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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 106 - Khand 4, Adhyaya 106

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शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह

शेषजी कहते हैं- तदनन्तर नरश्रेष्ठ राजा सुमदने श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कथा सुननेके लिये उत्सुक होकर स्वागत सत्कारसे सन्तुष्ट हुए शत्रुघ्नजीसे वार्तालाप आरम्भ किया।

सुमद बोले- महामते ! सम्पूर्ण लोकोंके शिरोमणि भक्तोंकी रक्षाके लिये अवतार ग्रहण करनेवाले तथा मुझपर निरन्तर अनुग्रह रखनेवाले भगवान् श्रीराम अयोध्यामें सुखपूर्वक तो विराज रहे हैंन? ये सब लोग धन्य हैं, जो सदा आनन्दमग्न होकर अपने नेत्र पुटोंके द्वारा श्रीरघुनाथजीके मुखारविन्दका मकरन्द पान करते रहे हैं। नरश्रेष्ठ! अब मेरी कुल परम्परा तथा राज्य-भूमि आदि सब वस्तुएँ पूर्ण सफल हो गयीं। दयासे द्रवित होनेवाली माता कामाक्षा देवीने पूर्वकालमें मुझपर बड़ी कृपा की थी ।

राजाओंमें श्रेष्ठ वीर सुमदके ऐसा कहनेपर शत्रुघ्नने श्रीरघुनाथजीके गुणोंको प्रकट करनेवाली सब कथाएँकह सुनायीं। वे तीन रात्रितक वहाँ ठहरे रहे। इसके बाद उन्होंने राजाके साथ वहाँसे जानेका विचार किया। उनका अभिप्राय जानकर सुमदने शीघ्र ही अपने पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया तथा उन महाबुद्धिमान् नरेशने शत्रुघ्नके सेवकोंको बहुत से वस्त्र, रत्न और नाना प्रकारके धन दिये। तत्पश्चात् शत्रुघ्नने धनुष धारण किये हुए राजा सुमदको साथ लेकर अपने बहु मन्त्रियों, पैदल योद्धाओं, हाथियों और अच्छे घोड़े जुते हुए अनेकों रथोंके साथ वहाँसे यात्रा आरम्भ की। श्रीरघुनाथजीके प्रतापका आश्रय लेकर वे हँसते-हँसते मार्ग तय करने लगे। पयोष्णी नदीके तीरपर पहुँचकर उन्होंने अपनी चाल तेज कर दी तथा शत्रुओंपर प्रहार करनेवाले समस्त योद्धा भी पीछे-पीछे उनका साथ देने लगे। वे तपस्वी ऋषियोंके भाँति-भाँतिके आश्रम देखते तथा वहाँ श्रीरघुनाथजीके गुणगान सुनते हुए यात्रा कर रहे थे। उस समय उन्हें चारों ओर मुनियोंकी यह कल्याणमयी वाणी सुनायी पड़ती थी- 'यह यज्ञका अश्व चला जा रहा है, जो श्रीहरिके अंशावतार श्रीशत्रुघ्नजीके द्वारा सब ओरसे सुरक्षित है। भगवान्का अनुसरण करनेवाले वानर तथा भगवद्भक्त भी उसकी रक्षा कर रहे हैं।' जिनकी चित्तवृत्तियाँ भक्तिसे निरन्तर प्रभावित रहती हैं, उन महर्षियोंकी पूर्वोक्त बातें सुनकर शत्रुघ्नजीको बड़ा सन्तोष हुआ। आगे जाकर उन्होंने एक विशुद्ध आश्रम देखा, जो निरन्तर होनेवाली वेदोंकी ध्वनिसे उसको श्रवण करनेवाले मनुष्योंका सारा अमंगल नष्ट किये देता था वहाँका सम्पूर्ण आकाश अग्निहोत्रके समय दी जानेवाली आहुतिके भूमसे पवित्र हो गया था। श्रेष्ठ मुनियोंके द्वारा स्थापित किये हुए अनेकों यज्ञसम्बन्धी यूप उस आश्रमको सुशोभित कर रहे थे। यहाँ सिंह भी पालन करनेयोग्य गौओंकी रक्षा करते थे। चूहे अपने रहनेके लिये बिल नहीं खोदते थे; क्योंकि वहाँ उन्हें बिल्लियोंसे भय नहीं था। साँप सदा मोरों और नेवलोंके साथ खेलते रहते थे। हाथी और सिंह एक-दूसरेके मित्र होकर उस आश्रमपर निवास करते थे। मृग वहाँ प्रेमपूर्वक चरते रहते थे, उन्हेंकिसीसे भय नहीं था। गौओंके थन घड़ोंके समान
दिखायी देते थे। उनका विग्रह नन्दिनीकी भाँति सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला था और वे अपने खुरोंसे उठी हुई धूलके द्वारा वहाँकी भूमिको पवित्र करती थीं। हाथोंमें समिधा धारण करनेवाले श्रेष्ठ मुनिवरोंने वहाँकी भूमिको धार्मिक क्रियाओंका अनुष्ठान करनेके योग्य बना रखा था। उस आश्रमको देखकर शत्रुघ्नजीने सब बातोंको जाननेवाले श्रीराममन्त्री सुमतिसे पूछा ।

शत्रुघ्नजी बोले- सुमते ! यह सामने किस मुनिका आश्रम शोभा पा रहा है? यहाँ सब जन्तु आपसका वैरभाव छोड़कर एक ही साथ निवास करते हैं तथा यह मुनियोंकी मण्डलीसे भी भरा-पूरा दिखायी देता है। मैं मुनिकी वार्ता सुनूँगा तथा उनका वृत्तान्त श्रवण करके अपनेको पवित्र करूंगा।

महात्मा शत्रुघ्नके ये उत्तम वचन सुनकर परम मेधावी श्रीरघुनाथजीके मन्त्री सुमतिने कहा 'सुमित्रानन्दन ! इसे महर्षि च्यवनका आश्रम समझो। यह बड़े-बड़े तपस्वियोंसे सुशोभित तथा वैरशून्य जन्तुओंसे भरा हुआ है। मुनियोंकी पत्नियाँ भी यहाँनिवास करती हैं। महामुनि च्यवन वे ही हैं, जिन्होंने मनुपुत्र शर्यातिके महान् यज्ञमें इन्द्रका मान भंग किया और अश्विनीकुमारोंको यहका भाग दिया था।

शत्रुघ्नने पूछा - मन्त्रिवर! महर्षि च्यवनने कब अश्विनीकुमारोंको देवताओंकी पंक्तिमें बिठाकर उन्हें यज्ञका भाग अर्पण किया था? तथा देवराज इन्द्रने उस महान् यज्ञमें क्या किया था ?

सुमतिने कहा – सुमित्रानन्दन ब्रह्माजीके वंशमें - महर्षि भृगु बड़े विख्यात महात्मा हुए हैं। एक दिन सन्ध्याके समय समिधा लानेके लिये वे आश्रमसे दूर चले गये थे। उसी समय दमन नामका एक महाबली राक्षस उनके यज्ञका नाश करनेके लिये आया और उच्च स्वरसे अत्यन्त भयंकर वचन बोला- 'कहाँ है वह अधम मुनि और कहाँ है उसकी पापरहित पत्नी ?' वह रोषमें भरकर जब बारम्बार इस प्रकार कहने लगा तो अग्निदेवताने अपने ऊपर राक्षससे भय उपस्थित जानकर मुनिकी पत्नीको उसे दिखा दिया। वह सती साध्वी नारी गर्भवती थी। राक्षसने उसे पकड़ लिया। बेचारी अबला कुररीकी भाँति विलाप करने लगी 'महर्षि भृगु ! रक्षा करो, पतिदेव! बचाओ, प्राणनाथ ! तपोनिधे !! मेरी रक्षा करो।' इस प्रकार वह आर्तभावसे पुकार रही थी, तथापि राक्षस उसे लेकर आश्रमसे बाहर चला गया और दुष्टताभरी बातोंसे महात्मा भृगुकी उस पतिव्रता पत्नीको अपमानित करने लगा। उस समय महान् भयसे त्रस्त होकर वह गर्भ मुनिपत्नीके पेटसे गिर गया। उस नवजात शिशुके नेत्र प्रज्वलित हो रहे थे, मानो सतीके शरीरसे अग्निदेव ही प्रकट हुए हो। उसने राक्षसकी ओर देखकर कहा-'ओ दुष्ट ! अब तू यहाँसे न जा, अभी जलकर भस्म हो जा। सतीका स्पर्श करनेके कारण तेरा कल्याण न होगा।' बालकके इतना कहते ही वह राक्षस गिर पड़ा और तुरंत जलकर राखका ढेर हो गया। तब माता अपने बच्चे को गोदमें लेकर उदास मनसे आश्रमपर आयी। महर्षि भृगुको जब मालूम हुआ कि यह सब अग्निदेवकी ही करतूत है तो वे क्रोधसे व्याकुल हो उठे और शाप देते हुए बोले- शत्रुको घरका भेद बतानेवालेदुष्टात्मा ! तू सर्वभक्षी हो जा (पवित्र, अपवित्र - सभी वस्तुओंका आहार कर)।' यह शाप सुनकर अग्निदेवको बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने मुनिके चरण पकड़ लिये और कहा प्रभो! तुम दयाके सागर हो। महामते। मुझपर अनुग्रह करो। धार्मिकशिरोमणे! मैंने झूठ बोलने के भयसे उस राक्षसको आपकी पत्नीका पता बता दिया था, इसलिये मुझपर कृपा करो।'

अग्निकी प्रार्थना सुनकर तपस्वी मुनि दयासे द्रवित हो गये और उनपर अनुग्रह करते हुए इस प्रकार बोले- 'अग्ने तुम सर्वभक्षी होकर भी पवित्र ही रहोगे।' तत्पश्चात् परम मंगलमय विप्रवर भृगुने स्नान आदिसे पवित्र हो हाथमें कुश लेकर गर्भसे गिरे हुए अपने पुत्रका जातकर्म आदि संस्कार किया। उस समय सम्पूर्ण तपस्वियोंने गर्भसे च्युत होनेके कारण उस बालकका नाम च्यवन रख दिया। भृगुकुमार च्यवन शुक्लपक्षको प्रतिपदाके चन्द्रमाकी भाँति धीरे-धीरे बढ़ने लगे। कुछ बड़े हो जानेपर वे तपस्या करनेके लिये जगत्को पवित्र करनेवाली नर्मदा नदीके तटपर गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने दस हजार वर्षोंतक तपस्या कीउनके दोनों कंधोंपर दीमकोंने मिट्टीकी ढेरी जमा कर दी और उसपर दो पलाशके वृक्ष उग आये। हरिण उत्सुकतापूर्वक वहाँ आते और मुनिके शरीरमें अपनी देह रगड़कर खुजली मिटाते थे; किन्तु उनको इन सब बातोंका कुछ स्थिर रहते थे। भी ज्ञान नहीं रहता था। वे अविचलभावसे एक समयकी बात है। मनुके पुत्र राजा शर्याति तीर्थयात्राके लिये तैयार होकर परिवारसहित नर्मदाके तटपर गये, उनके साथ बहुत बड़ी सेना थी। महानदी नर्मदामें स्नान करके उन्होंने देवता और पितरोंका तर्पण किया तथा भगवान् श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके दान दिये। राजाके एक कन्या थी, जो तपाये हुए सोनेके आभूषण पहनकर बड़ी सुन्दरी दिखायी देती थी। वह अपनी सखियोंके साथ वनमें इधर-उधर विचरने लगी। वहाँ उसने महान् वृक्षोंसे सुशोभित वल्मीक (मिट्टीका ढेर) देखा, जिसके भीतर एक ऐसा तेज दीख पड़ा, जो निमेष और उन्मेषसे रहित था (उसमें खुलने-मिचनेकी क्रिया नहीं होती थी)। राजकन्या कौतूहलवश उसके पास गयी और शलाकाओंसे दबाकर उसे फोड़ डाला। फूटनेपर उससे खून निकलने लगा। यह देखकर राजकुमारीको बड़ा खेद हुआ और वह दुःखसे कातर हो गयी। अपराधसे दबी होनेके कारण उसने माता और पिताको इस दुर्घटनाका हाल नहीं बताया। वह भयसे आतुर होकर स्वयं ही अपने लिये शोक करने लगी। उस समय पृथ्वी काँपने लगी, आकाशसे उल्कापात होने लगा, सारी दिशाएँ धूमिल हो गयीं तथा सूर्यके चारों ओर घेरा पड़गया। राजाके कितने ही घोड़े नष्ट हो गये, बहुतेरे हाथी मर गये, धन और रत्नका नाश हो गया तथा उनके साथ आये हुए लोगोंमें परस्पर कलह होने लगा।

वह उत्पात देखकर राजा डर गये, उनका मन कुछ उद्विग्न हो गया। वे सब लोगोंसे पूछने लगे 'किसीने मुनिका अपराध तो नहीं किया है?' परम्परासे उन्हें अपनी पुत्रीकी करतूत मालूम हो गयी और वे अत्यन्त दुःखी होकर सेना और सवारियोंसहित मुनिके पास गये। भारी तपस्यामें लगे हुए तपोनिधि च्यवन मुनिको देखकर राजाने स्तुतिके द्वारा उन्हें प्रसन्न किया और कहा - 'मुनिवर दया कीजिये।' तब महातपस्वी मुनिश्रेष्ठ च्यवनने सन्तुष्ट होकर कहा - 'महाराज ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि यह सारा उत्पात तुम्हारी पुत्रीका ही किया हुआ है। तुम्हारी कन्याने मेरी आँखें फोड़ डाली हैं, इनसे बहुत खून गिरा है, इस बातको जानते हुए भी उसने तुमसे नहीं बताया है; इसलिये अब तुम शास्त्रीय विधिके अनुसार मुझे उस कन्याका दान कर दो, तब सारे उत्पातोंकी शान्ति हो जायगी।' यह सुनकर राजाको बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने उत्तम कुल, नयी अवस्था, सुन्दर रूप, अच्छे स्वभाव तथा शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न अपनी प्यारी पुत्री उन अंधे महर्षिको ब्याह दी। राजाने कमलके समान नेत्रोंवाली उस कन्याका जब दान कर दिया तो मुनिके क्रोधसे प्रकट हुए सारे उत्पात तत्काल शान्त हो गये। इस प्रकार तपोनिधि मुनिवर च्यवनको अपनी कन्या देकर राजा शर्याति फिर अपनी राजधानीको लौट आये। पुत्रीपर दया आनेके कारण वे बहुत दुःखी थे।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान