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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 64 - Khand 2, Adhyaya 64

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शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार

शुकरी बोली- कलिंग (उड़ीसा) नाम प्रसिद्ध एक सुन्दर देश है, वहाँ श्रीपुर नामका एक नगर था। उसमें वसुदत्त नामके एक ब्राह्मण निवास करते थे। ये सदा सत्यधर्ममें तत्पर, वेदवेत्ता, ज्ञानी, तेजस्वी, गुणवान् और धन-धान्यसे भरे-पूरे थे। अनेक पुत्र-पौत्र उनके घरकी शोभा बढ़ाते थे मैं वसुदत्तकी पुत्री थी मेरे और भी कई भाई, स्वजन तथा बान्धव थे। परम बुद्धिमान् पिताने मेरा नाम सुदेवा रखा। मैं अप्रतिम सुन्दरी थी। संसारमें दूसरी कोई स्त्री ऐसी नहीं थी, जो रूपमें मेरी समानता कर सके। रूपके साथ ही चढ़ती जवानी पाकर मैं गर्वसे उन्मत्त हो उठी। मेरी मुसकान बड़ी मनोहर थी। बचपनके बाद जब मुझे हाव-भावसे युक्त यौवन प्राप्त हुआ, तब मेरा भरा-पूरा रूप देखकर मेरी माताको बड़ा दुःख हुआ। वह पितासे बोलो - 'महाभाग! आप कन्याका विवाह क्यों नहीं कर देते? अब यह जवान हो चुकी है, इसे किसी योग्य वरको सौंप दीजिये।' वसुदत्तने कहा- 'कल्याणी । सुनो; मैं उसी वरके साथ इसका विवाह करूँगा, जो विवाहके पश्चात् मेरे ही घरपर निवास करे, क्योंकि सुदेवा मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी है। मैं इसे आँखोंसे ओट नहीं होने देना चाहता।

तदनन्तर एक दिन सम्पूर्ण विद्याओंमें विशारद एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण भिक्षाके लिये मेरे द्वारपर आये। उन्होंने वेदोंका पूर्ण अध्ययन किया था। वे बड़े अच्छे स्वरसे वेद-मन्त्रोंका उच्चारण करते थे। उन्हें आया देख मेरे पिताने पूछा- 'आप कौन हैं? आपका नाम, कुल, गोत्र और आचार क्या है? यह बताइये।' पिताकी बात सुनकर ब्राह्मण कुमारने उत्तर दिया- 'कौशिकवंशमें मेरा जन्म हुआ है। मैं वेद-वेदांगोंका पारंगत विद्वान् हूँ, मेरा नाम शिवशर्मा है; मेरे माता-पिता अब इस संसारमें नहीं हैं।" शिवशर्माने जब इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब मेरे पिताने शुभ लग्न में उनके साथ मेरा विवाहकर दिया। अब उनके साथ ही मैं पिताके घरपर रहने लगी। परन्तु मैं माता-पिताके धनके घमंडसे अपनी विवेकशक्ति खो बैठी थी। मुझ पापिनीने कभी भी अपने स्वामीकी सेवा नहीं की। मैं सदा उन्हें क्रूर दृष्टिसे ही देखा करती थी। कुछ व्यभिचारिणी स्त्रियोंका साथ हो गया था, अतः संग-दोषसे मेरे मनमें भी वैसा ही नीच भाव आ गया था। मैं जहाँ-तहाँ स्वच्छन्दतापूर्वक घूमती-फिरती और माता-पिता, पति तथा भाइयोंके हितकी परवा नहीं करती थी। शिवशर्माका शील और उनकी साधुता सबको ज्ञात थी, अतः माता-पिता आदि सब लोग मेरे पापसे दुःखी रहते थे। मेरा दुष्कर्म देख पतिदेव उस घरको छोड़कर चले गये। उनके जानेसे पिताजीको बड़ी चिन्ता हुई। उन्हें दुःखसे व्याकुल देख माताने पूछा- 'नाथ! आप चिन्तित क्यों हो रहे हैं?' वसुदत्तने कहा- 'प्रिये! सुनो, दामाद मेरी पुत्रीको त्यागकर चले गये। सुदेवा पापाचारिणी है और वे पण्डित तथा बुद्धिमान् थे मैं क्या जानता था कि यह मेरी कन्या सुदेवा ऐसी दुष्टा और कुलनाशिनी होगी।'

ब्राह्मणी बोली- नाथ! आज आपको पुत्रीके गुण और दोषका ज्ञान हुआ है-इस समय आपकी आँखें खुली हैं; किन्तु सच तो यह है कि आपके ही मोह और स्नेहसे लाड़ और प्यारसे यह इस प्रकार बिगड़ी है। अब मेरी बात सुनिये- सन्तान जबतक पाँच वर्षकी न हो जाय, तभीतक उसका लाड़-प्यार करना चाहिये। उसके बाद सदा सन्तानकी शिक्षाकी ओर ध्यान देते हुए उसका पालन पोषण करना उचित है। नहलाना-धुलाना, उत्तम वस्त्र पहनाना, अच्छे खान-पानका प्रबन्ध करना-ये सब बातें सन्तानकी पुष्टिके लिये आवश्यक है। साथ ही पुत्रोंको उत्तम गुण और विद्याकी ओर भी लगाना चाहिये। पिताका कर्तव्य है कि वह सन्तानको सद्गुणोंकी शिक्षा देनेके लिये सदा कठोर बना रहे। केवल पालन-पोषणके लिये उसके प्रति मोह-ममतारखे । पुत्रके सामने कदापि उसके गुणोंका वर्णन न करे उसे राहपर लानेके लिये कड़ी फटकार सुनाये तथा इस प्रकार उसे साधे, जिससे वह विद्या और गुणोंमें सदा ही निपुण होता जाय। जब माता अपनी कन्याको, सास अपनी पुत्र वधूको और गुरु अपने शिष्योंको ताड़ना देता है, तभी वे सीधे होते हैं। इसी प्रकार पति अपनी पत्नीको और राजा अपने मन्त्रीको दोषोंके लिये कड़ी फटकार सुनायें। शिक्षा - बुद्धिसे ताड़न और पालन करनेपर सन्तान सद्गुणोंद्वारा प्रसिद्धि लाभ करती है।

शिवशर्मा उत्तम ब्राह्मण थे। उनके साथ रहनेपर भी इस कन्याको आपने घरमें निरंकुश स्वच्छन्द बना रखा था। इसीसे उच्छृंखल हो जानेके कारण यह नष्ट हुई है। पुत्री अपने पिताके घरमें रहकर जो पाप करती है, उसका फल माता-पिताको भी भोगना पड़ता है; इसलिये समर्थ पुत्रीको अपने घरमें नहीं रखना चाहिये। जिससे उसका ब्याह किया गया है, उसीके घरमें उसका पालन-पोषण होना उचित है। वहाँ रहकर वह भक्तिपूर्वक जो उत्तम गुण सीखती और पतिकी सेवा करती है, उससे कुलकी कीर्ति बढ़ती है और पिता भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। ससुरालमें रहकर यदि वह पाप करती है तो उसका फल पतिको भोगना पड़ता है। यहाँ सदाचारपूर्वक रहनेसे वह सदा पुत्र-पौत्रोंके साथ वृद्धिको प्राप्त होती है। प्राणनाथ ! पुत्रीके उत्तम गुणोंसे पिताकी कीर्ति बढ़ती है। इसलिये दामाद के साथ भी कन्याको अपने घर नहीं रखना चाहिये। इस विषयमें एक पौराणिक इतिहास सुना जाता है, जो अट्ठाईसवें द्वापरके आनेपर संघटित होनेवाला है यदुकुलश्रेष्ठ वीरवर उग्रसेनके यहाँ जो घटना घटित होनेवाली है, उसीका मैं [ भूतकालके रूपमें] वर्णन करूँगी।

माथुर प्रदेशमें मथुरा नामकी नगरी है, वहाँ उग्रसेन नामवाले यदुवंशी राजा राज्य करते थे। वे शत्रुविजयी, सम्पूर्ण धर्मोके तत्त्वज्ञ, बलवान्, दाता और सद्गुणोंके जानकार थे। मेधावी राजा उग्रसेन धर्मपूर्वक राज्यका संचालन और प्रजाका पालन करते थे। उन्हीं दिनों परम पवित्र विदर्भदेशमें सत्यकेतु नामसे प्रसिद्ध एक प्रतापीराजा थे। उनकी एक पुत्री थी, जिसका नाम पद्मावती था। वह सत्य-धर्ममें तत्पर तथा स्त्री समुचित गुणोंसे युक्त होनेके कारण दूसरी लक्ष्मीके समान थी। मथुराके राजा उग्रसेनने उस मनोहर नेत्रोंवाली पद्मावतीसे विवाह किया। उसके स्नेह और प्रेमसे मथुरानरेश मुग्ध हो गये। पद्मावतीको वे प्राणोंके समान प्यार करने लगे। उसे साथ लिये बिना भोजनतक नहीं करते थे। उसके साथ क्रीड़ा-विलास में ही राजाका समय बीतने लगा। पद्मावतीके बिना उन्हें एक क्षण भी चैन नहीं पड़ता था। इस प्रकार उस दम्पतिमें परस्पर बड़ा प्रेम था।

कुछ कालके पश्चात् विदर्भनरेश सत्यकेतुने अपनी पुत्री पद्मावतीको स्मरण किया। उसकी माता उसे न देखनेके कारण बहुत दुःखी थी। उन्होंने मथुरानरेश उग्रसेनके पास अपने दूत भेजे। दूतोंने वहाँ जाकर आदरपूर्वक राजासे कहा 'महाराज ! विदर्भनरेश सत्यकेतुने अपनी कुशल कहलायी है और आपका कुशल- समाचार वे पूछ रहे हैं। यदि उनका प्रेम और स्नेहपूर्ण अनुरोध आपको स्वीकार हो तो राजकुमारी पद्मावतीको उनके यहाँ भेजनेकी व्यवस्था कीजिये । वे अपनी पुत्रीको देखना चाहते हैं।' नरश्रेष्ठ उग्रसेनने जब दूतोंके मुँहसे यह बात सुनी तो प्रीति, स्नेह और उदारताके कारण अपनी प्रिय पत्नी पद्मावतीको विदर्भराजके यहाँ भेज दिया। पतिके भेजनेपर पद्मावती बड़े हर्षके साथ अपने मायके गयी। वहाँ पहुँचकर उसने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया। उसके आनेसे महाराज सत्यकेतुको बड़ी प्रसन्नता हुई। पद्मावती वहाँ अपनी सखियोंके साथ निःशंक होकर घूमने लगी। पहलेकी ही भाँति घर, वन, तालाब और चौबारोंमें विचरण करने लगी। यहाँ आकर वह पुनः बालिका बन गयी; उसके बर्तावमें लाज या संकोचका भाव नहीं रहा।

एक दिनकी बात है—'पद्मावती [अपनी सखियोंके साथ] एक सुन्दर पर्वतपर सैर करनेके लिये गयी। उसकी तराईमें एक रमणीय वन दिखायी दिया, जो केलोंके उद्यानसे शोभा पा रहा था। पहाड़पर भी फूलोंकी बहार थी। राजकुमारीने देखा-एक ओर ऐसारमणीय पर्वत, दूसरी ओर मनोहर वनस्थली और बीचमें स्वच्छ जलसे भरा सर्वतोभद्र नामक तालाब है। बालोचित चपलता, नारी- स्वभाव और खेल-कूदकी रुचि - इन सबका प्रभाव उसके ऊपर पड़ा। वह महेलियोंके साथ तालाब में उत्तर पड़ी और हँसती-गाती हुई जल-क्रीड़ा करने लगी।

इसी समय कुबेरका सेवक गोभिल नामक दैत्य दिव्य विमानपर बैठकर आकाशमार्ग से कहीं जा रहा था। तालाबके ऊपर आनेपर उसकी दृष्टि विशाल नेत्रोंवाली विदर्भ- राजकुमारी पद्मावतीपर पड़ी, जो निर्भय होकर स्नान कर रही थी। गोभिलको ज्ञान-शक्ति बहुत बड़ी हुई थी, उसने निश्चित रूपसे जान लिया कि 'यह विदर्भ- नरेशकी कन्या और महाराज उग्रसेनकी प्यारी पत्नी है। परन्तु यह तो पतिव्रता होनेके कारण आत्मबल हो सुरक्षित है, परपुरुषोंके लिये इसे प्राप्त करना नितान्त कठिन है। उग्रसेन महामूर्ख है, जो उसने ऐसी सुन्दरी पत्नीको मायके भेज दिया है आह! यह पतिव्रता नारी पराये पुरुषके लिये दुर्लभ है, इधर कामदेव मुझे अत्यन्त पीड़ा दे रहा है। मैं किस प्रकार इसके निकट जाऊँ और कैसे इसका उपभोग करूँ ?' इसी उधेड़-बुनमें पड़े-पड़े उसने अपने लिये एक उपाय निकाल लिया। गोभिलने महाराज उग्रसेनका मायामय रूप धारण किया। वह ज्यों-का-त्यों उग्रसेन बन गया। वही अंग, वही उपांग, वैसे ही वस्त्र, उसी तरहका वेष और वही अवस्था पूर्णरूपसे उग्रसेन - सा होकर वह पर्वतके शिखरपर उतरा और एक अशोकवृक्षको छायामें शिलाके ऊपर बैठकर उसने मधुर स्वरसे संगीत छेड़ दिया वह गीत सम्पूर्ण विश्वको मोहित करनेवाला था ताल, लय और उत्तम स्वरसे युक्त उस मधुर गानको सखियोंके मध्यमें बैठी हुई सुन्दरी पद्मावतीने भी सुना वह सोचने लगी- कौन गायक यह गीत गा रहा है? राजकुमारीके मनमें उसे देखनेकी उत्कण्ठा हुई। उसने सखियोंके साथ जाकर देखा, अशोककी छायामें उज्ज्वल शिलाखण्डके ऊपर बैठा हुआ कोई पुरुष गा रहा है; वह महाराज उग्रसेन-सा ही जान पड़ता है।वास्तवमें तो वह राजाके वेषमें नीच दानव गोभिल ही था पद्मावती विचार करने लगी- मेरे धर्मपरायण स्वामी मथुरानरेश अपना राज्य छोड़कर इतनी दूर कब और कैसे चले आये ? वह इस प्रकार सोच ही रही थी कि उस पापीने स्वयं ही पुकारा' प्रिये ! आओ, आओ; देवि! तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकता। सुन्दरी! तुमसे अलग रहकर मेरे लिये इस प्रिय जीवनका भार वहन करना भी असम्भव हो गया है। तुम्हारे स्नेहने मुझे मोह लिया है; अतः मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं रह सकता।'

पतिरूपधारी दैत्यके ऐसा कहनेपर पद्मावती कुछ लज्जित -सी होकर उसके सामने गयी। वह पद्मावतीका हाथ पकड़कर उसे एकान्त स्थानमें ले गया और वहाँ अपनी इच्छाके अनुसार उसका उपभोग किया। महाराज उग्रसेनके गुप्त अंगमें कुछ खास निशानी थी, जो उस पुरुषमें नहीं दिखायी दी। इससे सुन्दरी पद्मावतीके मनमें उसके प्रति सन्देह उत्पन्न हुआ। राजकुमारीने अपने वस्त्र संभालकर पहन लिये; किन्तु उसके हृदयमें इस घटनासे बड़ा दुःख हुआ। वह क्रोधमें भरकर नीच दानव गोभिलसे बोली-' ओ नीच! जल्दी बता, तू कौन है? तेरा आकार दानव-जैसा है, तू पापाचारी और निर्दयी है।' यह कहते-कहते आत्मग्लानिके कारण उसकी आँखें भर आयीं। वह शाप देनेको उद्यत होकर बोली-'दुरात्मन्! तूने मेरे पतिके रूपमें आकर मेरे साथ छल किया और इस धर्ममय शरीरको अपवित्र करके मेरे उत्तम पातिव्रत्यका नाश कर डाला है। अब यहीं तू मेरा भी प्रभाव देख ले, मैं तू तुझे अत्यन्त कठोर शाप दूँगी।'

उसकी बात सुनकर गोभिलने कहा-'पतिव्रता स्त्री, भगवान् श्रीविष्णु तथा उत्तम ब्राह्मणके भयसे तो समस्त राक्षस और दानव दूर भागते हैं। मैं दानव धर्मके अनुसार ही इस पृथ्वीपर विचर रहा हूँ पहले मेरे दोषका विचार करो, किस अपराधपर तुम मुझे शाप देनेको उद्यत हुई हो ?'

पद्मावती बोली- पापी। मैं साध्वी और पतिव्रता हूँ, मेरे मनमें केवल अपने पतिकी कामनारहती है; मैं सदा उन्हींके लिये तपस्या किया करती हूँ। मैं अपने धर्ममार्गपर स्थित थी, किन्तु तूने माया रचकर मेरे धर्मके साथ ही मुझे भी नष्ट कर दिया। इसलिये रे दुष्ट! तुझे भी मैं भस्म कर डालूंगी।

गोभिल बोला- राजकुमारी यदि उचित समझो तो सुनो, मैं धर्मकी ही बात कह रहा हूँ। जो स्त्री प्रतिदिन मन, वाणी और क्रियाद्वारा अपने स्वामीकी सेवा करती है, पतिके संतुष्ट रहनेपर स्वयं भी संतोषका अनुभव करती है, पतिके क्रोधी होनेपर भी उसका त्याग नहीं करती, उसके दोषोंकी ओर ध्यान नहीं देती, उसके मारनेपर भी प्रसन्न होती है और स्वामीके सब कामों में आगे रहती है, वही नारी पतिव्रता कही गयी है। यदि स्त्री इस लोकमें अपना कल्याण करना चाहती हो तो वह पतित, रोगी, अंगहीन, कोड़ी, सब धर्मोसे रहित तथा पापी पतिका भी परित्याग न करे जो स्वामीको छोड़कर जाती और दूसरे दूसरे कामोंमें मन लगाती है, वह संसारमें सब धर्मोसे बहिष्कृत व्यभिचारिणी समझी जाती है। जो पतिकी अनुपस्थितिमें लोलुपतावश ग्राम्य-भोग तथा श्रृंगारका सेवन करती है, उसे मनुष्य कुलटा कहते हैं। मुझे वेद और शस्त्रोंद्वारा अनुमोदित धर्मका ज्ञान है। गृहस्थ धर्मका परित्याग करके पतिकी सेवा छोड़कर यहाँ किसलिये आय? इतनेपर भी अपने ही मुँहसे कहती हो मैं पतिव्रता हूँ। कर्मसे तो तुममें पातिव्रत्यका लेशमात्र भी नहीं दिखायी देता। तुम डर भय छोड़कर पर्वत और उनमें मतवाली होकर घूमती-फिरती हो, इसलिये पापिनी हो। मैंने यह महान् दण्ड देकर तुम्हें सीधी राहपर लगाया हैं-अब कभी तुमसे ऐसी धृष्टता नहीं हो सकती। बताओ तो पतिको छोड़कर किसलिये यहाँ आयी हो? यह श्रृंगार, ये आभूषण तथा यह मनोहर वेष धारण करके क्यों खड़ी हो ? पापिनी! बोलो न किसलिये और किसके लिये यह सब किया है? कहाँ है तुम्हारा पातिव्रत्य ? दिखाओ तो मेरे सामने व्यभिचारिणी स्त्रियाँके समान बर्ताव करनेवाली नारी! तुम इस समय अपने पतिसे चार सौ कोस दूर हो; कहीं हैतुम पतिको देवता मानने का भाव दुष्टा कहाँको तुम्हे लाज नहीं आती, अपने बतांवर घृणा नहीं होती? तुम क्या मेरे सामने बोलती हो कहाँ है तुम्हारी तपस्याका प्रभाव। कहाँ है तुम्हारा तेज और बल। आज ही मुझे अपना बल, वीर्य और पराक्रम दिखाओ।

पद्मावती बोली- ओ नीच असुर ! सुन; पिताने स्नेहवश मुझे पतिके घरसे बुलाया है, इसमें कहाँ पाप है। मैं काम, लोभ, मोह तथा डाहके वश पतिको छोड़कर नहीं आयी है मैं यहाँ भी पतिका चिन्तन करती हुई ही रहती हूँ। तुमने भी छलसे मेरे पतिका रूप धारण करके ही मुझे धोखा दिया है।

गोभिलने कहा- पद्मावती मेरी युक्तियुक्त बात सुनो। अंधे मनुष्योंको कुछ दिखायी नहीं देता; तुम धर्मरूपी नेत्रसे हीन हो, फिर कैसे मुझे यहाँ पहचान पातीं। जिस समय तुम्हारे मनमें पिताके घर आनेका भाव उदय हुआ, उसी समय तुम पतिकी भावना छोड़कर उनके ध्यानसे मुक्त हो गयी थीं। पतिका निरन्तर चिन्तन ही सतियोंके ज्ञानका तत्त्व है। जब वही नष्ट हो गया, जब तुम्हारे हृदयकी आँख ही फूट गयी, तब ज्ञान नेत्रसे हीन होनेपर तुम मुझे कैसे पहचानतीं।

ब्राह्मणी कहती है- प्राणनाथ ! गोभिलकी बात सुनकर राजकुमारी पद्मावती धरतीपर बैठ गयी। उसके हृदयमें बड़ा दुःख हो रहा था। गोभिलने फिर कहा 'शुभे मैंने तुम्हारे उदरमें जो अपने वीर्यकी स्थापना की है, उससे तीनों लोकोंको त्रास पहुँचानेवाला पुत्र उत्पन्न होगा।' यो कहकर वह दानव चला गया। गोभिल बड़ा दुराचारी और पापात्मा था। उसके चले जानेपर पद्मावती महान् दुःखसे अभिभूत होकर रोने लगी। रोनेका शब्द सुनकर सखियाँ उसके पास दौड़ी आयीं और पूछने लगी- राजकुमारी रोती क्यों हो? मथुरानरेश महाराज उग्रसेन कहाँ चले गये ?' पद्मावतीने अत्यन्त दुःखसे रोते-रोते अपने छले जानेकी सारी बात बता दो सहेलियाँ उसे पिताके घर ले गयीं। उस समय वह शोकसे कातर हो थर-थर काँप रही थी। सखियोंने पद्मावतीकी माताके सामने सारी घटना कह दी। सुनते ही महारानी अपने पतिके महलमें गर्यो और उनसेकन्याका सारा वृत्तान्त उन्होंने कह सुनाया। उस सुनकर • महाराज सत्यकेतुको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने सवारी और वस्त्र आदि देकर कुछ लोगोंके साथ पुत्रीको मथुरामें उसके पतिके घर भेज दिया।

धर्मात्मा राजा उग्रसेन पद्मावतीको आयी देख बहुत प्रसन्न हुए। वे रानीसे बार-बार कहने लगे 'सुन्दरी! मैं तुम्हारे बिना जीवन धारण नहीं कर सकता। प्रिये तुम अपने गुण, शील, भक्ति, सत्य और पातिव्रत्य आदि सद्गुणोंसे मुझे अत्यन्त प्रिय लगती हो।' अपनी प्यारी भार्या पद्मावतीसे यों कहकर नृपश्रेष्ठ महाराज उग्रसेन उसके साथ विहार करने लगे। सब लोगोंको भय पहुँचानेवाला उसका भयंकर गर्भ दिन-दिन बढ़ने लगा; किन्तु उस गर्भका कारण केवल पद्मावती ही जानती थी। अपने उदरमें बढ़ते हुए उस गर्भके विषयमें पद्मावतीको दिन-रात चिन्ता बनी रहती थी। दस वर्षतक वह गर्भ बढ़ता ही गया। तत्पश्चात् उसका जन्म हुआ। वही महान् तेजस्वी और महाबली कंस था, जिसके भवसे तीनों लोकोंके निवासी थर्रा उठे थे तथा जो भगवान् श्रीकृष्णके हाथसे मारा जाकर मोक्षको प्राप्त हुआ। स्वामिन्! ऐसी घटना भविष्यमें संघटित होनेवाली है. वह मैंने सुन रखा है मैंने आपसे जो कुछ कहा है, वह समस्त पुराणोंका निश्चित मत है। इस प्रकार पिताके घरमें रहनेवाली कन्या बिगड़ जाती है। अतः कन्याको घरमें रखनेका मोह नहीं करना चाहिये। यह सुदेवा बड़ी दुष्टा और महापापिनी है। अतः इसका परित्याग करके आप निश्चिन्त हो जाइये।

शूकरी कहती है-माताकी यह बात यह उत्तम सलाह सुनकर मेरे पिता द्विजश्रेष्ठ वसुदत्तने मुझे त्याग देनेका ही निश्चय किया। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा - 'दुष्टे ! कुलमें कलंक लगानेवाली दुराचारिणी ! तेरे ही अन्यायसे परम बुद्धिमान् शिवशर्मा चले गये। जहाँ तेरे स्वामी रहते हैं, वहाँ तू भी चली जा; अथवा तू जो स्थान तुझे अच्छा लगे, वहीं जा, जैसा जीमें आये, वैसा कर।' महारानीजी ! यों कहकर पिता-माता औरकुटुम्बके लोगोंने मुझे त्याग दिया। मैं तो अपनी लाज हया खो चुकी थी, शीघ्र ही वहाँसे चल दी। किन्तु कहीं भी मुझे ठहरनेके लिये स्थान और सुख नहीं मिलता था। लोग मुझे देखते ही 'यह कुलटा आयी!" कहकर दुत्कारने लगते थे।

कुल और मानसे वंचित होकर घूमती-फिरती मँ प्रान्तसे बाहर निकल गयी और गुर्जर देश (गुजरात प्रान्त) के सौराष्ट्र (प्रभास) नामक पुण्यतीर्थमें जा पहुंची, जहाँ भगवान् शिव (सोमनाथ) का मन्दिर हैं। मन्दिरके पास ही वनस्थल नामसे विख्यात एक नगर था, जिसकी उस समय बड़ी उन्नति थी। मैं भूखसे अत्यन्त पीड़ित थी, इसलिये खपरा लेकर भीख माँगने चली। परन्तु सब लोग मुझसे घृणा करते थे। 'यह पापिनी आयी [भगाओ इसे]' यों कहकर कोई भी मुझे भिक्षा नहीं देता था। इस प्रकार दुःखमय जीवन व्यतीत करती मैं बड़े भारी रोगसे पीड़ित हो गयी। उस नगरमें घूमते-घूमते मैंने एक बड़ा सुन्दर घर देखा, जहाँ वैदिक पाठशाला थी। वह घर अनेक ब्राह्मणोंसे भरा था और वहाँ सब ओर वेदमन्त्रोंकी ध्वनि हो रही थी। लक्ष्मीसे युक्त और आनन्दसे परिपूर्ण उस रमणीय गृहमें मैंनेप्रवेश किया। वह सब ओरसे मंगलमय प्रतीत होता था। मेरे पति शिवशर्माका ही वह घर था। मैं दुःखसे पीड़ित होकर बोली- भिक्षा दीजिये।' द्विजश्रेष्ठ शिवरामने भिक्षाका शब्द सुना। उनकी एक भार्या थी, जो साक्षात् लक्ष्मीके समान रूपवती थी। उसका मुख बड़ा ही सुन्दर था। वह मंगला नामसे प्रसिद्ध थी। परम बुद्धिमान् धर्मात्मा शिवशमनि मन्द मन्द मुसकराती हुई अपनी पत्नी मंगलासे कहा- 'प्रिये। वह देखो-एक दुबली-पतली स्त्री आयी है, जो भिक्षाके लिये द्वारपर खड़ी है; इसे घरमें बुलाकर भोजन दो मुझे आयी जान मंगलाका हृदय अत्यन्त करुणासे भर आया। उसने मुझ दीन-दुर्बल भिक्षुकीको मिष्टान्न भोजन कराया। मैं अपने पतिको पहचान गयी थी, उन्हें देखकर लज्जासे मेरा मस्तक झुक गया। परम सुन्दरी मंगलाने मेरे इस भावको लक्ष्य किया और स्वामीसे पूछा- 'प्राणनाथ ! यह कौन है, जो आपको देखकर लजा रही है? मुझपर कृपा करके इसका यथार्थ परिचय दीजिये।'

शिवशर्माने कहा— प्रिये ! यह विप्रवर वसुदत्तकी कन्या है। बेचारी इस समय भिक्षुकीके रूपमें यहाँ आयी है। इसका नाम सुदेवा है। यह मेरी कल्याणमयी भार्या है, जो मुझे सदा ही प्रिय रही है। किसी विशेष कारणसे यह अपना देश छोड़कर आज यहाँ आयी है, ऐसा समझकर तुम्हें इसका अच्छे ढंगसे स्वागत सत्कार करना चाहिये। यदि तुम मेरा भलीभाँति प्रिय करना चाहती हो तो इसके आदरभावमें कमी न करना।

पतिकी बात सुनकर मंगलमयी मंगला बहुत प्रसन्न हुई। उसने अपने ही हाथ मुझे स्नान कराकर उत्तम वस्त्र पहननेको दिया और स्वयं भोजन बनाकर खिलाने-पिलाने लगी। रानीजी! अपने स्वामीके द्वारा इतना सम्मान पाकर मुझे अपार दुःख हुआ। मेरे हृदयमें पश्चात्तापकी तीव्र अग्नि प्रचलित हो उठी। मैंने मंगलाके किये हुए सम्मान और अपने दुष्कर्मकी ओर देखा; इससे मनमें दुःसह चिन्ता हुई, यहाँतक कि प्राण जानेकी नौबतआ गयी। मैं ऐसी पापिनी थी कि पतिसे कभी मीठे वचनतक नहीं बोली। उलटे उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके विपरीत बुरे कर्मोंका ही आचरण करती रही। इस प्रकार चिन्ता करते-करते मेरा हृदय फट गया और प्राण शरीर छोड़कर चल बसे।

तदनन्तर यमराजके दूत आये और मुझे साँकलके दृढ़ बन्धनमें बाँधकर यमपुरीको ले चले। मार्गमें जब मैं अत्यन्ना दुःखी होकर रोती तब वे मुझे मुगदरोंसे पीटने और दुर्गम मार्गसे से जाकर कष्ट पहुँचाते थे। बीच बीचमें मुझे फटकारें भी सुनाते जाते थे। उन्होंने मुझे यमराजके सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। महात्मा यमराजने बड़ी क्रोधपूर्ण दृष्टिसे मेरी ओर देखा और मुझे अंगारोंकी ढेरीमें फेंकवा दिया। उसके बाद मैं कई नरकोंमें डाली गयी। मैंने अपने स्वामीके साथ धोखा किया था, इसलिये एक लोहेका पुरुष बनाकर उसे आगसे तपाया गया और वह मेरी छातीपर सुला दिया गया। नरककी प्रचण्ड आगमें तपायी जानेपर मैं नाना प्रकारको पीड़ाओंसे अत्यन्त कष्ट पाने लगी। असिपत्र वनमें पड़कर मेरा सारा शरीर छिन्न-भिन्न हो गया। फिर मैं पीब, रक्त और विष्ठामें डाली गयी।कीड़ोंसे भरे हुए कुण्डमें रहना पड़ा। आरीसे मुझे चीरा गया। शक्ति नामक अस्त्रका भलीभाँति मुझपर प्रहार किया गया। दूसरे- दूसरे नरकोंमें भी मैं गिरायी गयी। अनेक योनियोंमें जन्म लेकर मुझे असह्य दुःख भोगना पड़ा। पहले सियारकी योनिमें पड़ी, फिर कुत्तेकी योनिमें जन्म लिया। तत्पश्चात् क्रमशः साँप, मुर्गे, बिल्ली और चूहेकी योनिमें जाना पड़ा। इस प्रकार धर्मराजने पीड़ा देनेवाली प्रायः सभी पापयोनियोंमें मुझे डाला। उन्होंने ही मुझे इस भूतलपर शूकरी बनाया है। महाभागे तुम्हारे हाथमें अनेक तीर्थोंका वास है। देवि ! तुमने अपने हाथके जलसे मुझे सींचा है, इसलिये तुम्हारी कृपासे मेरा सब पाप दूर हो गया। तुम्हारे तेज और पुण्यसे मुझे अपने पूर्वजन्मकी बातोंका ज्ञान हुआ है। रानीजी ! इस समय संसारमें केवल तुम्हीं सबसे बड़ी पतिव्रता हो। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि तुमने अपने स्वामीकी बहुत बड़ी सेवा की है। सुन्दरी यदि मेरा प्रिय करना चाहती हो तो अपने एक दिनकी प्रतिसेवाका पुण्य मुझे अर्पण कर दो। इस समय तुम्हीं मेरी माता, पिता और सनातन गुरु हो। मैं पापिनी, दुराचारिणी, असत्यवादिनी और ज्ञानहीना हूँ। महाभागे ! मेरा उद्धार करो।

सुकला बोली- सखियो ! शूकरीकी यह बात सुनकर रानी सुदेवाने राजा इक्ष्वाकुकी ओर देखकर पूछा - 'महाराज ! मैं क्या करूँ? यह शूकरी क्या कहती है ?'

इक्ष्वाकुने कहा- शुभे। यह बेचारी पाप-योनिमेंपड़कर दुःख उठा रही है; तुम अपने पुण्योंसे इसका उद्धार करो, इससे महान् कल्याण होगा। महाराजकी आज्ञा लेकर रानी सुदेवाने शूकरीसे कहा—'देवि! मैंने अपना एक वर्षका पुण्य तुम्हें अर्पण किया।' रानी सुदेवाके इतना कहते ही वह शूकरी तत्काल दिव्य देह धारण कर प्रकट हुई। उसके शरीरसे तेजकी ज्वाला निकल रही थी। सब प्रकारके आभूषण और भाँति-भाँतिके रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह साध्वी दिव्यरूपसे युक्त दिव्य विमानपर बैठी और अन्तरिक्ष लोकको चलने लगी। जाते समय उसने मस्तक झुकाकर रानीको प्रणाम किया और कहा - 'महाभागे ! तुम्हारी कृपासे आज मैं पापमुक्त होकर परम पवित्र एवं मंगलमय वैकुण्ठको जा रही हूँ।' यों कहकर वह वैकुण्ठको चली गयी।

सुकला कहने लगी- इस प्रकार पहले मैंने पुराणोंमें नारीधर्मका वर्णन सुना है। ऐसी दशामें जब पतिदेव यहाँ उपस्थित नहीं हैं, मैं किस प्रकार भोगोंका उपभोग करूँ। मेरे लिये ऐसा विचार निश्चय ही पापपूर्ण होगा।

सुकलाके मुखसे इस प्रकार उत्तम पातिव्रत्य धर्मका वर्णन सुनकर सखियोंको बड़ा हर्ष हुआ । नारियोंको सद्गति प्रदान करनेवाले उस परम पवित्र धर्मका श्रवण करके समस्त ब्राह्मण और पुण्यवती स्त्रियाँ धर्मानुरागिणी महाभागा सुकलाकी प्रशंसा करने लगीं।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार