सूतजी कहते हैं-द्विजवरो। ऋषियोंके पुण्यमय संसर्गसे, उनके साथ वार्तालाप करनेसे तथा उनके द्वारा शरीरका मन्थन होनेसे, वेनका पाप निकल गया। तत्पश्चात् उसने नर्मदाके दक्षिण तटपर रहकर तपस्या आरम्भ की। तृणविन्दु ऋषिके पापनाशक आश्रमपर निवास करते हुए वेनने काम-क्रोधसे रहित हो सौ वर्षो सेकुछ अधिक कालतक तप किया। राजा वेन निष्पाप हो गया था। अतः उसकी तपस्यासे प्रसन्न होकर शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और प्रसन्नतापूर्वक कहा 'राजन् ! तुम मुझसे कोई उत्तम वर माँगो ।'
वेनने कहा- देवेश्वर! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझेयह उत्तम वर दीजिये। मैं पिता और माताके साथ इसी शरीरसे आपके परमपदको प्राप्त करना चाहता हूँ। देव!
आपके ही तेजसे आपके परमधाममें जाना चाहता हूँ। भगवान् श्रीविष्णु बोले- महाभाग पूर्वकालमें तुम्हारे महात्मा पिता अंगने भी मेरी आराधना की थी। उसी समय मैंने उन्हें वरदान दिया था कि तुम अपने पुण्यकर्मसे मेरे परम उत्तम धामको प्राप्त होगे। वेन! मैं तुम्हें पहलेका वृत्तान्त बतला रहा हूँ तुम्हारी माता सुनीथाको बाल्यकालमें सुशंखने कुपित होकर शाप दिया था तदनन्तर तुम्हारा उद्धार करनेकी इच्छासे मैंने ही राजा अंगको वरदान दिया कि 'तुम्हें सुयोग्य पुत्रकी प्राप्ति होगी।' गुणवत्सल! तुम्हारे पितासे तो मैं ऐसा कह ही चुका था, इस समय तुम्हारे शरीरसे भी मैं ही [पृथुके रूपमें] प्रकट होकर लोकका पालन कर रहा हूँ। पुत्र अपना ही रूप होता है यह श्रुति सत्य है। अतः राजन्! मेरे वरदानसे तुम्हें उत्तम गति मिलेगी। अब तुम एकमात्र दान-धर्मका अनुष्ठान करो। दान ही सबसे श्रेष्ठ धर्म है; इसलिये तुम दान दिया करो। दानसे पुण्य होता है, दानसे पाप नष्ट हो जाता है, उत्तम दानसे कीर्ति होती है। और सुख मिलता है। जो श्रद्धायुक्त चित्तसे सुपात्र ब्राह्मणको गौ, भूमि, सोने और अन्न आदिका महादान देता है, वह अपने मनसे जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब मैं उसे देता हूँ।
वेनने कहा- जगन्नाथ! मुझे दानोपयोगी कालका लक्षण बतलाइये, साथ ही तीर्थका स्वरूप और पात्रके उत्तम लक्षणका भी वर्णन कीजिये। दानकी विधिको विस्तार के साथ बतलाने की कृपा कीजिये। मेरे मनमें यह सब सुननेकी बड़ी बड़ा है।
भगवान् श्रीविष्णु बोले- राजन्! मैं दानका समय बताता हूँ। महाराज! नित्य, नैमित्तिक और काम्य- ये दानकालके तीन भेद हैं। चौथा भेद प्रायिक (मृत्यु) सम्बन्धी कहलाता है। भूपाल। मेरे अंशभूत सूर्यको उदय होते देख जो जलमात्र भी अर्पण करता है, उसके पुण्यवर्द्धक नित्यकर्मकी कहाँतक प्रशंसा की जाय उस उत्तम बेलाके प्राप्त होनेपर जो श्रद्धा औरभक्ति के साथ स्नान करता तथा पितरों और देवताओंका पूजन करके दान देता है, जो अपनी शक्ति और प्रभावके अनुसार दयार्द्र-चित्तसे अन्न-जल, फल फूल, वस्त्र, पान, आभूषण, सुवर्ण आदि वस्तुएँ दान करता है, उसका पुण्य अनन्त होता है। राजन्। मध्याहन और तीसरे पहरमें भी जो मेरे उद्देश्यसे खान-पान आदि वस्तुएँ दान करता है, उसके पुण्यका भी अन्त नहीं है। अतः जो अपना कल्याण चाहता है, उस पुरुषको तीनों समय निश्चय ही दान करना चाहिये। अपना कोई भी दिन दानसे खाली नहीं जाने देना। चाहिये। राजन्! दानके प्रभावसे मनुष्य बहुत बड़ा बुद्धिमान्, अधिक सामर्थ्यशाली, धनाढ्य और गुणवान् होता है। यदि एक पक्ष या एक मासतक मनुष्य अन्नका दान नहीं करता तो मैं उसे भी उतने ही समयतक भूखा रखता हूँ। उत्तम दान न देनेवाला मनुष्य अपने मलका भक्षण करता है। मैं उसके शरीरमें ऐसा रोग उत्पन्न कर देता हूँ, जिससे उसके सब भोगोंका निवारण हो जाता है। जो तीनों कालोंमें ब्राह्मणों और देवताओंको दान नहीं देता तथा स्वयं ही मिष्टान्न खाता है, उसने महान् पाप किया है। महाराज ! शरीरको सुखा देनेवाले उपवास आदि भयंकर प्रायश्चित्तोंके द्वारा उसको अपने देहका शोषण करना चाहिये।
नरश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हारे सामने नैमित्तिक पुण्यकालका वर्णन करता हूँ, मन लगाकर सुनो। महाराज! अमावास्या, पूर्णिमा, एकादशी, संक्रान्ति, व्यतीपात और वैधृति नामक योग तथा माघ, आषाढ़, वैशाख और कार्तिककी पूर्णिमा, सोमवती अमावास्या, मन्वादि एवं युगादि तिथियाँ, गजच्छाया (आश्विन कृष्ण त्रयोदशी) तथा पिताकी क्षयाह तिथि दानके नैमित्तिक काल बताये गये हैं। नृपश्रेष्ठ ! जो मेरे उद्देश्यसे भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको दान देता है, उसे मैं निश्चयपूर्वक महान् सुख और स्वर्ग, मोक्ष आदि बहुत कुछ प्रदान करता हूँ।
अब दानका फल देनेवाले काम्य-कालका वर्णन करता हूँ। समस्त व्रतों और देवता आदिके निमित्त जब सकामभावसे दान दिया जाता है, उसे श्रेष्ठ ब्राह्मणौनेदानका काम्यकाल बताया है। राजन्! मैं तुमसे आभ्युदयिक कालका भी वर्णन करता हूँ। सम्पूर्ण शुभकमौका अवसर, उत्तम वैवाहिक उत्सव, नवजात पुत्रके जातकर्म आदि संस्कार तथा चूडाकर्म और उपनयन आदिका समय, मन्दिर, ध्वजा, देवता, बावली, कुआँ, सरोवर और बगीचे आदिकी प्रतिष्ठाका शुभ अवसर इन सबको आभ्युदयिक काल कहा गया है। उस समय जो दान दिया जाता है, वह सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला होता है।
नृपश्रेष्ठ। अब मैं पाप और पीड़ाका निवारण करनेवाले अन्य कालका वर्णन करता हूँ। मृत्युकाल प्राप्त होनेपर अपने शरीरके नाशको समझकर दान देना चाहिये। वह दान यमलोकके मार्गमें सुख पहुँचानेवाला होता है। महाराज नित्य, नैमितिक और काम्याभ्युदयिक कालसे भिन्न अन्त्यकाल (मृत्युसम्बन्धी काल) - का तुम्हें परिचय दिया गया। ये सभी काल अपने कर्मोंका फल देनेवाले बताये गये हैं।
राजन् ! अब मैं तुम्हें तीर्थका लक्षण बताता हूँ। उत्तम तीथोंमें ये गंगाजी बड़ी पावन जान पड़ती हैं। इनके सिवा सरस्वती, नर्मदा, यमुना, तापी (ताप्ती), चर्मण्वती, सरयू घाघरा और वेणा नदी भी पुण्यमयी तथा पापका नाश करनेवाली हैं। कावेरी, कपिला, विशाला, गोदावरी और तुंगभद्रा ये भी जगत्को पवित्र करनेवाली मानी गयी हैं। भीमरथी नदी सदा पापको भय देनेवाली बतायी गयी है। वेदिका, कृष्णगंगा तथा अन्यान्य श्रेष्ठ नदियाँ भी उत्तम हैं। पुण्यपर्वके अवसरपर स्नान करनेके लिये इनसे सम्बद्ध अनेक तीर्थ हैं। गाँव अथवा जंगलमें जहाँ भी नदियाँ हों, सर्वत्र ही वे पावन मानी गयी हैं। अतः वहाँ जाकर स्नान, दान आदि कर्म करने चाहिये। यदि नदियोंके तीर्थका नाम ज्ञात न हो तो उसका 'विष्णुतीर्थ' नाम रख लेना चाहिये सभी तोयोंमें मैं ही देवता हूँ। तीर्थ भी मुझसे भिन्न नहीं हैं - यह निश्चित बात है। जो साधक तीर्थ-देवताओंके पास जाकर मेरे ही नामका उच्चारण करता है, उसे मेरे नामके अनुसार ही पुण्य फल प्राप्त होता है। नृपनन्दन! अज्ञाततीर्थों और देवताओंकी संनिधिमें स्नान-दान आदि करते हुए मेरे ही नामका उच्चारण करना चाहिये। विधाताने तोथका नाम ही ऐसा रखा है।
भूमण्डलपर सात सिन्धु परम पवित्र और सर्वत्र स्थित हैं। जहाँ कहीं भी उत्तम तीर्थ प्राप्त हो, वहाँ स्नान-दान आदि कर्म करना चाहिये। उत्तम तीर्थोके प्रभावसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। राजन्। मानस आदि सरोवर भी पावन तीर्थ बताये गये हैं तथा जो छोटी-छोटी नदियाँ हैं, उनमें भी तीर्थ प्रतिष्ठित है। कुको छोड़कर जितने भी खोदे हुए जलाशय हैं, उनमें तीर्थकी प्रतिष्ठा है। भूतलपर जो मेरु आदि पर्वत हैं, वे भी तीर्थरूप हैं। यज्ञभूमि, यज्ञ और अग्निहोत्र में भी तीर्थकी प्रतिष्ठा है। शुद्ध श्राद्धभूमि, देवमन्दिर, होमशाला, वैदिक स्वाध्यायमन्दिर, घरका पवित्र स्थान और गोशाला ये सभी उत्तम तीर्थ हैं। जहाँ सोमयाजी ब्राह्मण निवास करता हो, वहाँ भी तीर्थकी प्रतिष्ठा है। जहाँ पवित्र बगीचे हों, जहाँ पीपल, ब्रह्मवृक्ष (पाकर) और बरगदका वृक्ष हो तथा जहाँ अन्य जंगली वृक्षोंका समुदाय हो, उन सब स्थानोंपर तीर्थका निवास है। इस प्रकार इन तीर्थोका वर्णन किया गया। जहाँ पिता और माता रहते हैं, जहाँ पुराणोंका पाठ होता है, जहाँ गुरुका निवास है तथा जहाँ सती स्त्री रहती है वह स्थान निस्संदेह तीर्थ है। जहाँ श्रेष्ठ पिता और सुयोग्य पुत्र निवास करते हैं, वहाँ भी तीर्थ है। ये सभी स्थान तीर्थ माने गये हैं।
महाप्राज्ञ ! अब तुम दानके उत्तम पात्रका लक्षण सुनो। दान श्रद्धापूर्वक देना चाहिये। उत्तम कुलमें उत्पन्न, वेदाध्ययनमें तत्पर, शान्त, जितेन्द्रिय, दयालु, शुद्ध, बुद्धिमान्, ज्ञानवान् देवपूजापरायण, -तपस्वी, विष्णुभक्त, ज्ञानी, धर्मज्ञ, सुशील और पाखण्डियोंके संगसे रहित ब्राह्मण ही दानका श्रेष्ठ पात्र है। ऐसे पात्रको पाकर अवश्य दान देना चाहिये। अब मैं दूसरे दान पात्रोंको बताता हूँ। उपर्युक्त गुणोंसे युक्त बहिनके पुत्र ( भानजे) को तथा पुत्रीके पुत्र (दौहित्र) को भी दानका उत्तम पात्र समझो। इन्हीं भावोंसे युक्त दामाद, गुरु और यज्ञकीदीक्षा लेनेवाला पुरुष भी उत्तम पात्र है। नरश्रेष्ठ! ये दान देनेयोग्य श्रेष्ठ पात्र बताये गये हैं। जो वेदोक्त आचारसे युक्त हो, वह भी दान पात्र है। धूर्त और काने ब्राह्मणको दान न दे। जिसकी स्त्री अन्याययुक्त दुष्कर्ममें प्रवृत्त हो, जो स्त्रीके वशीभूत रहता हो, उसे दान देना निषिद्ध है। चोरको भी दान नहीं देना चाहिये । उसे दान देनेवाला मनुष्य तत्काल चोरके समान हो जाता है। अत्यन्त जड और विशेषतः शठ ब्राह्मणको भी दान देना उचित नहीं है। वेद-शास्त्रका ज्ञाता होनेपर भी जो सदाचारसे रहितहो, वह श्राद्ध और दानमें सम्मिलित करनेयोग्य कदापि नहीं है। श्रद्धापूर्वक उत्तम कालमें, उत्तम तीर्थमें और उत्तम पात्रको दान देनेसे उत्तम फल मिलता है। राजन् ! संसारमें प्राणियोंके लिये श्रद्धाके समान पुण्य, श्रद्धाके समान सुख और श्रद्धाके समान तीर्थ नहीं है। * नृपश्रेष्ठ ! श्रद्धा भावसे युक्त होकर मनुष्य पहले मेरा स्मरण करे, उसके बाद सुपात्रके हाथमें द्रव्यका दान दे। इस प्रकार विधिवत् दान करनेका जो अनन्त फल है, उसे मनुष्य पा जाता है और मेरी कृपासे सुखी होता है।