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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 132 - Khand 4, Adhyaya 132

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वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य

ऋषियोंने कहा- सूतजी महाराज हमने आपके मुखसे रामाश्वमेधकी कथा अच्छी तरह सुन ली; अब परमात्मा श्रीकृष्णके माहात्म्यका वर्णन कीजिये। सूतजी बोले- महर्षियो। जिनका हृदय भगवान् शंकरके प्रेममें दूना रहता है, वे पार्वती देवी एक दिनअपने पतिको प्रेमपूर्वक नमस्कार करके इस प्रकार बोलीं- 'प्रभो! वृन्दावनका माहात्म्य अथवा अद्भुत रहस्य क्या है, उसे मैं सुनना चाहती हूँ?"

महादेवजीने कहा—देवि! मैं यह बता चुका हूँ कि वृन्दावन ही भगवान्का सबसे प्रियतम धाम है।वह गुह्यसे भी गुह्य, उत्तम-से-उत्तम और दुर्लभसे भी दुर्लभ है। तीनों लोकोंमें अत्यन्त गुप्तस्थान है। बड़े बड़े देवेश्वर भी उसकी पूजा करते हैं। ब्रह्मा आदि भी उसमें रहनेकी इच्छा करते हैं। वहाँ देवता और सिद्धोंका निवास है। योगीन्द्र और मुनीन्द्र आदि भी सदा उसके ध्यानमें तत्पर रहते हैं। श्रीवृन्दावन बहुत ही सुन्दर और पूर्णानन्दमय रसका आश्रय है। वहाँकी भूमि चिन्तामणि है और जल रससे भरा हुआ अमृत है। वहाँके पेड़ कल्पवृक्ष हैं, जिनके नीचे झुंड-की झुंड कामधेनु गौएँ निवास करती हैं वहाँकी प्रत्येक स्वी लक्ष्मी और हरेक पुरुष विष्णु हैं; क्योंकि वे लक्ष्मी और विष्णुके दशांशसे प्रकट हुए हैं। उस वृन्दावनमें सदा श्याम तेज विराजमान रहता है, जिसकी नित्य-निरन्तर किशोरावस्था (पंद्रह वर्षकी उम्र) बनी रहती है। वह आनन्दका मूर्तिमान् विग्रह है। उसमें संगीत, नृत्य और वार्तालाप आदिकी अद्भुत योग्यता है। उसके मुखपर सदा मन्द मुसकानकी छटा छायी रहती है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, जो प्रेमसे परिपूर्ण हैं, ऐसे वैष्णवजन ही उस वनका आश्रय लेते हैं। वह वन पूर्ण ब्रह्मानन्दमें निमग्न है। वहाँ ब्रह्मकेही स्वरूपकी स्फुरणा होती है। वास्तवमें वह वन ब्रह्मानन्दमय ही है। वहाँ प्रतिदिन पूर्ण चन्द्रमाका उदय होता है। सूर्यदेव अपनी मन्द रश्मियोंके द्वारा उस वनकी सेवा करते हैं। वहाँ दुःखका नाम भी नहीं है। उसमें जाते ही सारे दुःखोंका नाश हो जाता है। वह जरा और मृत्युसे रहित स्थान है। वहाँ क्रोध और मत्सरताका प्रवेश नहीं है। भेद और अहंकारकी भी वहाँ पहुँच नहीं होती। वह पूर्ण आनन्दमय अमृत-र - रससे भरा हुआ अखण्ड प्रेमसुखका समुद्र है, तीनों गुणोंसे परे है और महान प्रेमधाम है वहाँ प्रेमकी पूर्णरूपसे अभिव्यक्ति हुई है। जिस वृन्दावनके वृक्ष आदिने भी पुलकित होकर प्रेमजनित आनन्दके आँसू बरसाये हैं; वहाँके चेतन वैष्णवोंकी स्थितिके सम्बन्धमें क्या कहा जा सकता है?

भगवान् श्रीकृष्णकी चरण-रजका स्पर्श होनेके कारण वृन्दावन इस भूतलपर नित्य धामके नामसे प्रसिद्ध है। वह सहस्रदल कमलका केन्द्रस्थान है। उसके स्पर्शमात्रसे यह पृथ्वी तीनों लोकोंमें धन्य समझी जाती है। भूमण्डलमें वृन्दावन गुझसे भी गुह्यतम, रमणीय, अविनाशी तथा परमानन्दसे परिपूर्ण स्थान है। वह गोविन्दका अक्षयधाम है। उसे भगवान्‌के स्वरूपसे भिन्न नहीं समझना चाहिये। वह अखण्ड ब्रह्मानन्दका आश्रय है। जहाँकी भूलिका स्पर्श होनेमात्र से मोक्ष हो जाता है, उस वृन्दावनके माहात्म्यका किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है। इसलिये देवि! तुम सम्पूर्ण चित्तसे अपने हृदयके भीतर उस वृन्दावनका चिन्तन करो तथा उसकी विहारस्थलियोंमें किशोरविग्रह श्रीकृष्णचन्द्रका ध्यान करती रहो। पहले बता आये हैं कि वृन्दावन सहस्रदल-कमलका केन्द्रस्थान है। कलिन्द-कन्या यमुना उस कमल-कर्णिकाकी प्रदक्षिणा किया करती हैं। उनका जल अनायास ही मुक्ति प्रदान करनेवाला और गहरा है। यह अपनी सुगन्धसे मनुष्यों का मन मोह लेता है। उस जलमें आनन्ददायिनी सुधासे मिश्रित घनीभूत मकरन्द (रस) की प्रतिष्ठा है। पद्म और उत्पल आदि नाना प्रकारके पुष्पोंसे यमुनाका स्वच्छ सलिल अनेक रंगका दिखायी देता है। अपनी चंचल तरंगोंके कारणवह जल अत्यन्त मनोहर एवं रमणीय प्रतीत होता है। पार्वतीजीने पूछा- दयानिधे। भगवान् श्रीकृष्णका आश्चर्यमय सौन्दर्य और श्रीविग्रह कैसा है, मैं उसे सुनना चाहती हूँ कृपया बतलाइये।

महादेवजीने कहा- देवि! परम सुन्दर वृन्दावनके मध्यभागमें एक मनोहर भवनके भीतर अत्यन्त उज्ज्वल योगपीठ है। उसके ऊपर माणिक्यका बना हुआ सुन्दर सिंहासन है, सिंहासनके ऊपर अष्टदल कमल है, जिसकी कर्णिका अर्थात् मध्यभागमें सुखदायी आसन लगा हुआ है; वही भगवान् श्रीकृष्णका उत्तम स्थान है। उसकी महिमाका क्या वर्णन किया जाय? वहीं भगवान् गोविन्द विराजमान होते हैं। वैष्णववृन्द उनकी सेवामें लगा रहता है। भगवान्का व्रज, उनकी अवस्था और उनका रूपये सभी दिव्य हैं। श्रीकृष्ण ही वृन्दावनके अधीश्वर हैं, वे ही व्रजके राजा हैं। उनमें सदा षड्विध ऐश्वर्य विद्यमान रहते हैं वे व्रजको बालक-बालिकाओंके एकमात्र प्राण-वल्लभ हैं और किशोरावस्थाको पार करके यौवनमें पदार्पण कर रहे हैं। उनका शरीर अद्भुत है, वे सबके आदि कारण हैं, किन्तु उनका आदि कोई भी नहीं है। वे नन्दगोपके प्रिय पुत्ररूपसे प्रकट हुए हैं; परन्तु वास्तवमें अजन्मा एवं नित्य ब्रह्म हैं, जिन्हें वेदकी श्रुतियाँ सदा ही खोजती रहती हैं। उन्होंने गोपीजनोंका चित्रा चुरा लिया है। वे ही परमधाम हैं। उनका स्वरूप सबसे उत्कृष्ट है। उनका श्रीविग्रह दो भुजाओंसे सुशोभित है। वे गोकुलके अधिपति हैं। ऐसे गोपीनन्दन श्रीकृष्णका इस प्रकार ध्यान करना चाहिये भगवान्‌की कान्ति अत्यन्त सुन्दर और अवस्था नूतन है। वे बड़े स्वच्छ दिखायी देते हैं। उनके शरीरकी आभा श्याम रंगकी है, जिसके कारण उनकी झाँकी बड़ी मनोहर जान पड़ती है। उनका विग्रह नूतन मेघ मालाके समान अत्यन्त स्निग्ध है। वे कानोंमें मनोहर कुण्डल धारण किये हुए हैं। उनकी कान्ति खिले हुए नील कमलके समान जान पड़ती है। उनका स्पर्श सुखद है। वे सबको सुख पहुँचानेवाले हैं। वे अपनी साँवली छटासे मनको मोहे लेते हैं। उनके केश बहुत ही चिकने, करले और चराते हैं। उनसे सब प्रकारकी सुगन्ध निकलती रहती है। केशोंके ऊपर ललाटके दक्षिण भागमें श्याम रंगकी चूड़ाके कारण वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते हैं। नाना रंगके आभूषण धारण करनेसे उनकी दीप्ति बड़ी उज्ज्वल दिखायी देती है। सुन्दर मोरपंख उनके मस्तककी शोभा बढ़ाता है। उनकी सज-धज बड़ी सुन्दर है। ये कभी से मन्दारपुष्पोंसे सुशोभित गोपुच्छके आकारको बनी हुई चूड़ा (चोटी) धारण करते हैं, कभी मोरपंखके मुकुटसे अलंकृत होते हैं और कभी अनेकों मणि माणिक्योंके बने हुए सुन्दर किरीटोंसे विभूषित होते हैं। चंचल अलकावली उनके मस्तककी शोभा बढ़ाती है। उनका मनोहर मुख करोड़ चन्द्रमाओंके समान कान्तिमान् है। ललाटमें कस्तूरीका तिलक है, साथ ही सुन्दर गोरोचनकी बिंदी भी शोभा दे रही है। उनका शरीर इन्दीवरके समान स्निग्ध और नेत्र कमल-दलकी भाँति | विशाल हैं। वे कुछ-कुछ भौहें नचाते हुए मन्द मुसकानके साथ तिरछी चितवनसे देखा करते हैं। उनकी नासिकाका अग्रभाग रमणीय सौन्दर्यसे युक्त है, जिसके कारण वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते हैं। उन्होंने नासाग्रभागमें गजमोती धारण करके उसकी कान्तिसे त्रिभुवनका मन मोह लिया है। उनका नीचेका ओठ सिन्दूरके समान लाल और चिकना है, जिससे उनकी मनोहरता और भी बढ़ गयी है। वे अपने कानोंमें नाना प्रकारके वर्णोंसे सुशोभित सुवर्णनिर्मित मकराकृत कुण्डल पहने हुए हैं। उन कुण्डलोंकी किरण पड़नेसे उनका सुन्दर कपोल दर्पणके समान शोभा पा रहा है। वे कानोंमें पहने हुए कमल, मन्दारपुष्प और मकराकार कुण्डलसे विभूषित हैं। उनके वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि और श्रीवत्सचिह्न शोभा पा रहे हैं। गलेमें मोतियोंका हार चमक रहा है। उनके विभिन्न अंगोंमें दिव्य माणिक्य तथा मनोहर सुवर्गमिश्रित आभूषण सुशोभित है। हाथोंमें कड़े भुजाओंमें बाजूबन्द तथा कमरमें करधनी शोभा दे रही है सुन्दर मंजीरको सुषमासे चरणोंकी श्री बहुत बढ़ गयी है, जिससे भगवान्‌का श्रीविग्रह अत्यन्तशोभायमान दिखायी दे रहा है। श्रीअंगोंमें कर्पूर, अगुरु, कस्तूरी और चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्य शोभा पा रहे हैं। गोरोचन आदिसे मिश्रित दिव्य अंगरागोंद्वारा विचित्र पत्र- भंगी (रंग-बिरंगे चित्र ) आदिकी रचना की गयी है। कटिसे लेकर पैरोंके अग्रभागतक चिकने पीताम्बरसे शोभायमान है। भगवान्का नाभि कमल गम्भीर है, उसके नीचेकी रोमावलियोंतक माला लटक रही है। उनके दोनों घुटने सुन्दर गोलाकार हैं तथा कमलोंकी शोभा धारण करनेवाले चरण बड़े मनोहर जान पड़ते हैं। हाथ और पैरोंके तलुवे ध्वज, वज्र, अंकुश और कमलके चिनसे सुशोभित हैं तथा उनके ऊपर नखरूपी चन्द्रमाको किरणावलियोंका प्रकाश पड़ रहा है। सनक सनन्दन आदि योगीश्वर अपने हृदयमें भगवानके इसी स्वरूपको झाँकी करते हैं। उनकी त्रिभंगी छवि है। उनके श्री अंग इतने सुन्दर, इतने मनोहर हैं, मानो सृष्टिकी समस्त निर्माण सामग्रीका सार निकालकर बनाये गये हों। जिस समय वे गर्दन मोड़कर खड़े होते हैं, उस समय उनका सौन्दर्य इतना बढ़ जाता है कि उसके सामने अनन्तकोटि कामदेव लज्जित होने लगते हैं। बायें कंधेपर झुका हुआ उनका सुन्दर कपोल बड़ा भला मालूम होता है। उनके सुवर्णमय कुण्डल जगमगाते रहते हैं। वे तिरछी चितवन और मंद मुसकानसे सुशोभित होनेवाले करोड़ों कामदेवोंसे भी अधिक सुन्दर हैं सिकोड़े हुए ओठपर वंशी रखकर बजाते हैं और उसकी मीठी तानसे त्रिभुवनको मोहित करते हुए सबको प्रेम सुधाके समुद्र निमग्न कर रहे हैं। पार्वतीजीने कहा- देवदेवेश्वर आपके उपदेशसे
यह हुआ कि गोविन्द नामसे प्रसिद्ध भगवान् श्रीकृष्ण ही इस जगत्के परम कारण हैं। वे ही परमपद हैं, वृन्दावनके अधीश्वर हैं तथा नित्य परमात्माहैं। प्रभो! अब मैं यह सुनना चाहती हूँ कि श्रीकृष्णका गूढ रहस्य, माहात्म्य और सुन्दर ऐश्वर्य क्या है; आप उसका वर्णन कीजिये।

महादेवजीने कहा- देवि ! जिनके चन्द्र-तुल्य चरण- नखोंकी किरणोंके माहात्म्यका भी अन्त नहीं है, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाके सम्बन्धमें मैं कुछ बातें बता रहा हूँ, तुम आनन्दपूर्वक श्रवण करो। सृष्टि, पालन और संहारकी शक्तिसे युक्त, जो ब्रह्मा आदि देवता हैं, वे सब श्रीकृष्णके ही वैभव हैं। उनके रूपका जो करोड़वाँ अंश है, उसके भी करोड़ अंश करनेपर एक-एक अंश कलासे असंख्य कामदेवौकी उत्पत्ति होती है, जो इस ब्रह्माण्डके भीतर व्याप्त होकर जगत्के जोवाँको मोहनें डालते रहते हैं। भगवान्के श्रीविग्रहकी शोभामयी कान्तिके कोटि-कोटि अंशसे चन्द्रमाका आविर्भाव हुआ है श्रीकृष्णके प्रकाशके करोड़वें अंशसे जो किरणें निकलती हैं, वे ही अनेकों सूर्यके रूपमें प्रकट होती हैं। उनके साक्षात् श्रीअंगसे जो रश्मियाँ प्रकट होती हैं, वे परमानन्दमय रसामृतसे परिपूर्ण हैं, परम आनन्द और परम चैतन्य ही उनका स्वरूप है। उन्हींसे इस विश्वके ज्योतिर्मय जीव जीवन धारण करते हैं, जो भगवान्‌के ही कोटि-कोटि अंश हैं। उनके युगल चरणारविन्दोंके नखरूपी चन्द्रकान्तमणिसे निकलनेवाली प्रभाको ही सबका कारण बताया गया है। वह कारण तत्व वेदोंके लिये भी दुर्गम्य है। विश्वको विमुग्ध करनेवाले जो नाना प्रकारके सौरभ (सुगन्ध) हैं, वे सब भगवद्विग्रहकी दिव्य सुगन्ध के अनन्तकोटि अंशमात्र हैं। भगवान्‌के स्पर्शसे ही पुष्पगन्ध आदि नाना सौरभोंका प्रादुर्भाव होता है। श्रीकृष्णकी प्रियतमा- उनकी प्राणवल्लभा श्रीराधा हैं, वे ही आद्या प्रकृति कही गयी है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान