श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती! त्रिपाद विभूतिके द असंख्य लोक बतलाये गये हैं। वे सब के सब शुद्ध व सत्त्वमय, ब्रह्मानन्दमय, सुखसे परिपूर्ण, नित्य, निर्विकार, र हेय गुणोंसे रहित, हिरण्मय, शुद्ध, कोटि सूर्योके समान प्रकाशमान, वेदमय, दिव्य तथा काम-क्रोध आदिसे रहित हैं। भगवान् नारायणके चरणकमलोंकी भक्तिमें ही रस लेनेवाले पुरुष उनमें निवास करते हैं। वहाँ निरन्तर सामगानकी सुखदायिनी ध्वनि होती रहती है। वे सभी लोक उपनिषद्-स्वरूप, वेदमय तेजसे युक्त तथा वेदस्वरूप स्त्री-पुरुषोंसे भरे हैं। वेदके ही रससे भरे हुए सरोवर उनकी शोभा बढ़ाते हैं। श्रुति, स्मृति और पुराण आदि भी उन लोकोंके स्वरूप हैं। उनमें दिव्य वृक्ष भी सुशोभित होते हैं। उनके विश्व-विख्यात स्वरूपका पूरा-पूरा वर्णन मुझसे नहीं हो सकता। विरजा और परम व्योमके बीचका जो स्थान है, उसका नाम केवल है। वही अव्यक्त ब्रह्मके उपासकोंके उपभोगमें आता है। वह आत्मानन्दका सुख प्रदान करनेवाला है। उस स्थानको केवल, परमपद, निःश्रेयस्, निर्वाण, कैवल्य और मोक्ष कहते हैं। जो महात्मा भगवान् लक्ष्मीपतिके चरणोंकी भक्ति और सेवाके रसका उपभोग करके पुष्ट हुए हैं, वे महान् सौभाग्यशाली भगवच्चरणसेवक पुरुष श्रीविष्णु के परमधाममें जाते हैं, जो ब्रह्मानन्द प्रदान करनेवाला है।
उसका नाम है वैकुण्ठधाम। वह अनेक जनपदोंसे व्याप्त है। श्रीहरि उसीमें निवास करते हैं। वह रत्नमय प्राकारों, विमानों तथा मणिमय महलोंसे सुशोभित है। उस धामके मध्यभागमें दिव्य नगरी है, जो अयोध्या कहलाती है तथा जो चहारदीवारियों और ऊँचे दरवाजोंसे घिरी है। उनमें मणियों तथा सुवर्णोंके चित्र बने हैं। उस अयोध्यापुरीके चार दरवाजे हैं तथा ऊँचे-ऊँचे गोपुर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। चण्ड आदि द्वारपाल और कुमुद आदि दिक्पाल उसकी रक्षामें रहते हैं। पूर्वके दरवाजेपर चण्ड और प्रचण्ड, दक्षिण-द्वारपर भद्र और सुभद्र, पश्चिम द्वारपर जय और विजय तथा उत्तरकेदरवाजेपर धाता और विधाता नामक द्वारपाल रहते हैं। कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक, वामन, शंकुकर्ण, सर्वनिद्र, सुमुख और सुप्रतिष्ठित थे उस नगरीके दिवपाल बताये गये हैं। पार्वती उस पुरीमें कोटि-कोटि अनिके समान तेजोमय गृहोंकी पंक्तियाँ शोभा पाती हैं। उनमें तरुण अवस्थावाले दिव्य नर-नारी निवास करते हैं। पुरीके मध्यभागमें भगवान्का मनोहर अन्त: पुर है, जो मणियोंके प्राकारसे युक्त और सुन्दर गोपुरसे सुशोभित है। उसमें भी अनेक अच्छे-अच्छे गृह, विमान और प्रासाद है। दिव्य अपाराएँ और स्वियों सब ओरसे उस अन्तःपुरकी शोभा बढ़ाती हैं। उसके बीचमें एक दिव्य मण्डप है, जो राजाका खास स्थान है; उसमें बड़े-बड़े उत्सव होते रहते हैं। वह मण्डप रत्नोंका बना है तथा उसमें मानिकके हजारों खम्भे लगे हैं। वह दिव्य मोतियाँसे व्याप्त है तथा सामगानसे सुशोभित रहता है मण्डपके मध्यभागमें एक रमणीय सिंहासन है, जो सर्ववेदस्वरूप और शुभ है। वेदमय धर्मादि देवता उस सिंहासनको सदा घेरे रहते हैं। धर्म, ज्ञान, ऐश्वर्य और वैराग्य तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद भी मूर्तिमान् होकर उस सिंहासनके चारों ओर खड़े रहते हैं शक्ति, आधारशक्ति, चिच्छक्ति, सदाशिवा शक्ति तथा धर्मादि देवताओंकी शक्तियाँ भी वहाँ उपस्थित रहती हैं। सिंहासनके मध्यभागमें अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा निवास करते हैं। कूर्म (कच्छप), नागराज (अनन्त या वासुकि), तीनों वेदोंके स्वामी, गरुड़, छन्द और सम्पूर्ण मन्त्र-ये उसमें पीठरूप धारण करके रहते हैं। वह पीठ सब अक्षरोंसे युक्त है। उसे दिव्य योगपीठ कहते हैं। उसके मध्यभागमें अष्टदलकमल है, जो उदयकालीन सूर्यके समान कान्तिमान् है उसके बीचमें सावित्री नामकी कर्णिका है, जिसमें देवताओंके स्वामी परम पुरुष भगवान् विष्णु भगवती लक्ष्मीजीके साथ विराजमान होते हैं।
भगवान्का श्रीविग्रह नीलकमलके समान श्याम तथा कोटि सूर्योके समान प्रकाशमान है। वे तरुण कुमार से जान पड़ते हैं। सारा शरीर चिकना है औरप्रत्येक अवयव कोमल खिले हुए लाल कमल-जैसे हाथ तथा पैर अत्यन्त मृदुल प्रतीत होते हैं। नेत्र विकसित कमलके समान जान पड़ते हैं। ललाटका निम्न भाग दो सुन्दर भ्रूलताओंसे अंकित है। सुन्दर नासिका, मनोहर कपोल, शोभावुक मुखकमल, मोतीके दाने-जैसे दाँत और मन्द मुसकानकी छविसे युक्त मूँगे जैसे लाल-लाल ओठ हैं। मुखमण्डल पूर्ण चन्द्रमाकी शोभा धारण करता है। कमल जैसे मुखपर मनोहर हास्यकी छटा छायी रहती है कानोंमें तरुण सूर्यकी भाँति चमकीले कुण्डल उनकी शोभा बढ़ाते हैं। मस्तक चिकनी, काली और घुंघराली अलकोंसे सुशोभित है। भगवान्के बाल गुंथे हुए हैं, जिनमें पारिजात और मन्दारके पुष्प शोभा पाते हैं। गलेमें कौस्तुभमणि शोभा दे रही है, जो प्रातःकाल उगते हुए सूर्यकी कान्ति धारण करती है। भाँति-भाँतिके हार और सुवर्णकी मालाओंसे शंख-जैसी ग्रीवा बड़ी सुन्दर जान पड़ती है। सिंहके कंधोंके समान ऊँचे और मोटे कंधे शोभा दे रहे हैं। मोटी और गोलाकार चार भुजाओंसे भगवान्का श्रीअंग बड़ा सुन्दर जान पड़ता है। सबमें अंगूठी, कड़े और भुजबंद हैं, जो शोभावृद्धिके कारण हो रहे हैं। उनका विशाल वक्षःस्थल करोड़ों बालसूर्वोके समान तेजोमय कौस्तुभ आदि सुन्दर आभूषणोंसे देदीप्यमान है। वे वनमालासे विभूषित हैं। नाभिका वह कमल, जो ब्राजीकी जन्मभूमि है, श्री अंगोंको शोभा बढ़ा रहा है। शरीरपर मुलायम पीताम्बर सुशोभित है, जो बाल रविको प्रभाके समान जान पड़ता है दोनों चरणोंमें सुन्दर कड़े विराज रहे हैं, जो नाना प्रकारके रत्नोंसे जड़े होनेके कारण अत्यन्त विचित्र प्रतीत होते हैं। नखोंकी मियाँ चाँदनीयुक्त चन्द्रमाके समान उद्भासित हो रही हैं। भगवान्का लावण्य कोटि-कोटि कन्दपका दर्प दलन करनेवाला है। वे सौन्दर्यकी निधि और अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले हैं। उनके सर्वागमें दिव्य चन्दनका अनुलेप किया हुआ है। वे दिव्य मालाओं से विभूषित हैं। उनके ऊपरकी दोनों भुजाओंमें रेख और चक्र है तथा नीचेकी भुजाओंमें वरद और अभयकी मुद्राएँ हैं। भगवान्के वामांकमें महेश्वरी भगवती महालक्ष्मीविराजमान हैं। उनका श्रीअंग सुवर्णके समान कान्तिमान् तथा गौर है। सोने और चाँदी हार उनकी शोभा बढ़ाते हैं। वे समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं। उनकी अवस्था ऐसी है, मानो शरीरमें यौवनका आरम्भ हो रहा है। कानोंमें रत्नोंके कुण्डल और मस्तकपर काली काली घुँघराली अलकें शोभा पाती हैं। दिव्य चन्दनसे चर्चित अंगोंका दिव्य पुष्पोंसे श्रृंगार हुआ है। केशोंमें मन्दार, केतकी और चमेलीके फूल गुंथे हुए हैं। सुन्दर भी, मनोहर नासिका और शोभायमान कटिभाग हैं। पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर मुख कमलपर मन्द मुसकानकी छटा छा रही है। बाल रविके समान चमकीले कुण्डल कानोंकी शोभा बढ़ा रहे हैं। तपाये हुए सुवर्णके समान शरीरको कान्ति और आभूषण हैं। चार हाथ हैं, जो सुवर्णमय कमलोंसे विभूषित हैं। भाँति-भाँतिके विचित्र रत्नोंसे युक्त सुवर्णमय कमलोंकी माला, हार, केयूर, कड़े और अंगूठियोंसे श्रीदेवी सुशोभित हैं उनके दो हाथोंमें दो कमल और शेष दो हाथोंमें मातुलुंग (बिजौरा) और जाम्बूनद (धतूरा) शोभा पा रहे हैं। इस प्रकार कभी विलग न होनेवाली महालक्ष्मी के साथ महेश्वर भगवान् विष्णु सनातन परम व्योममें सानन्द विराजमान रहते हैं। उनके दोनों पार्श्वमें भूदेवी और लीलादेवी बैठी रहती हैं। आठों दिशाओंमें अष्टदल कमलके एक-एक दलपर क्रमशः विमला आदि शक्तियाँ सुशोभित होती हैं। उनके नाम ये हैं-विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या तथा ईशाना। ये सब परमात्मा श्रीहरिकी पटरानियाँ हैं, जो सब प्रकारके सुन्दर लक्षणोंसे सम्पन्न हैं। ये अपने हाथोंमें चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णके दिव्य चैवर लेकर उनके द्वारा सेवा करती हुई अपने पति श्रीहरिको आनन्दित करती हैं। इनके सिवा दिव्य अप्सराएँ तथा पाँच सौ युवती स्त्रियाँ भगवान् के अन्तःपुरमें निवास करती हैं, जो सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित, कोटि अग्नियोंके समान तेजस्विनी, समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त तथा चन्द्रमुखी हैं उन सबके हाथोंमें कमलके पुष्प शोभा पाते हैं। उन सबसे घिरे हुए महाराज परम पुरुष श्रीहरिकी बड़ी शोभा होती है अनन्त (शेषनाग), गरुड़ तथा सेनानी आदि देवेश्वरों, अन्यान्य पार्षदों तथा नित्यमुक्त भकोंसे सेवित हो रमा सहित परम पुरुषश्रीविष्णु भोग और ऐश्वर्यके द्वारा सदा आनन्दमग्न
रहते हैं। इस प्रकार वैकुण्ठधामके अधिपति भगवान्
नारायण अपने परम पदमें रमण करते हैं। पार्वती ! अब मैं भगवान् के भिन्न-भिन्न व्यूहों और लोकोंका वर्णन करता हूँ। वैकुण्ठधामके पूर्वभागमें श्रीवासुदेवका मन्दिर है। अग्निकोणमें लक्ष्मीका लोक है। दक्षिण दिशामें श्रीसंकर्षणका भवन है। नैर्ऋत्य कोणमें सरस्वतीदेवीका लोक है। पश्चिम दिशामें श्रीप्रद्युम्नका मन्दिर है। वायव्यकोणमें रतिका लोक है। उत्तर- दिशामें श्रीअनिरुद्धका स्थान है और ईशानकोणमें शान्तिलोक है। भगवान्के परमधामको सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि नहीं प्रकाशित करते। कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले योगिजन वहाँ जाकर फिर इस संसारमें नहीं लौटते। जो दो नामोंके एक मन्त्र (लक्ष्मीनारायण) - के जपमें लगे रहते हैं, वे निश्चय ही उस अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं। मनुष्य अनन्य भक्तिके साथ उक्त मन्त्रका जप करके उस सनातन दिव्य धामको अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं। उनके लिये वह पद जैसा सुगम होता है, वैसा वेदोंके अध्ययन, यज्ञ, दान, शुभव्रत, तपस्या, उपवास तथा अन्य साधनोंसे भी नहीं होता। त्रिपाद् विभूतिमें जहाँ भगवान् परमेश्वर भगवती लक्ष्मीजीके साथ सदा आनन्दका अनुभव करते हैं, वहाँ संसारकी आश्रयभूता महामायाने हाथ जोड़कर प्रकृतिके साथ उनकी भाँति-भाँति से स्तुति करके कहा- केशव ! इन जीवोंके लिये लोक और शरीर प्रदान कीजिये। सर्वज्ञ ! आप पूर्वकल्पोंकी भाँति अपनी लीलामयी विभूतियोंका विस्तार कीजिये। जड- चेतनमय सम्पूर्ण चराचर जगत्अज्ञान अवस्थामें पड़ा है। आप लीला-विस्तारके लिये इसपर दृष्टिपात कीजिये। परमेश्वर ! मेरे तथा प्रकृतिके साथ जगत्की सृष्टि कीजिये। धर्म-अधर्म, सुख दुःख - सबका संसारमें प्रवेश कराके आप मुझे अपनी आज्ञामें रखकर शीघ्र ही लीला आरम्भ कीजिये ।
श्रीमहादेवजी कहते हैं- मायादेवीके इस प्रकार कहनेपर परमेश्वरने उसके भीतर जगत्की सृष्टि आरम्भ की। जो प्रकृतिसे परे पुरुष कहलाते हैं, वे अच्युत भगवान् विष्णु ही प्रकृतिमें प्रविष्ट हुए । ब्रह्मस्वरूप श्रीहरिने प्रकृतिसे महत्तत्त्वको उत्पन्न किया, जो सब भूतोंका आदि कारण है। महत्से अहंकारका जन्म हुआ। यह अहंकार सत्त्वादि गुणोंके भेदसे तीन प्रकारका है-सात्त्विक, राजस और तामस । विश्वभावन परमात्माने उन गुणोंसे अर्थात् तामस अहंकारसे तन्मात्राओंको उत्पन्न किया। तन्मात्राओंसे आकाश आदि पंचमहाभूत प्रकट हुए, जिनमें क्रमश: एक-एक गुण अधिक हैं। आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल और जलसे पृथ्वीका प्रादुर्भाव हुआ। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये ही क्रमशः आकाश आदि पंचभूतोंके प्रधान गुण हैं। महाप्रभु श्रीहरिने उत्तरोत्तर भूतोंमें अधिक गुण देख उन सबको लेकर एकमें मिला दिया तथा सबके मेलसे महान् विश्वब्रह्माण्डकी सृष्टि की। उसीमें पुरुषोत्तमने चौदह भुवन तथा ब्रह्मादि देवताओंको उत्पन्न किया। पार्वती ! दैव, तिर्यक्, मानव और स्थावर - यह चार प्रकारका महासर्ग रचा गया। इन चारों सर्गों अथवा योनियोंमें जीव अपने अपने कर्मोंके अनुसार जन्म लेते हैं।