महादेवजी कहते हैं-नारद! सुनो, अब मैं वैष्णवोंके लक्षण बताऊँगा, जिन्हें सुनकर लोग ब्रह्महत्या आदि पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं। भक्त भगवान् विष्णुका होकर रहा है, इसलिये वह वैष्णव कहलाता है। समस्त वर्णोंकी अपेक्षा वैष्णवको श्रेष्ठ कहा गया है जिनका आहार अत्यन्त पवित्र है, उन्होंके वंशमें वैष्णव पुरुष जन्म धारण करता है। ब्रह्मन्! जिनके भीतर क्षमा, दया, तपस्या और सत्यकी स्थिति है, उन वैष्णवोंके दर्शनमात्रके आगसे रूईकी भाँति सारा पाप नष्ट हो जाता है। जो हिंसासे दूर रहता है, जिसकी मति सदा भगवान् विष्णुमें लगी रहती हैं, जो अपने कण्ठमें तुलसीकाष्ठकी माला धारण करता है, प्रतिदिन अपने अंगोंमें बारह तिलक लगाये रहता है तथा विद्वान् होकर धर्म और अधर्मका ज्ञान रखता है, वह मनुष्य वैष्णव कहलाता है। जो सदा वेद-शास्त्रके अभ्यासमें लगे रहते, प्रतिदिन यज्ञोंका अनुष्ठान करते तथा बारम्बार वर्षके चौबीस उत्सव मनाते रहते हैं, उनका कुल परम धन्य है; उन्हींका यश विस्तारकी प्राप्त होता है तथा वे ही लोग संसारमें धन्यतम एवं भगवद्भक्त हैं। ब्रह्मन्! जिसके कुलमें एकही भगवद्भक्त पुरुष उत्पन्न हो जाता है, उसका कुल बारम्बार उस पुरुषके द्वारा उद्धारको प्राप्त होता रहता है। वैष्णवोंके दर्शनमात्रसे ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है। महामुने! इस लोकमें जो वैष्णव पुरुष देखे जाते हैं, तत्त्ववेत्ता पुरुषोंको उन्हें विष्णुके समान ही जानना चाहिये। जिसने भगवान् विष्णुकी पूजा की, उसके द्वारा सबका पूजन हो गया। जिसने वैष्णवोंकी पूजा की, उसने महादान कर लिया। जो वैष्णवोंको सदा फल, पत्र, साग, अन्न अथवा वस्त्र दिया करते हैं, वे इस भूमण्डलमें धन्य हैं। ब्रह्मन् ! | वैष्णवोंके विषयमें अब और क्या कहा जाय। बारम्बार अधिक कहनेकी आवश्यकता नहीं है; उनका दर्शन और स्पर्श - सब कुछ सुखद है। जैसे भगवान् विष्णु हैं, वैसा ही उनका भक्त वैष्णव पुरुष भी है। इन दोनोंमें कभी अन्तर नहीं रहता। ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष सदा वैष्णवोंकी पूजा करे। जो इस पृथ्वीपर एक ही वैष्णव ब्राह्मणको भोजन करा देता है, उसने सहस्रों ब्राह्मणोंको भोजन करा दिया इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
नारदजीने कहा- सुरश्रेष्ठ! जो सदा उपवासकरनेमें असमर्थ हैं, उनके लिये कोई एक ही द्वादशीका व्रत, जो पुण्यजनक हो, बतलाइये। महादेवजी बोले- भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें जो श्रवण नक्षत्रसे युक्त द्वादशी होती है, वह सब कुछ देनेवाली पुण्यमयी तथा उपवास करनेपर महान् फल देनेवाली है। जो नदियोंके संगममें नहाकर उक्त द्वादशीको उपवास करता है, वह अनायास ही बारह द्वादशियोंका फल पा लेता है। बुधवार और श्रवण नक्षत्रसे युक्त जो द्वादशी होती है, उसका महत्त्व बहुत बड़ा है। उस दिन किया हुआ सब कुछ अक्षय हो जाता है। श्रवण द्वादशीके दिन विद्वान् पुरुष जलपूर्ण कलशकी स्थापना करके उसके ऊपर एक पात्र रखे और उसमें श्रीजनार्दनकी स्थापना करे। तत्पश्चात् उनके आगे घीमें पका हुआ नैवेद्य निवेदन करे; साथ ही अपनी शक्तिके अनुसार जलसे भरे हुए अनेक नये घड़ोंका दान करे। इस प्रकार श्रीगोविन्दकी पूजा करके उनके समीप रात्रिमें जागरण करे। फिर निर्मल प्रभातकाल आनेपर स्नान करके फूल, धूप, नैवेद्य, फल और सुन्दर वस्त्र आदिके द्वारा भगवान् गरुडध्वजकी पूजा करे।
तदनन्तर पुष्पांजलि दे और इस मन्त्रको पट्टे
नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंयुत।
अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ॥
(70/10) 'बुधवार और श्रवण नक्षत्रसे युक्त भगवान् गोविन्द! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। मेरी पापराशिका नाश करके आप मुझे सब प्रकारके सुख प्रदान करें।'
तत्पश्चात् वेद-वेदांगो पारगामी, विशेषतः पुराणोंके ज्ञाता विद्वान् ब्राह्मणको विधिपूर्वक पवित्र अन्नका दान करे। इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष किसी नदीके किनारे एकचित्त होकर उक्त विधिसे सब कार्य पूर्ण करे। इस विषय में जानकार लोग यह प्राचीन इतिहास कहा करते हैं- एक महान् वनमें जो घटना घटित हुई थी, उसका वर्णन करता हूँ; सुनो।
विद्वन्! दाशेरक नामका जो देश है, उसकेपश्चिमभागमें मरु (मारवाड़) प्रदेश है, जो समस्त प्राणियोंके लिये भय उत्पन्न करनेवाला है। वहाँकी भूमि तपी हुई बालूसे भरी रहती है। वहाँ बड़े-बड़े साँप हैं, जो महादुष्ट होते हैं। वह भूमि थोड़ी छायावाले वृक्षोंसे व्याप्त है शमी, खैर, पलाश, करील और पीलू-ये ही वहाँके वृक्ष हैं मजबूत काँटोंसे घिरे हुए वहाँके वृक्ष बड़े भयंकर दिखायी देते हैं; तथापि कर्मबन्धनसे बँधे होनेके कारण वहाँ भी सब जीव जीवन धारण करते हैं। विद्वन्। उस देशमें न तो पर्याप्त जल है और न जल धारण करनेवाले बादल ही वहाँ दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसे देशमें कोई बनिया भाग्यवश अपने साथियोंसे बिछुड़कर इधर-उधर भटक रहा था। उसके हृदयमें भ्रम छा गया था। वह भूख प्यास और परिभ्रमसे पीड़ित हो रहा था। कहाँ गाँव है? कहाँ जल है? मैं कहाँ जाऊँगा? यह कुछ भी उसे जान नहीं पड़ता था। इसी समय उसने कुछ प्रेत देखे, जो भूख प्याससे व्याकुल एवं भयंकर दिखायी देते थे। उनमें एक प्रेत ऐसा था, जो दूसरे प्रेतके कंधेपर चढ़कर चलता था तथा और बहुत से प्रेत उसे चारों ओरसे घेरे हुए थे। प्रेतोंकी भयानक आवाजके साथ वहभयंकर प्रेत उधर ही आ रहा था। वह उस भयानक जंगलमें मनुष्यको आया देख प्रेतके कंधेसे पृथ्वीपर उतर पड़ा और बनियेके पास आकर उसे प्रणाम करके इस प्रकार बोला- 'इस घोर प्रदेशमें आपका कैसे प्रवेश हुआ ?' यह सुनकर उस बुद्धिमान् बनियेने कहा- 'दैवयोगसे तथा पूर्वजन्मके किये हुए कर्मकी प्रेरणासे मैं अपने साथियोंसे बिछुड़ गया हूँ। इस प्रकार मेरा यहाँ प्रवेश सम्भव हुआ है। इस समय मुझे बड़े जोरकी भूख और प्यास सता रही है।'
तब उस प्रेतने उस समय अपने अतिथिको उत्तम अन्न प्रदान किया। उसके खानेमात्रसे बनियेको बड़ी तृप्ति हुई। वह एक ही क्षणमें प्यास और संतापसे रहित हो गया। इसके बाद वहाँ बहुत से प्रेत आ पहुँचे। प्रधान प्रेतने क्रमशः उन सबको अन्नका भाग दिया। दही, भात और जलसे उन्हें बड़ी प्रसन्नता और तृप्ति हुई। इस प्रकार अतिथि और प्रेतसमुदायको तृप्त करके उसने स्वयं भी बचे हुए अन्नका सुखपूर्वक भोजन किया। उसके भोजन कर लेनेपर वहाँ जो सुन्दर अन्न और जल प्रस्तुत हुआ था, वह सब अदृश्य हो गया। तब बनियेने उस प्रेतराजसे कहा 'भाई! इस वनमें तो मुझे यह बड़े आश्चर्यकी बात प्रतीत हो रही है। तुम्हें यह उत्तम अन्न और जल कहाँसे प्राप्त हुआ ? तुमने थोड़े से ही अन्नसे इन बहुत से जीवोंको तृप्त कर दिया। इस घोर जंगलमें तुमलोग कैसे निवास करते हो ?'
प्रेत बोला- महाभाग! मैंने अपना पूर्वजन्म केवल वाणिज्य-व्यवसायमें आसक्त होकर व्यतीत किया है। समूचे नगरमें मेरे समान दूसरा कोई दुरात्मा नहीं था। धनके लोभसे मैंने कभी किसीको भीखतक नहीं दी। उन दिनों एक गुणवान् ब्राह्मण मेरे मित्र थे एक समय भादोंके महीनेमें, जब श्रवण नक्षत्र और द्वादशीका योग आया था, वे मुझे साथ लेकर तापी नदीके तटपर गये, जहाँ उसका चन्द्रभागा नदीके साथ पवित्र संगम हुआ था, चन्द्रभागा चन्द्रमाकी पुत्री है और तापी सूर्यको उन दोनोंके मिले हुए शीत और उष्ण जलमें मैंने ब्राह्मणके साथ प्रवेश किया। श्रवणद्वादशी के योग बहुत से मनुष्योंको संतुष्ट किया। चन्द्रभागाके उत्तम जलसे भरकर ब्राह्मणको जलपात्र दान किया तथा दही और भातके साथ जलसे भरे हुए बहुत-से पुरखे भी ब्राह्मणोंको दिये। इसके सिवा भगवान् शंकरके समक्ष श्रेष्ठ ब्राह्मणको छाता, जूते, वस्त्र तथा श्रीहरिकी प्रतिमा भी दान की। उस नदीके तीरपर मैंने धनकी रक्षाके लिये व्रत किया था। उपवासपूर्वक एक मनोहर जलपात्र भी दान किया था। यह सब करके मैं घर लौट आया। तदनन्तर, कुछ कालके बाद मेरी मृत्यु हो गयी। नास्तिक होनेके कारण मुझे प्रेतकी योनिमें आना पड़ा। श्रवण-द्वादशीके योगमें मैंने जलका बड़ा पात्र दान किया था, इसलिये प्रतिदिन मध्याहनके समय यह मुझे प्राप्त होता है। ये सब ब्राह्मणका धन चुरानेवाले पापी हैं, जो प्रेतभावको प्राप्त हुए हैं। इनमें कुछ परस्त्रीलम्पट और कुछ अपने स्वामीसे द्रोह करनेवाले रहे हैं। इस मरुप्रदेशमें आकर ये मेरे मित्र हो गये हैं। सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु अक्षय (अविनाशी) हैं। उनके उद्देश्यसे जो कुछ दिया जाता है, वह सब अक्षय कहा गया है। उस अक्षय अन्नसे ही ये प्रेत पुनः पुनः तृप्त होते रहते हैं। आज तुम मेरे अतिथिके रूपमें उपस्थित हुए हो। मैं अन्नसे तुम्हारी पूजा करके प्रेतभावसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होऊंगा, परन्तु मेरे बिना ये प्रेत इस भयंकर वनमें कर्मानुसार प्राप्त हुई प्रेतयोनिको दुस्सह पीड़ा भोगेंगे; अतः तुम मुझपर कृपा करनेके लिये इन सबके नाम और गोत्र लिखकर ले लो। महामते। हाँसे | हिमालयपर जाकर तुम खजाना प्राप्त करोगे। तत्पश्चात्
गया जाकर इन सबका श्राद्ध कर देना। महादेवजी कहते हैं-नारद! बनियेको इस प्रकार आदेश देकर प्रेतने उसे सुखपूर्वक विदा किया। घर आनेपर उसने हिमालयकी यात्रा की और वहाँसे | प्रेतका बताया हुआ खजाना लेकर वह लौट आया। उस खजानेका छठा अंश साथ लेकर वह 'गया' तीर्थमें गया। वहाँ पहुँचकर उस परम बुद्धिमान् बनियेने शास्त्रोक्त विधिसे उन प्रेतोंका श्राद्ध किया। एक-एकके नाम और गोत्रका उच्चारण करके उनके लिये पिण्डदानकिया। वह जिस दिन जिसका श्राद्ध करता था, उस दिन वह आकर स्वप्नमें बनियेको प्रत्यक्ष दर्शन देता और कहता कि 'महाभाग ! तुम्हारी कृपासे मैंने प्रेतभावको त्याग दिया और अब मैं परमगतिको प्राप्त हो रहा हूँ।' इस प्रकार वह महामना वैश्य गयातीर्थमें प्रेतोंका विधिपूर्वक श्राद्ध करके बारम्बार भगवान् विष्णुका ध्यान करता हुआ अपने घर लौट आया। फिर भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें, जब श्रवण-द्वादशीका योग आया, तब वह सब आवश्यक सामग्री साथ लेकर नदीके संगमपर गया और वहाँ स्नान करके उसने द्वादशीका व्रत किया। स्नान, दान और भगवान् विष्णुका पूजन करनेके अनन्तर ब्राह्मणको उपहार भेंट किया। एकचित्त होकर उस बुद्धिमान् वैश्यने शास्त्रोक्त विधिसे सब कार्य सम्पन्नकिया। उसके बाद प्रतिवर्ष भादोंका महीना आनेपर श्रवण-द्वादशीके योगमें नदीके संगमपर जाकर वह भगवान् विष्णुके उद्देश्यसे पूर्वोक्त प्रकारसे स्नान-दान आदि सब कार्य करने लगा। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उसकी मृत्यु हो गयी। उसने सब मनुष्योंके लिये दुर्लभ परमधामको प्राप्त कर लिया। आज भी वह विष्णुदूतोंसे सेवित हो वैकुण्ठधाममें विहार कर रहा है। ब्रह्मन् ! तुम भी इसी प्रकार श्रवण-द्वादशीका व्रत करो। वह इस लोक और परलोकमें भी सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करनेवाला, उत्तम बुद्धिका देनेवाला तथा सब पापोंको हरनेवाला उत्तम साधन है। जो श्रवण-द्वादशीके योगमें इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह इसके प्रभावसे विष्णुलोकमें जाता है।