शुकरी बोली- कलिंग (उड़ीसा) नाम प्रसिद्ध एक सुन्दर देश है, वहाँ श्रीपुर नामका एक नगर था। उसमें वसुदत्त नामके एक ब्राह्मण निवास करते थे। ये सदा सत्यधर्ममें तत्पर, वेदवेत्ता, ज्ञानी, तेजस्वी, गुणवान् और धन-धान्यसे भरे-पूरे थे। अनेक पुत्र-पौत्र उनके घरकी शोभा बढ़ाते थे मैं वसुदत्तकी पुत्री थी मेरे और भी कई भाई, स्वजन तथा बान्धव थे। परम बुद्धिमान् पिताने मेरा नाम सुदेवा रखा। मैं अप्रतिम सुन्दरी थी। संसारमें दूसरी कोई स्त्री ऐसी नहीं थी, जो रूपमें मेरी समानता कर सके। रूपके साथ ही चढ़ती जवानी पाकर मैं गर्वसे उन्मत्त हो उठी। मेरी मुसकान बड़ी मनोहर थी। बचपनके बाद जब मुझे हाव-भावसे युक्त यौवन प्राप्त हुआ, तब मेरा भरा-पूरा रूप देखकर मेरी माताको बड़ा दुःख हुआ। वह पितासे बोलो - 'महाभाग! आप कन्याका विवाह क्यों नहीं कर देते? अब यह जवान हो चुकी है, इसे किसी योग्य वरको सौंप दीजिये।' वसुदत्तने कहा- 'कल्याणी । सुनो; मैं उसी वरके साथ इसका विवाह करूँगा, जो विवाहके पश्चात् मेरे ही घरपर निवास करे, क्योंकि सुदेवा मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी है। मैं इसे आँखोंसे ओट नहीं होने देना चाहता।
तदनन्तर एक दिन सम्पूर्ण विद्याओंमें विशारद एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण भिक्षाके लिये मेरे द्वारपर आये। उन्होंने वेदोंका पूर्ण अध्ययन किया था। वे बड़े अच्छे स्वरसे वेद-मन्त्रोंका उच्चारण करते थे। उन्हें आया देख मेरे पिताने पूछा- 'आप कौन हैं? आपका नाम, कुल, गोत्र और आचार क्या है? यह बताइये।' पिताकी बात सुनकर ब्राह्मण कुमारने उत्तर दिया- 'कौशिकवंशमें मेरा जन्म हुआ है। मैं वेद-वेदांगोंका पारंगत विद्वान् हूँ, मेरा नाम शिवशर्मा है; मेरे माता-पिता अब इस संसारमें नहीं हैं।" शिवशर्माने जब इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब मेरे पिताने शुभ लग्न में उनके साथ मेरा विवाहकर दिया। अब उनके साथ ही मैं पिताके घरपर रहने लगी। परन्तु मैं माता-पिताके धनके घमंडसे अपनी विवेकशक्ति खो बैठी थी। मुझ पापिनीने कभी भी अपने स्वामीकी सेवा नहीं की। मैं सदा उन्हें क्रूर दृष्टिसे ही देखा करती थी। कुछ व्यभिचारिणी स्त्रियोंका साथ हो गया था, अतः संग-दोषसे मेरे मनमें भी वैसा ही नीच भाव आ गया था। मैं जहाँ-तहाँ स्वच्छन्दतापूर्वक घूमती-फिरती और माता-पिता, पति तथा भाइयोंके हितकी परवा नहीं करती थी। शिवशर्माका शील और उनकी साधुता सबको ज्ञात थी, अतः माता-पिता आदि सब लोग मेरे पापसे दुःखी रहते थे। मेरा दुष्कर्म देख पतिदेव उस घरको छोड़कर चले गये। उनके जानेसे पिताजीको बड़ी चिन्ता हुई। उन्हें दुःखसे व्याकुल देख माताने पूछा- 'नाथ! आप चिन्तित क्यों हो रहे हैं?' वसुदत्तने कहा- 'प्रिये! सुनो, दामाद मेरी पुत्रीको त्यागकर चले गये। सुदेवा पापाचारिणी है और वे पण्डित तथा बुद्धिमान् थे मैं क्या जानता था कि यह मेरी कन्या सुदेवा ऐसी दुष्टा और कुलनाशिनी होगी।'
ब्राह्मणी बोली- नाथ! आज आपको पुत्रीके गुण और दोषका ज्ञान हुआ है-इस समय आपकी आँखें खुली हैं; किन्तु सच तो यह है कि आपके ही मोह और स्नेहसे लाड़ और प्यारसे यह इस प्रकार बिगड़ी है। अब मेरी बात सुनिये- सन्तान जबतक पाँच वर्षकी न हो जाय, तभीतक उसका लाड़-प्यार करना चाहिये। उसके बाद सदा सन्तानकी शिक्षाकी ओर ध्यान देते हुए उसका पालन पोषण करना उचित है। नहलाना-धुलाना, उत्तम वस्त्र पहनाना, अच्छे खान-पानका प्रबन्ध करना-ये सब बातें सन्तानकी पुष्टिके लिये आवश्यक है। साथ ही पुत्रोंको उत्तम गुण और विद्याकी ओर भी लगाना चाहिये। पिताका कर्तव्य है कि वह सन्तानको सद्गुणोंकी शिक्षा देनेके लिये सदा कठोर बना रहे। केवल पालन-पोषणके लिये उसके प्रति मोह-ममतारखे । पुत्रके सामने कदापि उसके गुणोंका वर्णन न करे उसे राहपर लानेके लिये कड़ी फटकार सुनाये तथा इस प्रकार उसे साधे, जिससे वह विद्या और गुणोंमें सदा ही निपुण होता जाय। जब माता अपनी कन्याको, सास अपनी पुत्र वधूको और गुरु अपने शिष्योंको ताड़ना देता है, तभी वे सीधे होते हैं। इसी प्रकार पति अपनी पत्नीको और राजा अपने मन्त्रीको दोषोंके लिये कड़ी फटकार सुनायें। शिक्षा - बुद्धिसे ताड़न और पालन करनेपर सन्तान सद्गुणोंद्वारा प्रसिद्धि लाभ करती है।
शिवशर्मा उत्तम ब्राह्मण थे। उनके साथ रहनेपर भी इस कन्याको आपने घरमें निरंकुश स्वच्छन्द बना रखा था। इसीसे उच्छृंखल हो जानेके कारण यह नष्ट हुई है। पुत्री अपने पिताके घरमें रहकर जो पाप करती है, उसका फल माता-पिताको भी भोगना पड़ता है; इसलिये समर्थ पुत्रीको अपने घरमें नहीं रखना चाहिये। जिससे उसका ब्याह किया गया है, उसीके घरमें उसका पालन-पोषण होना उचित है। वहाँ रहकर वह भक्तिपूर्वक जो उत्तम गुण सीखती और पतिकी सेवा करती है, उससे कुलकी कीर्ति बढ़ती है और पिता भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। ससुरालमें रहकर यदि वह पाप करती है तो उसका फल पतिको भोगना पड़ता है। यहाँ सदाचारपूर्वक रहनेसे वह सदा पुत्र-पौत्रोंके साथ वृद्धिको प्राप्त होती है। प्राणनाथ ! पुत्रीके उत्तम गुणोंसे पिताकी कीर्ति बढ़ती है। इसलिये दामाद के साथ भी कन्याको अपने घर नहीं रखना चाहिये। इस विषयमें एक पौराणिक इतिहास सुना जाता है, जो अट्ठाईसवें द्वापरके आनेपर संघटित होनेवाला है यदुकुलश्रेष्ठ वीरवर उग्रसेनके यहाँ जो घटना घटित होनेवाली है, उसीका मैं [ भूतकालके रूपमें] वर्णन करूँगी।
माथुर प्रदेशमें मथुरा नामकी नगरी है, वहाँ उग्रसेन नामवाले यदुवंशी राजा राज्य करते थे। वे शत्रुविजयी, सम्पूर्ण धर्मोके तत्त्वज्ञ, बलवान्, दाता और सद्गुणोंके जानकार थे। मेधावी राजा उग्रसेन धर्मपूर्वक राज्यका संचालन और प्रजाका पालन करते थे। उन्हीं दिनों परम पवित्र विदर्भदेशमें सत्यकेतु नामसे प्रसिद्ध एक प्रतापीराजा थे। उनकी एक पुत्री थी, जिसका नाम पद्मावती था। वह सत्य-धर्ममें तत्पर तथा स्त्री समुचित गुणोंसे युक्त होनेके कारण दूसरी लक्ष्मीके समान थी। मथुराके राजा उग्रसेनने उस मनोहर नेत्रोंवाली पद्मावतीसे विवाह किया। उसके स्नेह और प्रेमसे मथुरानरेश मुग्ध हो गये। पद्मावतीको वे प्राणोंके समान प्यार करने लगे। उसे साथ लिये बिना भोजनतक नहीं करते थे। उसके साथ क्रीड़ा-विलास में ही राजाका समय बीतने लगा। पद्मावतीके बिना उन्हें एक क्षण भी चैन नहीं पड़ता था। इस प्रकार उस दम्पतिमें परस्पर बड़ा प्रेम था।
कुछ कालके पश्चात् विदर्भनरेश सत्यकेतुने अपनी पुत्री पद्मावतीको स्मरण किया। उसकी माता उसे न देखनेके कारण बहुत दुःखी थी। उन्होंने मथुरानरेश उग्रसेनके पास अपने दूत भेजे। दूतोंने वहाँ जाकर आदरपूर्वक राजासे कहा 'महाराज ! विदर्भनरेश सत्यकेतुने अपनी कुशल कहलायी है और आपका कुशल- समाचार वे पूछ रहे हैं। यदि उनका प्रेम और स्नेहपूर्ण अनुरोध आपको स्वीकार हो तो राजकुमारी पद्मावतीको उनके यहाँ भेजनेकी व्यवस्था कीजिये । वे अपनी पुत्रीको देखना चाहते हैं।' नरश्रेष्ठ उग्रसेनने जब दूतोंके मुँहसे यह बात सुनी तो प्रीति, स्नेह और उदारताके कारण अपनी प्रिय पत्नी पद्मावतीको विदर्भराजके यहाँ भेज दिया। पतिके भेजनेपर पद्मावती बड़े हर्षके साथ अपने मायके गयी। वहाँ पहुँचकर उसने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया। उसके आनेसे महाराज सत्यकेतुको बड़ी प्रसन्नता हुई। पद्मावती वहाँ अपनी सखियोंके साथ निःशंक होकर घूमने लगी। पहलेकी ही भाँति घर, वन, तालाब और चौबारोंमें विचरण करने लगी। यहाँ आकर वह पुनः बालिका बन गयी; उसके बर्तावमें लाज या संकोचका भाव नहीं रहा।
एक दिनकी बात है—'पद्मावती [अपनी सखियोंके साथ] एक सुन्दर पर्वतपर सैर करनेके लिये गयी। उसकी तराईमें एक रमणीय वन दिखायी दिया, जो केलोंके उद्यानसे शोभा पा रहा था। पहाड़पर भी फूलोंकी बहार थी। राजकुमारीने देखा-एक ओर ऐसारमणीय पर्वत, दूसरी ओर मनोहर वनस्थली और बीचमें स्वच्छ जलसे भरा सर्वतोभद्र नामक तालाब है। बालोचित चपलता, नारी- स्वभाव और खेल-कूदकी रुचि - इन सबका प्रभाव उसके ऊपर पड़ा। वह महेलियोंके साथ तालाब में उत्तर पड़ी और हँसती-गाती हुई जल-क्रीड़ा करने लगी।
इसी समय कुबेरका सेवक गोभिल नामक दैत्य दिव्य विमानपर बैठकर आकाशमार्ग से कहीं जा रहा था। तालाबके ऊपर आनेपर उसकी दृष्टि विशाल नेत्रोंवाली विदर्भ- राजकुमारी पद्मावतीपर पड़ी, जो निर्भय होकर स्नान कर रही थी। गोभिलको ज्ञान-शक्ति बहुत बड़ी हुई थी, उसने निश्चित रूपसे जान लिया कि 'यह विदर्भ- नरेशकी कन्या और महाराज उग्रसेनकी प्यारी पत्नी है। परन्तु यह तो पतिव्रता होनेके कारण आत्मबल हो सुरक्षित है, परपुरुषोंके लिये इसे प्राप्त करना नितान्त कठिन है। उग्रसेन महामूर्ख है, जो उसने ऐसी सुन्दरी पत्नीको मायके भेज दिया है आह! यह पतिव्रता नारी पराये पुरुषके लिये दुर्लभ है, इधर कामदेव मुझे अत्यन्त पीड़ा दे रहा है। मैं किस प्रकार इसके निकट जाऊँ और कैसे इसका उपभोग करूँ ?' इसी उधेड़-बुनमें पड़े-पड़े उसने अपने लिये एक उपाय निकाल लिया। गोभिलने महाराज उग्रसेनका मायामय रूप धारण किया। वह ज्यों-का-त्यों उग्रसेन बन गया। वही अंग, वही उपांग, वैसे ही वस्त्र, उसी तरहका वेष और वही अवस्था पूर्णरूपसे उग्रसेन - सा होकर वह पर्वतके शिखरपर उतरा और एक अशोकवृक्षको छायामें शिलाके ऊपर बैठकर उसने मधुर स्वरसे संगीत छेड़ दिया वह गीत सम्पूर्ण विश्वको मोहित करनेवाला था ताल, लय और उत्तम स्वरसे युक्त उस मधुर गानको सखियोंके मध्यमें बैठी हुई सुन्दरी पद्मावतीने भी सुना वह सोचने लगी- कौन गायक यह गीत गा रहा है? राजकुमारीके मनमें उसे देखनेकी उत्कण्ठा हुई। उसने सखियोंके साथ जाकर देखा, अशोककी छायामें उज्ज्वल शिलाखण्डके ऊपर बैठा हुआ कोई पुरुष गा रहा है; वह महाराज उग्रसेन-सा ही जान पड़ता है।वास्तवमें तो वह राजाके वेषमें नीच दानव गोभिल ही था पद्मावती विचार करने लगी- मेरे धर्मपरायण स्वामी मथुरानरेश अपना राज्य छोड़कर इतनी दूर कब और कैसे चले आये ? वह इस प्रकार सोच ही रही थी कि उस पापीने स्वयं ही पुकारा' प्रिये ! आओ, आओ; देवि! तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकता। सुन्दरी! तुमसे अलग रहकर मेरे लिये इस प्रिय जीवनका भार वहन करना भी असम्भव हो गया है। तुम्हारे स्नेहने मुझे मोह लिया है; अतः मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं रह सकता।'
पतिरूपधारी दैत्यके ऐसा कहनेपर पद्मावती कुछ लज्जित -सी होकर उसके सामने गयी। वह पद्मावतीका हाथ पकड़कर उसे एकान्त स्थानमें ले गया और वहाँ अपनी इच्छाके अनुसार उसका उपभोग किया। महाराज उग्रसेनके गुप्त अंगमें कुछ खास निशानी थी, जो उस पुरुषमें नहीं दिखायी दी। इससे सुन्दरी पद्मावतीके मनमें उसके प्रति सन्देह उत्पन्न हुआ। राजकुमारीने अपने वस्त्र संभालकर पहन लिये; किन्तु उसके हृदयमें इस घटनासे बड़ा दुःख हुआ। वह क्रोधमें भरकर नीच दानव गोभिलसे बोली-' ओ नीच! जल्दी बता, तू कौन है? तेरा आकार दानव-जैसा है, तू पापाचारी और निर्दयी है।' यह कहते-कहते आत्मग्लानिके कारण उसकी आँखें भर आयीं। वह शाप देनेको उद्यत होकर बोली-'दुरात्मन्! तूने मेरे पतिके रूपमें आकर मेरे साथ छल किया और इस धर्ममय शरीरको अपवित्र करके मेरे उत्तम पातिव्रत्यका नाश कर डाला है। अब यहीं तू मेरा भी प्रभाव देख ले, मैं तू तुझे अत्यन्त कठोर शाप दूँगी।'
उसकी बात सुनकर गोभिलने कहा-'पतिव्रता स्त्री, भगवान् श्रीविष्णु तथा उत्तम ब्राह्मणके भयसे तो समस्त राक्षस और दानव दूर भागते हैं। मैं दानव धर्मके अनुसार ही इस पृथ्वीपर विचर रहा हूँ पहले मेरे दोषका विचार करो, किस अपराधपर तुम मुझे शाप देनेको उद्यत हुई हो ?'
पद्मावती बोली- पापी। मैं साध्वी और पतिव्रता हूँ, मेरे मनमें केवल अपने पतिकी कामनारहती है; मैं सदा उन्हींके लिये तपस्या किया करती हूँ। मैं अपने धर्ममार्गपर स्थित थी, किन्तु तूने माया रचकर मेरे धर्मके साथ ही मुझे भी नष्ट कर दिया। इसलिये रे दुष्ट! तुझे भी मैं भस्म कर डालूंगी।
गोभिल बोला- राजकुमारी यदि उचित समझो तो सुनो, मैं धर्मकी ही बात कह रहा हूँ। जो स्त्री प्रतिदिन मन, वाणी और क्रियाद्वारा अपने स्वामीकी सेवा करती है, पतिके संतुष्ट रहनेपर स्वयं भी संतोषका अनुभव करती है, पतिके क्रोधी होनेपर भी उसका त्याग नहीं करती, उसके दोषोंकी ओर ध्यान नहीं देती, उसके मारनेपर भी प्रसन्न होती है और स्वामीके सब कामों में आगे रहती है, वही नारी पतिव्रता कही गयी है। यदि स्त्री इस लोकमें अपना कल्याण करना चाहती हो तो वह पतित, रोगी, अंगहीन, कोड़ी, सब धर्मोसे रहित तथा पापी पतिका भी परित्याग न करे जो स्वामीको छोड़कर जाती और दूसरे दूसरे कामोंमें मन लगाती है, वह संसारमें सब धर्मोसे बहिष्कृत व्यभिचारिणी समझी जाती है। जो पतिकी अनुपस्थितिमें लोलुपतावश ग्राम्य-भोग तथा श्रृंगारका सेवन करती है, उसे मनुष्य कुलटा कहते हैं। मुझे वेद और शस्त्रोंद्वारा अनुमोदित धर्मका ज्ञान है। गृहस्थ धर्मका परित्याग करके पतिकी सेवा छोड़कर यहाँ किसलिये आय? इतनेपर भी अपने ही मुँहसे कहती हो मैं पतिव्रता हूँ। कर्मसे तो तुममें पातिव्रत्यका लेशमात्र भी नहीं दिखायी देता। तुम डर भय छोड़कर पर्वत और उनमें मतवाली होकर घूमती-फिरती हो, इसलिये पापिनी हो। मैंने यह महान् दण्ड देकर तुम्हें सीधी राहपर लगाया हैं-अब कभी तुमसे ऐसी धृष्टता नहीं हो सकती। बताओ तो पतिको छोड़कर किसलिये यहाँ आयी हो? यह श्रृंगार, ये आभूषण तथा यह मनोहर वेष धारण करके क्यों खड़ी हो ? पापिनी! बोलो न किसलिये और किसके लिये यह सब किया है? कहाँ है तुम्हारा पातिव्रत्य ? दिखाओ तो मेरे सामने व्यभिचारिणी स्त्रियाँके समान बर्ताव करनेवाली नारी! तुम इस समय अपने पतिसे चार सौ कोस दूर हो; कहीं हैतुम पतिको देवता मानने का भाव दुष्टा कहाँको तुम्हे लाज नहीं आती, अपने बतांवर घृणा नहीं होती? तुम क्या मेरे सामने बोलती हो कहाँ है तुम्हारी तपस्याका प्रभाव। कहाँ है तुम्हारा तेज और बल। आज ही मुझे अपना बल, वीर्य और पराक्रम दिखाओ।
पद्मावती बोली- ओ नीच असुर ! सुन; पिताने स्नेहवश मुझे पतिके घरसे बुलाया है, इसमें कहाँ पाप है। मैं काम, लोभ, मोह तथा डाहके वश पतिको छोड़कर नहीं आयी है मैं यहाँ भी पतिका चिन्तन करती हुई ही रहती हूँ। तुमने भी छलसे मेरे पतिका रूप धारण करके ही मुझे धोखा दिया है।
गोभिलने कहा- पद्मावती मेरी युक्तियुक्त बात सुनो। अंधे मनुष्योंको कुछ दिखायी नहीं देता; तुम धर्मरूपी नेत्रसे हीन हो, फिर कैसे मुझे यहाँ पहचान पातीं। जिस समय तुम्हारे मनमें पिताके घर आनेका भाव उदय हुआ, उसी समय तुम पतिकी भावना छोड़कर उनके ध्यानसे मुक्त हो गयी थीं। पतिका निरन्तर चिन्तन ही सतियोंके ज्ञानका तत्त्व है। जब वही नष्ट हो गया, जब तुम्हारे हृदयकी आँख ही फूट गयी, तब ज्ञान नेत्रसे हीन होनेपर तुम मुझे कैसे पहचानतीं।
ब्राह्मणी कहती है- प्राणनाथ ! गोभिलकी बात सुनकर राजकुमारी पद्मावती धरतीपर बैठ गयी। उसके हृदयमें बड़ा दुःख हो रहा था। गोभिलने फिर कहा 'शुभे मैंने तुम्हारे उदरमें जो अपने वीर्यकी स्थापना की है, उससे तीनों लोकोंको त्रास पहुँचानेवाला पुत्र उत्पन्न होगा।' यो कहकर वह दानव चला गया। गोभिल बड़ा दुराचारी और पापात्मा था। उसके चले जानेपर पद्मावती महान् दुःखसे अभिभूत होकर रोने लगी। रोनेका शब्द सुनकर सखियाँ उसके पास दौड़ी आयीं और पूछने लगी- राजकुमारी रोती क्यों हो? मथुरानरेश महाराज उग्रसेन कहाँ चले गये ?' पद्मावतीने अत्यन्त दुःखसे रोते-रोते अपने छले जानेकी सारी बात बता दो सहेलियाँ उसे पिताके घर ले गयीं। उस समय वह शोकसे कातर हो थर-थर काँप रही थी। सखियोंने पद्मावतीकी माताके सामने सारी घटना कह दी। सुनते ही महारानी अपने पतिके महलमें गर्यो और उनसेकन्याका सारा वृत्तान्त उन्होंने कह सुनाया। उस सुनकर • महाराज सत्यकेतुको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने सवारी और वस्त्र आदि देकर कुछ लोगोंके साथ पुत्रीको मथुरामें उसके पतिके घर भेज दिया।
धर्मात्मा राजा उग्रसेन पद्मावतीको आयी देख बहुत प्रसन्न हुए। वे रानीसे बार-बार कहने लगे 'सुन्दरी! मैं तुम्हारे बिना जीवन धारण नहीं कर सकता। प्रिये तुम अपने गुण, शील, भक्ति, सत्य और पातिव्रत्य आदि सद्गुणोंसे मुझे अत्यन्त प्रिय लगती हो।' अपनी प्यारी भार्या पद्मावतीसे यों कहकर नृपश्रेष्ठ महाराज उग्रसेन उसके साथ विहार करने लगे। सब लोगोंको भय पहुँचानेवाला उसका भयंकर गर्भ दिन-दिन बढ़ने लगा; किन्तु उस गर्भका कारण केवल पद्मावती ही जानती थी। अपने उदरमें बढ़ते हुए उस गर्भके विषयमें पद्मावतीको दिन-रात चिन्ता बनी रहती थी। दस वर्षतक वह गर्भ बढ़ता ही गया। तत्पश्चात् उसका जन्म हुआ। वही महान् तेजस्वी और महाबली कंस था, जिसके भवसे तीनों लोकोंके निवासी थर्रा उठे थे तथा जो भगवान् श्रीकृष्णके हाथसे मारा जाकर मोक्षको प्राप्त हुआ। स्वामिन्! ऐसी घटना भविष्यमें संघटित होनेवाली है. वह मैंने सुन रखा है मैंने आपसे जो कुछ कहा है, वह समस्त पुराणोंका निश्चित मत है। इस प्रकार पिताके घरमें रहनेवाली कन्या बिगड़ जाती है। अतः कन्याको घरमें रखनेका मोह नहीं करना चाहिये। यह सुदेवा बड़ी दुष्टा और महापापिनी है। अतः इसका परित्याग करके आप निश्चिन्त हो जाइये।
शूकरी कहती है-माताकी यह बात यह उत्तम सलाह सुनकर मेरे पिता द्विजश्रेष्ठ वसुदत्तने मुझे त्याग देनेका ही निश्चय किया। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा - 'दुष्टे ! कुलमें कलंक लगानेवाली दुराचारिणी ! तेरे ही अन्यायसे परम बुद्धिमान् शिवशर्मा चले गये। जहाँ तेरे स्वामी रहते हैं, वहाँ तू भी चली जा; अथवा तू जो स्थान तुझे अच्छा लगे, वहीं जा, जैसा जीमें आये, वैसा कर।' महारानीजी ! यों कहकर पिता-माता औरकुटुम्बके लोगोंने मुझे त्याग दिया। मैं तो अपनी लाज हया खो चुकी थी, शीघ्र ही वहाँसे चल दी। किन्तु कहीं भी मुझे ठहरनेके लिये स्थान और सुख नहीं मिलता था। लोग मुझे देखते ही 'यह कुलटा आयी!" कहकर दुत्कारने लगते थे।
कुल और मानसे वंचित होकर घूमती-फिरती मँ प्रान्तसे बाहर निकल गयी और गुर्जर देश (गुजरात प्रान्त) के सौराष्ट्र (प्रभास) नामक पुण्यतीर्थमें जा पहुंची, जहाँ भगवान् शिव (सोमनाथ) का मन्दिर हैं। मन्दिरके पास ही वनस्थल नामसे विख्यात एक नगर था, जिसकी उस समय बड़ी उन्नति थी। मैं भूखसे अत्यन्त पीड़ित थी, इसलिये खपरा लेकर भीख माँगने चली। परन्तु सब लोग मुझसे घृणा करते थे। 'यह पापिनी आयी [भगाओ इसे]' यों कहकर कोई भी मुझे भिक्षा नहीं देता था। इस प्रकार दुःखमय जीवन व्यतीत करती मैं बड़े भारी रोगसे पीड़ित हो गयी। उस नगरमें घूमते-घूमते मैंने एक बड़ा सुन्दर घर देखा, जहाँ वैदिक पाठशाला थी। वह घर अनेक ब्राह्मणोंसे भरा था और वहाँ सब ओर वेदमन्त्रोंकी ध्वनि हो रही थी। लक्ष्मीसे युक्त और आनन्दसे परिपूर्ण उस रमणीय गृहमें मैंनेप्रवेश किया। वह सब ओरसे मंगलमय प्रतीत होता था। मेरे पति शिवशर्माका ही वह घर था। मैं दुःखसे पीड़ित होकर बोली- भिक्षा दीजिये।' द्विजश्रेष्ठ शिवरामने भिक्षाका शब्द सुना। उनकी एक भार्या थी, जो साक्षात् लक्ष्मीके समान रूपवती थी। उसका मुख बड़ा ही सुन्दर था। वह मंगला नामसे प्रसिद्ध थी। परम बुद्धिमान् धर्मात्मा शिवशमनि मन्द मन्द मुसकराती हुई अपनी पत्नी मंगलासे कहा- 'प्रिये। वह देखो-एक दुबली-पतली स्त्री आयी है, जो भिक्षाके लिये द्वारपर खड़ी है; इसे घरमें बुलाकर भोजन दो मुझे आयी जान मंगलाका हृदय अत्यन्त करुणासे भर आया। उसने मुझ दीन-दुर्बल भिक्षुकीको मिष्टान्न भोजन कराया। मैं अपने पतिको पहचान गयी थी, उन्हें देखकर लज्जासे मेरा मस्तक झुक गया। परम सुन्दरी मंगलाने मेरे इस भावको लक्ष्य किया और स्वामीसे पूछा- 'प्राणनाथ ! यह कौन है, जो आपको देखकर लजा रही है? मुझपर कृपा करके इसका यथार्थ परिचय दीजिये।'
शिवशर्माने कहा— प्रिये ! यह विप्रवर वसुदत्तकी कन्या है। बेचारी इस समय भिक्षुकीके रूपमें यहाँ आयी है। इसका नाम सुदेवा है। यह मेरी कल्याणमयी भार्या है, जो मुझे सदा ही प्रिय रही है। किसी विशेष कारणसे यह अपना देश छोड़कर आज यहाँ आयी है, ऐसा समझकर तुम्हें इसका अच्छे ढंगसे स्वागत सत्कार करना चाहिये। यदि तुम मेरा भलीभाँति प्रिय करना चाहती हो तो इसके आदरभावमें कमी न करना।
पतिकी बात सुनकर मंगलमयी मंगला बहुत प्रसन्न हुई। उसने अपने ही हाथ मुझे स्नान कराकर उत्तम वस्त्र पहननेको दिया और स्वयं भोजन बनाकर खिलाने-पिलाने लगी। रानीजी! अपने स्वामीके द्वारा इतना सम्मान पाकर मुझे अपार दुःख हुआ। मेरे हृदयमें पश्चात्तापकी तीव्र अग्नि प्रचलित हो उठी। मैंने मंगलाके किये हुए सम्मान और अपने दुष्कर्मकी ओर देखा; इससे मनमें दुःसह चिन्ता हुई, यहाँतक कि प्राण जानेकी नौबतआ गयी। मैं ऐसी पापिनी थी कि पतिसे कभी मीठे वचनतक नहीं बोली। उलटे उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके विपरीत बुरे कर्मोंका ही आचरण करती रही। इस प्रकार चिन्ता करते-करते मेरा हृदय फट गया और प्राण शरीर छोड़कर चल बसे।
तदनन्तर यमराजके दूत आये और मुझे साँकलके दृढ़ बन्धनमें बाँधकर यमपुरीको ले चले। मार्गमें जब मैं अत्यन्ना दुःखी होकर रोती तब वे मुझे मुगदरोंसे पीटने और दुर्गम मार्गसे से जाकर कष्ट पहुँचाते थे। बीच बीचमें मुझे फटकारें भी सुनाते जाते थे। उन्होंने मुझे यमराजके सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। महात्मा यमराजने बड़ी क्रोधपूर्ण दृष्टिसे मेरी ओर देखा और मुझे अंगारोंकी ढेरीमें फेंकवा दिया। उसके बाद मैं कई नरकोंमें डाली गयी। मैंने अपने स्वामीके साथ धोखा किया था, इसलिये एक लोहेका पुरुष बनाकर उसे आगसे तपाया गया और वह मेरी छातीपर सुला दिया गया। नरककी प्रचण्ड आगमें तपायी जानेपर मैं नाना प्रकारको पीड़ाओंसे अत्यन्त कष्ट पाने लगी। असिपत्र वनमें पड़कर मेरा सारा शरीर छिन्न-भिन्न हो गया। फिर मैं पीब, रक्त और विष्ठामें डाली गयी।कीड़ोंसे भरे हुए कुण्डमें रहना पड़ा। आरीसे मुझे चीरा गया। शक्ति नामक अस्त्रका भलीभाँति मुझपर प्रहार किया गया। दूसरे- दूसरे नरकोंमें भी मैं गिरायी गयी। अनेक योनियोंमें जन्म लेकर मुझे असह्य दुःख भोगना पड़ा। पहले सियारकी योनिमें पड़ी, फिर कुत्तेकी योनिमें जन्म लिया। तत्पश्चात् क्रमशः साँप, मुर्गे, बिल्ली और चूहेकी योनिमें जाना पड़ा। इस प्रकार धर्मराजने पीड़ा देनेवाली प्रायः सभी पापयोनियोंमें मुझे डाला। उन्होंने ही मुझे इस भूतलपर शूकरी बनाया है। महाभागे तुम्हारे हाथमें अनेक तीर्थोंका वास है। देवि ! तुमने अपने हाथके जलसे मुझे सींचा है, इसलिये तुम्हारी कृपासे मेरा सब पाप दूर हो गया। तुम्हारे तेज और पुण्यसे मुझे अपने पूर्वजन्मकी बातोंका ज्ञान हुआ है। रानीजी ! इस समय संसारमें केवल तुम्हीं सबसे बड़ी पतिव्रता हो। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि तुमने अपने स्वामीकी बहुत बड़ी सेवा की है। सुन्दरी यदि मेरा प्रिय करना चाहती हो तो अपने एक दिनकी प्रतिसेवाका पुण्य मुझे अर्पण कर दो। इस समय तुम्हीं मेरी माता, पिता और सनातन गुरु हो। मैं पापिनी, दुराचारिणी, असत्यवादिनी और ज्ञानहीना हूँ। महाभागे ! मेरा उद्धार करो।
सुकला बोली- सखियो ! शूकरीकी यह बात सुनकर रानी सुदेवाने राजा इक्ष्वाकुकी ओर देखकर पूछा - 'महाराज ! मैं क्या करूँ? यह शूकरी क्या कहती है ?'
इक्ष्वाकुने कहा- शुभे। यह बेचारी पाप-योनिमेंपड़कर दुःख उठा रही है; तुम अपने पुण्योंसे इसका उद्धार करो, इससे महान् कल्याण होगा। महाराजकी आज्ञा लेकर रानी सुदेवाने शूकरीसे कहा—'देवि! मैंने अपना एक वर्षका पुण्य तुम्हें अर्पण किया।' रानी सुदेवाके इतना कहते ही वह शूकरी तत्काल दिव्य देह धारण कर प्रकट हुई। उसके शरीरसे तेजकी ज्वाला निकल रही थी। सब प्रकारके आभूषण और भाँति-भाँतिके रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह साध्वी दिव्यरूपसे युक्त दिव्य विमानपर बैठी और अन्तरिक्ष लोकको चलने लगी। जाते समय उसने मस्तक झुकाकर रानीको प्रणाम किया और कहा - 'महाभागे ! तुम्हारी कृपासे आज मैं पापमुक्त होकर परम पवित्र एवं मंगलमय वैकुण्ठको जा रही हूँ।' यों कहकर वह वैकुण्ठको चली गयी।
सुकला कहने लगी- इस प्रकार पहले मैंने पुराणोंमें नारीधर्मका वर्णन सुना है। ऐसी दशामें जब पतिदेव यहाँ उपस्थित नहीं हैं, मैं किस प्रकार भोगोंका उपभोग करूँ। मेरे लिये ऐसा विचार निश्चय ही पापपूर्ण होगा।
सुकलाके मुखसे इस प्रकार उत्तम पातिव्रत्य धर्मका वर्णन सुनकर सखियोंको बड़ा हर्ष हुआ । नारियोंको सद्गति प्रदान करनेवाले उस परम पवित्र धर्मका श्रवण करके समस्त ब्राह्मण और पुण्यवती स्त्रियाँ धर्मानुरागिणी महाभागा सुकलाकी प्रशंसा करने लगीं।