर्थमें भी स्नान करनेसे उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है।

तत्पश्चात् लोकविख्यात मानुष - तीर्थकी यात्रा करे। राजन्। पूर्वकालमें एक व्याधके बाणोंसे पीड़ित हुए कुछ कृष्णमृग उस सरोवर में कूद पड़े थे और उसमें गोता लगाकर मनुष्य शरीरको प्राप्त हुए थे। [ तभीसे वह मानुष तीर्थके नामसे प्रसिद्ध हुआ।] इस तीर्थमें स्नानकरके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जो ध्यान लगाता है, उसका हृदय सब पापसे शुद्ध हो जाता है तथा वह स्वर्गलोक प्रतिष्ठित होता है। राजन्। मानुष तीर्थसे पूर्व दिशामें एक कोसकी दूरीपर आपगा नामसे विख्यात एक नदी बहती है। उसके तटपर जाकर जो मानव देवता और पितरोंके उद्देश्यसे साँवाका बना हुआ भोजन दान देता है, वह यदि एक ब्राह्मणको भोजन ये तो एक करोड़ ब्राह्मणोंके भोजन करानेका फल प्राप्त होता है। वहाँ स्नान करके देवताओं और पितरोंके पूजन तथा एक रात निवास करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् उस तीर्थमें जाना चाहिये, जो इस पृथ्वीपर ब्रह्मानुस्वर तीर्थके नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ सप्तर्षियोंके कुण्डोंमें तथा महात्मा कपिलके क्षेत्रमें स्नान करके जो ब्रह्माजीके पास जा उनका दर्शन करता है, वह पवित्र एवं जितेन्द्रिय होता है तथा उसका चित्त सब पापोंसे शुद्ध होनेके कारण वह अन्तमें ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है।

राजन् शुक्लपक्षको दशमीको पुण्डरीक तीर्थमें प्रवेश करना चाहिये। वहाँ स्नान करके मनुष्य पुण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त करता है। वहाँसे त्रिविष्टप नामक तीर्थको जाय, वह तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। यहाँ वैतरणी नामकी एक पवित्र नदी है, जो सब पापोंसे छुटकारा दिलानेवाली है वहाँ स्नान करके शूलपाणि भगवान् शंकरका पूजन करनेसे मनुष्यका हृदय सब पापसे शुद्ध हो जाता है तथा वह परम गतिको प्राप्त होता है। पाणिख्यात नामसे विख्यात तीर्थमें स्नान और देवताओंका तर्पण करके मानव राजसूय यज्ञका फल प्राप्त करता है। तत्पश्चात् विश्वविख्यात मिश्रक (मिश्रिख) मैं जाना चाहिये। नृपश्रेष्ठ। हमारे सुननेमें आया है कि महात्मा व्यासजीने द्विजातिमात्रके लिये वहाँ सब तीर्थोका सम्मेलन किया था, अतः जो मिश्रिखमें स्नान करता है. वह मानो सब तीर्थोंमें स्नान कर लेता है।

नरेश्वर ! जो ऋणान्त कूपके पास जाकर वहाँ एक सेर तिलका दान करता है, वह ऋणसे मुक्त हो परम सिद्धिको प्राप्त होता है। वेदीतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानका फल मिलता है। अहन् औरसुदिन ये दो तीर्थ अत्यन्त दुर्लभ हैं। उनमें स्नान करनेसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। मृगधूम तीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ रुद्रपदमें स्नान और महात्मा शूलपाणिका पूजन करके मानव अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। कोटितीर्थमें स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। वामनतीर्थ भी तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर विष्णुपदमें स्नान और भगवान् वामनका पूजन करनेसे तीर्थयात्रीका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है। कुलम्पुन-तीर्थमें स्नान करके मनुष्य अपने कुलको पवित्र करता है। शालिहोत्रका एक तीर्थ है, जो शातिसूर्य नामसे प्रसिद्ध है उसमें विधिपूर्वक स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानोंका फल मिलता है। राजन् ! सरस्वती नदीमें एक श्रीकुंज नामक तीर्थ है। वहाँ स्नान करके मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त करता है। तत्पश्चात् ब्रह्माजीके उत्तम स्थान (पुष्कर) की यात्रा करनी चाहिये। छोटे वर्णका मनुष्य वहाँ स्नान करनेसे ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है और ब्राह्मण शुद्धचित्त होकर परमगतिको प्राप्त होता है।

कपालमोचन तीर्थ सब पापका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है वहाँसे कार्तिकेयके पृथूदक तीर्थमें जाना चाहिये, वह तीनों लोकोंमें विख्यात है वहाँ देवता और पितरोंके पूजनमें तत्पर होकर स्नान करना चाहिये। स्त्री हो या पुरुष, वह मानवबुद्धिसे प्रेरित हो जान-बूझकर या बिना जाने जो कुछ भी अशुभ कर्म किये होता है, वह सब वहाँ स्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं, उसे अश्वमेध यज्ञके फल तथा स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। कुरुक्षेत्रको परम पवित्र कहते हैं, कुरक्षेत्रसे भी पवित्र है सरस्वती नदी, उससे भी पवित्र है यहाँ तीर्थ और उन तीथोंसे भी पावन है पृथूदक पृथूदक तीर्थमें जप करनेवाले मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। राजन्! श्रीसनत्कुमार तथा महात्मा व्यासने इस तीर्थकी महिमा गायी है। वेदमें भी इसे निश्चित रूपसे महत्त्व दिया गया है। अतः पृथूदक तीर्थमें अवश्य जाना चाहिये। पृथूदक तीर्थसे बढ़कर दूसरा कोई परम पावन तीर्थ नहीं है।निस्सन्देह यही मेध्य, पवित्र और पावन है। वहीं मधुपुर नामक तीर्थ है, वहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त होता है। नरश्रेष्ठ। वहाँसे सरस्वती और अरुणाके संगममें, जो विश्वविख्यात तीर्थ है, जाना चाहिये। वहाँ तीन राततक उपवास करके रहने और स्नान करनेसे ब्रह्महत्या छूट जाती है। साथ ही तीर्थसेवी पुरुषको अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञका फल मिलता है और वह अपनी सात पीढ़ियोंतकका उद्धार कर देता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। वहाँसे शतसहस्र तथा साहस्रक-इन दोनों तीर्थोंमें जाना चाहिये। वे दोनों तीर्थ भी वहीं हैं तथा सम्पूर्ण लोकोंमें उनकी प्रसिद्धि है उन दोनोंमें स्नान करनेसे मनुष्य सहस्त गोदानोंका फल पाता है। वहाँ जो दान या उपवास किया जाता है, वह सहस्रगुना अधिक फल देनेवाला होता है। तदनन्तर परम उत्तम रेणुकातीर्थमें जाना चाहिये और वहाँ देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर हो स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्यका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है तथा उसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। जो क्रोध और इन्द्रियोंको जीतकर विमोचन तीर्थमें स्नान करता है, वह प्रतिग्रहजनित समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है।

तदनन्तर जितेन्द्रिय हो ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए पंचवट तीर्थमें जाकर [स्नान करनेसे] मनुष्यको महान् पुण्य होता है तथा वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जहाँ स्वयं योगेश्वर शिव विराजमान हैं, वहाँ उन देवेश्वरका पूजन करके मनुष्य वहाँकी यात्रा करने मात्र से सिद्धि प्राप्त कर लेता है। कुरुक्षेत्रमें इन्द्रिय-निग्रह तथा ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए स्नान करनेसे मनुष्यका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है और वह रुद्रलोकको प्राप्त होता है। इसके बाद नियमित आहारका भोजन तथा शौचादि नियमोंका पालन करते हुए स्वर्गद्वारकी यात्रा करे। ऐसा करनेसे मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता और ब्रह्मलोकको जाता है। महाराज नारायण तथा पद्मनाभके क्षेत्रों में जाकर उनका दर्शन करनेसे तीर्थसेवी पुरुष शोभायमान रूप धारण करके विष्णुधामको प्राप्तहोता है। समस्त देवताओंके तीर्थोंमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण दुःखोंसे मुक्त होकर श्रीशिवकी भाँति कान्तिमान् होता है। तत्पश्चात् तीर्थसेवी पुरुष अस्थिपुरमें जाय और उस पावन तीर्थमें पहुँचकर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे। इससे उसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। भरतश्रेष्ठ। वहीं गंगाहद नामक कृप है जिसमें तीन करोड़ तीर्थोका निवास है। राजन् ! उसमें स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। आपगामें स्नान और महेश्वरका पूजन करके मनुष्य परम गतिको पाता है और अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। तत्पश्चात् तीनों लोकोंमें विख्यात स्थाणुवट तीर्थमें जाना चाहिये यहाँ स्नान करके रात्रिमें निवास करनेसे मनुष्य रुद्रलोकको प्राप्त होता है। जो नियम परायण, सत्यवादी पुरुष एकरात्र नामक तीर्थमें जाकर एक रात निवास करता है, वह ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। राजेन्द्र वहाँसे उस त्रिभुवनविख्यात तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ तेजोराशि महात्मा आदित्यका आश्रम है जो मनुष्य उस तीर्थमें स्नान करके भगवान् सूर्यका पूजन करता है, वह सूर्यलोकमें जाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है।

युधिष्ठिर इसके बाद सन्निहिता नामक तीर्थको यात्रा करनी चाहिये, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता तथा तपोधन ऋषि महान् पुण्यसे युक्त हो प्रतिमास एकत्रित होते हैं। सूर्यग्रहण के समय सन्निहितायें स्नान करनेसे सौ अश्वमेध यज्ञोंके अनुष्ठानका फल होता है। पृथ्वीपर तथा आकाशमें जितने भी तीर्थ, जलाशय, कृष तथा पुण्य-मन्दिर हैं, ये सब प्रत्येक मासकी अमावास्याको निश्चय ही सन्निहितामें एकत्रित होते हैं। अमावास्या तथा सूर्यग्रहणके समय वहाँ केवल स्नान तथा श्राद्ध करनेवाला मानव सहस्र अश्वमेध अनुष्ठानका फल प्राप्त करता है। स्त्री अथवा पुरुषका जो कुछ भी दुष्कर्म होता है, वह सब वहाँ स्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाता है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उस तीर्थमें स्नान करनेवाला पुरुष विमानपर बैठकर ब्रह्मलोकमें जाता है। पृथ्वीपर नैमिषारण्य पवित्र है तथा तीनोंलोकोंमें कुरुक्षेत्रको अधिक महत्त्व दिया गया है। हवासे उड़ायी हुई कुरुक्षेत्रकी धूलि भी यदि देहपर पड़ जाय तो वह पापीको भी परमगतिकी प्राप्ति करा देती है। कुरुक्षेत्र ब्रह्मवेदीपर स्थित है। वह ब्रह्मर्षियोंसे सेवित पुण्यमय तीर्थ है। राजन्! जो उसमें निवास करते हैं, वेकिसी तरह शोकके योग्य नहीं होते। तरण्डकसे लेकर अरण्डकतक तथा रामहद (परशुराम-कुण्ड) से लेकर मचक्रुकतकके भीतरका क्षेत्र समन्तपंचक कहलाता है । यही कुरुक्षेत्र है। इसे ब्रह्माजीके यज्ञकी उत्तर- वेदी कहा गया है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार