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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 176 - Khand 5, Adhyaya 176

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वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा

महादेवजी कहते हैं-नारद! सुनो, अब मैं वैष्णवोंके लक्षण बताऊँगा, जिन्हें सुनकर लोग ब्रह्महत्या आदि पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं। भक्त भगवान् विष्णुका होकर रहा है, इसलिये वह वैष्णव कहलाता है। समस्त वर्णोंकी अपेक्षा वैष्णवको श्रेष्ठ कहा गया है जिनका आहार अत्यन्त पवित्र है, उन्होंके वंशमें वैष्णव पुरुष जन्म धारण करता है। ब्रह्मन्! जिनके भीतर क्षमा, दया, तपस्या और सत्यकी स्थिति है, उन वैष्णवोंके दर्शनमात्रके आगसे रूईकी भाँति सारा पाप नष्ट हो जाता है। जो हिंसासे दूर रहता है, जिसकी मति सदा भगवान् विष्णुमें लगी रहती हैं, जो अपने कण्ठमें तुलसीकाष्ठकी माला धारण करता है, प्रतिदिन अपने अंगोंमें बारह तिलक लगाये रहता है तथा विद्वान् होकर धर्म और अधर्मका ज्ञान रखता है, वह मनुष्य वैष्णव कहलाता है। जो सदा वेद-शास्त्रके अभ्यासमें लगे रहते, प्रतिदिन यज्ञोंका अनुष्ठान करते तथा बारम्बार वर्षके चौबीस उत्सव मनाते रहते हैं, उनका कुल परम धन्य है; उन्हींका यश विस्तारकी प्राप्त होता है तथा वे ही लोग संसारमें धन्यतम एवं भगवद्भक्त हैं। ब्रह्मन्! जिसके कुलमें एकही भगवद्भक्त पुरुष उत्पन्न हो जाता है, उसका कुल बारम्बार उस पुरुषके द्वारा उद्धारको प्राप्त होता रहता है। वैष्णवोंके दर्शनमात्रसे ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है। महामुने! इस लोकमें जो वैष्णव पुरुष देखे जाते हैं, तत्त्ववेत्ता पुरुषोंको उन्हें विष्णुके समान ही जानना चाहिये। जिसने भगवान् विष्णुकी पूजा की, उसके द्वारा सबका पूजन हो गया। जिसने वैष्णवोंकी पूजा की, उसने महादान कर लिया। जो वैष्णवोंको सदा फल, पत्र, साग, अन्न अथवा वस्त्र दिया करते हैं, वे इस भूमण्डलमें धन्य हैं। ब्रह्मन् ! | वैष्णवोंके विषयमें अब और क्या कहा जाय। बारम्बार अधिक कहनेकी आवश्यकता नहीं है; उनका दर्शन और स्पर्श - सब कुछ सुखद है। जैसे भगवान् विष्णु हैं, वैसा ही उनका भक्त वैष्णव पुरुष भी है। इन दोनोंमें कभी अन्तर नहीं रहता। ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष सदा वैष्णवोंकी पूजा करे। जो इस पृथ्वीपर एक ही वैष्णव ब्राह्मणको भोजन करा देता है, उसने सहस्रों ब्राह्मणोंको भोजन करा दिया इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

नारदजीने कहा- सुरश्रेष्ठ! जो सदा उपवासकरनेमें असमर्थ हैं, उनके लिये कोई एक ही द्वादशीका व्रत, जो पुण्यजनक हो, बतलाइये। महादेवजी बोले- भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें जो श्रवण नक्षत्रसे युक्त द्वादशी होती है, वह सब कुछ देनेवाली पुण्यमयी तथा उपवास करनेपर महान् फल देनेवाली है। जो नदियोंके संगममें नहाकर उक्त द्वादशीको उपवास करता है, वह अनायास ही बारह द्वादशियोंका फल पा लेता है। बुधवार और श्रवण नक्षत्रसे युक्त जो द्वादशी होती है, उसका महत्त्व बहुत बड़ा है। उस दिन किया हुआ सब कुछ अक्षय हो जाता है। श्रवण द्वादशीके दिन विद्वान् पुरुष जलपूर्ण कलशकी स्थापना करके उसके ऊपर एक पात्र रखे और उसमें श्रीजनार्दनकी स्थापना करे। तत्पश्चात् उनके आगे घीमें पका हुआ नैवेद्य निवेदन करे; साथ ही अपनी शक्तिके अनुसार जलसे भरे हुए अनेक नये घड़ोंका दान करे। इस प्रकार श्रीगोविन्दकी पूजा करके उनके समीप रात्रिमें जागरण करे। फिर निर्मल प्रभातकाल आनेपर स्नान करके फूल, धूप, नैवेद्य, फल और सुन्दर वस्त्र आदिके द्वारा भगवान् गरुडध्वजकी पूजा करे।

तदनन्तर पुष्पांजलि दे और इस मन्त्रको पट्टे

नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंयुत।

अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ॥

(70/10) 'बुधवार और श्रवण नक्षत्रसे युक्त भगवान् गोविन्द! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। मेरी पापराशिका नाश करके आप मुझे सब प्रकारके सुख प्रदान करें।'

तत्पश्चात् वेद-वेदांगो पारगामी, विशेषतः पुराणोंके ज्ञाता विद्वान् ब्राह्मणको विधिपूर्वक पवित्र अन्नका दान करे। इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष किसी नदीके किनारे एकचित्त होकर उक्त विधिसे सब कार्य पूर्ण करे। इस विषय में जानकार लोग यह प्राचीन इतिहास कहा करते हैं- एक महान् वनमें जो घटना घटित हुई थी, उसका वर्णन करता हूँ; सुनो।

विद्वन्! दाशेरक नामका जो देश है, उसकेपश्चिमभागमें मरु (मारवाड़) प्रदेश है, जो समस्त प्राणियोंके लिये भय उत्पन्न करनेवाला है। वहाँकी भूमि तपी हुई बालूसे भरी रहती है। वहाँ बड़े-बड़े साँप हैं, जो महादुष्ट होते हैं। वह भूमि थोड़ी छायावाले वृक्षोंसे व्याप्त है शमी, खैर, पलाश, करील और पीलू-ये ही वहाँके वृक्ष हैं मजबूत काँटोंसे घिरे हुए वहाँके वृक्ष बड़े भयंकर दिखायी देते हैं; तथापि कर्मबन्धनसे बँधे होनेके कारण वहाँ भी सब जीव जीवन धारण करते हैं। विद्वन्। उस देशमें न तो पर्याप्त जल है और न जल धारण करनेवाले बादल ही वहाँ दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसे देशमें कोई बनिया भाग्यवश अपने साथियोंसे बिछुड़कर इधर-उधर भटक रहा था। उसके हृदयमें भ्रम छा गया था। वह भूख प्यास और परिभ्रमसे पीड़ित हो रहा था। कहाँ गाँव है? कहाँ जल है? मैं कहाँ जाऊँगा? यह कुछ भी उसे जान नहीं पड़ता था। इसी समय उसने कुछ प्रेत देखे, जो भूख प्याससे व्याकुल एवं भयंकर दिखायी देते थे। उनमें एक प्रेत ऐसा था, जो दूसरे प्रेतके कंधेपर चढ़कर चलता था तथा और बहुत से प्रेत उसे चारों ओरसे घेरे हुए थे। प्रेतोंकी भयानक आवाजके साथ वहभयंकर प्रेत उधर ही आ रहा था। वह उस भयानक जंगलमें मनुष्यको आया देख प्रेतके कंधेसे पृथ्वीपर उतर पड़ा और बनियेके पास आकर उसे प्रणाम करके इस प्रकार बोला- 'इस घोर प्रदेशमें आपका कैसे प्रवेश हुआ ?' यह सुनकर उस बुद्धिमान् बनियेने कहा- 'दैवयोगसे तथा पूर्वजन्मके किये हुए कर्मकी प्रेरणासे मैं अपने साथियोंसे बिछुड़ गया हूँ। इस प्रकार मेरा यहाँ प्रवेश सम्भव हुआ है। इस समय मुझे बड़े जोरकी भूख और प्यास सता रही है।'

तब उस प्रेतने उस समय अपने अतिथिको उत्तम अन्न प्रदान किया। उसके खानेमात्रसे बनियेको बड़ी तृप्ति हुई। वह एक ही क्षणमें प्यास और संतापसे रहित हो गया। इसके बाद वहाँ बहुत से प्रेत आ पहुँचे। प्रधान प्रेतने क्रमशः उन सबको अन्नका भाग दिया। दही, भात और जलसे उन्हें बड़ी प्रसन्नता और तृप्ति हुई। इस प्रकार अतिथि और प्रेतसमुदायको तृप्त करके उसने स्वयं भी बचे हुए अन्नका सुखपूर्वक भोजन किया। उसके भोजन कर लेनेपर वहाँ जो सुन्दर अन्न और जल प्रस्तुत हुआ था, वह सब अदृश्य हो गया। तब बनियेने उस प्रेतराजसे कहा 'भाई! इस वनमें तो मुझे यह बड़े आश्चर्यकी बात प्रतीत हो रही है। तुम्हें यह उत्तम अन्न और जल कहाँसे प्राप्त हुआ ? तुमने थोड़े से ही अन्नसे इन बहुत से जीवोंको तृप्त कर दिया। इस घोर जंगलमें तुमलोग कैसे निवास करते हो ?'

प्रेत बोला- महाभाग! मैंने अपना पूर्वजन्म केवल वाणिज्य-व्यवसायमें आसक्त होकर व्यतीत किया है। समूचे नगरमें मेरे समान दूसरा कोई दुरात्मा नहीं था। धनके लोभसे मैंने कभी किसीको भीखतक नहीं दी। उन दिनों एक गुणवान् ब्राह्मण मेरे मित्र थे एक समय भादोंके महीनेमें, जब श्रवण नक्षत्र और द्वादशीका योग आया था, वे मुझे साथ लेकर तापी नदीके तटपर गये, जहाँ उसका चन्द्रभागा नदीके साथ पवित्र संगम हुआ था, चन्द्रभागा चन्द्रमाकी पुत्री है और तापी सूर्यको उन दोनोंके मिले हुए शीत और उष्ण जलमें मैंने ब्राह्मणके साथ प्रवेश किया। श्रवणद्वादशी के योग बहुत से मनुष्योंको संतुष्ट किया। चन्द्रभागाके उत्तम जलसे भरकर ब्राह्मणको जलपात्र दान किया तथा दही और भातके साथ जलसे भरे हुए बहुत-से पुरखे भी ब्राह्मणोंको दिये। इसके सिवा भगवान् शंकरके समक्ष श्रेष्ठ ब्राह्मणको छाता, जूते, वस्त्र तथा श्रीहरिकी प्रतिमा भी दान की। उस नदीके तीरपर मैंने धनकी रक्षाके लिये व्रत किया था। उपवासपूर्वक एक मनोहर जलपात्र भी दान किया था। यह सब करके मैं घर लौट आया। तदनन्तर, कुछ कालके बाद मेरी मृत्यु हो गयी। नास्तिक होनेके कारण मुझे प्रेतकी योनिमें आना पड़ा। श्रवण-द्वादशीके योगमें मैंने जलका बड़ा पात्र दान किया था, इसलिये प्रतिदिन मध्याहनके समय यह मुझे प्राप्त होता है। ये सब ब्राह्मणका धन चुरानेवाले पापी हैं, जो प्रेतभावको प्राप्त हुए हैं। इनमें कुछ परस्त्रीलम्पट और कुछ अपने स्वामीसे द्रोह करनेवाले रहे हैं। इस मरुप्रदेशमें आकर ये मेरे मित्र हो गये हैं। सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु अक्षय (अविनाशी) हैं। उनके उद्देश्यसे जो कुछ दिया जाता है, वह सब अक्षय कहा गया है। उस अक्षय अन्नसे ही ये प्रेत पुनः पुनः तृप्त होते रहते हैं। आज तुम मेरे अतिथिके रूपमें उपस्थित हुए हो। मैं अन्नसे तुम्हारी पूजा करके प्रेतभावसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होऊंगा, परन्तु मेरे बिना ये प्रेत इस भयंकर वनमें कर्मानुसार प्राप्त हुई प्रेतयोनिको दुस्सह पीड़ा भोगेंगे; अतः तुम मुझपर कृपा करनेके लिये इन सबके नाम और गोत्र लिखकर ले लो। महामते। हाँसे | हिमालयपर जाकर तुम खजाना प्राप्त करोगे। तत्पश्चात्
गया जाकर इन सबका श्राद्ध कर देना। महादेवजी कहते हैं-नारद! बनियेको इस प्रकार आदेश देकर प्रेतने उसे सुखपूर्वक विदा किया। घर आनेपर उसने हिमालयकी यात्रा की और वहाँसे | प्रेतका बताया हुआ खजाना लेकर वह लौट आया। उस खजानेका छठा अंश साथ लेकर वह 'गया' तीर्थमें गया। वहाँ पहुँचकर उस परम बुद्धिमान् बनियेने शास्त्रोक्त विधिसे उन प्रेतोंका श्राद्ध किया। एक-एकके नाम और गोत्रका उच्चारण करके उनके लिये पिण्डदानकिया। वह जिस दिन जिसका श्राद्ध करता था, उस दिन वह आकर स्वप्नमें बनियेको प्रत्यक्ष दर्शन देता और कहता कि 'महाभाग ! तुम्हारी कृपासे मैंने प्रेतभावको त्याग दिया और अब मैं परमगतिको प्राप्त हो रहा हूँ।' इस प्रकार वह महामना वैश्य गयातीर्थमें प्रेतोंका विधिपूर्वक श्राद्ध करके बारम्बार भगवान् विष्णुका ध्यान करता हुआ अपने घर लौट आया। फिर भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें, जब श्रवण-द्वादशीका योग आया, तब वह सब आवश्यक सामग्री साथ लेकर नदीके संगमपर गया और वहाँ स्नान करके उसने द्वादशीका व्रत किया। स्नान, दान और भगवान् विष्णुका पूजन करनेके अनन्तर ब्राह्मणको उपहार भेंट किया। एकचित्त होकर उस बुद्धिमान् वैश्यने शास्त्रोक्त विधिसे सब कार्य सम्पन्नकिया। उसके बाद प्रतिवर्ष भादोंका महीना आनेपर श्रवण-द्वादशीके योगमें नदीके संगमपर जाकर वह भगवान् विष्णुके उद्देश्यसे पूर्वोक्त प्रकारसे स्नान-दान आदि सब कार्य करने लगा। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उसकी मृत्यु हो गयी। उसने सब मनुष्योंके लिये दुर्लभ परमधामको प्राप्त कर लिया। आज भी वह विष्णुदूतोंसे सेवित हो वैकुण्ठधाममें विहार कर रहा है। ब्रह्मन् ! तुम भी इसी प्रकार श्रवण-द्वादशीका व्रत करो। वह इस लोक और परलोकमें भी सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करनेवाला, उत्तम बुद्धिका देनेवाला तथा सब पापोंको हरनेवाला उत्तम साधन है। जो श्रवण-द्वादशीके योगमें इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह इसके प्रभावसे विष्णुलोकमें जाता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार