शेषजी कहते हैं- मुने ! रणभूमिमें पड़े हुए वीर शत्रुघ्नने क्षणभरमें मूर्च्छा त्याग दी तथा अन्यान्य बलवान् वीर भी जो मूर्च्छामें पड़े थे, जीवित हो गये। शत्रुघ्नने देखा अश्वमेधका श्रेष्ठ अश्व सामने खड़ा है, मेरे मस्तकका मुकुट गायब है तथा मरी हुई सेना भी जी उठी है। यह सब देखकर उनके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ और वे मूच्छसि जगे हुए बुद्धिमानों में श्रेष्ठ सुमतिसे बोले - 'मन्त्रिवर! इस बालकने कृपा करके यज्ञ पूर्ण करनेके लिये यह घोड़ा दे दिया है। अब हमलोग जल्दी ही श्रीरघुनाथजीके पास चलें। वे घोड़ेके आनेकी प्रतीक्षा करते होंगे।' यों कहकर वे अपने रथपर जा बैठे और घोड़ेको साथ लेकर वेगपूर्वक उस आश्रमसे दूर चले गये। भेरी और शंखकी आवाज बंद थी। उनके पीछे-पीछे विशाल चतुरंगिणी सेना चली जा रही थी। तरंग-मालाओंसे सुशोभित गंगा नदीको पार करके उन्होंने अपने राज्यमें प्रवेश किया, जो आत्मीयजनोंके निवाससे शोभा पारहा था। शत्रुघ्न मणिमय रथपर बैठे महान् कोदण्ड धारण किये हुए जा रहे थे। उनके साथ भरतकुमार पुष्कल और राजा सुरथ भी थे। चलते-चलते क्रमशः वे अपनी नगरी अयोध्यामें पहुँचे, जो सूर्यवंशी क्षत्रियोंसे सुशोभित थी। वहाँ अनेकों ऊँची-ऊँची पताकाएँ फहराकर उस नगरकी शोभा बढ़ा रही थीं। दुर्गके कारण उसकी सुषमा और भी बढ़ गयी थी। श्रीरामचन्द्रजीने जब सुना कि महात्मा शत्रुघ्न और वीर पुष्कलके साथ अश्व आ पहुँचा तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ और बलवानोंमें श्रेष्ठ भाई लक्ष्मणको उन्होंने शत्रुघ्नके पास भेजा। लक्ष्मण सेनाके साथ जाकर प्रवाससे आये हुए भाई शत्रुघ्नसे बड़ी प्रसन्नताके साथ मिले। शत्रुघ्नका शरीर अनेकों घावोंसे सुशोभित था। उन्होंने कुशल पूछी और तरह तरहकी बातें कीं। उनसे मिलकर शत्रुघ्नको बड़ी प्रसन्नता हुई। महामना लक्ष्मणने भाई शत्रुघ्नके साथ अपने रथपर बैठकर विशाल सेनासहित नगरमें प्रवेशकिया; जहाँ तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाली पुण्यसलिला सरयू श्रीरघुनाथजीकी चरण-रजसे पवित्र होकर शरत्कालीन चन्द्रमाके समान स्वच्छ जलसे शोभा पा रही हैं। श्रीरघुनाथजी शत्रुघ्नको पुष्कलके साथ आते देख अपने आनन्दोल्लासको रोक न सके। वे अपने अश्वरक्षक बन्धुसे मिलनेके लिये ज्यों ही खड़े हुए, त्यों ही भ्रातृभक्त शत्रुघ्न उनके चरणोंमें पड़
गये। घावके चिह्नोंसे सुशोभित अपने विनयशील भाईको पैरोंपर पड़ा देख श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें प्रेमपूर्वक उठाकर भुजाओंमें कस लिया और उनके मस्तकपर हर्षके आँसू गिराते हुए परमानन्दमें निमग्न हो गये। उस समय उन्हें जितनी प्रसन्नता हुई, वह वाणीसे परे है-उसका वर्णन नहीं हो सकता। तत्पश्चात् पुष्कलने विनयसे विह्वल होकर भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया। उन्हें अपने चरणों में पड़ा देख श्रीरघुनाथजीने गोदमें उठा लिया और कसकर छातीसे लगाया। इसी प्रकार हनुमान्, सुग्रीव, अंगद, लक्ष्मीनिधि, प्रतापाग्र्य, सुबाहु, सुमद, विमल, नीलरत्न, सत्यवान्, वीरमणि, श्रीरामभक्त सुरथ तथा अन्य बड़भागी स्नेहियों और चरणोंमें पड़े हुए-राजाओंको श्रीरघुनाथजीने अपने हृदयसे लगाया। सुमति भी भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले श्रीरघुनाथजीका गाढ़ आलिंगन करके प्रसन्नतापूर्वक उनके सामने खड़े हो गये। तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी समीप आये हुए अपने मन्त्रीकी ओर देख अत्यन्त हर्षमें भरकर बोले- 'मन्त्रिवर! बताओ, ये कौन-कौन-से राजा हैं? तथा ये सब लोग यहाँ कैसे पधारे हैं? अपना अश्व कहाँ-कहाँ गया, किसने किसने उसे पकड़ा तथा मेरे महान् बलशाली बन्धुने किस प्रकार उसको छुड़ाया ?"
सुमतिने कहा- भगवन्! आप सर्वज्ञ हैं, भला आपके सामने आज मैं इन सब बातोंका वर्णन कैसे करूँ। आप सबके द्रष्टा हैं, सब कुछ जानते हैं, तो भी लौकिक रीतिका आश्रय लेकर मुझसे पूछ रहे हैं। तथापि मैं सदाकी भाँति आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके कहता हूँ, सुनिये - 'स्वामिन्! आप समस्त राजाओंके शिरोमणि हैं। आपकी कृपासे आपके अश्वने, जो भालपत्रके कारण बड़ी शोभा पा रहा था, इस पृथ्वीपर सर्वत्र भ्रमण किया है । प्रायः कोई राजा ऐसा नहीं निकला, जिसने अपने मान और बलके घमंडमें आकर अश्वको पकड़ा हो। सबने अपना-अपना राज्य समर्पण करके आपके चरणोंमें मस्तक झुकाया। भला, विजयकी अभिलाषा रखनेवाला कौन ऐसा राजा होगा, जो राक्षसराज रावणके प्राण हन्ता श्रीरघुनाथजीके श्रेष्ठ अश्वको पकड़ सके ? प्रभो! आपका मनोहर अश्व सर्वत्र घूमता हुआ अहिच्छत्रा नगरीमें पहुँचा। वहाँके राजा सुमदने जब सुना कि श्रीरामचन्द्रजीका अश्व आया है, तो उन्होंने सेना और पुत्रोंके साथ आकर अपना सारा अकण्टक राज्य आपकी सेवामें समर्पित कर दिया। ये हैं राजा सुमद, जो बड़े-बड़े राजा-प्रभुओंके सेव्य आपके चरणोंमें प्रणाम करते हैं। इनके हृदयमें बहुत दिनोंसे आपके दर्शनकी अभिलाषा थी। आज अपनी कृपादृष्टि से इन्हें अनुगृहीत कीजिये। अहिच्छत्रा नगरीसे आगे बढ़नेपर वह अश्व राजा सुबाहुके नगरमें गया, जो सब प्रकारके बलसे सम्पन्न हैं। वहीं राजकुमार दमनने उस श्रेष्ठ अश्वको पकड़ लिया। फिर तो युद्ध छिड़ा औरपुष्कलने सुबाहु पुत्रको मूच्छित करके विजय प्राप्त की। तब महाराज सुबाहु भी क्रोधमें भरकर रणभूमिमें आये और पवनकुमार हनुमानजीसे बलपूर्वक युद्ध करने लगे। उनका ज्ञान शापसे विलुप्त हो गया था। हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे उनका शाप दूर हुआ और वे अपने खोये हुए ज्ञानको पाकर अपना सब कुछ आपकी सेवामें अर्पण करके अश्वके रक्षक बन गये । ये ऊँचे डील-डौलवाले राजा सुबाहु हैं, जो आपको नमस्कार करते हैं। ये युद्धकी कलामें बड़े निपुण हैं। आप अपनी दया दृष्टिसे देखकर इनके ऊपर स्नेहकी वर्षा कीजिये । तदनन्तर अपना यज्ञसम्बन्धी अश्व देवपुरमें गया, जो भगवान् शिवका निवासस्थान होनेके कारण अत्यन्त शोभा पा रहा था। वहाँका हाल तो आप जानते ही हैं, क्योंकि स्वयं आपने पदार्पण किया था। तत्पश्चात् विद्युन्माली दैत्यका वध किया गया। उसके बाद राजा सत्यवान् हमलोगों से मिले। महामते ! वहाँसे आगे जानेपर कुण्डलनगरमें राजा सुरथके साथ जो युद्ध हुआ, उसका हाल भी आपको मालूम ही है। कुण्डलनगरसे छूटनेपर अपना घोड़ा सब ओर बेखटके विचरता रहा। किसीने भी अपने पराक्रम और बलके घमण्डमें आकर उसे पकड़नेका नाम नहीं लिया। नरश्रेष्ठ! तदनन्तर लौटते समय जब आपका मनोरम अश्व महर्षि वाल्मीकिके रमणीय आश्रमपर पहुँचा, तो वहाँ जो कौतुक हुआ,उसको ध्यान देकर सुनिये। वहाँ एक सोलह वर्षका बालक आया, जो रूप-रंगमें हू-बहू आपहीके समान था। वह बलवानों में श्रेष्ठ था। उसने भालपत्रसे चिह्नित अश्वको देखा और उसे पकड़ लिया। वहाँ सेनापति कालजित्ने उसके साथ घोर युद्ध किया । किन्तु उस वीर बालकने अपनी तीखी तलवारसे सेनापतिका काम तमाम कर दिया। फिर उस वीरशिरोमणिने पुष्कल आदि अनेकों बलवानोंको युद्धमें मार गिराया और शत्रुघ्नको मूच्छित किया। तब राजा शत्रुघ्नने अपने हृदयमें महान् दुःखका अनुभव करके क्रोध किया और बलवानोंमें श्रेष्ठ उस वीरको मूच्छित कर दिया । शत्रुघ्नके द्वारा ज्यों ही वह मूच्छित हुआ, त्यों ही उसीके आकारका एक दूसरा बालक वहाँ आ पहुँचा। फिर तो उसने और इसने भी एक-दूसरेका सहारा पाकर आपकी सारी सेनाका संहार कर डाला। मूर्च्छामें पड़े हुए सभी वीरोंके अस्त्र और आभूषण उतार लिये। फिर सुग्रीव और हनुमान् — इन दो वानरोंको उन्होंने पकड़कर बाँधा और इन्हें वे अपने आश्रमपर ले गये । पुनः कृपा करके उन्होंने स्वयं ही यह यज्ञका महान् अश्व लौटा दिया और मरी हुई समस्त सेनाको जीवन दान दिया। तत्पश्चात् घोड़ा लेकर हमलोग आपके समीप आ गये। इतनी ही बातें मुझे ज्ञात हैं, जिन्हें मैंने आपके सामने प्रकट कर दिया।