पार्वती बोलीं- महामते। श्रीगंगाजीके माहात्म्यका पुनः वर्णन कीजिये, जिसे सुनकर सभी मुनि संसारकी ओरसे विरक्त हो जाते हैं।
श्रीमहादेवजीने कहा- देवि ! बुद्धिमें बृहस्पति और पराक्रममें इन्द्रके समान भीष्मजी जब बाणशय्यापर शयन कर रहे थे, उस समय उन्हें देखनेके लिये अत्रि, वसिष्ठ, भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, गौतम, अगस्त्य और सुमति आदि बहुत-से ऋषि आये। धर्मपुत्र युधिष्ठिर अपने भाइयोंके साथ वहाँ मौजूद थे। उन्होंने उन परम तेजस्वी, जगत्पूज्य ऋषियोंको प्रणाम करके विधिपूर्वक उनका पूजन किया। पूजा ग्रहण करके वे तपोधन महात्मा जब सुखपूर्वक आसनपर बैठ गये, तब युधिष्ठिरने भीष्मजीको प्रणाम करके इस प्रकार पूछा पितामह! धर्मार्थी पुरुषोंके नित्य सेवन करनेयोग्य परम पुण्यमय देश, पर्वत और आश्रम कौन-कौन-से हैं?'भीष्मजीने कहा युधिष्ठिर इस विषय में एक प्राचीन इतिहास बतलाया जाता है, जिसमें शिल और उच्छवृत्तिमे जीविका चलानेवाले ब्राह्मणका किसी सिद्ध पुरुषके साथ हुए संवादका अन है। कोई सिद्ध पुरुष समूची पृथ्वीको परिक्रमा करके किसी उच्छवृत्तिवाले महात्मा गृहस्थके घर गये। वे आत्मविद्याके तत्त्वज्ञ, सदा अपनी इंद्रियको काबू रखनेवाले, राग-द्वेषसे रहित, ज्ञान कर्म कुशल वैष्णवोंमें श्रेष्ठ, वैष्णव-धर्मके पालनमें तत्पर, वैष्णवोंकी निन्दासे दूर रहनेवाले, योगाभ्यासी, त्रिकालपूजाके तत्त्वज्ञ, वेदविद्यामें निपुण, धर्माधर्मका विचार करनेवाले, नित्य नियमपूर्वक वेदपाठ करनेवाले और सदा अतिथिपूजामें तत्पर रहनेवाले थे।सिद्ध पुरुषको आया देख गृहस्थने उनका विधिपूर्वक आतिथ्य सत्कार किया तत्पश्चात् उनसे पूछा द्विजवर! कौन-कौनसे देश, पर्वत और आश्रम पवित्र हैं? मुझे प्रेमपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये।
सिद्ध पुरुषने कहा- ब्रह्मन् ! जिनके बीच नदियोंमें श्रेष्ठ त्रिपथगा गंगाजी सदा बहती रहती हैं, वे ही देश, वे ही जनपद, वे ही पर्वत और वे ही आश्रम परम पवित्र हैं। जीव गंगाजीका सेवन करके जिस गतिको प्राप्त करता है, उसे तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ अथवा त्यागसे भी नहीं पा सकता। अपने मनको संयममें रखनेवाले पुरुषोंको गंगाजीके जलमें स्नान करनेसे जो संतोष होता है, वह सौ यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी नहीं हो सकता। जैसे सूर्य उदयकालमें तीव्र अन्धकारका नाश करके तेजसे उद्भासित हो उठता है, उसी प्रकार गंगाजीके जलमें डुबकी लगानेवाला मनुष्य पापका नाश करके पुण्यसे प्रकाशमान होने लगता है। विप्र! जैसे आगका संयोग पाकर रूईका ढेर जल जाता है, उसी प्रकार गंगाका स्नान मनुष्यके सारे पापोंको दूर कर देता है। जो मनुष्य सूर्यकी किरणोंसे तपे हुए गंगाजलका पान करता है, वह सब रोगोंसे मुक्त हो जाता है। जो पुरुष एक पैरसे खड़ा होकर एक हजार चान्द्रायणव्रतोंका अनुष्ठान करता है और जो केवल गंगाजीके जलमें डुबकी लगाता है-इन दोनोंमें डुबकी लगानेवाला मनुष्य ही श्रेष्ठ है। जो दस हजार वर्षोंतक नीचे सिर करके लटका रहता है, उसकी अपेक्षा भी वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो एक मास भी गंगाजलका सेवन कर लेता है। नरश्रेष्ठ! गंगाजीमें स्नान करके मनुष्य देहत्यागके पश्चात् तुरंत वैकुण्ठमें चला जाता है जो सौ योजन दूरसे भी 'गंगा-गंगा' का उच्चारण करता है, वहसब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको चला जाता है। ll 1 ll
ब्रह्महत्यारा, गोघाती, शराबी और बालहत्या करनेवाला मनुष्य भी गंगाजीमें स्नान करके सब पापोंसे छूट जाता और तत्काल देवलोकमें चला जाता है। माधव तथा अक्षयवटका दर्शन और त्रिवेणीमें स्नान करनेवाला पुरुष वैकुण्ठ में जाता है जैसे सूर्यके उदय होनेपर अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार गंगामें स्नान करनेमात्र से मनुष्यके सारे पाप दूर हो जाते हैं। गंगाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक नील पर्वत तथा कनखलतीर्थ में स्नान करनेसे मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। ll 2 ll
भीष्मजी कहते हैं—ऐसा जानकर श्रेष्ठ मनुष्यको बारंबार गंगास्नान करना चाहिये। राजन्! वहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। जैसे देवताओंमें विष्णु, यज्ञोंमें अश्वमेध और समस्त वृक्षोंमें अश्वत्थ (पीपल) श्रेष्ठ है, उसी प्रकार नदियोंमें भागीरथी गंगा सदा श्रेष्ठ मानी गयी हैं।
पार्वतीने पूछा- विश्वेश्वर! वैष्णवोंका लक्षण कैसा बताया गया है तथा उनकी महिमा कैसी है? प्रभो! यह बताने की कृपा करें।
महादेवजी बोले- देवि! भक्त पुरुष भगवान् विष्णुकी वस्तु माना गया है, इसलिये इसे 'वैष्णव' कहते हैं। जो शौच, सत्य और क्षमासे युक्त हो, राग-द्वेषसे दूर रहता हो, वेद-विद्याके विचारका ज्ञाता हो, नित्य अग्निहोत्र और अतिथियोंका सत्कार करता हो तथा पिता-माताका भक्त हो, वह वैष्णव कहलाता है। जो कण्ठमें माला धारण करके मुखसे सदा श्रीरामनामका उच्चारण करते, भक्तिपूर्वक भगवान्की लीलाओंका गान करते, पुराणोंके स्वाध्यायमें लगे रहते और सर्वदा यज्ञ किया करते हैं, उन मनुष्योंको वैष्णव जानना चाहिये। वे सब धर्मो में सम्मानित होते हैं। जो पापाचारी मनुष्य उन वैष्णवोंकी निन्दा करते हैं, वे मरनेपर बारंबार कुत्सित योनियोंमें पड़ते हैं जो द्विज धातु अथवा मिट्टीकी बनीहुई चार हाथोंवाली शोभामयी गोपाल मूर्तिका सद पूजन करते हैं. वे पुण्यके भागी होते हैं। जो ब्राह्मण । पत्थरकी बनी हुई परम सुन्दर रूपवाली श्रीकृष्ण प्रतिमाकी पूजा करते हैं, वे पुण्यस्वरूप हैं। जहाँ शालग्रामशिला तथा द्वारकाकी गोमती चक्रांकित शिला हो और उन दोनोंका पूजन किया जाता हो, वहाँ निःसन्देह मुक्ति मौजूद रहती है। वहाँ यदि मन्त्रद्वारा मूर्तिकी स्थापना करके पूजन किया जाय तो वह पूजन कोटिगुना अधिक पुण्य देनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करनेवाला होता है। वहाँ भगवान जनार्दनको नवधा भक्ति करनी चाहिये। भक्त पुरुषोंको मूर्ति भगवान्का ध्यान और पूजन करना चाहिये। सम्भव हो तो भगवन्मूर्तिकी राजोचित उपचारोंसे पूजा करे तथा उस मूर्तिमें दीनों और अनाथको एकमात्र शरण देनेवाले, सम्पूर्ण लोकोंके हितकारी एवं बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाले सर्वात्मा भगवान् अधोक्षजका नित्य निरन्तर स्मरण करे। जो मूर्तिके सम्बन्धमें 'ये गोपाल हैं', 'ये साक्षात् श्रीकृष्ण हैं', 'ये श्रीरामचन्द्रजी हैं'- यों कहता है और इसी भावसे विधिपूर्वक पूजा करता है, वह निश्चय ही भगवान्का भक्त है। श्रेष्ठ वैष्णव द्विजोंको चाहिये कि वे परम भक्तिके साथ सोने, चाँदी, ताँबे अथवा पीतलकी विष्णु प्रतिमाका निर्माण करायें, जिसके चार भुजा, दो नेत्र, हाथोंमें शंख, चक्र और गदा, शरीरपर पीत वस्त्र, गलेमें वनमाला, कानोंमें वैदूर्यमणिके कुण्डल, माथेपर मुकुर और वक्षःस्थलमें कौस्तुभमणिका दिव्य प्रकाश हो । प्रतिमा भारी और शोभासम्पन्न होनी चाहिये। फिर वेद-शास्त्रोक मन्त्रोंके द्वारा विशेष समारोहसे उसकी स्थापना कराकर पीछे शास्त्र के अनुसार षोडशोपचार के मन्त्र आदिद्वारा विधिपूर्वक उसका पूजन करना चाहिये। जगत्के स्वामी भगवान् विष्णुके पूजित होनेपर सम्पूर्ण देवताओंकी पूजा हो जाती है अतः इस प्रकार आदि अन्तसे रहित, शंख, चक्र और गदा धारण करनेवालेभगवान् श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। वे सर्वेश्वर पुण्यस्वरूप वैष्णवोंको सब कुछ देते हैं। जो शिवकी पूजा नहीं करता और श्रीविष्णुकी निन्दामें तत्पर रहता है,उसे निश्चय ही रौरव नरकमें निवास करना पड़ता है। मैं ही विष्णु हूँ, मैं ही रुद्र हूँ और मैं ही पितामह ब्रह्मा हूँ। मैं ही सदा सब भूतोंमें निवास किया करता हूँ।