शेषजी कहते हैं- मुनिवर रथियोंमें श्रेष्ठ शत्रुघ्न आदि बहुसंख्यक राजे-महाराजे करोड़ों रथोंके साथ चले जा रहे थे, इसी समय उस मार्गपर सहसा अत्यन्त भयंकर अन्धकार छा गया; जिसमें बुद्धिमान् पुरुषोंको भी अपने या परायेकी पहचान नहीं हो पाती थी। तदनन्तर पातालनिवासी विद्युन्माली नामक राक्षस निशाचरोंके समुदायसे घिरा हुआ वहाँ आया। वह रावणका हितैषी सुहृद् था। उसने घोड़ेको चुरा लिया। फिर तो दो ही घड़ीके पश्चात् वह सारा अन्धकार नष्ट हो गया। आकाश स्वच्छ दिखायी देने लगा। शत्रुघ्न आदि वीरोंने एक-दूसरेसे पूछा- 'घोड़ा कहाँ है?' उस अश्वराजके विषयमें परस्पर पूछ-ताछ करते हुए वे सब लोग कहने लगे-'अश्वमेधका अश्व कहाँ है? किस दुर्बुद्धिने उसका अपहरण किया है?' वे इस प्रकार कह ही रहे थे कि राक्षसराज विद्युन्माली अपने समस्त योद्धाओंके साथ दिखायी दिया। उसके योद्धा रथपर विराजमान हो अपने शौर्य से शोभा पा रहे थे। विद्युन्माली स्वयं एक श्रेष्ठ विमानपर बैठा था और प्रधान प्रधान राक्षस उसेचारों ओरसे घेरकर खड़े थे। उन राक्षसोंके मुख दूषित एवं विकराल थे, दाढ़े लम्बी थीं और आकृति बड़ी भयानक थी। वे ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो शत्रुघ्नकी सेनाको निगल जानेके लिये तैयार हों। तब सैनिकोंने राजाओंमें श्रेष्ठ शत्रुघ्नसे निवेदन किया- 'राजन् ! एक राक्षसने घोड़ेको पकड़ लिया है, अब आपको जैसा उचित जान पड़े वैसा कीजिये।' उनकी बात सुनकर शत्रुघ्न अत्यन्त रोषमें भर गये और बोले— 'कौन ऐसा पराक्रमी राक्षस है, जिसने मेरे घोड़ेको पकड़ रखा है ?" फिर वे मन्त्रीसे बोले-'मन्त्रिवर! बताओ, इस राक्षससे लोहा लेनेके लिये किन-किन वीरोंको नियुक्त करना चाहिये, जो उसका वध करनेके लिये उत्साह रखनेवाले, अत्यन्त शूर, महान् शस्त्र धारण करनेवाले तथा प्रधान अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हों।'
सुमतिने कहा- हमारी सेनामें कुमार पुष्कल महान् वीर, अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता और शत्रुओंको ताप देनेवाले हैं; अतः ये ही विजयके लिये उद्यत हो युद्धमें उस राक्षसको जीतनेके लिये जायें। इनके सिवालक्ष्मीनिधि, हनुमान्जी तथा अन्य योद्धा भी युद्ध के लिये प्रस्थित हों। वीरोंमें अग्रगण्य अमात्य सुमतिके ऐसा कहनेपर शत्रुघ्नने संग्रामकुशल वीर योद्धाओंसे कहा- 'सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंमें प्रवीण पुष्कल आदि जो-जो वीर यहाँ उपस्थित हैं, वे राक्षसको मारनेके विषयमें मेरे सामने कोई प्रतिज्ञा करें।'
पुष्कल बोले- राजन् ! मेरी प्रतिज्ञा सुनिये, मैं अपने पराक्रमके भरोसे सब लोगोंके सुनते हुए यह अद्भुत प्रतिज्ञा कर रहा हूँ। यदि मैं अपने धनुषसे छूटे हुए बाणोंकी तीखी धारसे उस दैत्यको मूर्च्छित न कर दूँ - मुखपर बाल छितराये यदि वह धरतीपर न पड़ जाय, यदि उसके महाबली सैनिक मेरे बाणोंसे छिन्न भिन्न होकर धराशायी न हो जायँ तथा यदि मैं अपनी बात सच्ची करके न दिखा सकूँ तो मुझे वही पाप लगे, जो विष्णु और शिवमें तथा शिव और शक्तिमें भेद-दृष्टि रखनेवालेको लगता है। श्रीरघुना चरणकमलोंमें मेरी निश्चल भक्ति है, वही मेरी कही हुई सब बातें सत्य करेगी।
पुष्कलकी प्रतिज्ञा सुनकर युद्धकुशल हनुमान्जीने श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका स्मरण करते हुए यह कल्याणमय वचन कहा – 'योगीजन अपने हृदयमें नित्य निरन्तर जिनका ध्यान किया करते हैं, देवता और असुर भी अपना मुकुटमण्डित मस्तक झुकाकर जिनके चरणों में प्रणाम करते हैं तथा बड़े-बड़े लोकेश्वर जिनकी पूजा करते हैं, वे अयोध्याके अधिनायक भगवान् श्रीरामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं। मैं उनका स्मरण करके जो कुछ कहता हूँ, वह सब सत्य होगा। राजन्! अपनी इच्छाके अनुसार चलनेवाले विमानपर बैठा हुआ यह दुर्बल एवं तुच्छ दैत्य किस गिनती में है। शीघ्र आज्ञा दीजिये, मैं अकेला ही इसे मार गिराऊँगा राजा श्रीरघुनाथजी तथा महारानी जनककिशोरीकी कृपासे इस पृथ्वीपर कोई ऐसा कार्य नहीं है, जो मेरे लिये कभी भी असाध्य हो। यदि मेरी कही हुई यह बात झूठी हो तो मैं तत्काल श्रीरामचन्द्रजीकी भक्तिसे दूर हो जाऊँ यदि मैं अपनी बात झूठी कर दूँ, तो मुझे वही पाप लगे, जोकाममोहित शूद्रको मोहवश ब्राह्मणी के साथ समागम करनेसे लगता है। जिसको सूँघनेसे मनुष्य नरकमें पड़ता है, जिसका स्पर्श करनेसे रौरव नरककी यातना भोगनी पड़ती है, उस मदिराका जो पुरुष जिलाके स्वाद के वशीभूत होकर लोलुपतावश पान करता है, उसको जो पाप होता है वह मुझे ही लगे, यदि मैं श्रीरामजीकी कृपाके बलसे अपनी प्रतिज्ञाको सत्य न कर सकूँ तो निश्चय ही उपर्युक्त पापका भागी होऊँ।'
उनके ऐसा कहनेपर दूसरे दूसरे महावीर योद्धाओंने आवेशमें आकर अपने-अपने पराक्रमसे शोभा पानेवाली बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञाएँ कीं। उस समय शत्रुघ्नने भी उन युद्धविशारद वीरोंको साधुवाद देकर उनकी प्रशंसा की और सबके देखते-देखते प्रतिज्ञा करते हुए कहा 'वीरो! अब मैं तुमलोगोंके सामने अपनी प्रतिज्ञा बता रहा हूँ। यदि मैं उसके मस्तकको अपने सायकौसे काटकर, छिन्न-भिन्न करके धड़ और विमानसे नीचे पृथ्वीपर न गिरा दूँ। तो आज निश्चय ही मुझे वह पाप लगे, जो झूठी गवाही देने, सुवर्ण चुराने और ब्राह्मणकी निन्दा करनेसे लगता है।'
शत्रुघ्नके ये वचन सुनकर वीर-पूजित योद्धा कहने लगे श्रीरघुनाथजीके अनुज आप धन्य हैं। आपके सिवा दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। यह दुष्ट राक्षस क्या चीज है। इसका तुच्छ बल किस गिनती में है! महामते आप एक ही क्षणमें इसका नाश कर डालेंगे।' ऐसा कहकर वे महावीर योद्धा अस्त्र शस्त्रोंसे सुसज्जित हो गये और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनेके लिये युद्धके मैदानमें उस राक्षसकी ओर प्रसन्नतापूर्वक चले वह इच्छानुसार चलनेवाले विमानपर बैठा था। पुष्कल आदि वीरोंको उपस्थित देख उस राक्षसने कहा- 'अरे! राम कहाँ है? मेरे सखा रावणको मारकर वह कहाँ चला गया है? आज उसको और उसके भाईको भी मारकर उन दोनोंके कण्ठसे निकलती हुई रक्तकी धाराका पान करूँगा और इस प्रकार रावण वधका बदला चुकाऊँगा।'
पुष्कलने कहा- दुर्बुद्धि निशाचर! क्यों इतनीशेखी बघार रहा है? अच्छे योद्धा संग्राममें डींग नहीं हाँकते, अपने अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करके पराक्रम दिखाते हैं। जिन्होंने सुहृद्, सेना और सवारियोंसहित रावणका संहार किया है, उन भगवान् श्रीरामके अश्वको लेकर तू कहाँ जा सकता है? शेषजी कहते हैं- युद्धमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले वीर पुष्कलको ऐसी बातें करते देख राक्षसराज विद्युन्मालीने उनको छातीको लक्ष्य करके बड़े वेग से शक्तिका प्रहार किया। उसे आती देख पुष्कलने तेज धारवाले तीखे बाणोंसे उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले तथा अपने धनुषपर बहुत-से बाणोंका सन्धान किया, जो बड़े ही तीक्ष्ण और मनके समान वेगशाली थे। वे बाण राक्षसकी छातीमें लगकर तुरंत ही रक्तकी धारा बहाने लगे; पुष्कलके बाणप्रहारसे राक्षसपर मोह छा गया, उसके मस्तिष्क में चक्कर आने लगा तथा वह अचेत होकर अपने कामग विमानसे धरतीपर गिर पड़ा। विद्युन्मालीका छोटा भाई उग्रदंष्ट्र वहाँ मौजूद था। उसने अपने बड़े भाईको जब गिरते देखा तो उसे पकड़ लिया और पुनः विमानके भीतर ही पहुँचा दिया; क्योंकि विमानके बाहर उसे शत्रुकी ओरसे अनिष्ट प्राप्त होने की आशंका थी। उसने बलवानोंमें श्रेष्ठ पुष्कलसे बड़े रोषके साथ कहा-'दुर्मते मेरे भाईको गिराकर अब तू कहाँ जायगा।' पुष्कलके नेत्र भी क्रोधसे लाल हो उठे थे। उष्ट्र उपर्युक्त बातें कह ही रहा था कि उन्होंने दस बाणोंसे उस दुष्टकी छाती में वेगपूर्वक प्रहार किया। उनकी चोटसे व्यथित होकर दैत्यने एक जलता हुआ त्रिशूल हाथमें लिया, जिससे अग्निकी तीन शिखाएँ उठ रही थीं महावीर पुष्कलके हृदयमें वह भयंकर त्रिशूल लगा और वे गहरी मूर्च्छाको प्राप्त हो रथपर गिर पड़े। पुष्कलको मूच्छित जानकर पवननन्दन हनुमानजी मन-ही-मन क्रोधसे अस्थिर हो उठे और उस राक्षससे बोले-'दुर्बुद्धे । मैं युद्धके लिये उपस्थित हूँ, मेरे रहते तू कहाँ जा सकता है? तू घोड़ेका चोर है और सामने आ गया है, अतः मैं लातोंसे मारकर तेरे प्राण ले लूँगा।' ऐसा कहकर हनुमानजी आकाशमें स्थित हो गये औरविमानपर बैठे हुए शत्रुपक्षके योद्धा महान् दैत्योंको नखोंसे विदीर्ण करके मौत के घाट उतारने लगे। किन्होंको पूँछसे मार डाला, किन्हींको पैरोंसे कुचल डाला तथा कितनोंको उन्होंने दोनों हाथोंसे चीर डाला। जहाँ जहाँ वह विमान जाता था, वहाँ वहीं वायुनन्दन हनुमानजी इच्छानुसार रूप धारण करके प्रहार करते हुए ही दिखायी देते थे। इस प्रकार जब विमानपर बैठे हुए बड़े-बड़े योद्धा व्याकुल हो गये तब दैत्यराज उम्रदंष्ट्रने हनुमानजीपर आक्रमण किया। उस दुर्बुद्धिने प्रज्वलित अग्निके समान कान्ति धारण करनेवाले अत्यन्त तीखे त्रिशुलसे उनके ऊपर प्रहार किया; परन्तु महावली हनुमानजीने अपने पास आये हुए उस त्रिशूलको अपने मुँहमें ले लिया। यद्यपि वह सारा का सारा लोहेका बना हुआ था, तथापि उसे दाँतोंसे चबाकर उन्होंने चूर्ण कर डाला तथा उस दैत्यको कई तमाचे जड़ दिये। उनके थप्पड़ोंकी मार खाकर राक्षसको बड़ी पीड़ा हुई और उसने सम्पूर्ण लोकोंमें भय उत्पन्न करनेवाली मायाका प्रयोग किया। उस समय चारों ओर घोर अन्धकार छा गया, जिसमें कोई भी दिखायी नहीं देता था। इतने बड़े जनसमुदायमें यहाँ अपना या पराया कोई भी किसीको पहचान नहीं पाता था। चारों ओर नंगे, कुरूप, उग्र एवं भयंकर दैत्य दिखायी देते थे। उनके बाल बिखरे हुए थे और मुख विकराल प्रतीत होते थे। उस समय सब लोग व्याकुल हो गये, सबको एक-दूसरेसे भय होने लगा। सभी यह समझकर कि कोई महान् उत्पात आया हुआ है, वहाँसे भागने लगे तब महायशस्वी शत्रुघ्नजी रथपर बैठकर वहाँ आये और भगवान् श्रीरामका स्मरण करके उन्होंने अपने धनुषपर बाणका सन्धान किया। वे बड़े पराक्रमी थे। उन्होंने मोहनास्त्र के द्वारा राक्षसी मायाका नाश कर दिया और आकाशमें उस असुरको लक्ष्य करके बाणोंकी बौछार आरम्भ कर दी। उस समय सारी दिशाएँ प्रकाशमय हो गयीं, सूर्यके चारों ओर पड़ा हुआ घेरा निवृत्त हो गया। सुवर्णमय पंखसे शोभा पानेवाले लाखों बाण उस राक्षसके विमानपर पड़ने लगे। कुछ ही देरमें वह विमान टूटकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। वह इतनाऊँचा दिखायी देता था, मानो अमरावतीपुरीका एक भाग ही टूटकर भूतलके एक स्थानमें पड़ा हो। तब उस दैत्यको बड़ा क्रोध हुआ और उसने अपने धनुषपर अनेकों बाणोंका सन्धान किया तथा रामभ्राता शत्रुघ्नको उन बाणोंका निशाना बनाकर बड़ी विकट गर्जना की। शत्रुघ्न बड़े शक्तिशाली थे, उन्होंने अपने धनुषपर वायव्यास्त्रका प्रयोग किया, जो राक्षसोंको कँपा देनेवाला था। उस अस्त्रकी मार खाकर व्योमचारी भूत-बेताल मस्तक वाल छितराये आकाशसे पृथ्वीपर गिरते दिखायी देने लगे। रामभ्राता शत्रुघ्नके उस अस्त्रको देखकर राक्षसकुमारने अपने धनुषपर पाशुपतास्त्रका प्रयोग किया। समस्त वीरोंका विनाश करनेवाले उस अबको चारों ओर फैलते देखकर उसका निवारण करनेके लिये शत्रुघ्नने नारायण नामक अस्त्र छोड़ा। नारायणास्त्रने एक ही क्षणमें शत्रुपक्षके सभी अस्त्रोंकोशान्त कर दिया। निशाचरोंके छोड़े हुए सभी बाण विलीन हो गये। तब विद्युन्मालीने क्रोधमें भरकर शत्रुघ्नको मारनेके लिये एक तीक्ष्ण एवं भयंकर त्रिशूल हाथमें लिया। उसे शूल हाथमें लिये आते देख शत्रुघ्नने अर्धचन्द्राकार बाणसे उसकी भुजा काट डाली। फिर कुण्डलोंसहित उसके मस्तकको भी धड़से अलग कर दिया। भाईका मस्तक कट गया, यह देखकर प्रतापी उग्रदंष्ट्रने शूरवीरोंद्वारा सेवित शत्रुघ्नको मुक्केसे मारना आरम्भ किया। किन्तु शत्रुघ्नने क्षुरप्र नामक सायकसे उसका भी मस्तक उड़ा दिया। तदनन्तर मरनेसे बचे हुए सभी राक्षस अनाथ हो गये; इसलिये उन्होंने शत्रुघ्नके चरणोंमें पड़कर वह यज्ञका घोड़ा उन्हें अर्पण कर दिया। फिर तो विजयके उपलक्ष्यमें वीणा झंकृत होने लगी; सब ओर शंख बज उठे तथा शूरवीरोंका मनोहर विजयनाद सुनायी देने लगा।