शेषजी कहते हैं- मुने! शत्रुघ्नको इस प्रकार आदेश देकर भगवान् श्रीरामने अन्य योद्धाओंकी ओर देखते हुए पुनः मधुर वाणीमें कहा- 'वीरो मेरे भाई शत्रुघ्न घोड़ेकी रक्षाके लिये जा रहे हैं, तुमलोगोंमॅसे कौन वीर इनके आदेशका पालन करते हुए पीछेकी ओरसे इनकी रक्षा करनेके लिये जायगा ? जो अपने मर्मभेदी अस्त्र-शस्त्रोद्वारा सामने आये हुए सब वीरोंको जीतने तथा भूमण्डलमें अपने सुयशको फैलानेमें समर्थ हो,वह मेरे हाथपर रखा हुआ यह बीड़ा उठा ले ।' श्रीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर भरतकुमार पुष्कलने आगे बढ़कर उनके करकमलसे वह बीड़ा उठा लिया और कहा - 'स्वामिन्! मैं जाता हूँ; मैं ही कवच आदिके द्वारा सब ओरसे सुरक्षित हो तलवार आदि शस्त्र तथा धनुष-बाण धारण करके अपने चाचा शत्रुघ्नके पृष्ठभागकी रक्षा करूँगा। इस समय आपका प्रताप ही समूची पृथ्वीपर विजय प्राप्त करेगा; ये सब लोग तोकेवल निमित्तमात्र हैं। यदि देवता, असुर और मनुष्यसहित सारी त्रिलोकी युद्धके लिये उपस्थित हो जाय तो उसे भी मैं आपकी कृपासे रोकने में समर्थ हो सकता है: ये सब बातें कहनेकी आवश्यकता नहीं है, मेरा पराक्रम देखकर प्रभुको स्वयं ही सब कुछ ज्ञात हो जायगा।'
ऐसा कहते हुए भरतकुमारकी बातें सुनकर भगवान् श्रीरामने उनकी प्रशंसा की तथा 'साधु साधु' कहकर उनके कथनका अनुमोदन किया। इसके बाद वानरवीरोंमें प्रधान हनुमान्जी आदि सब लोगों से कहा- 'महावीर हनुमान् ! मेरी बात ध्यान देकर सुनो, मैंने तुम्हारे ही प्रसादसे यह अकण्टक राज्य पाया है। हमलोगोंने मनुष्य होकर भी जो समुद्रको पार किया तथा सीताके साथ जो मेरा मिलाप हुआ; यह सब कुछ मैं तुम्हारे ही बलका प्रभाव समझता हूँ। मेरी आज्ञासे तुम भी सेनाके रक्षक होकर जाओ। मेरे भाई शत्रुघ्नकी मेरी ही भाँति तुम्हें रक्षा करनी चाहिये। महामते। जहाँ जहाँ भाई शत्रुघ्नको बुद्धि विचलित हो वहाँ-वहाँ तुम इन्हें समझा-बुझाकर कर्तव्यका ज्ञान कराना।'
परमबुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीका यह श्रेष्ठ वचन सुनकर हनुमानजीने उनको आज्ञा शिरोधार्य की और जानेके लिये तैयार होकर प्रणाम किया। तब महाराजने जाम्बवान्को भी साथ जानेका आदेश दिया और कहा- 'अंगद, गवय, मयन्द, दधिमुख, वानरराज सुग्रीव, शतबलि, अक्षिक, नील, नल, मनोवेग तथा अधिगन्ता आदि सभी वानर सेनाके साथ जानेको तैयार हो जायें। सब लोग रथों तथा सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित अच्छे-अच्छे घोड़ोंपर सवार हो बख्तर और टोपसे सज-धजकर शीघ्र यहाँसे यात्रा करें।"
शेषजी कहते हैं- तत्पश्चात् बल और पराक्रमसे शोभा पानेवाले श्रीरामचन्द्रजीने अपने उत्तम मन्त्री सुमन्त्रको बुलाकर कहा—' मन्त्रिवर! बताओ, इस कार्यमें और किन-किन लोगोंको नियुक्त करना चाहिये ? कौन-कौन मनुष्य अश्वकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं?' उनका प्रश्न सुनकर सुमन्त्र बोले— 'श्रीरघुनाथजी ! सुनिये आपके यहाँ सम्पूर्ण शस्त्र और अबके जानमेंनिपुण, महान् विद्वान् धनुर्धर तथा अच्छी प्रकार बाणोंका सन्धान करनेवाले अनेकों वीर उपस्थित हैं। उनके नाम ये है-प्रतापाय, नीलरत्न, लक्ष्मीनिधि, रिपुताप, उग्राश्व और शस्त्रवित्-ये सभी बढ़े-चढ़े राजा चतुरंगिणी सेनाके साथ कवच आदिसे सुसज्जित होकर जायें और आपके घोड़ेकी रक्षा करते हुए शत्रुघ्नजीको आज्ञा शिरोधार्य करें।' मन्त्रीकी यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने उनके बताये हुए सभी योद्धाओंको जानेके लिये आदेश दिया। श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा पाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि ये बहुत दिनोंसे युद्धकी इच्छा रखते थे और रणमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले थे। श्रीसीतापतिकी प्रेरणासे वे सभी राजा कवच आदिसे सुसज्जित हो अस्त्र-शस्त्र लेकर शत्रुघ्नके निवासस्थानपर गये।
तदनन्तर ऋषिकी आज्ञा पाकर श्रीरामचन्द्रजीने आचार्य आदि सभी ऋत्विज महर्षियोंको शास्त्रोक्त उत्तम दक्षिणाएँ देकर उनका विधिवत् पूजन किया। उस समय श्रीरघुनाथजीके यज्ञमें सब ओर यही बात सुनायी देती थी देते जाओ, देते जाओ, खूब धन लुटाओ, किसीसे 'नहीं' मत करो, साथ ही समस्त भोग- सामग्रियोंसे युक्त अन्नका दान करो, अन्नका दान करो।' इस प्रकार वह यज्ञ चल रहा था। उसमें दक्षिणा पाये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी भरमार थी वहाँ सभी तरहके शुभ कर्मोका अनुष्ठान हो रहा था। इधर श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई शत्रुघ्न अपनी माताके पास जा उन्हें प्रणाम करके बोले-'कल्याणमयी माँ मैं घोड़ेकी रक्षाके लिये जा रहा हूँ, मुझे आज्ञा दो। तुम्हारी कृपासे शत्रुओंको जीतकर विजयकी शोभासे सम्पन्न हो अन्य महाराजाओं तथा घोड़ेको साथ लेकर लौट आऊँगा।'
माता बोली बेटा! जाओ, महावीर! तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो, सुमते ! तुम अपने समस्त शत्रुओंको जीतकर फिर यहाँ लौट आओ तुम्हारा भतोजा पुष्कल धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ है, उसकी रक्षा करना। बेटा! तुम पुष्कलके साथ सकुशल लौटकर आओगे, तभी मुझे अधिक प्रसन्नता होगी।
अपनी माताकी ऐसी बात सुनकर शत्रुघ्नने उत्तर दिया माँ मैं अपने शरीरकी भाँति पुष्कलकी रक्षाकरूँगा तथा जैसा मेरा नाम है उसके अनुसार शत्रुओंका नाश करके प्रसन्नतापूर्वक लौटूंगा। तुम्हारे इन युगल चरणोंका स्मरण करके मैं कल्याणका ही भागी होऊँगा।' ऐसा कहकर वीर शत्रुघ्न वहाँसे चल दिये तथा यज्ञ मण्डपसे छोड़ा हुआ वह यज्ञका अश्व अस्त्र-शस्त्रोंकी विद्यामें प्रवीण सम्पूर्ण योद्धाओंद्वारा चारों ओरसे घिरकर सबसे पहले पूर्व दिशाको ओर गया। उसका वेग वायुके समान था। जब वे चलनेको उद्यत हुए तो उनकी दाहिनी बाँह फड़क उठी और उन्हें कल्याण तथा विजयकी सूचना देने लगी। उधर पुष्कल अपने सुन्दर एवं समृद्धिशाली महलमें गये और वहाँ अपनी पतिव्रता पत्नीसे मिले, जो स्वामीके दर्शनके लिये उत्कण्ठित थी और उन्हें देखकर हर्षमें भर गयी थी उससे मिलकर पुष्कलने कहा भद्रे मैं चाचा शत्रुघ्नका पृष्ठपोषक होकर रथपर सवार हो यज्ञके घोड़ेकी रक्षाके लिये जा रहा है इस कार्यके लिये मुझे श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा मिल चुकी है। तुम यहाँ रहकर मेरी समस्त माताओंकासत्कार करना तथा चरण दबाना आदि सभी प्रकारकी सेवाएं करना। उनके प्रत्येक कार्यमें उनकी का पालन करनेमें आदर एवं उत्साहके साथ प्रवृत्त होना। यहाँ लोपामुद्रा आदि जितनी पतिव्रता देवियों आयी हुई हैं, वे सभी अपने तपोबलसे सुशोभित एवं कल्याणमयी हैं; तुम्हारे द्वारा उनमें से किसीका अपमान न हो इसके लिये सदा सावधान रहना।' जाय
शोषजी कहते हैं- पुष्कल जब इस प्रकार उपदेश दे चुके तो उनकी पतिव्रता पत्नी कान्तिमतीने पतिकी ओर प्रेमपूर्ण दृष्टिसे देखा तथा अत्यन्त विश्वस्त होकर मन्द मन्द मुसकराती हुई वह गद्गद वाणीमें बोली- 'नाथ! संग्राममें आपकी सर्वत्र विजय हो, आपको चाचा शत्रुघ्नजीकी आज्ञाका सर्वथा पालन करना चाहिये तथा जिस प्रकार भी घोड़ेकी रक्षा हो उसके लिये सचेष्ट रहना चाहिये। स्वामिन्! आप शत्रुओंपर विजय प्राप्त करके अपने श्रेष्ठ कुलकी शोभा बढ़ाइये। महाबाहो ! जाइये, इस यात्रामें आपका कल्याण हो। यह है आपका धनुष, जो उत्तम गुण (सुदृढ़ प्रत्यंचा) से सुशोभित है; इसे शीघ्र ही हाथमें लीजिये, इसकी टंकार सुनकर आपके शत्रुओंका दल भयसे व्याकुल हो उठेगा। वीर! ये आपके दोनों तरकश हैं; इन्हें बाँध लीजिये, जिससे युद्धमें आपको सुख मिले। इसमें वैरियोंको टुकड़े - टुकड़े कर डालनेवाले अनेक बाण भरे हैं। प्राणनाथ ! र कामदेवके समान सुन्दर अपने शरीरपर यह सुदृढ़ कवच धारण कीजिये, जो विद्युत्को प्रभाके समान अपने महान् प्रकाशसे अन्धकारको दूर किये देता है। प्रियतम अपने मस्तकपर यह शिरस्त्राण (मुकुट) भी पहन लीजिये, जो मनको लुभानेवाला है। साथ ही मणियों और रत्नोंसे विभूषित ये दो उज्ज्वल कुण्डल हैं, इन्हें कानोंमें धारण कीजिये।' पुष्कलने कहा – प्रिये! तुम जैसा कहती हो, वह सब मैं करूँगा। वीरपत्नी कान्तिमती ! तुम्हारी इच्छाके
अनुसार मेरी उत्तम कीर्तिका विस्तार होगा।
ऐसा कहकर पराक्रमी वीर पुष्कलने कान्तिमतीके दिये हुए कवच, सुन्दर मुकुट, धनुष और विशालतरकश - इन सभी वस्तुओंको ले लिया। उन सबको धारण करके वे वीरोचित शोभासे सम्पन्न दिखायी देने लगे। उस समय सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञानमें प्रवीण, उत्तम योद्धा पुष्कलकी शोभा बहुत बढ़ गयी। पतिव्रता कान्तिमतीने अस्त्र-शस्त्रोंसे शोभायमान अपने पतिको वीरमालासे विभूषित किया तथा कुंकुम, अगुरु, कस्तूरी और चन्दन आदिसे उनकी पूजा करके अनेकों फूलोंके हार पहनाये, जो घुटनेतक लटककर पुष्कलकी कान्ति बढ़ा रहे थे। पूजनके पश्चात् उस सतीने बारम्बार पतिकी आरती उतारी। उसके बाद पुष्कल बोले-'भामिनि अब मैं तुम्हारे सामने ही यात्रा करता हूँ।' पत्नीसे ऐसा कहकर वे सुन्दर रथपर आरूढ़ हुए और अपने पिता भरत तथा स्नेहविला माता माण्डवीका दर्शन करनेके लिये गये। वहाँ जाकर उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ पिता और माताके चरणोंमें मस्तक झुकाया। फिर पिता और माताकी आज्ञा लेकर वे पुलकित शरीरसे शत्रुघ्नकी सेनामें गये, जो बड़े-बड़े वीरोंसे सुशोभित थी।
तदनन्तर शत्रुघ्न श्रीरघुनाथजीके महायज्ञ सम्बन्धी घोड़ेको आगे करके अनेकों रथियों, पैदल चलनेवालेशूरवीरों, अच्छे-अच्छे घोड़ों और सवारोंसे घिरकर बड़ी प्रसन्नताके साथ आगे बढ़े। वे घोड़े के साथ-साथ पांचाल, कुरु, उत्तरकुरु और दशार्ण आदि देशोंमें, जो सम्पत्तिमें बहुत बढ़े- चढ़े थे, भ्रमण करते रहे। शत्रुघ्नजी सब प्रकारकी शोभासे सम्पन्न थे। उन्हें उन सभी देशोंमें श्रीरामचन्द्रजीके सम्पूर्ण सुयशकी कथा सुनायी पढ़ती थी, लोग कहते थे श्री रावण नामक असुरको मारकर अपने भक्तजनोंकी रक्षा की है, अब पुनः अश्वमेध आदि पवित्र कार्योंका अनुष्ठान आरम्भ करके भगवान् श्रीराम त्रिभुवनमें अपने सुयशका विस्तार करते हुए सम्पूर्ण लोकोंकी भयसे रक्षा करेंगे।' इस तरह भगवान्का यशोगान करनेवाले लोगोंपर सन्तुष्ट होकर पुरुषश्रेष्ठ शत्रुघ्नजी उन्हें पुरस्कार के रूपमें सुन्दर हार, नाना प्रकारके रत्न और बहुमूल्य वस्त्र देते थे। श्रीरघुनाथजीके एक सचिव थे, जिनका नाम था सुमति। वे सम्पूर्ण विद्याओंमें प्रवीण और तेजस्वी थे वे भी शत्रुघ्नजीके अनुगामी होकर आये थे महाधीर शत्रुघ्न उनके साथ अनेकों गाँवों और जनपदोंमें गये, किन्तु श्रीरघुनाथजीके प्रतापसे कोई भी उस घोड़ेका अपहरण न कर सका। भिन्न-भिन्न देशोंके जो बहुत से राजे-महाराजे थे, वे यद्यपि महान् बलसे विभूषित तथा चतुरंगिणी सेनासे सम्पन्न थे, तथापि मोती और मणियाँसहित बहुत-सी सम्पत्ति साथ से मोड़ेकी रक्षामें आये हुए शत्रुघ्नजीके चरणोंमें गिर जाते और बारम्बार कहने लगते थे— 'रघुनन्दन ! यह राज्य तथा पुत्र, पशु और बान्धवोंसहित सारा धन भगवान् श्रीरामका ही है, हमारा इसमें कुछ भी नहीं है।' उनकी ऐसी बातें सुनकर विपक्षी वीरोंका हनन करनेवाले शत्रुघ्नजी वहाँ अपनी आज्ञा घोषित कर देते और उन्हें साथ ले आगेके मार्गपर बढ़ जाते थे। ब्रह्मन् इस प्रकार क्रमशः आगे-आगे बढ़ते हुए शत्रुघ्नजी घोड़के साथ अहिच्छवा नगरीके पास जा पहुँचे, जो नाना प्रकारके मनुष्योंसे भरी हुई थी। उसमें ब्राह्मणों तथा अन्यान्य द्विजोंका निवास था। अनेकों प्रकारके ने रत्नोंसे वह पुरी सजायी गयी थी सोने और स्फटिकमणिके बने हुए महल तथा गोपुर (फाटक) उस नगरीकी शोभा बढ़ा रहे थे । वहाँके मनुष्य सब प्रकारके भोग भोगनेवाले तथा सदाचारसे सुशोभित थे। वहाँ बाण सन्धान करनेमें चतुर वीर हाथोंमें धनुष लिये उस पुरीके श्रेष्ठ राजा सुमदको प्रसन्न किया करते थे। शत्रुघ्नने दूरसे ही उस नगरीको देखा उसके पास ही एक उद्यान था, जो उस नगरमें सबसे श्रेष्ठ और शोभायमान दिखायी देता था। तमाल और ताल आदिके वृक्ष उसकी सुषमाको और भी बढ़ा रहे थे। यज्ञका घोड़ा उस उपवनके बीचमें घुस गया तथा उसके पीछे-पीछे वीर शत्रुघ्न भी, जिनके चरण कमलोंकी सेवामें अनेकों धनुर्धर क्षत्रिय मौजूद थे, उसमें जा पहुँचे वहाँ जानेपर उन्हें एक देव मन्दिर दिखायी दिया, जिसकी रचना अद्भुत थी। वह कैलास शिखरके समान ऊँचा तथा शोभासे सम्पन्न था। देवताओंके लिये भी वह सेव्य जान पड़ता था। उस सुन्दर देवालयको देखकर श्रीरघुनाथजीके भाई शत्रुघ्नने अपने सुमति नामक मन्त्रीसे, जो अच्छे वक्ता थे, पूछा। मन्त्री सब बातोंके जानकार थे, उन्होंने शत्रुघ्नका प्रश्न सुनकर कहा-'वीरवर एकाग्रचित्त होकर सुनो, मैं सब बातोंका यथावत् वर्णन करता हूँ, इसे तुम कामाक्षा देवीका उत्तम स्थान समझो। यह जगत्को एकमात्र कल्याण प्रदान करनेवाला है। पूर्वकालमें अहिच्छत्रा नगरीके स्वामी राजा सुमदकी प्रार्थनासे भगवती कामाक्षा यहाँ विराजमान हुई, जो भक्तका दुःख दूर करती हुई उनकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करती हैं। वीरशिरोमणि शत्रुघ्न तुम इन्हें प्रणाम करो।' मन्त्रीके वचन सुनकर शत्रुओंको ताप देनेवाले नरश्रेष्ठ शत्रुघ्नने भगवती कामाक्षाको प्रणाम किया और उनके प्रकट होनेके सम्बन्धकी सब बातें पूछ मन्त्रिवर! अहिच्छत्राके स्वामी राजा सुमद कौन हैं?
शत्रुघ्न बोले- मन्त्रिवर बताओ, यह क्या है? किस देवताका मन्दिर है? किस देवताका यहाँ पूजन होता है तथा वे देवता किस हेतुसे यहाँ विराजमान हैं ?
कौन-सी तपस्या की है, जिसके प्रभावसे ये सम्पूर्णलोकोंकी जननी कामाक्षा देवी सन्तुष्ट होकर यहाँ विराज रही है?'
सुमतिने कहा – हेमकूट नामसे प्रसिद्ध एक पवित्र पर्वत है, जो सम्पूर्ण देवताओंसे सुशोभित रहा करता है। वहाँ ऋषि-मुनियोंसे सेवित विमल नामका एक तीर्थ है। वहीं राजा सुमदने तपस्या की थी। उनके राज्यको सीमापर रहनेवाले सम्पूर्ण सामन्त नरेशोंने जो वास्तवमें शत्रु थे, एक साथ मिलकर उनके राज्यपर चढ़ाई की। उस युद्धमें उनके पिता, माता तथा प्रजावाकि लोग भी शत्रुओंके हाथसे मारे गये। तब सर्वथा असहाय होकर राजा सुमद तपस्याके लिये उपयोगी विमलतीर्थमें गये और वहाँ तीन वर्षतक एक पैरसे खड़े हो मन-ही-मन जगदम्बाका ध्यान करते रहे। उस समय उनकी आँखें नासिकाके अग्रभागपर जमी रहती थीं। इसके बाद तीन वर्षोंतक उन्होंने सूखे पत्ते चबाकर अत्यन्त उग्र तपस्या की, जिसका अनुष्ठान दूसरेके लिये अत्यन्त कठिन था। तत्पश्चात् पुनः तीन वर्षोंतक उन्होंने और भी कठोर नियम धारण किये जाड़े के दिनोंमें वे पानी में डूबे रहते, गर्मी में पंचाग्निका सेवन करते तथा वर्षाकालमें बादलोंकी ओर मुँह किये मैदानमें खड़े रहते थे। तदनन्तर पुनः तीन वर्षोंतक वे धीर राजा अपने हृदयान्तर्वती प्राणवायुको रोककर केवल भवानीके ध्यानमें संलग्न रहे। उस समय उन्हें जगदम्बाके सिवा दूसरा कुछ दिखलायी नहीं देता था। इस प्रकार जब बारहवाँ वर्ष व्यतीत हो गया, तो उनकी भारी तपस्या देखकर इन्द्रने मन-ही मन उसपर विचार किया और भयके कारण वे उनसे डाह करने लगे। उन्होंने अधाराओंके साथ कामदेवको जो ब्रह्मा और इन्द्रको भी परास्त करनेके लिये उद्यत रहता था, परिवारसहित बुलाकर इस प्रकार आज्ञा दी - 'सखे कामदेव तुम सबका मन मोहनेवाले हो जाओ, मेरा एक प्रिय कार्य करो, जैसे भी हो सके राजा सुमदकी तपस्यामें विघ्न डालो।'
कामदेवने कहा- देवराज! मुझ सेवकके रहते हुए आप चिन्ता न कीजिये, आर्य! मैं अभी सुमदकेपास जाता हूँ। आप देवताओंकी रक्षा कीजिये ।
ऐसा कहकर कामदेव अपने सखा वसन्त तथा अप्सराओंके समूहको साथ लेकर हेमकूट पर्वतपर गया। वसन्तने जाते ही वहाँके सारे वृक्षोंको फल और फूलोंसे सुशोभित कर दिया। उनकी डालियोंपर कोयल कूकने तथा भ्रमर गुंजार करने लगे। दक्षिण दिशा की ओरसे ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी। जिसमें कृतमाला नदीके तीरपर खिले हुए लवंग-कुसुमकी सुगन्ध आ रही थी। इस प्रकार जब समूचे वनमें वसन्तकी शोभा छा गयी, तो अप्सराओंमें श्रेष्ठ रम्भा अपनी सखियोंसे मिरकर सुमदके पास गयी। रम्भाका स्वर किन्नरोंके समान मनोहर था वह मृदंग और पणव आदि नाना प्रकारके बाजे बजाने में भी निपुण थी। राजाके समीप पहुँचकर उसने गाना आरम्भ कर दिया। महाराज सुमदने जब वह मधुर गान सुना, वसन्तकी मनोहारिणी छटा देखी तथा मनको लुभानेवाली कोयलकी मीठी तान सुनी तो चारों ओर दृष्टि दौड़ायी, फिर सारा रहस्य उनकी समझमें आ गया। राजाको ध्यानसे जगा देख फूलोंका धनुष धारण करनेवाले कामदेवने बड़ी फुर्ती दिखायी। उसने उनके पीछेकी ओर खड़ा होकर तत्काल अपना धनुष चढ़ा लिया। इतनेहीमें एक अप्सरा अपने नेत्रपल्लवको नचाती हुई राजाके दोनों चरण दबाने लगी। दूसरी सामने खड़ी होकर कटाक्षपात करने लगी तथा तीसरी शरीरकी श्रृंगारजनित चेष्टाएँ (तरह तरहके हाव भाव) प्रदर्शित करने लगी। इस प्रकार अप्सराओंसे घिरकर जितेन्द्रियोंके शिरोमणि बुद्धिमान् राजा सुमद यो चिन्ता करने लगे- 'ये सुन्दरी अप्सराएँ मेरी तपस्या में विघ्न डालनेके लिये यहाँ आयी हैं। इन्हें इन्द्रने भेजा है। ये सब की सब उनकी आज्ञाके अनुसार ही कार्य करेंगी।'
इस प्रकार चिन्तासे आकुल होकर धीरचित्त, मेधावी तथा वीर राजा सुमदने अपने हृदयमें अच्छी तरह विचार किया। इसके बाद वे देवांगनाओंसे बोले- 'देवियो! आपलोग मेरे हृदय मन्दिरमें विराजमान जगदम्बाकी स्वरूप हैं। आपलोगोंने जिस स्वर्गीय सुखकी चर्चा की है, वह अत्यन्त तुच्छ और अनिश्चितहै। मैं भक्ति भावसे जिनकी आराधनामें लगा हूँ, वे मेरी स्वामिनी जगदम्बा मुझे उत्तम वरदान देंगी। जिनकी कृपासे सत्यलोकको पाकर ब्रह्माजी महान् बने हैं, वे ही मुझे सब कुछ देंगी; क्योंकि वे भक्तोंका दुःख दूर करनेवाली हैं। भगवतीकी कृपाके सामने नन्दन-वन अथवा सुवर्णमण्डित मेरुगिरि क्या हैं? और वह सुधा भी किस गिनती में है, जो थोड़े-से पुण्यके द्वारा प्राप्त होनेवाली और दानवोंको दुःखमें डालनेवाली है ?'
राजाका यह वचन सुनकर कामदेवने उनपर अनेकों बाणोंका प्रहार किया; किन्तु वह उनकी कुछ भी हानि न कर सका। वे सुन्दरी अप्सराएँ अपने कुटिल कटाक्ष, नूपुरोंकी झनकार, आलिंगन तथा चितवन आदिके द्वारा उनके मनको मोहमें न डाल सकीं। अन्तमें निराश होकर जैसे आयी थीं, वैसे ही लौट गयीं और इन्द्रसे बोलीं- 'राजा सुमदकी बुद्धि स्थिर है, उनपर हमारा जादू नहीं चल सकता।' अपने प्रयत्नके व्यर्थ होनेकी बात सुनकर इन्द्र डर गये। इधर जगदम्बाने महाराज सुमदको जितेन्द्रिय तथा अपने चरण-कमलोंके ध्यानमें दृढ़तापूर्वक स्थित देख उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उनकीकान्ति करोड़ों सूर्योके समान थी। वे अपनी चार भुजाओं में धनुष, बाण, अंकुश और पाश धारण किये हुए थीं। माताका दर्शन पाकर बुद्धिमान् राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बारम्बार मस्तक झुकाकर भक्तिभावनासे प्रकट हुई माता दुर्गाको प्रणाम किया। ये बारम्बार राजाके शरीरपर अपने कोमल हाथ फेरती हुई हँस रही थीं। महामति राजा सुमदके शरीरमें रोमांच हो आया। उनके अन्तःकरणकी वृत्ति भक्ति भावसे उत्कण्ठित हो गयी और वे गद्गद स्वरसे माताकी इस प्रकार स्तुति करने लगे-'देवि! आपकी जय हो महादेवि ! भक्त जन सदा आपकी ही सेवा करते हैं। ब्रह्मा और इन्द्र आदि समस्त देवता आपके युगल चरणोंकी आराधनामें लगे रहते हैं। आप पापके स्पर्शसे रहित हैं। आपहीके प्रतापसे अग्निदेव प्राणियोंके भीतर और बाहर स्थित होकर सारे जगत्का कल्याण करते हैं। महादेवि ! देवता और असुर-सभी आपके चरणोंमें नतमस्तक होते हैं। आप ही विद्या तथा आप ही भगवान् विष्णुकी महामाया हैं। एकमात्र आप ही इस जगत्को पवित्र करनेवाली हैं। आप ही अपनी शक्तिसे इस संसारकी सृष्टि और पालन करती हैं। जगत्के जीवोंको मोहमें डालनेवाली भी आप ही हैं। सब देवता आपहीसे सिद्धि पाकर सुखी होते हैं। मातः ! आप दयाकी स्वामिनी, सबकी वन्दनीया तथा भक्तोंपर स्नेह रखनेवाली हैं। मेरा पालन कीजिये। मैं आपके चरण-कमलोंका सेवक हूँ। मेरी रक्षा कीजिये।'
सुमतिने कहा - इस प्रकार की हुई स्तुतिसे सन्तुष्ट होकर जगन्माता कामाक्षा अपने भक्त सुमदसे, जिनका शरीर तपस्याके कारण दुर्बल हो रहा था, बोलीं- 'बेटा! कोई उत्तम वर माँगो' माताका यह वचन सुनकर राजा सुमदको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने अपना खोया हुआ अकण्टक राज्य, जगन्माता भवानीके चरणोंमें अविचल भक्ति तथा अन्तमें संसारसागरसे पार उतारनेवाली मुक्तिका वरदान माँगा । कामाक्षाने कहा - सुमद! तुम सर्वत्र अकण्टक राज्य प्राप्त करो और शत्रुओंके द्वारा तुम्हारी कभीपराजय न हो। जिस समय महायशस्वी श्रीरघुनाथजी रावणको मारकर सब सामग्रियोंसे सुशोभित अश्वमेधयका अनुष्ठान करेंगे, उस समय शत्रुओंका दमन करनेवाले उनके महावीर भ्राता शत्रुघ्न वीर आदिसे घिरकर घोड़ेकी रक्षा करते हुए यहाँ आयेंगे। तुम उन्हें अपना राज्य, समृद्धि और धन आदि सब कुछ सौंपकर उनके साथ पृथ्वीपर भ्रमण करोगे तथा अन्तमें ब्रह्मा, इन्द्र और शिव आदिसे सेवित भगवान् श्रीरामको प्रणाम करके ऐसी मुक्ति प्राप्त करोगे, जो यम-नियमोंका साधन करनेवाले योगियोंके लिये भी दुर्लभ है।
ऐसा कहकर देवता और असुरोंसे अभिवन्दित कामाक्षा देवी वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं तथा सुमद भी अपने शत्रुओंको मारकर अहिच्छत्रा नगरीके राजा हुए। वही ये इस नगरीके स्वामी राजा सुमद हैं। यद्यपि ये सब प्रकार से समर्थ तथा बल और वाहनोंसे सम्पन्न हैं। तथापि तुम्हारे यज्ञ सम्बन्धी घोड़ेको नहीं पकड़ेंगे: क्योंकि महामायाने इस बातके लिये इनको भलीभाँति शिक्षा दी है।
शेषजी कहते हैं-सुमतिके मुखसे राजा सुमदका यह वृत्तान्त सुनकर महान् यशस्वी, बुद्धिमान् और बलवान् शत्रुघ्नजी बड़े प्रसन्न हुए तथा 'साधु-साधु' कहकर उन्होंने अपना हर्ष प्रकट किया। उधर अहिच्छत्रा के स्वामी अपने सेवकगणोंसे घिरकर सुखपूर्वक राजसभामै विराजमान थे। वेदवेत्ता ब्राह्मण तथा धन-धान्यसे सम्पन्न वैश्य भी उनके पास बैठे थे; इससे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इसी समय किसीने आकर राजासे कहा - 'स्वामिन्! न जाने किसका घोड़ा नगरके पास आया है, जिसके ललाटमें पत्र बँधा हुआ है।' यह सुनकर राजाने तुरंत ही एक अच्छे सेवकको भेजा और कहा- 'जाकर पता लगाओ, किस राजाका घोड़ा मेरे नगरके निकट आया है।' सेवकने जाकर सब बातका पता लगाया और महान् क्षत्रियोंसे सेवित राजा सुमदके पास आ आरम्भसे ही सारा वृत्तान्त कह सुनाया 'श्रीरघुनाथजीका थोड़ा है' यह सुनकर बुद्धिमान् राजाको चिरकालकी पुरानी बातका स्मरण हो आयाऔर उन्होंने सब लोगोंको आज्ञा दी' धन-धान्यसे सम्पन्न जो मेरे आत्मीय जन हैं, वे सब लोग अपने अपने घरोंपर तोरण आदि मांगलिक वस्तुओंकी रचना करें।' इन सब बातोंके लिये आज्ञा देकर स्वयं राजा सुमद अपने पुत्र-पौत्र और रानी आदि समस्त परिवारको साथ लेकर शत्रुघ्नके पास गये। शत्रुघ्नने पुष्कल आदि योद्धाओं तथा मन्त्रियोंके साथ देखा, वीर राजा सुमद आ रहे हैं। राजाने आकर बड़ी प्रसन्नताके साथ शत्रुघ्नको प्रणाम किया और कहा- 'प्रभो! आज मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। आपने यहाँ दर्शन देकर मेरा बड़ा सत्कार किया। मैं चिरकालसे इस अश्वके आगमनकी प्रतीक्षा कर रहा था। माता कामाक्षा देवीने पूर्वकालमें जिस बात के लिये मुझसे कहा था, वह आज और इस समय पूरी हुई है। श्रीरामके छोटे भाई महाराज शत्रुघ्नजी ! अब चलकर मेरी नगरीको देखिये, यहाँके मनुष्योंको कृतार्थ कीजिये तथा मेरे समस्त कुलको पवित्र बनाइये। ऐसा कहकर राजाने चन्द्रमाके समान कान्तिवाले श्वेत गजराजपर शत्रुघ्न और महावीर पुष्कलको चढ़ाया तथा पीछे स्वयं भी सवार हुए। फिर महाराज सुमदकी आज्ञासे भेरी और पणव आदि बाजे बजने लगे, वीणा आदिकी मधुर ध्वनि होने लगी तथा इन समस्त वाद्योंकी तुमुल ध्वनि चारों ओर व्याप्त हो गयी। धीरे-धीरे नगरमें आकर सब लोगोंने शत्रुघ्नजीका अभिनन्दन किया- उनकी वृद्धिके लिये शुभकामनाप्रकट की तथा वे वीरोंसे सुशोभित हो अपने अश्वरत्नको साथ लिये राज-मन्दिरमें उतरे। उस समय सारा राजभवन तोरण आदिसे सजाया गया था तथा स्वयं राजा सुमद शत्रुघ्नजीको आगे करके चल रहे थे । महलमें पहुँचकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अर्घ्य आदिके द्वारा शत्रुघ्नजीका पूजन किया और अपना सब कुछ भगवान् श्रीरामकी सेवामें अर्पण कर दिया।