शिवशर्मा कहते हैं— विष्णुशर्मन् ! तदनन्तर शरभ वैश्यने अपनी पत्नीके साथ मन्दिरमें जाकर पुत्रकी कामनासे विधिपूर्वक स्नान करके पुष्प, धूप और दीप अदिके द्वारा भक्तिपूर्वक पार्वतीजीका पूजन किया। इस प्रकार सात दिनोंतक श्रद्धापूर्वक पूजन करनेके बाद माता पार्वतीने प्रत्यक्ष दर्शन देकर कहा- 'वैश्य तुम्हारी सुदृढ़ भक्तिसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। साधो ! तुम जिसके लिये प्रयत्नशील हो, वह पुत्र में तुम्हें देती हूँ। अब तुम इन्द्रके खाण्डव वनमें जाओ। विलम्ब न करो। वहाँ परम पुण्यमय इन्द्रप्रस्थ नामक उत्तम तीर्थ है। उस तीर्थमें बृहस्पतिजीके द्वारा स्थापित किया हुआ सर्वकामप्रद निगमोद्बोधकतीर्थ है। उसमें पुत्रकी कामनासे स्नान करो। तुम्हें अवश्य पुत्र प्राप्त होगा।' देवीके आज्ञानुसार शरभ पत्नीके साथ इस उत्तम तीर्थमें आये और पुत्रकी इच्छासे उन्होंने यहाँ स्नान किया; फिर ब्राह्मणोंको अन्य उपकरणोंसहित सौ गौएँ। दान की तथा देवता और पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण किया, फिर सात दिन वहाँ रहकर वे घर लौट आये। उसी महीने में वैश्यपत्नीको गर्भ रह गया। समयपर मेरा जन्म हुआ। मेरे योग्य होनेपर एक दिन पिताजीने संसारसे विरक्त होकर मुझसे कहा कि 'घर तुम सँभालो; में विषय कामनाओंको छोड़कर श्रीहरिको भक्ति, तौर्थ भ्रमण और सत्संगरूपी औषधिका पान करके संसाररूपी रोगका नाश करूँगा।' इस प्रसंगमें उन्होंने बार-बार विषयासक्तिकी निन्दा और भगवद्भक्तिकी प्रशंसा की।
मैंने श्रीगंगाजीकी प्रशंसा करते हुए पिताजीसे प्रार्थना की कि अपने समीप ही श्रीगंगाजी बहती हैं, इन्हें छोड़कर आप अन्यत्र न जाइये पिताजी मेरी बात मानकर घरपर ही रह गये वे प्रतिदिन तीनों समय श्रीगंगाजी में स्नान करते और पुराणोंकी कथा सुनते। रहते। एक दिन उन्होंने इन्द्रप्रस्थ तीर्थकी बड़ी महिमासुनी और तबसे वे यहाँ आकर मोक्ष, कामनासे निगमोद्बोधकतीर्थका सेवन करने लगे। कुछ दिनों बाद उन्हें भयंकर ज्वर हो आया। तब यह समाचार पाकर मैं भी यहाँ आ गया। मेरे आनेके बाद तीर्थराजके जलमें आधा शरीर रखे हुए पिताजीकी मृत्यु हो गयी। उसी समय स्वयं भगवान् विष्णु यहाँ पधारे और पिताजीको श्रीवैकुण्ठधाममें ले गये।
पिताजीको भगवान् विष्णुका सारूप्य प्राप्त हुआ देखकर उनका अन्तिम संस्कार करनेके बाद मैं भी भगवान्का चिन्तन करता हुआ मोक्षकी कामनासे यहीं रहने लगा।
शिवशर्माकी यह बात सुनकर उसके पुत्र विष्णुशर्माने कहा- 'महान् तीर्थमें निवास करनेपर भी आपको फिरसे जन्म क्यों लेना पड़ा? मुक्ति कैसे नहीं हुई?' इसके उत्तर में शिवशर्मा ने कहा कि एक दिन मैं भगवान्के ध्यानमें बैठा था। महर्षि दुर्वासा उसी समय पधारे और मुझे चुप देखकर उन्होंने शाप दे दिया कि 'इस जन्ममें तेरा मनोरथ पूर्ण नहीं होगा।' मेरे बहुत गिड़गिड़ानेपर उन्होंने कहा
'अगले जन्ममें ब्राह्मण होकर तुम यहीं मृत्युको प्राप्त होओगे और फिर तुम्हें जन्म नहीं लेना पड़ेगा।' तदनन्तर फिर मैं घर लौट आया और मैंने संसारके समस्त भोगोंको अनित्य मानकर श्रीभगवन्नामकीर्तन और भजन करनेका निश्चय किया। कुछ दिनों बाद गंगातटपर मेरी मृत्यु हो गयी। दुर्वासाजीके कथनानुसार वैष्णव ब्राह्मणकुलमें मेरा जन्म हुआ। अब इस उत्तम तीर्थमें मृत्युको प्राप्त होकर मैं श्रीहरिके वैकुण्ठधाममें जाऊँगा।
नारदजी कहते हैं-राजा शिबि! इस प्रकार अपने-अपने पूर्वजन्मके कर्मोंका वर्णन करके वे दोनों पिता-पुत्र श्रीहरिके चरणकमलोंका चिन्तन करते हुए यहाँ रहने लगे और अन्तमें दोनोंने भगवान्के समान रूप प्राप्त कर लिया।