यं सर्वदेवं परमेश्वरं हि निष्केवलं ज्ञानमयं प्रधानम् l
वदन्ति नारायणमादिसिद्धं सिद्धेश्वरं तं शरणं प्रपद्ये ।।'
(16435)
सूतजी कहते हैं— पश्चिम समुद्रके तटपर द्वारका नामसे प्रसिद्ध एक नगरी है। वहाँ योगशास्त्रके ज्ञाता एक ब्राह्मण देवता सदा निवास करते थे। उनका नाम या शिवशर्मा से वेद-शास्त्रोंके अच्छे विद्वान् थे। उनके पाँच पुत्र हुए, जिन्हें शास्त्रोंका पूर्ण ज्ञान था। उनके नाम इस प्रकार हैं- यज्ञशर्मा, वेदशर्मा, धर्मशर्मा, विष्णुशर्मा तथा सोमशर्मा- ये सभी पिताके भक्त थे। द्विजश्रेष्ठ शिवशर्माने उनकी भक्ति देखकर सोचा- 'पितृभक्त पुरुषोंके हृदयमें जो भाव होना चाहिये, वह मेरे इन पुत्रोंके हृदयमें हैं या नहीं इस बातको बुद्धिपूर्वक परीक्षा करके जाननेका प्रयत्न करूँ।' शिवशर्मा ब्रह्म बेताओं में श्रेष्ठ थे। उन्हें उपायका ज्ञान था। उन्होंने मायाद्वारा अपने पुत्रोंके सामने एक घटना उपस्थित की। पुत्रोंने देखा, उनकी माता महान् ज्वररोगसे पीड़ित होकर मृत्युको प्राप्त हो गयी। तब वे पिताके पास जाकर बोले- 'तात। हमारी माता अपने शरीरका परित्याग करके चली गयी। अब उसके विषयमें आप हमें क्या आजा देते हैं?' द्विजश्रेष्ठ शिवशर्माने अपने भक्तिपरायण ज्येष्ठ पुत्र यज्ञशर्माको सम्बोधित करके कहा-'बेटा। इस तो हथियार से अपनी माताके सारे अंगोंको टुकड़े टुकड़े करके इधर-उधर फेंक दो। पुत्रने पिताकी आज्ञाके अनुसार ही कार्य किया। पिताने भी यह बात सुनी। इससे उन्हें उस पुत्रकी भक्तिके विषयमें पूर्ण निश्चय हो गया। अब उन्होंने दूसरे पुत्रकी पितृ-भक्ति जानने काविचार किया और वेदशमके पास जाकर कहा 'बेटा! मैं स्त्रीके बिना नहीं रह सकता। तुम मेरी आज्ञा मानकर जाओ और समस्त सौभाग्य सम्पत्तिसे युक्त जो स्त्री मैंने देखी है, उसे मेरे लिये यहाँ बुला लाओ।' पिताके ऐसा कहनेपर वेदशर्मा बोले-'मैं आपका प्रिय कार्य करूँगा।' यो कहकर वे पिताको प्रणाम करके चले गये और उस स्त्रीके पास पहुँचकर बोले- 'देवि ! मेरे पिता तुम्हारे लिये प्रार्थना करते हैं; यद्यपि वे वृद्ध हैं तथापि तुम मेरे अनुरोधसे उनपर कृपा करके उनके अनुकूल हो जाओ।'
वेदशर्माकी ऐसी बात सुनकर मायासे प्रकट हुई उस स्त्रीने कहा—'ब्रह्मन् ! तुम्हारे पिता बुढ़ापेसे कष्ट पा रहे हैं; अतः मैं कदापि उन्हें पति बनाना नहीं चाहती। उन्हें खाँसीका रोग है, उनके मुँहमें कफ भरा रहता है। इस समय दूसरी दूसरी बीमारियोंने भी उन्हें पकड़ रखा है। रोगके कारण वे शिथिल एवं आर्त हो गये हैं; अतः मुझे उनका समागम नहीं चाहिये। मैं तुम्हारे साथ रमण करना चाहती हूँ। तुम्हारा प्रिय कार्य करूँगी। तुम दिव्य लक्षणोंसे सम्पन्न, दिव्यरूपधारी तथा महान् तेजस्वी हो; अतः मैं तुम्हींको पाना चाहत हूँ। मानद! उस बूढ़ेको लेकर क्या करोगे। मेरे शरीरका उपभोग करनेसे तुम्हें समस्त दुर्लभ सुखोंकी प्राप्ति होगी, विप्रवर तुम्हें जिस-जिस वस्तुकी इच्छा होगी, यह सब ला दूंगी इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।' यह महान् पापपूर्ण अप्रिय वचन सुनकर वेदशमाने
कहा- देवि! तुम्हारा वचन अधर्मयुक्त, पापमिश्रित
और अनुचित है मैं पिताका भक्त और निरपराध है:मुझसे ऐसी बात न कहो। शुभे। मैं पिताके लिये ही यहाँ आया हूँ और उन्होंके लिये तुमसे प्रार्थना करता हूँ। इसके विपरीत दूसरी कोई बात न कहो। मेरे पिताजीको ही स्वीकार करो। देवि इसके लिये तुम चराचर प्राणियोंसहित त्रिलोकीको जो-जो वस्तु चाहोगी, वह सब निस्सन्देह तुम्हें अर्पण करूँगा। अधिक क्या कहूँ, देवताओंका राज्य आदि भी यदि चाहो तो तुम्हें दे सकता हूँ।'
स्त्री बोली- यदि तुम अपने पिताके लिये इस प्रकार दान देनेमें समर्थ हो तो मुझे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंका अभी दर्शन कराओ।
वेदशर्मा बोले- देवि! मेरा बल, मेरी तपस्याका प्रभाव देखो मेरे आवाहन करनेपर ये इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवता यहाँ आ पहुँचे।
देवताओंने वेदशर्मासे कहा-'द्विजश्रेष्ठ! हम तुम्हारा कौन-सा कार्य करें ?'
वेदशर्मा बोले— देवगण! यदि आपलोग मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे अपने पिताके चरणों में पूर्ण भक्ति प्रदान करें। 'एवमस्तु' कहकर सम्पूर्ण देवता जैसे आये थे, वैसे लौट गये। तब उस स्त्रीने हर्षमें भरकर कहा- तुम्हारी तपस्याका बल देख लिया। देवताओंसे मुझे कोई काम नहीं है। यदि तुम मुझे मुँहमाँगी वस्तु देना चाहते हो और अपने पिताके लिये मुझे ले जाना चाहते हो तो अपना सिर अपने ही हाथसे काटकर मुझे अर्पण कर दो।'
वेदशमने कहा- देवि! आज मैं धन्य हो गया। शुभे। मैं पिताके लिये अपना मस्तक भी दे दूंगा; ले लो, ले लो। यह कहकर द्विजश्रेष्ठ वेदशर्माने तीखी धारवाली तेज तलवार उठायी और हँसते हँसते अपना मस्तक काटकर उस स्त्रीको दे दिया। खूनमें डूबे हुए उस मस्तकको लेकर वह शिवशर्मा के पास गयी।
स्त्रीने कहा- विप्रवर तुम्हारे पुत्र वेदशर्माने मुझे तुम्हारी सेवाके लिये यहाँ भेजा है; यह उनका मस्तक है, इसे ग्रहण करो इसको उन्होंने अपने हाथसे काटकर दिया है।उस मस्तकको देखकर वेदशमकि चारों भाई काँप उठे। उन पुण्यात्मा बन्धुओंमें इस प्रकार बात होने लगी- 'अहो! धर्म ही जिसका सर्वस्व था, वह हमारी माता सत्य समाधिके द्वारा मृत्युको प्राप्त हो गयी। हमलोगोंमें ये वेदशर्मा ही परम सौभाग्यशाली थे, जिन्होंने पिताके लिये प्राण दे दिये। ये धन्य तो थे ही और अधिक धन्य हो गये।' शिवशमांने उस स्त्रीकी बात सुनकर जान लिया कि वेदशर्मा पूर्ण भक्त था। तत्पश्चात् उन्होंने अपने तृतीय पुत्र धर्मशर्मासे कहा 'बेटा! यह अपने भाईका मस्तक लो और जिस प्रकार यह जी सके, वह उपाय करो।'
सूतजी कहते हैं- धर्मशर्मा भाईके मस्तकको लेकर तुरंत ही वहाँसे चल दिये। उन्होंने पिताकी भक्ति, तपस्या, सत्य और सरलताके बलसे धर्मको आकर्षित किया। उनकी तपस्यासे खिंचकर धर्मराज धर्मशर्मा के पास आये और इस प्रकार बोले 'धर्मशर्मन्! तुम्हारे आवाहन करनेसे में यहाँ उपस्थित हुआ हूँ; मुझे अपना कार्य बताओ, मैं उसे निस्सन्देह पूर्ण करूंगा।'
धर्मशर्माने कहा - धर्मराज! यदि मैंने गुरुकी सेवा की हो, यदि मुझमें पिताके प्रति निष्ठा और अविचल तपस्या हो तो इस सत्यके प्रभावसे मेरे भाई वेदशर्मा जी उठें।
धर्म बोले- महामते मैं तुम्हारी तपस्या और पितृभक्ति सन्तुष्ट हूँ, तुम्हारे भाई जी जायेंगे तुम्हारा कल्याण हो । धर्मवेत्ताओंके लिये जो दुर्लभ है, ऐसा कोई उत्तम वरदान मुझसे और माँग लो।
धर्मशर्माने जब धर्मका यह उत्तम वचन सुना तो उस महायशस्वीने महात्मा वैवस्वतसे कहा 'धर्मराज! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो पिताके चरणोंकी पूजामें अविचल भक्ति, धर्ममें अनुराग तथा अन्तमें मोक्षका वरदान मुझे दीजिये।' तब धर्मने कहा—'मेरी कृपासे यह सब कुछ तुम्हें प्राप्त होगा।' उनके मुखसे यह महावाक्य निकलते ही वेदशर्मा उठकर खड़े हो गये। मानो वे जाग उठे हो उठते हो महाबुद्धिमान् वेदशर्माने धर्मशर्मा से कहा- 'भाई। वे देवी कहाँगयीं? पिताजी कहाँ हैं?' धर्मशर्माने थोड़ेमें सब हाल कह सुनाया। सब हाल जानकर वेदशर्माको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने धर्मशर्मा से कहा - 'प्रिय बन्धु ! इस पृथ्वीपर तुम्हारे जैसा मेरा हितैषी कौन है?' तदनन्तर दोनों भाई प्रसन्न होकर अपने पिता शिवशर्माके पास गये। उस समय धर्मशर्माने तेजस्वी पितासे कहा 'महाभाग ! आज मैंने आपके पुत्र वेदशर्माको मस्तक और जीवनके साथ यहाँ ला दिया है। आप इन्हें स्वीकार कीजिये।'
तदनन्तर शिवशर्माने विनीत भावसे सामने खड़े चौथे पुत्र महामति विष्णुशर्मासे कहा- 'बेटा! मेरा हुए कहना करो। आज ही इन्द्रलोकको जाओ और वहाँसे अमृत ले आओ। मैं अपनी इस प्रियतमाके साथ इस समय अमृत पीना चाहता हूँ; क्योंकि अमृत सब रोगोंको दूर करनेवाला है।' महात्मा पिताका यह वचन सुनकर विष्णुशर्माने उनसे कहा- 'पिताजी! मैं आपके कथनानुसार सब कार्य करूँगा।' यह कहकर परम बुद्धिमान् धर्मात्मा विष्णुशर्माने पिताको प्रणाम किया और उनकी प्रदक्षिणा करके अपने महान् बल, तपस्यातथा नियमके प्रभावसे आकाशमार्गद्वारा इन्द्रलोककी यात्रा की।
अन्तरिक्षमार्गसे जब वे आकाशके भीतर घुसे, तब देवराज इन्द्रने उन्हें देखा और उनका उद्देश्य जानकर उसमें विघ्न डालना आरम्भ किया। उन्होंने मेनकासे कहा- 'सुन्दरी! मेरी आज्ञासे शीघ्रतापूर्वक जाओ और विप्रवर विष्णुशर्माके कार्यमें बाधा डालो।' देवराजकी आज्ञा पाकर मेनका बड़ी उतावलीके साथ चली। उसका सुन्दर रूप था और वह सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित थी । नन्दनवनके भीतर पहुँचकर वह झूलेमें जा बैठी और मधुर स्वरसे गीत गाने लगी। उसका संगीत बीणाके स्वरके समान था। विष्णुशर्माने उसे देखा और उसके मनोभावको समझ लिया। उन्होंने सोचा—'यह एक बहुत बड़े विघ्नके रूपमें उपस्थित हुई है, इन्द्रने इसे भेजा है; यह मेरी भलाई नहीं कर सकती।' यह विचारकर वे शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ गये। मेनकाने उन्हें जाते देखा और पूछा - 'महामते ! कहाँ जाओगे ?' विष्णुशर्मा बोले—'मैं पिताके कार्यसे इन्द्रलोकमें जाऊँगा, वहाँ पहुँचने के लिये मुझे बड़ी जल्दी है।' मेनकाने कहा- 'विप्रवर! मेँ कामदेवके वाणसे घायल होकर इस समय तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। यदि धर्मका पालन करना चाहते हो तो मेरी रक्षा करो।'
विष्णुशर्मा बोले - सुमुखि ! मुझे देवराजका सारा चरित्र मालूम है; तुम्हारे मनमें क्या है, यह भी मुझसे छिपा नहीं है। तुम्हारे तेज और रूपसे विश्वामित्र आदि दूसरे लोग ही मोहित होते हैं। मैं शिवशर्माका पुत्र हूँ, मुझपर तुम्हारा जादू नहीं चल सकता। अबले! मँ योगसिद्धिको प्राप्त हूँ, तपस्यासे सिद्ध हो चुका हूँ। काम आदि बड़े-बड़े दोषोंको मैंने पहले ही जीत लिया है। तुम किसी दूसरे पुरुषका आश्रय लो, मैं इन्द्रलोकको जा रहा हूँ।
यों कहकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुशर्मा शीघ्रतापूर्वक चले गये। मेनकाका प्रयत्न निष्फल हुआ। देवराजके पूछनेपर उसने सब कुछ बता दिया। तब इन्द्रने बारंबार विघ्न उपस्थित किया, किन्तु महायशस्वी ब्राह्मणने अपने तेजसेउन सब विघ्नोंका नाश कर दिया। उनके उपस्थित किये हुए भयंकर विघ्नोंका विचार करके महातेजस्वी विष्णुशर्माको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने सोचा- 'मैं इन्द्रलोकसे इन्द्रको गिरा दूँगा और देवताओंकी रक्षाके लिये दूसरा इन्द्र बनाऊँगा।' वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि देवराज इन्द्र वहाँ आ पहुँचे और बोले – 'महाप्राज्ञ विप्र ! तपस्या, नियम, इन्द्रियसंयम, सत्य और शौचके द्वारा तुम्हारी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। तुम्हारी इस पितृभक्तिसे मेँ देवताओंसहित परास्त हो गया। साधुश्रेष्ठ ! तुम मेरे सारे अपराध क्षमा करो और मुझसे कोई वर माँगो। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे माँगनेपर मैं दुर्लभ-से-दुर्लभ वर भी दे दूँगा।' यह सुनकर विष्णुशर्माने देवराजसे कहा-' आपको महात्मा ब्राह्मणोंके तेजका विनाश करनेकी कभी चेष्टा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि यदि श्रेष्ठ ब्राह्मण क्रोधमें भर जायँ तो समस्त पुत्र-पौत्रोंके साथ अपराधी व्यक्तिका संहार कर सकते हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यदि आप इस समय यहाँ न आये होते तो मैं अपनी तपस्याके प्रभावसे आपके इस उत्तम राज्यको छीनकर किसीदूसरेको दे डालनेका विचार कर चुका था। मेरी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं। [किन्तु आपके आनैसे मेरा भाव बदल गया।] देवेन्द्र! आप आकर मुझे वर देना चाहते हैं तो अमृत दीजिये, साथ ही पिताके चरणोंमें अविचल भक्ति प्रदान कीजिये।'
इस प्रकार बातचीत होनेपर इन्द्रने प्रसन्न चित्तसे ब्राह्मणको अमृतसे भरा घड़ा लाकर दिया तथा वरदान देते हुए कहा- 'विप्रवर! अपने पिताके प्रति तुम्हारे हृदयमें सदा अविचल भक्ति बनी रहेगी।' याँ कहकर इन्द्रने ब्राह्मणको विदा किया। तदनन्तर विष्णुशर्मा अपने पिताके पास जाकर बोले- 'तात! मैं इन्द्रके यहाँसे अमृत ले आया हूँ। इसका सेवन करके आप सदाके लिये नीरोग हो जाइये।' शिवशर्मा पुत्रकी यह बात सुनकर बहुत सन्तुष्ट हुए और सब पुत्रोंको बुलाकर कहने लगे- 'तुम सब लोग पितृभक्तिसे युक्त और मेरी आज्ञाके पालक हो। अतः प्रसन्नतापूर्वक मुझसे कोई कर माँगो इस भूतलपर जो दुर्लभ वस्तु होगी, वह भी तुम्हें मिल जायगी।' पिताकी यह बात सुनकर वे सभी पुत्र एक-दूसरेकी ओर देखते हुए उनसे बोले- 'मुक्त आपकी कृपासे हमारी माता, जो यमलोकको चली गयी हैं, जी जायें।'
शिवशर्माने कहा - 'पुत्रो ! तुम्हारी मरी हुई पुत्रवत्सला माता अभी जीवित होकर हर्षमें भरी हुई यहाँ आयेगी- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।' ऋषि शिव मुखसे यह शुभ वाक्य निकलते ही उन पुनको माता हर्षमें भरी हुई वहाँ आ पहुँची और बोली- 'मेरे सौभाग्यशाली पुत्रो! इसीलिये संसारमें पुण्यात्मा स्विय पुण्यसाधक पुत्रकी इच्छा करती है। जिसका कुलके अनुरूप आचरण हो, जो अपने कुलका आधार तथा माता-पिताको तारनेवाला हो-ऐसे उत्तम पुत्रको कोई भी स्त्री पुण्यके बिना कैसे पा सकती है। न जाने मैंने कैसे-कैसे पुण्य किये थे, जिनके फलस्वरूप ये धर्मप्राण, धर्मात्मा, धर्मवत्सल तथा अत्यन्त पुण्यभागी महात्मा मुझे पतिरूपमें प्राप्त हुए। मेरे सभी पुत्र परत है। इससे बढ़कर प्रसन्नताको बात औरक्या होगी। अहो ! संसारमें पुण्यके ही बलसे उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होती है। मुझे पाँच पुत्र प्राप्त हुए हैं, जिनका हृदय विशाल है तथा जिनमें एक-से-एक बढ़कर है। मेरे सभी पुत्र यज्ञ करनेवाले, पुण्यात्मा, तपस्वी, तेजस्वी और पराक्रमी हैं।'
इस प्रकार माताके कहनेपर पुत्रोंको बड़ा हर्ष हुआ और वे अपनी माताको प्रणाम करके बोले—'माँ ! अच्छे माता-पिताकी प्राप्ति बड़े पुण्यसे होती है। तुम सदा पुण्य कर्म करती रहती हो। हमारे बड़े भाग्य थे, जो तुम हमें माताके रूपमें प्राप्त हुईं, जिनके गर्भमें आकर हमलोग उत्तम पुण्योंसे वृद्धिको प्राप्त हुए हैं। हमारी यही अभिलाषा है कि प्रत्येक जन्ममें तुम्हीं हमारी माता और ये ही हमारे पिता हों।' पिता बोले- पुत्रो ! तुमलोग मुझसे कोई परम उत्तम और पुण्यदायक वरदान माँगो । मेरे सन्तुष्ट होनेपर तुमलोग अक्षय लोकोंका उपभोग कर सकते हो
पुत्रोंने कहा - पिताजी! यदि आप हमपर प्रसन्न हैं और वर देना चाहते हैं तो हमें भगवान् श्रीविष्णुके गोलोकधाममें भेज दीजिये, जहाँ किसी प्रकारकी चिन्ता और व्याधि नहीं फटकने पाती।
पिता बोले- पुत्रो ! तुमलोग सर्वथा निष्पाप हो; इसलिये मेरे प्रसाद, तपस्या और इस पितृभक्तिके बलसेवैष्णवधामको जाओ।
महर्षि शिवशर्माके यह उत्तम वचन कहते ही भगवान् श्रीविष्णु अपने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये गरुड़पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे और पुत्रोंसहित शिवशर्मासे बारंबार कहने लगे- 'विप्रवर ! पुत्रसहित तुमने भक्तिके बलसे मुझे अपने वशमें कर लिया है। अतः इन पुण्यात्मा पुत्रों तथा पतिके साथ रहनेकी इच्छावाली इस पुण्यमयी पत्नीको साथ लेकर तुम मेरे परमधामको चलो।'
शिवशर्माने कहा – भगवन्! ये मेरे चारों पुत्र ही इस समय परम उत्तम वैष्णवधाममें चलें। मैं पत्नीके साथ अभी भूलोकमें ही कुछ काल व्यतीत करना चाहता हूँ। मेरे साथ मेरा कनिष्ठ पुत्र सोमशर्मा भी रहेगा।
सत्यभाषी महर्षि शिवशर्माके यों कहनेपर देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुने उनके चार पुत्रोंसे कहा- 'तुमलोग दाह और प्रलयसे रहित मोक्षदायक गोलोकधामको चलो।' भगवान्के इतना कहते ही उन चारों सत्यतेजस्वी ब्राह्मणका तत्काल विष्णुके समान रूप हो गया, उनके शरीरका श्यामवर्ण इन्द्र नीलमणिके समान शोभा पाने लगा। उनके हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित होने लगे। वे विष्णुरूपधारी महान् तेजस्वी द्विज पितृभक्तिके प्रभावसे विष्णुधामको प्राप्त हो गये ।