पार्वतीजीने कहा- महेश्वर आपने श्रीरघुनाथजीके उत्तम चरित्रका अच्छी तरह वर्णन किया। देवेश्वर ! आपके प्रसादसे इस उत्तम कथाको श्रवण करके मैं धन्य हो गयी। अब मुझे भगवान् वासुदेवके महान् चरित्रोंको सुननेकी इच्छा हो रही है, कृपया कहिये
श्रीमहादेवजी बोले- देवि! सबके हृदयमें निवास करनेवाले परमात्मा श्रीकृष्णकी लीलाएँ मनुष्योंको मनोवांछित फल देनेवाली हैं। मैं उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। यदुवंशमें वसुदेव नामक श्रेष्ठ पुरुष उत्पन्न हुए, जो देवमीढके पुत्र और सब धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने मथुरामें उग्रसेनकी पुत्री देवकीसे विधिपूर्वक विवाह किया, जो देवांगनाओंके समान सुन्दरी थी। उग्रसेनके एक कंस नामक पुत्र था, जो महाबलवान् और शूरवीर था। जब वधू और वर रथपर बैठकर विदा होने लगे, उस समय कंस स्नेहवश सारथि बनकर उनका रथ हाँकने लगा। इसी समय गम्भीर स्वरमें आकाशवाणी सुनायी पड़ी- 'कंस! इस देवकीका आठवाँ बालक तुम्हारे प्राण लेगा ।'
यह सुनकर कंस अपनी बहिनको मार डालनेके लिये तैयार हो गया। उसे क्रोधमें भरा देख बुद्धिमान् वसुदेवजीने कहा- 'राजन् यह तुम्हारी बहिन है, तुम्हें धर्मतः इसका वध नहीं करना चाहिये। इसके गर्भसे जो बालक उत्पन्न हों, उन्हींको मार डालना।' 'अच्छा, ऐसा ही हो' यों कहकर कंसने वसुदेव और देवकीको अपने सुन्दर महलमें ही रोक लिया और उनके लिये सब प्रकारके सुखभोगकी व्यवस्था कर दी। पार्वती! इसी बीचमें समस्त लोकोंको धारण करनेवाली पृथ्वी भारी भारसे पीड़ित होकर सहसा लोकनाथ ब्रह्माजीके पास गयी और गम्भीर वाणीमें बोली- 'प्रभो अब मुझमें इन लोकोंको धारण करनेकी शक्ति नहीं रह गयी है। मेरे ऊपर पाप कर्म करनेवाले राक्षस निवास करते हैं। वे बड़े बलवान् हैं, अतः सम्पूर्ण जगत्के धर्मोका विध्वंस करते हैं। पापसे मोहित हुए समस्त मानव इस समय अधर्मपरायण हो रहे हैं। इस संसारमें अब थोड़ा-सा भी धर्म कहींदिखायी नहीं देता। देव! मैं सत्य-शौचयुक्त धर्मके ही बलसे टिकी हुई थी। अतः अधर्मपरायण विश्वको धारण करनेमें मैं असमर्थ हो रही हूँ।'
यों कहकर पृथ्वी वहीं अन्तर्धान हो गयी। तदनन्तर ब्रह्मा और शिव आदि समस्त देवता तथा महातपस्वी मुनि क्षीरसागरके उत्तर तटपर जगदीश्वर श्रीविष्णुके पास गये और नाना प्रकारके स्तोत्रद्वारा उनकी स्तुति करने लगे। इससे प्रसन्न होकर भगवान्ने समस्त देवताओं और मुनिवरोंसे कहा-'देवगण! तुम सब लोग यहाँ किसलिये आये हो?' तब पितामह ब्रह्माजीने देवाधिदेव जनार्दनसे कहा-'देवदेव! जगन्नाथ! पृथ्वी भारी भारसे पीडित है। इस समय संसारमें बहुत-से दुर्द्धर्ष राक्षस उत्पन्न हो गये हैं। जरासन्ध, कंस, प्रलम्ब और धेनुक आदि दुरात्मा सब लोगोंको सता रहे हैं; अतः आप इस पृथ्वीका भार उतारनेकी कृपा करें।' ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण जगत्का पालन करनेवाले अविनाशी भगवान् हृषीकेशने कहा- 'देवताओ! मैं मनुष्यलोकके भीतर यदुकुलमें अवतार लेकर पृथ्वीका भार हटाऊँगा।' यह सुनकर सब देवता भगवान् जनार्दनको नमस्कार करके अपने-अपने लोकमें जा उन परमेश्वरका ही चिन्तन करने लगे। तत्पश्चात् परमेश्वर श्रीहरिने भगवती मायासे कहा-'देखि रसातलसे हिरण्याक्षके छः पुत्रोंको ले आओ और क्रमशः वसुदेवपत्नी देवकीके गर्भ में स्थापित करो। सातवाँ गर्भ अनन्त ( शेषनाग ) का अंश होगा, उसे भी खींचकर तुम देवकीकी सौत रोहिणीके उदरमें स्थापित कर देना। तदनन्तर देवकीके आठवें गर्भमें मेरा अंश प्रकट होगा। तुम नन्दगोपकी पत्नी यशोदाके गर्भसे उत्पन्न होना इससे इन्द्र आदि देवता तुम्हारी पूजा करेंगे।'
'बहुत अच्छा' कहकर महाभागा मायाने क्रमशः हिरण्याक्षके पुत्रोंको ला- लाकर देवकीके गर्भमें स्थापित किया। महाबली कंसने पैदा होते ही उन बालकोंको मार डाला। फिर भगवत्प्रेरणावश सातवाँ गर्भ अनन्तके अंशसे प्रकट हुआ। वह गर्भ जब बढ़कर कुछ पुष्ट हुआतो मायादेवीने उसे रोहिणीके उदरमें स्थापित कर दिया। गर्भका संकर्षण करने (खींचने से उस बालकका जन्म हुआ, इसलिये वह संकर्षण नामसे प्रसिद्ध हुआ। भादोंके कृष्णपक्षको अष्टमी तिथिको रोहिणी नक्षत्रमें शुभ लग्नका उदय होनेपर रोहिणी देवीने भगवान् संकर्षणको जन्म दिया। तत्पश्चात् साक्षात् भगवान् श्रीहरि देवकीके गर्भ में आये। आठवें गर्भसे युक्त देवकीको देखकर कंस बहुत भयभीत हुआ। उस समय समस्त देवताओंके मनमें उल्लास छा रहा था। वे विमानपर बैठे हुए आकाशसे ही देवकी देवीकी स्तुति किया करते थे। तदनन्तर दसवाँ महीना आनेपर श्रवणमासी कृष्ण अष्टमीको आधी रातके समय श्रीहरिका अवतार हुआ। वसुदेवके पुत्र होनेसे वे सनातन भगवान् वासुदेव कहलाये।
सम्पूर्ण जगत्के स्वामी भगवान् श्रीकृष्णको देखकर वसुदेवजी हाथ जोड़ नमस्कार करके उन जगन्मय प्रभुकी स्तुति करने लगे-'जगन्नाथ! आप भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये साक्षात् कल्पवृक्ष हैं। प्रभो ! आप स्वयं मेरे यहाँ प्रकट हुए, मैं कितना भाग्यवान् हूँ। अहो आज धरणीधरभगवान् इस धरती के ऊपर मेरे पुत्ररूपसे अवतीर्ण हुए हैं। पुरुषोत्तम! आपके इस अद्भुत ईश्वरीय रूपको देखकर महाबली एवं पापाचारी दानव सहन नहीं कर सकेंगे।' वसुदेवजीके इस प्रकार स्तुति और प्रार्थना करनेपर सनातन पुरुष भगवान् पद्मनाभ ने अपने चतुर्भुज रूपको तिरोहित कर लिया और मानवरूप धारण करके वे दो भुजाओंसे ही शोभा पाने लगे। उस भवनमें पहरा देनेवाले जो दानव रहते थे, वे सब भगवान्की मायासे मोहित और तमोगुणसे आच्छादित हो सो गये। इसी समय मौका पाकर भगवान् के आज्ञानुसार वसुदेवजी भगवान्को गोदमें ले तुरंत ही नगरसे बाहर निकल गये। उस समय सब देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। मेघ पानी बरसाने लगे, यह देख महाबली नागराज शेष भक्तिवश अपने हजारों फनोंसे भगवानके ऊपर छाया करके पीछे-पीछे चलनेलगे। उनके चरणोंका स्पर्श होते ही नगरद्वारके किवाड़ खुल गये । वहाँके रक्षक नींदमें बेसुध थे। तीव्र प्रवाहसे बहनेवाली भरी हुई यमुना भी महात्मा वसुदेवजीके प्रवेश करनेपर घट गयी। उसमें घुटनेतक ही जल रह गया। यमुनाके पार हो वसुदेवजीने उसके तटपर ही स्थित व्रजमें प्रवेश किया।
उधर नन्दगोपकी पत्नीके गर्भसे गायोंके व्रजमें ही एक कन्या उत्पन्न हुई। किन्तु यशोदा मायासे मोहित एवं तमोगुणसे आच्छादित हो गाड़ी नींदमें सो गयी थीं। वसुदेवजीने उनकी शय्व्यापर भगवान्को सुला दिया और उनकी कन्याको लेकर वे मधुरामें चले आये। वहाँ पत्नीके हाथमें कन्याको देकर वे निश्चिन्त हो गये। देवकीकी शय्यापर जाते ही वह कन्या बालभावसे रोने लगी। बालककी आवाज सुनकर पहरेदार जाग उठे। उन्होंने कंसको देवकीके प्रसव होनेका समाचार दे दिया। कंस तुरंत ही आ पहुँचा और बालिकाको लेकर उसने एक पत्थरपर पटक दिया। किन्तु वह कन्या उसके हाथसे छूटनेपर तुरंत ही आकाशमें जा खड़ी हुई। वह कंसके सिरमें लात मारकर ऊपर गयी और आठ भुजावाली देवीके रूपमें दर्शन दे उससे बोली- 'ओ मूर्ख ! मुझे पत्थरपर पटकनेसे क्या हुआ ? जो तुम्हारा वध करनेवाले हैं, उनका जन्म तो हो गया। जो सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाले हैं, वे भगवान् इस संसारमें अवतार ले चुके हैं, वे ही तुम्हारे प्राण लेंगे।'
इतना कहकर देवीने सहसा अपने तेजसे सम्पूर्ण आकाशको आलोकमय कर दिया और वह देवताओं तथा गन्धवोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनती हुई हिमालयपर्वतपर चली गयी। देवीकी बात सुनकर कंसका हृदय उद्विग्न हो उठा। उसने भयसे पीड़ित हो प्रलम्ब आदि दानववीरोंको बुलाकर कहा- 'वीरो ! | हमलोगोंके भयसे समस्त देवताओंने क्षीरसागरपर जाकर विष्णुसे राक्षसोंके संहारके विषयमें बहुत कुछ कहा है। उनकी बात सुनकर वे अविनाशी धरणीधर यहाँ कहींमनुष्यरूपमें उत्पन्न हुए हैं। अतः आज इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले तुम सभी राक्षस जाओ और जिन बालकोंमें कुछ बलकी अधिकता जान पड़े, उन्हें बेखटके मार डालो।' ऐसी आज्ञा देकर कंसने वसुदेव और देवकीको आश्वासन दे उन्हें बन्धनसे मुक्त कर दिया और स्वयं अपने महलमें चला गया। तत्पश्चात् वमुदेवजी नन्दके उत्तम व्रजमें गये। नन्दरायजीने उनका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। वहाँ अपने पुत्रको देखकर वसुदेवजीको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने नन्दरानी यशोदासे कहा—'देवि! रोहिणीके पेटसे पैदा हुए मेरे इस पुत्र (बलराम) - को भी तुम अपना ही पुत्र मानकर इसकी रक्षा करना। यह कंसके डरसे यहाँ लाया गया है।' दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाली नन्दपत्नीने 'बहुत अच्छा' कहकर वसुदेवजीकी आज्ञा शिरोधार्य की और दोनों पुत्रोंको पाकर वे बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका पालन करने लगीं। इस प्रकार नन्दगोपके घर अपने दोनों पुत्रोंको रखकर वमुदेवजी निश्चिन्त हो गये और तुरंत ही मथुरापुरीको चले गये। तदनन्तर वसुदेवजीकी प्रेरणासे किसी शुभ दिनको गगंजी नन्दगोपके व्रजमें गये। वहांके निवासियोंने उनकी बड़ी आवभगत की। फिर उन्होंने गोकुलमें वसुदेवके दोनों पुत्रोंके विधिपूर्वक जातकर्म और नामकरण संस्कार कराये। बड़े बालकके नाम उन्होंने संकर्षण, रौहिणेय, बलभद्र, महाबल और राम आदि रखे तथा छोटेके श्रीधर, श्रीकर, श्रीकृष्ण, अनन्त, जगत्पति, वासुदेव और हृषीकेश आदि नाम रखे। 'लोगों में ये दोनों बालक क्रमशः राम और कृष्णके नामसे विख्यात होंगे।' ऐसा कहकर द्विजश्रेष्ठ गर्मने पितरों और देवताओंका पूजन किया और स्वयं भी ग्वालोंसे पूजित होकर मथुरामें लौट आये। एक दिनकी बात है, बालकोंकी हत्या करनेवाली पूतना कंसके भेजनेसे रातमें नन्दके घर आयी। उसने अपने स्तनोंमें विष लगा रखा था। अमित तेजस्वी श्रीकृष्णके मुखमें वही स्तन देकर वह उन्हें दूध पिलाने लगी। भगवान् श्रीकृष्णने उस राक्षसीको पहचान लिया और उसके स्तनोंको खूब दबाकर उसे प्राणसहित पीना आरम्भ किया। अब तो वह मतवाली राक्षसी छटपटाने लगी। उसके स्नायुबन्धन टूट गये। वह काँपती हुई गिरीऔर जोर-जोर से चिग्धाहती हुई मर गयी। उसके चीत्कारसे सारा आकाश-मण्डल गूँज उठा। उसे पृथ्वीपर पड़ी देख समस्त गोप थर्रा उठे। श्रीकृष्णको राक्षसीके विशाल वक्षःस्थलपर खेलते देख गोपगण उद्विग्न हो उठे और तुरंत ही दौड़कर उन्होंने बालकको गोदमें उठा लिया। उस समय नन्दगोपने पास आकर पुत्रको अंकमें ले लिया और राक्षसके भयसे रक्षा करनेके लिये गायके गोवरसे और बालसे बालकके मस्तकको झाड़ा। फिर भगवान् के नाम लेकर श्रीकृष्णके सब अंगों का मान किया। इसके बाद उस भयानक राक्षसीको गौओंके व्रजसे बाहर करके डरे हुए ग्वालोंकी सहायता से उसका दाह किया।
एक दिन भगवान् श्रीहरि किसी छकड़ेके नीचे सोये हुए थे और दोनों पैर फेंक-फेंककर रो रहे थे। उनके पैरका धक्का लगनेसे छकड़ा ही उलट गया। उसपर जो बर्तन भाँड़े रखे हुए थे, वे सब टूट-फूट गये। गोप और गोपियाँ इतने बड़े छकड़ेको सहसा उलटकर गिरा देख बड़े विस्मयमें पड़ीं और 'यह क्या हो गया ?' ऐसा कहती हुई शंकित हो उठीं। उस समय विस्मित हुई यशोदाने शीघ्र ही अपने बालकको गोदमें उठा लिया। वे दोनों यदुवंशी बालक माताके स्तनपानसे पुष्ट होकर थोड़े ही समयमें बड़े हो गये और घुटनों तथा हाथोंके बलसे चलने लगे। उन दिनों एक मायावी राक्षस मुर्गेका रूप धारण किये वहाँ पृथ्वीपर विचरता रहता था। वह श्रीकृष्णको मारनेकी ताकमें लगा था। भगवान् श्रीकृष्णने उसे पहचान लिया और एक ही तमाचेमें उसका काम तमाम कर दिया। मार पड़नेपर वह पृथ्वीपर गिरा और मर गया। मरते समय उसने अपने राक्षसस्वरूपको ही धारण किया था ।
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण समूचे व्रजमें विचरने लगे। वे गोपियोंके यहाँसे माखन चुरा लिया करते थे। इससे यशोदाको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने श्रीकृष्णकी कमरमें रस्सी लपेटकर उन्हें उखलमै बाँध दिया और स्वयं गोरस बेचने चली गयीं। समस्त पृथ्वीको धारण करनेवाले श्रीकृष्ण ऊखलमें बंधे हो-बँधे उसे खींचते हुए दो अर्जुनवृक्षोंके बीचसे निकले। गोविन्दने खालके धक्केसे ही उन दोनों वृक्षोंको गिरा दिया। उनके तनेटूट गये और वे बड़े जोरसे तड़तड़ शब्द करते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े। उनके गिरनेकी भारी आवाजसे बड़े बूढ़े गोप वहाँ आ पहुँचे। यह घटना देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। यशोदाजी भी बहुत डर गयीं और श्रीकृष्णके बन्धन खोलकर आश्चर्यमग्न हो उन महात्माको अपने स्तनोंका दूध पिलाने लगीं। माताने जगदीश्वर श्रीकृष्णके उदरको दाम अर्थात् रस्सीसे बाँध दिया था; अतः सभी महापुरुषोंने उनका नाम दामोदर रख दिया। वे दोनों यमलार्जुनवृक्ष भगवान्के पार्षद हो गये।
तब नन्द आदि वृद्ध गोप वहाँ बड़े-बड़े उत्पात होते जानकर दूसरे स्थानको चले गये। विशाल वृन्दावनमें यमुनाके मनोहर तटपर उन्होंने स्थान बनाया। वह प्रदेश गौओं और गोपियोंके लिये बड़ा ही रमणीय था । महाबली राम और श्रीकृष्ण वहीं रहकर बढ़ने लगे। अब ये बछड़ोंके चरवाहों को साथ लेकर सदा बछड़े चराने लगे। बछड़ोंके बीच श्रीकृष्णको देखकर बक नामक महान् असुर वहाँ आया और बगलेका रूप धारण कर उन्हें मारनेका उद्योग करने लगा। उसे देखकर भगवान् वासुदेवने भी खिलवाड़में ही एक ढेला उठा लिया और उसके पंखों में दे मारा। ढेला लगते ही वह महान् असुर प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद एक दिन बछड़े चरानेवाले राम और श्रीकृष्ण वनमें किसी यज्ञवृक्षकी छाया में पल्लव बिछाकर सो गये। इसी बीचमें ब्रह्माजी देवताओंके साथ भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये आये। किन्तु उन्हें सोते देख बछड़ों और ग्वाल-बालको चुराकर स्वर्गलोकमें चले गये। जागनेपर जब उन्होंने बछड़ों और ग्वाल बालोंको नहीं देखा तो 'वे कहाँ चले गये ?' इसका विचार किया; फिर यह जानकर कि यह सारी करतूत ब्रह्माजीकी ही है, उन सनातन प्रभुने वैसे ही बालक और बछड़े बना लिये। वही रंग और वही रूप, कुछ भी अन्तर नहीं था। शामको जब वे लौटकर व्रजमें गये तो गौओं और माताओंने अपने-अपने बछड़ों और बालकोंको पाकर उनके साथ पूर्ववत् बर्ताव किया। इस प्रकार एक वर्षका समय व्यतीत हो गया। तब प्रजापतिने उन बछड़ों और बालकको पुनः ले जाकर भगवानको समर्पित किया और हाथ जोड़ विनीतभावसे प्रणाम करकेभयभीत होकर कहा- 'नाथ! मैंने इन बछड़ोंका अपहरण करके आपका महान् अपराध किया है। शरणागतवत्सल ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ। मेरे इस अपराधको क्षमा कीजिये। यों कहकर पुनः श्रीहरिके चरणोंमें बारंबार प्रणाम किया और बछड़ोंको उन्हें सौंपकर पुनः अपने लोकमें चले गये महातपस्वी ब्रह्माजी भगवान्के उस बालरूपको हृदयमें धारण करके देवताओंको साथ ले बड़ी प्रसन्नताके साथ पधारे।
इसके बाद श्रीकृष्ण बछड़ोंके साथ नन्दके गोकुलमें चले गये। इसके कुछ दिनोंके पश्चात् यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ग्वालोंको साथ लेकर यमुनाके कुण्डमें गये। वहाँ बड़ा विषैला और बलवान् नागराज कालिय रहता था। उसके हजार फन थे किन्तु भगवान्ने अपने एक ही पैरसे उसके हजारों फनोंको कुचल डाला और जब वह प्राणसंकटमें पड़ गया तो होशमें आनेपर उसने भगवान्की शरण ली। उसका सारा विष तो निकल ही गया था, शरणमें आनेपर भगवान्ने उसकी रक्षा की वह गरुड़के भयसे इस कुण्डमें आकर रहता था इसलिये भगवान्ने उसके मस्तकपर अपने चरणचिह्न स्थापित करके उसको कालिन्दीके कुण्डसे निकाल दिया। उसने अपने स्त्री-पुत्रोंके साथ तुरंत ही उस कुण्डको छोड़ दिया और भगवान् गोविन्दको नमस्कार करके अन्यत्रकी राह ली। उसके किनारेके जो वृक्ष कालियके विषसे दग्ध हो गये थे, वे श्रीकृष्णकी कृपादृष्टि पड़ते ही फलने-फूलने लगे।
तत्पश्चात् समयानुसार भगवान्ने कुमारावस्थामें पदार्पण किया। अब वे सर्वदेवमय प्रभु गौओंकी चरवाही करने लगे। वे अपने समान अवस्थावाले ग्वालोंको साथ ले मनोहर वृन्दावनमें बलरामजीके साथ विचरा करते थे। वहाँ एक अत्यन्त भयानक असुर था, जो अजगर साँपके रूपमें रहा करता था। वह विशालकाय दैत्य मेरुपर्वतके समान भारी था परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने उसको भी मौतके घाट उतार दिया। इसके बाद वे धेनुकासुरके वनमें गये, जो ताड़के वृक्षोंसे बहुत सघन प्रतीत होता था। उसके भीतर धेनुक नामक एक पर्वताकार दानव रहता था। जिसको परास्त करना बहुत ही कठिन था। वह सदा गदहेके रूपमें रहा करता था।भगवान् ने उसके दोनों पैर पकड़कर ऊपर फेंक दिया और एक ताड़के वृक्षसे उसको मार डाला। फिर तो वनमें वे ग्वाले खेलते फिरे। उस वनसे निकलनेपर वे 1 तुरंत ही भाण्डीर वटके पास आ गये और बलराम तथा श्रीकृष्णके साथ बालोचित खेल खेलने लगे। उस समय प्रलम्ब नामक राक्षस गोपका रूप धारण करके वहाँ आया और बलरामजीको अपनी पीठपर चढ़ा आकाशकी ओर उड़ चला। तब बलरामजीने उसे राक्षस समझकर बड़े रोषके साथ मुक्केसे मस्तकपर मारा; उस प्रहारसे राक्षसका शरीर तिलमिला उठा और वह अपने वास्तविक रूपमें आकर बड़े भयंकर स्वरमें चीत्कार करने लगा। उसका मस्तक और शरीर फट गया और वह खूनसे लथपथ हो पृथ्वीपर गिरकर मर गया। इसके बाद एक दिन सन्ध्याकालमें अरिष्ट नामक दैत्य बैलका आकार धारण किये व्रजमें आया और श्रीकृष्णको मारनेके लिये बड़े जोर-जोरसे गर्जना करने लगा। उसे देख समस्त गोप भयसे पीड़ित हो इधर-उधर भाग गये। श्रीकृष्णने उस भयंकर दैत्यको आया देख एक ताड़का वृक्ष उखाड़ लिया और उसके दोनों सींगोंके बीच दे मारा। उसके सींग टूट गये और मस्तक फट गया। वह रक्त वमन करता हुआ बड़े वेगसे गिरा और जोर-जोरसे चीत्कार करके मर गया। इस तरह उस महाकाय दैत्यको मारकर भगवान्ने ग्वालबालोंको बुलाया और फिर सब लोग वहीं निवास करने लगे।
तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद केशी नामक महान् असुर घोड़ेका रूप धारण किये व्रजमें आया। वह भी श्रीकृष्णको मारनेके ही उद्देश्यसे चला था। गौओके व्रजमें पहुँचकर वह जोर-जोरसे हिनहिनाने लगा। उसकी आवाज तीनों लोकोंमें गूंज उठी। देवता भयभीत हो गये। उन्हें प्रलयकालका-सा सन्देह होने लगा। व्रजके रहनेवाले समस्त गोप अचेत हो गये। गोपियाँ भी व्याकुल हो उठीं। फिर होसमें आनेपर सब लोग चारों ओर भाग चले। गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्णको शरणमें गर्यो और 'बचाओ, बचाओ' की रट लगाने लगीं। भक्तवत्सल भगवान्ने आश्वासन देते हुए कहा 'डरो मत डरो मत।' फिर उन्होंने तुरंत ही उस दैत्यके मस्तकपर एक मुक्का जड़ दिया। मार पड़ते ही दैत्यकेसारे दाँत गिर गये और आँखें बाहर निकल आयीं। वह बड़े जोर-जोर से चिल्लाने लगा। केशी सहसा पृथ्वीपर गिरा और उसके प्राणपखेरू उड़ गये। केशीको मारा गया देख आकाशमें खड़े हुए देवता साधु-साधु कहने और फूलोंकी वर्षा करने लगे। इस प्रकार शैशवकालमें श्रीहरिने बड़े-बड़े बलाभिमानी दैत्योंका वध किया। वे बलरामजीके साथ व्रजमें सदा प्रसन्न रहा करते थे। उन दिनों वृन्दावनकी रमणीयता बहुत बढ़ गयी थी। फलों और फूलोंके कारण उसकी बड़ी शोभा होती थी। भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ मुरलीकी मधुर तान छेड़ते हुए निवास करते थे। एक समय शरत्काल आनेपर नन्द आदि गोपने इन्द्रकी पूजाका महान् उत्सव आरम्भ किया; किन्तु भगवान् गोविन्दने इन्द्रयज्ञके उत्सवको बंद करके गिरिराज गोवर्धनके पूजनका उत्सव कराया। इससे इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने नन्द गोपके व्रजमें लगातार सात रातोंतक बड़ी भारी वर्षा की। तब भगवान् जनार्दनने गिरिराज गोवर्धनको उखाड़ लिया और गोप, गोपियों तथा गौओंकी रक्षाके लिये उसे अनायास ही छत्रकी भाँति धारण कर लिया। पर्वतकी छायाके नीचे आकर गोप और गोपियाँ बड़े सुखसे रहने लगीं, मानो वे किसी महलके भीतर बैठी हों। यह देख सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रको बड़ा भय हुआ। उन्होंने बड़ी घबराहटके साथ उस वर्षाको बंद कराया और स्वयं वे नन्दके व्रजमें गये। वर्षा बंद होनेपर भगवान् श्रीकृष्णने उस महापर्वतको पहलेकी भाँति यथास्थान रख दिया। नन्द आदि बड़े-बूढ़े गोप गोविन्दकी सराहना करते हुए बहुत विस्मित हुए। इतनेमें ही इन्द्रने आकर भगवान् मधुसूदनको प्रणाम किया और हाथ जोड़ हर्षगद्गद वाणीमें उनकी स्तुति की। स्तुतिके पश्चात् सब देवताओंके स्वामी इन्द्रने अमृतमय जलसे भगवान् गोविन्दका अभिषेक किया और दिव्य वस्त्र तथा दिव्य आभूषणोंसे उनकी पूजा की। इसके बाद वे स्वर्गलोकमें गये। उस समय बड़े-बूढ़े गोपों और गोपियोंने भी इन्द्रका दर्शन किया तथा इन्द्रसे सम्मानित होनेपर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार महापराक्रमी बलराम और श्रीकृष्ण नन्दके रमणीय व्रजमें रहकर गौओं और बछड़ोंका पालन करने लगे।