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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 202 - Khand 5, Adhyaya 202

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वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं-सुन्दरि अब मैं वेत्रवती (बेतवा) नदीका माहात्म्य वर्णन करता हूँ, सुनो। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यकी मुक्ति हो जाती है। पूर्वकालमें वृत्रासुरने एक बहुत ही गहरा कुआँ खुदवाया था, जिसका नाम महागम्भीर था। उसीसे यह दिव्य नदी प्रकट हुई है। वेत्रवती नदी बड़े बड़े पापोंकी राशिका विनाश करनेवाली है। गंगाजीके समान ही इस श्रेष्ठ नदीका भी माहात्म्य है। इसके दर्शन करनेमात्रसे पापराशि शान्त हो जाती है। पहलेकी बात है, चम्पक नगरमें एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही दुष्ट और प्रजाको पीड़ा देनेवाला था। वह नीच अधर्मका मूर्तिमान् स्वरूप था । निरन्तर भगवान् विष्णुकी निन्दा करता, देवताओं और ब्राह्मणोंकी घातमें लगा रहता तथाआश्रमोंको कलंकित किया करता था। वह मूर्ख वेदोंकी निन्दामें ही प्रवृत्त रहनेवाला, निर्दयी, शठ, असत् शास्त्रोंमें अनुराग रखनेवाला और परायी स्त्रियोंको दूषित करनेवाला था उसका नाम था विदारुण। वह अत्यन्त पापी था। महान् पाप और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेके कारण राजा विदारुण कोढ़ी हो गया। एक दिन दैवयोगसे वह शिकार खेलता हुआ उस नदीके किनारे आ निकला। उस समय उसे बड़े जोरकी प्यास सता रही थी घोड़ेसे उतरकर उसने नदीका जल पीया और पुनः अपनी राजधानीको लौट गया। उस जलके पीनेमात्रसे राजाकी कोढ़ दूर हो गयी और बुद्धिमें भी निर्मलता आ गयी। तबसे उसके हृदयमें भगवान् विष्णुके प्रति भक्ति उत्पन्न हो गयी। अब वह सदा ही समय-समयपर वहाँआकर स्नान करने लगा। इससे वह अत्यन्त रूपवान और निर्मल हो गया। इस लोकमें सुख भोगते हुए उसने अनेकों यज्ञ किये, ब्राह्मणोंको दक्षिणा दी तथा अन्तमें श्रीविष्णु के वैकुण्ठधामको प्राप्त किया। पार्वती ! ऐसा जानकर जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र वेत्रवती नदीमें स्नान करते हैं, वे पापबन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। कार्तिक, माघ अथवा वैशाखमें जो लोग बारंबार वहाँ स्नान करते हैं, वे भी कर्मोंके बन्धनसे छुटकारा पा जाते हैं। ब्रह्महत्या, गोहत्या, बालहत्या और वेदनिन्दा करनेवाला पुरुष भी नदियोंके संगममें स्नान करके पापसे मुक्त हो जाता है। जिस स्थानपर और जिस नदीका साभ्रमती (साबरमती) नदीके साथ संगम दिखायी दे, वहाँ स्नान करनेपर ब्रह्महत्यारा भी पापमुक्त हो जाता है। खेटक (खेड़ा) नामक दिव्य नगर इस धरातलका स्वर्ग है। वहाँ बहुत से ब्राह्मणोंने अनेक प्रकारके योगोंका साधन किया है। वहाँ स्नान और भोजन करनेसे मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। पार्वती! कलियुगमें वेत्रवती नदी दूसरी गंगाके समान मानी गयी है। जो लोग सुख, धन और स्वर्ग चाहते हैं, वे उसनदीमें बारंबार स्नान करनेसे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें विष्णु के सनातन धामको जाते हैं। सूर्यवंश और सोमवंशमें उत्पन्न क्षत्रिय वेत्रवती नदीके तटपर आकर उसमें स्नान करके परम शान्ति पा चुके हैं। यह नदी दर्शनसे दुःख और स्पर्शसे मानसिक पापका नाश करती है। इसमें स्नान और जलपान करनेवाला मनुष्य निस्सन्देह मोक्षका भागी होता है। यहाँ स्नान, जप तथा होम करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। वाराणसी तीर्थमें जाकर जो भक्तिपूर्वक चान्द्रायणव्रतका अनुष्ठान करता है, और वहाँ उसे जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, उसे वह वेत्रवती नदीमें स्नान करनेमात्रसे पा लेता है। यदि वेत्रवती नदीमें किसीकी मृत्यु हो जाती है तो वह चतुर्भुजरूप होकर विष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। पृथ्वीपर जो-जो तीर्थ, देवता और पितर हैं, वे सब वेत्रवती नदीमें वास करते हैं। महेश्वरि मैं, विष्णु, ब्रह्मा, देवगण तथा महर्षि- ये सब के सब वेत्रवती नदीमें विराजमान रहते हैं। जो एक, दो अथवा तीनों समय वेत्रवती नदीमें स्नान करते हैं, वे निश्चय ही मुक्त हो जाते हैं।

देवि! अब मैं साभ्रमती नदीके माहात्म्यका यथावत् वर्णन करता हूँ। मुनिश्रेष्ठ कश्यपने इसके लिये बहुत बड़ी तपस्या की थी। एक दिनकी बात है, महर्षि कश्यप नैमिषारण्यमें गये। वहाँ ऋषियोंके साथ उन्होंने बहुत समयतक वार्तालाप किया। उस समय ऋषियोंने कहा- 'कश्यपजी! आप हमलोगोंकी प्रसन्नताके लिये यहाँ गंगाजीको ले आइये। प्रभो! वह सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगा आपके ही नामसे प्रसिद्ध होगी।'

उन महर्षियोंको बात सुनकर कश्यपजीने उन्हें प्रणाम किया और वहाँसे चलकर वे आबूके जंगलमें सरस्वती नदीके समीप आये। वहाँ उन्होंने अत्यन्त दुष्कर तपस्या की वे मेरी ही आराधनामें संलग्न थे उस समय मैंने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और कहा- 'विप्रवर! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मुझसे मनोवांछित वर माँगो।'

कश्यपने कहा- देवदेव जगत्पते! महादेव !आप वर देनेमें समर्थ हैं। आपके मस्तकपर जो ये परम पवित्र पापहारिणी गंगा स्थित हैं, इन्हें विशेष कृपा करके मुझे दीजिये। आपको नमस्कार है। पार्वती। उस समय मैंने महर्षि कश्यपसे कहा 'द्विजश्रेष्ठ! लो अपना वर' यों कहकर मैंने अपने मस्तक से एक जटा उखाड़कर उसीके साथ उन्हें गंगाको दिया। श्रीगंगाजीको लेकर द्विजश्रेष्ठ कश्यप बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने स्थानको चले गये। गिरिजे! पूर्वकालमें विष्णुलोककी इच्छा रखनेवाले राजा भगीरथने मुझसे गंगाजीके लिये याचना की थी, उस समय उन्हें भी मैंने गंगाको समर्पित किया था। तत्पश्चात् पुनः ऋषियोंके कहनेसे कश्यपजीको गंगा प्रदान की। यह काश्यपी गंगा समस्त रोग और दोषोंका अपहरण करनेवाली है। सुन्दरि ! भिन्न-भिन्न युगों में ये गंगा संसारमें जिन-जिन नामोंसे विख्यात होती हैं, उनका यथार्थ वर्णन करता हूँ सुनो। सत्ययुगमें कृतवती, त्रेतामें गिरिकर्णिका, द्वापरमें चन्दना और कलियुगमें इनका नाम साभ्रमती (साबरमती) होता है जो मनुष्य प्रतिदिन यहाँ विशेषरूपसे स्नान करनेके लिये आते हैं,वे सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। प्लक्षावतरण तीर्थमें सरस्वती नदीमें, केदारक्षेत्रमें तथा कुरुक्षेत्रमें स्नान करनेसे जो फल होता है, वह फल साभ्रमती नदीमें नित्य स्नान करनेसे प्रतिदिन प्राप्त होता है। माघ मास आनेपर प्रयाग तीर्थमें प्रातः स्नान करनेसे जो फल होता है, कार्तिककी पूर्णिमाको कृत्तिकाका योग आनेपर श्रीशैलमें भगवान् माधवके समक्ष जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह साभ्रमती नदीमें डुबकी लगानेमात्र से प्राप्त हो जाता है। देवि! यह नदी सबसे श्रेष्ठ और सम्पूर्ण जगतमें पावन है। इतना ही नहीं, यह पवित्र और पापनाशिनी होनेके कारण परम धन्य है।

देवेश्वरि पितृतीर्थ, सब तीर्थोसहित प्रयाग, माधवसहित भगवान् वटेश्वर, दशाश्वमेध तीर्थ तथा गंगाद्वार- ये सब मेरी आज्ञासे साभ्रमती नदीमें निवास करते हैं। नन्दा, ललिता, सप्तधारक, मित्रपद, भगवान् शंकरका निवासभूत केदारतीर्थ, सर्वतीर्थमय गंगासागर, शतद्रु (सतलज) - के जलसे भरे हुए कुण्डमें ब्रह्मसर तीर्थ, तथा नैमिष तीर्थ भी मेरी आज्ञासे सदा साभ्रमती नदीके जलमें निवास करते हैं। श्वेता, बल्कलिनी, हिरण्यमयी हस्तिमती तथा सागरगामिनी नदी बार्त्रघ्नी ये सब पितरोंको अत्यन्त प्रिय तथा श्राद्धका कोटिगुना फल देनेवाली हैं। वहाँ पुत्रोंको पितरोंके हितके लिये पिण्डदान करना चाहिये जो मनुष्य वहाँ स्नान और दान करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। नीलकण्ठ तीर्थ, नन्दहद तीर्थ, रुद्रहृद तीर्थ, पुण्यमय रुद्रमहालय तीर्थ, परम पुण्यमयी मन्दाकिनी तथा महानदी अच्छोदा ये सब तीर्थ और नदियाँ अव्यक्तरूपसे साभ्रमती नदीमें बहती रहती हैं। धूम्र तीर्थ, मित्रपद, बैजनाथ, दृषदर, क्षिप्रा नदी महाकाल तीर्थ, कालंजर पर्वत, गंगोद्भूत तीर्थ, हरोद्भेद तीर्थ, नर्मदा नदी तथा ओंकार तीर्थ-ये गंगामें पिण्डदान करनेके समान फल देनेवाले हैं, ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है। उक्त सभी तीर्थ ब्रह्मतीर्थ कहलाते हैं। ब्रह्मा आदि देवताओंने इन सभी तीर्थोको साभ्रमती नदीके उत्तर तटपर गुप्तरूपसेस्थापित कर रखा है। महेश्वरि! ये तीर्थ स्मरणमात्रसे संक्षिप्त लोगोंके पापोंका नाश करनेवाले हैं। फिर जो वहाँ श्राद्ध करते हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है। ओंकार तीर्थ, पितृतीर्थ, कावेरी नदी, कपिलाका जल, चण्डवेगाका साभ्रमतीके साथ संगम तथा अमरकण्टक इन तीर्थों में स्नान आदि करनेसे कुरुक्षेत्रकी अपेक्षा सौगुना पुण्य होता है। साभ्रमती और वार्त्रघ्नी नदीका जहाँ संगम हुआ है, वहाँ गणेश आदि देवताओंने तीर्थसंघकी स्थापना की है। इस प्रकार मैंने यहाँ संक्षेपसे साभ्रमती नदीमें तीर्थोंके संगमका वर्णन किया है। विस्तारके साथ उनका वर्णन करनेमें बृहस्पति भी समर्थ नहीं है।

अतः इस तीर्थमें प्रयत्नपूर्वक स्नान करना चाहिये। सबेरे तीन मुहूर्त्तका समय प्रातः काल कहलाता है। उसके बाद तीन मुहूर्ततक पूर्वाह्न या संगणकाल होता है। इन दोनों कालोंमें तीर्थके भीतर किया हुआ स्नान आदि देवताओंको प्रीतिदायक होता है। तत्पश्चात् तीन मुहूर्त्ततक मध्याहन है और उसके बादका तीन मुहूर्त्त अपराह्न कहलाता है। इसमें किया हुआ स्नान, पिण्डदान और तर्पण पितरोंकी प्रसन्नताका कारण होता है। तदनन्तर तीन मुहूर्त्तका समय सायाहन माना गया है। उसमें तीर्थस्नान नहीं करना चाहिये। वह राक्षसी बेला है, जो सभी कर्मोंमें निन्दित है। दिन भरमें कुल पंद्रह मुहूर्त बताये गये हैं। उनमें जो आठवाँ मुहूर्त है, वह कुतपकाल माना गया है। उस समय पितरोंको पिण्डदान करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। मध्याह्नकाल, नेपालका कम्बल, चाँदी, कुश, गौ, दौहित्र (पुत्रीका पुत्र) और तिल-ये कुतप कहलाते हैं। 'कु' नाम है पापका, उसको सन्ताप देनेवाले होनेके कारण ये कुतपके नामसे विख्यात हैं। कुतप मुहूर्तके बाद चार मुहूर्त्ततक कुल पाँच मुहूर्त्तका समय श्राद्धके लिये उत्तम समय माना गया है। कुश और काले तिल श्राद्धकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रकट हुए हैं-ऐसा देवताओंका कथन है। तीर्थवासी पुरुष जलमें खड़े हो हाथमें कुश लेकर तिलमिश्रित जलकी अंजलि पितरोंको दें। ऐसा करने से श्राद्धमें बाधा नहीं आती।पार्वती! इस प्रकार मैंने साभ्रमती नदीमें नामोच्चारणपूर्वक तीर्थोंका प्रवेश कराकर उसे महर्षि कश्यपको दिया था। कश्यप मेरे प्रिय भक्त हैं, इसलिये उन्हें मैंने यह पवित्र एवं पापनाशिनी गंगा प्रदान की थी। महाभागे साभ्रमतीके तटपर ब्रह्मचारितीर्थं है। वहाँ उसी नामसे मैंने अपनेको स्थापित कर रखा है। सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये मैं यहाँ ब्रह्मचारीश नामसे निवास करता हूँ। साभ्रमती नदीके किनारे ब्रह्मचारीश शिवके पास जाकर भक्त पुरुष यदि कलियुगमें विशेषरूपसे पूजा करे तो इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें महान् शिवधामको प्राप्त होता हैं। उनके स्थानपर जाकर जो जितेन्द्रियभावसे उपवास करता और रात्रिमें स्थिरभावसे रहकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करता है, उसे मैं योगीरूपसे दर्शन देता हूँ तथा उसकी समस्त मनोगत कामनाओंको भी पूर्ण करता हूँ- यह बिलकुल सच्ची बात है। पार्वती! वहाँ मेरा कोई लिंग नहीं है, मेरा स्थानमात्र है। जो विद्वान् वहाँ फूल, धूप तथा नाना प्रकारका नैवेद्य अर्पण करता है, उसे निश्चय ही सब कुछ प्राप्त होता है। जो मेरे स्थानपर आकर बिल्वपत्र, पुष्प तथा चन्दन आदिसे मेरी पूजा करते हैं, उन्हें मैं सब कुछ देता हूँ। दर्शनसे रोग नष्ट होता है, पूजा करनेसे आयु प्राप्त होती है तथा वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य निश्चय ही मोक्षका भागी होता है।

सुन्दरि ! सुनो, अब मैं राजखड्ग नामक परम अद्भुत तीर्थका वर्णन करता हूँ, जो साभ्रमती नदीके तीर्थोंमें विशेष विख्यात है। सूर्यवंशमें उत्पन्न एक वैकर्तन नामक राजा था, जो दुराचारी, पापात्मा, ब्राह्मण निन्दक, गुरुद्रोही, सदा असन्तुष्ट रहनेवाला, समस्त कर्मोकी निन्दा करनेवाला सदा परायी स्त्रियोंमें प्रीति रखनेवाला और निरन्तर श्रीविष्णुकी निन्दा करनेवाला था। वह बहुत-से प्राणियोंका घातक था और अपनी प्रजाको सदा पीड़ा दिया करता था। इस प्रकार दुष्टात्मा राजा वैकर्तन इस पृथ्वीपर राज्य करता था। कुछ कालके पश्चात् दैवयोगसे अपने पापके कारण वह कोढ़ी हो गया। अपने शरीरकी दुर्दशा देखकर वह बार-बारसोचने लगा- 'अब क्या करना चाहिये ?' वह निरन्तर इसी चिन्तामें डूबा रहता था। एक दिन दैवयोगसे क्रीड़ाके लिये राजा वनमें गया। वहाँ साभ्रमती नदीकेतीरपर जाकर खड़ा हुआ। फिर उसने वहाँ स्नान किया और वहाँका उत्तम जल पीया। इससे उसका शरीर दिव्य हो गया। पार्वती! जैसे सोनेकी प्रतिमा देदीप्यमान दिखायी देती है, उसी प्रकार राजा वैकर्तन भी परम कान्तिमान् हो गया। उस दिव्य रूपको पाकर राजाने कुछ कालतक राज्य भोग किया। इसके बाद वह परमपदको प्राप्त हुआ। तबसे वह तीर्थ राजखड्गके नामसे सुप्रसिद्ध हो गया। जो लोग वहाँ स्नान और दान करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर भगवान् विष्णुके सनातन धामको प्राप्त होते हैं। उन्हें कभी रोग और शोक नहीं होता। जो प्रतिदिन राजखड्ग तीर्थमें स्नान और श्रद्धापूर्वक पितरोंका तर्पण करते हैं, वे मनुष्य इस पृथ्वीपर पुण्यकर्मा कहलाते हैं। ब्राह्मणों और बालकोंकी हत्या करनेवाले पुरुष भी यदि यहाँ स्नान करते हैं तो वे पापोंसे रहित हो भगवान् शिवके समीप जाते हैं। जो मनुष्य साभ्रमती नदीके तटपर नील वृषका उत्सर्ग करेंगे, उनके पितर प्रलय कालतक तृप्त रहेंगे। राजखड्ग तीर्थका यह दिव्य उपाख्यान जो सुनते हैं, उन्हें कभी भय नहीं प्राप्त होता इसके सुनने और पढ़नेसे समस्त रोग-दोष शान्त हो जाते हैं।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार