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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 117 - Khand 4, Adhyaya 117

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शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना

शेषजी कहते हैं-राक्षसोंद्वारा अपहरण किये हुए घोड़ेको पाकर पुष्कलसहित राजा शत्रुघ्नको बड़ा हर्ष हुआ। दुर्जय दैत्य विद्युन्मालीके मारे जानेपर समस्त देवता निर्भय हो गये। उन्हें बड़ा सुख मिला। तदनन्तर शत्रुघ्नने उस उत्तम अश्वको छोड़ा। फिर तो वह उत्तर- दिशामें भ्रमण करने लगा। सब प्रकारके अस्त्र शस्त्रोंमें प्रवीण श्रेष्ठ रथी, घुड़सवार और पैदल सिपाही/ उसकी रक्षामें नियुक्त थे। घूमता घामता वह नर्मदाके तटपर जा पहुँचा, जहाँ बहुत से ऋषि महर्षि निवास करते हैं। नर्मदाका जल ऐसा जान पड़ता था, मानो पानीके व्याजसे नील रत्नोंका रस ही दिखायी दे रहा हो वहाँ तटपर उन्होंने एक पुरानी पर्णशाला देखी, जो पलाशके पत्तोंसे बनी हुई थी और नर्मदाकी लहरें उसे अपने जलसे सोच रही थीं शत्रुजी सम्पूर्ण धर्म अर्थ, कर्म और कर्तव्यके ज्ञानमें निपुण थे; उन्होंने सर्वज्ञ एवं नीतिकुशल मन्त्री सुमतिसे पूछा- 'मन्त्रिवरबताओ, यह पवित्र आश्रम किसका है?'

सुमतिने कहा- महाराज ! यहाँ एक श्रेष्ठ मुनि रहते हैं, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके विद्वान् हैं; इनका दर्शन करके हमलोगोंके समस्त पाप धुल जायँगे। इसलिये तुम इन्हें प्रणाम करके इन्हींसे पूछो। ये तुम्हें सब कुछ बता देंगे। इनका नाम आरण्यक है, ये श्रीरघुनाथजीके चरणोंके सेवक हैं तथा उनके चरणकमलोंके मकरन्दका आस्वादन करनेके लिये सदा लोलुप बने रहते हैं। इन्होंने बड़ी उग्र तपस्या की है और ये समस्त शास्त्रोंके मर्मज्ञ हैं।

सुमतिका यह धर्मयुक्त वचन सुनकर शत्रुघ्नजी थोड़े-से सेवकोंको साथ ले मुनिका दर्शन करनेके लिये गये। पास जा उन सभी वीरोंने विनीतभावसे मस्तक झुकाकर तापसोंमें श्रेष्ठ आरण्यक मुनिको नमस्कार किया। मुनिने उन सब लोगोंसे पूछा 'आपलोग कहाँ एकत्रित हुए हैं तथा कैसे यहाँ पधारे हैं? ये सब बातें स्पष्टरूपसे बताइये।'सुमतिने कहा- मुझे ये सब लोग रघुकुल नरेशके अश्वकी रक्षा कर रहे हैं। वे इस समय सब सामग्रियोंसे युक्त अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करनेवाले हैं।

आरण्यक बोले-सब सामग्रियोंको एकत्रित करके भाँति-भाँतिके सुन्दर यज्ञोंका अनुष्ठान करने से क्या लाभ? वे तो अत्यन्त अल्प पुण्य प्रदान करनेवाले हैं तथा उनसे क्षणभंगुर फलकी ही प्राप्ति होती है। स्थिर ऐश्वर्यपदको देनेवाले तो एकमात्र रमानाथ भगवान् श्रीरघुवीर ही हैं। जो लोग उन भगवान्को छोड़कर दूसरेकी पूजा करते हैं, वे मूर्ख हैं। जो मनुष्योंके स्मरण करनेमात्रसे पहाड़ जैसे पापका भी नाश कर डालते हैं, उन भगवान्को छोड़कर मूढ़ मनुष्य योग याग और व्रत आदिके द्वारा क्लेश उठाते हैं। सकाम पुरुष अथवा निष्काम योगी भी जिनका अपने हृदय चिन्तन करते हैं तथा जो मनुष्योंको मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं, वे भगवान्श्रीराम स्मरण करनेमात्रसे सारे पापको दूर कर देते हैं। पूर्वकालकी बात है, मैं तत्त्वज्ञानको इच्छासे ज्ञानी गुरुका अनुसन्धान करता हुआ बहुत से तीर्थोंमें भ्रमण करता रहा; किन्तु किसीने मुझे भी तत्त्वका उपदेश नहीं दिया। उसी समय एक दिन भाग्यवश मुझे लोमश मुनि मिल गये। वे स्वर्गलोक तीर्थयात्राके लिये आये थे। उन महर्षिको प्रणाम करके मैंने पूछा-'स्वामिन्! मैं इस अद्भुत और दुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर भयंकर भव-सागरके पार जाना चाहता हूँ, ऐसी दशामें मुझे क्या करना चाहिये ?' मेरी यह बात सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ बोले- 'विप्रवर! एकाग्रचित्त होकर पूर्ण श्रद्धाके साथ सुनो, संसार-समुद्रसे तरनेके लिये दान, तीर्थ, व्रत, नियम, यम, योग तथा यज्ञ आदि अनेकों साधन हैं। ये सभी स्वर्ग प्रदान करनेवाले हैं; किन्तु महाभाग ! मैं तुमसे एक परम गोपनीय तत्त्वका वर्णन करता हूँ, जो सब पापका नाश करनेवाला और संसार सागरसे पार उतारनेवाला है। नास्तिक और श्रद्धाहीन पुरुषको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। निन्दक तथा भक्तिसे द्वेष रखनेवाले पुरुषके लिये भी इस तत्त्वका उपदेश करना मना है। जो काम और क्रोधसे रहित हो, जिसका चित्त शान्त हो तथा जो भगवान् श्रीरामका भक्त हो उसीके सामने इस गूढ़ तत्त्वका वर्णन करना चाहिये। यह समस्त दुःखोंका नाश करनेवाला सर्वोत्तम साधन है। श्रीरामसे बड़ा कोई देवता नहीं, श्रीरामसे बढ़कर कोई व्रत नहीं, श्रीरामसे बड़ा कोई योग नहीं तथा श्रीरामसे बढ़कर कोई यज्ञ नहीं है। श्रीरामका स्मरण, जप और पूजन करके मनुष्य परम पदको प्राप्त होता है। उसे इस लोक और परलोककी उत्तम समृद्धि मिलती है। श्रीरघुनाथजी सम्पूर्ण कामनाओं और फलोंके दाता हैं। मनके द्वारा स्मरण और ध्यान करनेपर वे अपनी उत्तम भक्ति प्रदान करते हैं, जो संसार-समुद्रसे वारनेवाली है चाण्डाल भीश्रीरामका स्मरण करके परमगतिको प्राप्त कर लेता है। फिर तुम्हारे जैसे वेद-शास्त्रपरायण पुरुषोंके लिये तो कहना ही क्या है? यह सम्पूर्ण वेद और शास्त्रोंका रहस्य है, जिसे मैंने तुमपर प्रकट कर दिया। अब जैसा तुम्हारा विचार हो, वैसा ही करो। एक ही देवता हैं श्रीराम, एक ही व्रत है—उनका पूजन, एक ही मन्त्र है— उनका नाम, तथा एक ही शास्त्र है-उनकी स्तुति अतः तुम सब प्रकारसे परममनोहर श्रीरामचन्द्रजीका भजन करो; इससे तुम्हारे लिये यह महान् संसार सागर गायके खुरके समान तुच्छ हो जायगा ।"

महर्षि लोमशका वचन सुनकर मैंने पुनः प्रश्न किया- 'मुनिवर मनुष्योंको भगवान् श्रीरामका ध्यान और पूजन कैसे करना चाहिये ?' यह सुनकर उन्होंने स्वयं श्रीरामका ध्यान करते हुए मुझे सब बातें बतायीं- 'साधकको इस प्रकार ध्यान करना चाहिये; रमणीय अयोध्या नगरी परम चित्र-विचित्र मण्डपोंसे शोभा पा रही है। उसके भीतर एक कल्पवृक्ष है, जिसके मूलभागमें परम मनोहर सिंहासन विराजमान है। वह सिंहासन बहुमूल्य मरकतमणि, सुवर्ण तथा नीलमणि आदिसे सुशोभित है और अपनी कान्तिसे गहन अन्धकारका नाश कर रहा है। वह सब प्रकारकी मनोभिलषित समृद्धियोंको देनेवाला है। उसके ऊपर भक्तोंका मन मोहनेवाले श्रीरघुनाथजी बैठे हुए हैं। उनका दिव्य विग्रह दूर्वादलके समान श्याम है, जो देवराज इन्द्रके द्वारा पूजित होता है। भगवान्‌का सुन्दर मुख अपनी शोभासे राकाके पूर्ण चन्द्रकी कमनीय कान्तिको भी तिरस्कृत कर रहा है। उनका तेजस्वी ललाटअष्टमीके अर्धचन्द्रकी सुषमा धारण करता है। मस्तकपर काले-काले घुँघराले केश शोभा पा रहे हैं। मुकुटकी मणियोंसे उनका मुखमण्डल उद्भासित हो रहा है। कानोंमें पहने हुए मकराकार कुण्डल अपने सौन्दर्यसे भगवान्‌की शोभा बढ़ा रहे हैं। मूँगेके समान सुन्दर कान्ति धारण करनेवाले लाल-लाल ओठ बड़े मनोहर जान पड़ते हैं। चन्द्रमाकी किरणोंसे होड़ लगानेवाली दन्तपंक्तियों तथा जपा- पुष्पके समान रंगवाली जिह्वाके कारण उनके श्रीमुखका सौन्दर्य और भी बढ़ गया है। शंखके आकारवाला कमनीय कण्ठ, जिसमें ऋक् आदि चारों वेद तथा सम्पूर्ण शास्त्र निवास करते हैं, उनके श्रीविग्रहको सुशोभित कर रहा है। श्रीरघुनाथजी सिंहके समान ऊँचे और मांसल कंधेवाले हैं। वे केयूर एवं कड़ोंसे विभूषित विशाल भुजाएँ धारण किये हुए हैं। उनकी दोनों बाँहें अंगूठीमें जड़े हुए हीरेकी शोभासे देदीप्यमान और घुटनोंतक लंबी हैं। विस्तृत वक्षःस्थल लक्ष्मीके निवाससे शोभा पा रहा है। श्रीवत्स आदि चिह्नोंसे अंकित होनेके कारण भगवान् अत्यन्त मनोहर जान पड़ते हैं। महान् उदर, गहरी नाभि तथा सुन्दर कटिभाग उनकी शोभा बढ़ाते हैं। रत्नोंकी बनी हुई करधनीके कारण श्री अंगोंकी सुषमा बहुत बढ़ गयी है। निर्मल ऊरु और सुन्दर घुटने भी सौन्दर्यवृद्धिमें सहायक हो रहे हैं। भगवान्‌के चरण, जिनका योगीलोग ध्यान करते हैं, बड़े कोमल हैं। उनके तलवेमें वज्र, अंकुश और यव आदिकी उत्तम रेखाएँ हैं। उन युगल चरणोंसे श्रीरघुनाथजीके विग्रहकी बड़ी शोभा हो रही है। "इस प्रकार ध्यान और स्मरण करके तुम संसारसागरसे तर जाओगे। जो मनुष्य प्रतिदिन चन्दन आदि सामग्रियोंसे इच्छानुसार श्रीरामचन्द्रजीका पूजन करता है, उसे इहलोक और परलोककी उत्तम समृद्धि प्राप्त होती है, तुमने श्रीरामके ध्यानका प्रकार पूछा था। सो मैंने तुम्हें बता दिया। इसके अनुसार ध्यान करके भवसागरके पार हो जाओ।'

आरण्यकने कहा- मुनिश्रेष्ठ मैं आपसे पुनः कुछ प्रश्न करता हूँ, मुझे उनका उत्तर दीजिये। महामते ! गुरुजन अपने सेवकपर कृपा करके उन्हें सब बातें बता देते हैं। महाभाग ! आप प्रतिदिन जिनका ध्यान करते हैं वे श्रीराम कौन हैं तथा उनके चरित्र कौन-कौन से हैं? यह बतानेकी कृपा कीजिये। द्विजश्रेष्ठ ! श्रीरामने किसलिये अवतार लिया था ? वे क्यों मनुष्य शरीरमें प्रकट हुए थे? आप मेरा सन्देह निवारण करनेके लिये सब बातोंको शीघ्र बताइये।

मुनिके परम कल्याणमय वचन सुनकर महर्षि लोमशने श्रीरामचन्द्रजीके अदभूत चरित्रका वर्णन किया। वे बोले-' योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान्ने सम्पूर्ण लोकोंको दुःखी जानकर संसारमें अपनी कीर्ति फैलानेका विचार किया। ऐसा करनेका उद्देश्य यह था कि जगत्के मनुष्य मेरी कीर्तिका गान करके घोर संसारसे तर जायँगे। यह समझकर भौंका मन लुभानेवाले दयासागर भगवान्ने चार विग्रहोंमें अवतार धारण किया। साथ ही उनकीह्लादिनी शक्ति लक्ष्मी भी अवतीर्ण हुई। पूर्वकालमें त्रेतायुग आनेपर सूर्यवंशमें श्रीरघुनाथजीका पूर्णावतार हुआ। उनकी श्रीरामके नामसे प्रसिद्धि हुई। श्रीरामके नेत्र कमलके समान शोभायमान थे। लक्ष्मण सदा उनके साथ रहते थे। धीरे-धीरे उन्होंने यौवनमें प्रवेश किया। तत्पश्चात् पिताकी आज्ञासे दोनों भाई- श्रीराम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्रके अनुगामी हुए। राजा दशरथने यज्ञकी रक्षाके लिये अपने दोनों कुमारोंको विश्वामित्रके अर्पण कर दिया था। वे दोनों भाई जितेन्द्रिय, धनुर्धर और वीर थे। मार्गमें जाते समय उन्हें भयंकर वनके भीतर ताड़का नामकी राक्षसी मिली। उसने उनके रास्तेमें विघ्न डाला। तब महर्षि विश्वामित्रकी आज्ञासे रघुकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजीने ताड़काको परलोक भेज दिया। गौतम-पत्नी अहल्या, जो इन्द्रके साथ सम्पर्क करनेके कारण पत्थर हो गयी थी, श्रीरामके चरणस्पर्शसे पुनः अपने स्वरूपको प्राप्त हो गयी। विश्वामित्रका यज्ञ प्रारम्भ होनेपर श्रीरघुनाथजीने अपने श्रेष्ठ बाणोंसे मारीचको घायल किया और सुबाहुको मार डाला। तदनन्तर राजा जनकके भवनमें रखे हुए शंकरजीके धनुषको तोड़ा। उस समय श्रीरामचन्द्रजीकी अवस्था पंद्रह वर्षकी थी। उन्होंने छः वर्षकी अवस्थावाली मिथिलेशकुमारी सीताको, जो परम सुन्दरी और अयोनिजा थी, वैवाहिक विधिके अनुसार ग्रहण किया। इसके बाद श्रीरामचन्द्रजी बारह वर्षोंतक सीताके साथ रहे। सत्ताईसवें वर्षकी उम्रमें उन्हें युवराज बनानेकी तैयारी हुई। इसी बीचमें रानी कैकेयीने राजा दशरथसे दो वर माँगे। उनमेंसे एकके द्वारा उन्होंने यह इच्छा प्रकट की कि श्रीराम मस्तकपर जटा धारण करके चौदह वर्षोंतक वनमें रहें।' तथा दूसरे वरके द्वारा यह माँगा कि 'मेरे पुत्र भरत युवराज बनाये जायँ', राजा दशरथने श्रीरामको वनवास दे दिया। श्रीरामचन्द्रजी तीन रात्रितक केवल जल पीकर रहे, चौथे दिन उन्होंने फलाहार किया और पाँचवें दिन चित्रकूटपर पहुँचकर अपने लिये रहनेका स्थान बनाया। [इस प्रकार वहाँ बारह वर्ष बीत गये।] तदनन्तर तेरहवें वर्षके आरम्भ में वे पंचवटीमें जाकर रहने लगे। महामुने! वहाँ श्रीरामने [लक्ष्मणके द्वारा] शूर्पणखा नामकी राक्षसीको [उसकी नाक कटाकर] कुरूप बना दिया। तत्पश्चात् वे जानकीके साथ वनमें विचरण करने लगे। इसी बीचमें अपने पापका फल उदय होनेपर दस मस्तकोंवाला राक्षसराज रावण सीताको हर ले जानेके लिये वहाँ आया और माघ कृष्ण अष्टमीको वृन्द नामक मुहूर्तमें, जब कि श्रीराम और लक्ष्मण आश्रमपर नहीं थे, उन्हें हर ले गया। उसके द्वारा अपहरण होनेपर देवी सीता कुररीकी भाँति विलाप करने लगीं- 'हा राम ! हा राम ! मुझे राक्षस हरकर लिये जा रहा है, मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।' रावण कामके अधीन होकर जनककिशोरी सीताको लिये जा रहा था। इतनेहीमें पक्षिराज जटायु वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने राक्षसराज रायके साथ युद्ध किया, किन्तु स्वयं ही उसके हाथसे मारे जाकर धरतीपर गिर पड़े। इसके बाद दसवें महीने में मार्गशीर्ष शुक्ल नवमीके दिन सम्पातिने वानरोंको इस बातकी सूचना दी कि 'सीता देवी रावणके भवनमें निवास कर रही हैं।' "फिर एकादशीको हनुमानजी महेन्द्र पर्वतसे
उछलकर सौ योजन चौड़ा समुद्र लाँघ गये। उस रातमेंवे लंकापुरीके भीतर सीताकी खोज करते रहे। रात्रिके अन्तिम भागमें हनुमान्जीको सीताका दर्शन हुआ। द्वादशीके दिन वे शिंशपा नामक वृक्षपर बैठे रहे। उसी दिन रातमें जानकीजीको विश्वास दिलानेके लिये उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीको कथा सुनायी। फिर त्रयोदशीको अक्ष आदिके साथ उनका युद्ध हुआ। चतुर्दशीके दिन इन्द्रजित्ने आकर ब्रह्मास्त्रसे उन्हें बाँध लिया। इसके बाद उनकी पूँछमें आग लगा दी गयी और उसी आगके द्वारा उन्होंने लंकापुरीको जला डाला। पूर्णिमाको ये पुनः महेन्द्र पर्वतपर आ गये। फिर मार्गशीर्ष कृष्णपक्षको प्रतिपदासे लेकर पाँच दिन उन्होंने मार्गमै बिताये। छठे दिन मधुवनमें पहुँचकर उसका विध्वंस किया और सप्तमीको श्रीरामचन्द्रजीके पास पहुँचकर सीताजीका दिया हुआ चिह्न उन्हें अर्पण किया तथा वहाँका सारा समाचार कह सुनाया। तत्पश्चात् अष्टमीको उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र और विजय नामक मुहूर्तमें दोपहरके समय श्रीरघुनाथजीका लंकाके लिये प्रस्थान हुआ। श्रीरामचन्द्रजी यह प्रतिज्ञा करके कि 'मैं समुद्रको लाँघकर राक्षसराज रावणका वध करूँगा', दक्षिण दिशाकी ओर चले। उस समय सुग्रीव उनके सहायक हुए। सात दिनोंके बाद समुद्रके तटपर पहुँचकर उन्होंने सेनाको ठहराया। पौषशुक्ल प्रतिपदासे लेकर तृतीयातक श्रीरघुनाथजी सेनासहित समुद्र तटपर टिके रहे। चतुर्थीको विभीषण आकर उनसे मिले। फिर पंचमीको समुद्र पार करनेके विषयमें विचार हुआ। इसके बाद श्रीरामने चार दिनोंतक अनशन किया। फिर समुद्रसे वर मिला और उसने पार जानेका उपाय भी दिखा दिया। तदनन्तर दशमीको सेतु बाँधनेका कार्य आरम्भ होकर त्रयोदशीको समाप्त हुआ। चतुर्दशीको श्रीरामने सुवेल पर्वतपर अपनी सेनाको ठहराया। पूर्णिमासे द्वितीयातक तीन दिनोंमें सारी सेना समुद्रके पार हुई। समुद्र पार करके लक्ष्मणसहित श्रीरामने वानरराजकीसाथ से सीके लिये लंकापुरीको चारों ओर मेलिया कृतीयादशमीपर्यत आठ दिनोतक सेनाका घेरा पड़ा रहा। एकादशीके दिन शुक और आग सेनामें घुस आये थे पौषकृष्ण द्वादशीको शार्दूलके द्वारा वानर सेनाकी गणना हुई। साथ ही उसने प्रधान प्रधान वानरोंकी शक्तिका भी वर्णन किया। सेनाकी संख्या जानकर रावण त्रयोदशीसे शत्रुसेनाकी अमावास्यापर्यन्त तीन दिनोंतक लंकापुरीमें अपने सैनिकोंको युद्धके लिये उत्साहित किया। माघशुक्ल प्रतिपदाको अंगद दूत बनकर रावणके दरबार में गये। उधर रावणने के द्वारा सौताको, उनके पतिके कटे हुए मस्तक आदिका दर्शन कराया। माघकी द्वितीयासे लेकर अष्टमीपर्यन्त सात दिनोंतक राक्षसों और वानरोंमें घमासान युद्ध होता रहा। माघशुक्ल नवमीको रात्रिके इन्द्रजित्ने युद्ध श्रीराम और लक्ष्मणको नाग पाशसे बाँध लिया। इससे प्रधान प्रधान वानर जब सब ओरसे व्याकुल और उत्साहहीन हो गये तो दशमीको नाग पाशका नाश करनेके लिये वायुदेवने श्रीरामचन्द्रजीके कानमें गरुड़के मन्त्रका जप और उनके स्वरूपका ध्यान बता दिया। ऐसा करनेसे एकादशीको गरुड़जीका आगमन हुआ। फिर द्वादशीको श्रीरामचन्द्रजीके हाथसे धूम्राक्षका वध हुआ । त्रयोदशीको भी उन्हींके द्वारा कम्पन नामका राक्षस युद्धमें मारा गया। माघशुक्ल चतुर्दशी कृष्णपक्षको प्रतिपदातक तीन दिनमें नीलके द्वारा प्रहस्तका वध हुआ। माघ कृष्ण द्वितीयासे चतुर्थीपर्यन्त तीन दिनोंतक तुमुल युद्ध करके श्रीरामने रावणको रणभूमिसे भगा दिया। पंचमीसे अष्टमीतक चार दिनोंमें रावणने कुम्भकर्णको जगाया और जागनेपर उसने आहार ग्रहण किया। फिर नवमीसे चतुर्दशीपर्यन्त छः दिनोंतक युद्ध करके श्रीरामने कुम्भकर्णका वध किया। उसने बहुत-से वानरोंको भक्षण कर लिया था। अमावास्याके दिन कुम्भकर्णकी मृत्युके शोकसे रावणने युद्धको बंद रखा। उसने अपनी सेना पीछे हटा ली फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदासे चतुर्थीतक चार दिनोंके भीतर बिसतन्तु आदि पाँच राक्षस मारे गये। पंचमी से सप्तमीतकके युद्धमेंअतिकायका वध हुआ। अष्टमीसे द्वादशीतक पाँच दिनोंमें निकुम्भ और कुम्भ मौतके घाट उतारे गये। उसके बाद तीन दिनोंमें मकराक्षका वध हुआ। फाल्गुन कृष्ण द्वितीयाके दिन इन्द्रजित्ने लक्ष्मणपर विजय पायी फिर तृतीयासे सप्तमीतक पाँच दिन लक्ष्मणके लिये दवा आदिके प्रबन्धमें व्यग्र रहनेके कारण श्रीरामने युद्धको बंद रखा। तदनन्तर त्रयोदशीपर्यन्त पाँच दिनोंतक युद्ध करके लक्ष्मणने विख्यात बलशाली इन्द्रजितुको युद्धमें मार डाला चतुर्दशीको दशग्रीव रावणने यज्ञकी दीक्षा ली और युद्धको स्थगित रखा। फिर अमावास्याके दिन वह युद्धके लिये प्रस्थित हुआ। चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे लेकर पंचमीतक रावण युद्ध करता रहा; उसमें पाँच दिनोंके भीतर बहुत-से राक्षसोंका विनाश हुआ। षष्ठीसे अष्टमीतक महापार्श्व आदि राक्षस मारे गये। चैत्र शुक्ल नवमीके दिन लक्ष्मणजीको शक्ति लगी। तब श्रीरामने क्रोधमें भरकर दशशीशको मार भगाया। फिर अंजना नन्दन हनुमान्जी लक्ष्मणकी चिकित्सा के लिये द्रोण पर्वत उठा लाये। दशमीके दिन श्रीरामचन्द्रजीने भयंकर युद्ध किया, जिसमें असंख्य राक्षसोंका संहार हुआ। एकादशीके दिन इन्द्रके भेजे हुए मातलि नामक सारथि श्रीरामचन्द्रजीके लिये रथ ले आये और उसे युद्धक्षेत्रमें भक्तिपूर्वक उन्होंने श्रीरघुनाथजीको अर्पण किया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी चैत्र शुक्ल द्वादशीसे कृष्णपक्षको चतुर्दशीतक अठारह दिन रोषपूर्वक युद्ध करते रहे। अन्ततोगत्वा उस द्वैरथयुद्धमें रामने रावणका वध किया। उस तुमुल संग्राममें श्रीरघुनाथजीने ही विजय प्राप्त की। माघ शुक्ल द्वितीयासे लेकर चैत्र कृष्ण चतुर्दशीतक सतासी दिन होते हैं, इनके भीतर केवल पंद्रह दिन युद्ध बंद रहा। शेष बहत्तर दिनोंतक संग्राम चलता रहा। रावण आदि राक्षसोंका दाहसंस्कार अमावास्याके दिन हुआ वैशाख शुक्ल प्रतिपदाको श्रीरामचन्द्रजी युद्धभूमिमें ही ठहरे रहे। द्वितीयाको लंकाके राज्यपर विभीषणका अभिषेक किया गया। तृतीयाको सीताजीकी अग्निपरीक्षा हुई और देवताओंसे वर मिला। इस प्रकार लक्ष्मणके बड़े भाई श्रीरामने लंकापति रावणको थोड़े ही दिनोंमेंमारकर परमपवित्र जनककिशोरी सीताको ग्रहण किया, जिन्हें राक्षसने बहुत कष्ट पहुँचाया था। जानकीजीको पाकर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे लंकासे लौटे। वैशाख शुक्ल चतुर्थीको पुष्पकविमानपर आरूढ़ होकर वे आकाशमार्गसे पुनः अयोध्यापुरीकी ओर चले। वैशाख शुक्ल पंचमीको भगवान् श्रीराम अपने दल-बलके साथ भरद्वाजमुनिके आश्रमपर आये और चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होनेपर पष्ठीको नन्दिग्राम में जाकर भरतसे मिले। फिर सप्तमीको अयोध्यापुरीमें श्रीरघुनाथजीका राज्याभिषेक हुआ मिथिलेशकुमारी सीताको अधिक दिनोंतक रामसे अलग होकर रावणके यहाँ रहना पड़ा था। बयालिस वर्षकी उम्र में श्रीरामचन्द्रजीने राज्य ग्रहण किया, उस समय सीताकी अवस्था तैंतीस वर्षकी थी। रावणका संहार करनेवाले भगवान् श्रीराम चौदह वर्षोंके बाद पुनः अपनी पुरी अयोध्यामें प्रविष्ट होकर बड़े प्रसन्न हुए। तत्पश्चात् वे भाइयोंके साथ राज्यकार्य देखने लगे। श्रीरघुनाथजीके राज्य करते समय ही अगस्त्यजी, जो एक अच्छे वक्ता हैं तथा जिनकी उत्पत्ति कुम्भसे हुई है, उनके पास पधारेंगे। उनके कहनेसे श्रीरघुनाथजी अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान करेंगे। सुव्रत! भगवान्का यह यज्ञसम्बन्धी अश्व तुम्हारे आश्रमपर आवेगा तथा उसकी रक्षा करनेवाले योद्धा भी बड़े हर्ष के साथ तुम्हारे आश्रमपर पधारेंगे। उनके सामने तुम श्रीरामचन्द्रजीकी मनोहर कथा सुनाओगे तथा उन्हीं लोगोंके साथ अयोध्यापुरीको भी जाओगे। द्विजश्रेष्ठ ! अयोध्यामें कमलनयन श्रीरामका दर्शन करके तुम तत्काल ही संसारसागरसे पार हो जाओगे।'

मुनिश्रेष्ठ लोमश सर्वज्ञ हैं उन्होंने मुझसे उपर्युक्त बातें कहकर पूछा—'आरण्यक! तुम्हें अपने कल्याणके लिये और क्या पूछना है?' तब मैंने उनसे कहा- 'मह आपकी कृपासे मुझे भगवान् श्रीरामके अद्भुत चरित्रका पूर्ण ज्ञान हो गया। अब आपहीकेप्रसादसे में उनके चरणकमलोंको भी प्राप्त करूँगा ऐसा कहकर मैंने मुनीश्वरको प्रणाम किया। तत्पश्चात् वे चले गये। उन्हींकी कृपासे मुझे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी पूजन विधि भी प्राप्त हुई है। तबसे मैं सदा ही श्रीरामके चरणोंका चिन्तन करता हूँ तथा आलस्य छोड़कर बारम्बार उन्हींके चरित्रका गान करता रहता हूँ। उनके गुणोंका गान मेरे चित्तको लुभाये रहता है। मैं उसके द्वारा दूसरे लोगोंको भी पवित्र किया करता हूँ तथा मुनिके वचनोंका बारम्बार स्मरण करके भगवत् दर्शनकी उत्कण्ठासे पुलकित हो उठता हूँ। इस पृथ्वीपर | मैं धन्य हूँ; कृतकृत्य हूँ और परम सौभाग्यशाली हूँ; क्योंकि मेरे हृदय में श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंको देखनेकी जो अभिलाषा है, वह निश्चय ही पूर्ण होगी। अतः सब प्रकारसे परम मनोहर श्रीरामचन्द्रजीका ही भजन करना चाहिये। संसार समुद्र के पार जानेकी इच्छासे सब लोगोंको श्रीरघुनाथजीकी ही वन्दना करनी चाहिये।"अच्छा, अब तुमलोग बताओ, किसलिये यहाँ आये। हो? कौन धर्मात्मा राजा अश्वमेध नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कर रहा है? ये सब बातें यहाँ बतलाकर की रक्षाके लिये जाओ और श्रीरघुनाथजीके चरणोंका निरन्तर स्मरण करते रहो।

आरण्यक मुनिके ये वचन सुनकर सब लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ। वे श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते हुए उनसे बोले –'ब्रह्मर्षिवर! इस समय आपका दर्शन पाकर हम सब लोग पवित्र हो गये; क्योंकि आप श्रीरामचन्द्रजीकी कथा सुनाकर यहाँ सब लोगोंको पवित्र करते रहते हैं। आपने हमलोगोंसे जो कुछ पूछा है वह सब हम बता रहे हैं। आप हमारे यथार्थ बचनको श्रवण करें। महर्षि अगस्त्यजीके कहनेसे भगवान् श्रीराम ही सब सामग्री एकत्रित करके अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान कर रहे हैं। उन्हींका यज्ञसम्बन्धी अश्व यहाँ आया है और उसीकी रक्षा करते हुए हम सब लोग भी अश्वके साथ ही आपके आश्रमपर आ पहुँचे हैं महामते। यही हमारा वृतान्त है; आप इसे हृदयंगम करें।'

रसायनके समान मनको प्रिय लगनेवाला यह उत्तम वचन सुनकर राम भक्त ब्राह्मण आरण्यक मुनिको बड़ा हर्ष हुआ। वे कहने लगे-'आज मेरे मनोरथरूपी वृक्षमें फल आ गया, वह उत्तम शोभासे सम्पन्न हो गया। मेरी माताने जिसके लिये मुझे उत्पन्न किया था, वह शुभ उद्देश्य आज पूरा हो गया। आजतक हविष्यके द्वारा मैंने जो हवन किया है, उस अग्निहोत्रका फल आज मुझे मिल गया; क्योंकि अब मैं श्रीरामचन्द्रजीके युगल-चरणारविन्दोंका दर्शन करूँगा। अहा! जिनका मैं प्रतिदिन अपने हृदयमें ध्यान करता था, वे मनोहर रूपधारी अयोध्यानाथ भगवान् श्रीराम निश्चय ही मेरे नेत्रोंके समक्ष होकर दर्शन देंगे। हनुमानजी मुझे हृदयसे लगाकर मेरी कुशल पूछेंगे। वे संतोक शिरोमणि हैं: मेरी भक्ति देखकर उन्हें बड़ा सन्तोष होगा।' आरण्यक मुनिके ये वचन | सुनकर कपिश्रेष्ठ हनुमानजीने उनके दोनों चरण पकड़ लिये और कहा- 'ब्रह्मषें! मैं ही हनुमान् हूँ, स्वामिन् में आपका सेवक है और आपके सामनेखड़ा हूँ। मुनीश्वर मुझे श्रीरघुनाथजीके दासकी चरण भूति समझिये हनुमानजी श्रीरामभत होनेके कारण अत्यन्त शोभा पा रहे थे। उनकी उपर्युक्त बातें सुनकर आरण्यक मुनिको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने हनुमानजीको हृदयसे लगा लिया। दोनोंके हृदयसे प्रेमकी धारा फूटकर वह रही थी दोनों ही आनन्दसुधामें निमन होकर शिथिल एवं चित्रलिखित से प्रतीत हो रहे थे। श्रीरघुनाथजी के चरणकमलों के प्रेम दोनोंका हो मानस भरा हुआ था। अतः दोनों ही बैठकर आपसमें भगवान्की मनोहारिणी कथाएँ कहने लगे। मुनिश्रेष्ठ आरण्यक श्रीरामके चरणोंका ध्यान कर रहे थे। हनुमानजीने उनसे यह मनोहर वचन कहा- 'महर्षे! ये श्रीरघुनाथजीके भ्राता महावीर शत्रुघ्न आपको प्रणाम कर रहे हैं। ये उद्भट वीरोंसे सेवित भरतकुमार पुष्कल भी आपके चरणोंमें शीश झुकाते हैं तथा इधरकी ओर जो ये महान् बली और अनेक गुणोंसे विभूषित सज्जन खड़े हैं, इन्हें श्रीरघुनाथजीके मन्त्री समझिये अत्यन्त भयंकर योद्धा महायशस्वी राजा सुबाहु भी आपको प्रणाम करते हैं। ये श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका मकरन्द पान करनेवाले मधुकर हैं। ये राजा सुमद हैं, जिन्हें पार्वतीजी श्रीरघुनाथजीके चरणोंकी भक्ति प्रदान की है, जिससे ये संसार-समुद्र के पार हो चुके हैं ये भी आपके चरणोंमें नमस्कार करते हैं। जिन्होंने अपने सेवकके मुखसे श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको आया हुआ सुनकर अपना सारा राज्य ही भगवान्‌को समर्पण कर दिया है, वे राजा सत्यवान् भी पृथ्वीपर माथा टेककर आपके चरणोंमें प्रणाम करते हैं।'

हनुमानजी के ये वचन सुनकर आरण्यक मुनिने बड़े आदरके साथ सबको हृदयसे लगाया और फल-मूल आदिके द्वारा सबका स्वागत-सत्कार किया। फिर शत्रुघ्न आदि सब लोगोंने बड़ी प्रसन्नताके साथ महर्षिके आश्रमपर निवास किया। प्रातः काल नर्मदामें नित्यकर्म करके वे महान् उद्योगी सैनिक आगे जानेको उद्यत हुए शत्रुघ्नने आरण्यक मुनिको पालकीपर बिठाकर अपने सेवकोंद्वारा उन्हें श्रीरघुनाथजीकी निवासभूत अयोध्यापुरीको पहुँचवा दिया। सूर्यवंशी राजाओंने जिसे अपना निवासस्थान बनाया था, उस अवधपुरीको दूरसे ही देखकर आरण्यक मुनि सवारीसे उतर पड़े और श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकी इसे पैदल ही चलने लगे। जनसमुदायसे शोभा पानेवाली उस रमणीय नगरीमें पहुँचकर उनके मनमें श्रीरामको देखनेके लिये हजार हजार अभिलाषाएँ उत्पन्न हुई। थोड़ी ही देरमें वहाँ यज्ञमण्डपसे सुशोभित सरयूके पावन तटपर उन्हें श्रीरामचन्द्रजीकी झाँकी हुई। भगवान्का श्रीविग्रह दूर्वादलके समान श्यामसुन्दर दिखायी देता था। उनके नेत्र खिले हुए कमलके समान शोभा पा रहे थे। वे अपने कटिभागमें मृगश्रृंग धारण किये हुए थे व्यास आदि महर्षि उन्हें घेरकर विराजमान थे और बहुत से शूरवीर उनकी सेवामें उपस्थित थे उनके दोनों पार्श्वभागों में भरत और सुमित्रानन्दन लक्ष्मण खड़े थे तथा श्रीरघुनाथजी दीनजनोंको मुँहमांगा दान दे रहे थे।

भगवान्‌का दर्शन करके आरण्यक मुनिने अपनेको कृतार्थ माना। वे कहने लगे- 'आज मेरे नेत्र सफल हो। गये, क्योंकि ये श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन कर रहे हैं। मैंने जो सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त किया था, वह आज सार्थक हो गया; क्योंकि श्रीरामचन्द्रजीकी महिमाको जानकर इस समय मैं अयोध्यापुरीमें आ पहुँचा हूँ।' इस प्रकार हर्षमें भरकर उन्होंने बहुत-सी बातें कहीं। श्रीरघुनाथजीके चरणोंका दर्शन करके उनके समस्त शरीरमें रोमांच हो आया था। इस अवस्थामें वे रमानाथ भगवान् श्रीरामके समीप गये, जो दूसरोंके लिये अगम्य हैं तथा विचारपरायण योगेश्वरोंसे भी जो बहुत दूर हैं। भगवान्के निकट पहुँचकर वे बोल उठे-'अहा आज मैं धन्य हो गया; क्योंकि श्रीरघुनाथजीके चरण मेरे नेत्रोंके समक्ष विराजमान हैं। अब मैं श्रीरामचन्द्रजीको देखकर इनसे वार्तालाप करके अपनी वाणीको पवित्र बनाऊँगा।'श्रीरामचन्द्रजी भी अपने तेजसे जाज्वल्यमान तपोमूर्ति विप्रवर आरण्यक मुनिको आया देख उनके स्वागत के लिये उठकर खड़े हो गये। वे बड़ी देरतक उनके चरणोंमें मस्तक झुकाये रहे। देवता और असुर अपनी मुकुट -मणियोंसे जिनके युगल-चरणोंकी आरती उतारते हैं, वे ही प्रभु श्रीरघुनाथजी मुनिके पैरोंपर पड़कर कहने लगे- 'ब्राह्मणदेव! आज आपने मेरे शरीरको पवित्र कर दिया।' ब्राह्मणों में श्रेष्ठ महातपस्वी आरण्यक मुनिने राजाओंके शिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीको चरणोंमें पड़ा देख उनका हाथ पकड़कर उठाया और अपने प्रियतम प्रभुको छातीसे लगा लिया। कौसल्यानन्दन श्रीरामने ब्राह्मणको मणिनिर्मित ऊँचे आसनपर बिठाया और स्वयं ही जल लेकर उनके दोनों पैर धोये। फिर चरणोदक लेकर भगवान्ने उसे अपने मस्तकपर चढ़ाया और कहा - 'आज मैं अपने कुटुम्ब और सेवकोंसहित पवित्र हो गया।' तत्पश्चात् देवाधिदेवाँसे सेवित श्रीरघुनाथजीने मुनिके ललाटमें चन्दन लगाया और उन्हें दूध देनेवाली गौ दान की। फिर मनोहर वचनोंमें कहा—'स्वामिन्! मैं अश्वमेधयज्ञ कर रहा हूँ। आपके चरण यहाँ आ गये, इससे अब यह यज्ञ पूर्ण हो जायगा। मेरे अश्वमेधयज्ञको आपने चरणोंसे पवित्र कर दिया।' राजाधिराजोंसे सेवित श्रीरघुनाथजीके ये वचन सुनकर आरण्यक मुनिने हँसते हुए मधुर वाणीमें कहा - 'स्वामिन्! आप ब्राह्मणोंके हितैषी और इस पृथ्वीके रक्षक हैं; अतः यह वचन आपहीके योग्य है। महाराज! वेदोंके पारगामी ब्राह्मण आपके ही विग्रह हैं। यदि आप ब्राह्मणोंकी पूजा आदि कर्तव्य कर्मोंका आचरण करेंगे तो अन्य सब राजा भी ब्राह्मणोंका आदर करेंगे। शास्त्रोंके ज्ञानसे रहित मूढ़ मनुष्य भी यदि आपके नामका स्मरण करता है तो वह सम्पूर्ण पापोंके महासागरको पार करके परम पदको प्राप्त होता है। सभीबेटों और इतिहासोंका यह स्पष्ट सिद्धान्त है कि राम नामका जो स्मरण किया जाता है, वह पापोंसे उद्धार करनेवाला है। श्रीरघुनाथजी ब्रह्महत्या जैसे पाप भी तभीतक गर्जना करते हैं, जबतक आपके नामोंका स्पष्टरूपसे उच्चारण नहीं किया जाता। महाराज ! आपके नामोंकी गर्जना सुनकर महापातकरूपी गजराज कहीं छिपनेके लिये स्थान ढूँढ़ते हुए भाग खड़े होते हैं। श्रीराम आपकी कथा सुनकर सब लोग पवित्र हो जायेंगे। पूर्वकालमें जब कि सत्ययुग चल रहा था, मैंने गंगातीरपर निवास करनेवाले पुराणवेत्ता ऋषियोंके मुखसे यह बात सुनी थी 'महान् पाप करनेके कारण कातर हृदयवाले पुरुषोंको तभीतक पापका भय बना रहता है जबतक वे अपनी जिह्वासे परम मनोहर राम नामका उच्चारण नहीं करते। 2 अतः श्रीरामचन्द्रजी! इस समय मैं धन्य हो गया। आपके दर्शनसे मेरे संसार-बन्धनका नाश सुलभ हो गया।'

मुनिके ऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने उनका पूजन किया। उस समय सभी महर्षि उन्हें साधुवाद देने लगे। इसी बीचमें वहाँ जो अत्यन्त आश्चर्यजनक घटना घटी, उसे मैं बतला रहा हूँ। मुनिश्रेष्ठ वात्स्यायन ! तुम श्रीरामके भजनमें तत्पर रहनेवाले हो; मेरी बातोंको ध्यान देकर सुनो। आरण्यक मुनिको ध्यानमें श्रीरघुनाथजीका जैसा स्वरूप दिखायी देता था; उसी रूपमें महाराज श्रीरामचन्द्रजीको प्रत्यक्ष देखकर उन्हें अत्यन्त हर्ष हुआ ये वहाँ बैठे हुए महर्षियोंसे बोले- 'मुनीश्वरो ! आपलोग मेरे मनोहर वचन सुनें भला इस भूमण्डलमें मेरे-जैसा सौभाग्यशाली मनुष्य कौन होगा? श्रीरामचन्द्रजीने मुझे नमस्कार करके अपने श्रीमुखसे मेरा स्वागत एवं कुशल- समाचार पूछा है। अतः आज मेरी समानता करनेवाला न कोई है न हुआ है और न होगा।श्रुतियाँ भी जिनके चरणकमलोंकी रजको सदा ही ढूँढ़ा करती हैं, उन्हीं भगवान्ने आज मेरे चरणोंका जल पीकर अपनेको पवित्र माना है!'

ऐसा कहते-कहते उनका ब्रह्मरन्ध्र फूट गया तथा उससे जो तेज निकला वह श्रीरघुनाथजीमें समा गया। इस प्रकार सरयूके तटवर्ती यज्ञ मण्डपमें सब लोगोंके देखते-देखते आरण्यक मुनिको सायुज्यमुक्ति प्राप्त हुई, जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। उस समय आकाशमें तूर्य और वीणा आदि बाजे बजने लगे। भगवान्‌के आगे फूलोंकी वर्षा हुई। दर्शकोंके लिये यह विचित्र एवं अद्भुत घटना थी। मुनियोंने भी यह दृश्य देखकर मुनीश्वर आरण्यककी प्रशंसा करते हुए कहा- 'ये मुनिश्रेष्ठ कृतार्थ हो गये ! क्योंकि श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल गये हैं।'

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार