ब्राह्मण बोले- गुरुदेव ! अब आप हमें कोई ऐसा तीर्थ बतलाइये, जहाँ डुबकी लगानेसे निश्चय ही समस्त पाप तथा दूसरे दूसरे महापातक भी नष्ट हो जाते हैं।
व्यासजी बोले- ब्राह्मणो! अविलम्ब सद्गतिका उपाय सोचनेवाले सभी स्त्री-पुरुषोंके लिये गंगाजी ही एक ऐसा तीर्थ हैं, जिनके दर्शनमात्रसे सारा पाप नष्ट हो जाता है। गंगाजीके नामका स्मरण करनेमात्रसे पातक,कीर्तनसे अतिपातक और दर्शनसे भारी-भारी पाप (महापातक) भी नष्ट हो जाते हैं। गंगाजीमें स्नान, जलपान और पितरोंका तर्पण करनेसे महापातकोंकी राशिका प्रतिदिन क्षय होता रहता है। जैसे अग्निका संसर्ग होनेसे रूई और सूखे तिनके क्षणभरमें भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार गंगाजी अपने जलका स्पर्श होनेपर मनुष्योंके सारे पाप एक ही क्षणमें दग्ध कर देती हैं। * जो विधिपूर्वक संकल्पवाक्यका उच्चारण करते हुएगंगाजीके जलमें पितरोंके उद्देश्यसे पिण्डदान करता है, उसे प्रतिदिन सौ यज्ञोंका फल होता है। जो लोग गंगाजीके जलमें अथवा तटपर आवश्यक सामग्रियोंसे तर्पण और पिण्डदान करते हैं, उन्हें अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जो अकेला भी गंगाजीकी यात्रा करता है, उसके पितरोंकी कई पीढ़ियाँ पवित्र हो जाती हैं। एकमात्र इसी महापुण्यके बलपर वह स्वयं भी तरता है और पितरोंको भी तार देता है। ब्राह्मणो! गंगाजीके सम्पूर्ण गुणका वर्णन करनेमें चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं। इसलिये मैं भागीरथीके कुछ ही गुणोंका दिग्दर्शन कराता हूँ।
मुनि, सिद्ध, गन्धर्व तथा अन्यान्य श्रेष्ठ देवता गंगाजीके तीरपर तपस्या करके स्वर्गलोकमें स्थिर भावसे विराजमान हुए हैं। आजतक वे वहाँसे इस संसारमें नहीं लौटे। तपस्या, बहुत-से यज्ञ, नाना प्रकारके व्रत तथा पुष्कल दान करनेसे जो गति प्राप्त होती है, गंगाजीका सेवन करके मनुष्य उसी गतिको पा लेता है।
पिता पुत्रको, पत्नी प्रियतमको सम्बन्धी अपने सम्बन्धीको तथा अन्य सब भाई-बन्धु भी अपने प्रिय बन्धुको छोड़ देते हैं, किन्तु गंगाजी उनका परित्याग नहीं करतीं। जिन श्रेष्ठ मनुष्योंने एक बार भी भक्तिपूर्वक गंगामें स्नान किया है, कल्याणमयी गंगा उनकी लाख पीढ़ियोंका भवसागरसे उद्धार कर देती हैं। संक्रान्ति, व्यतीपात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण और पुष्य नक्षत्रमें गंगाजीमें स्नान करके मनुष्य अपने कुलकी करोड़ पीढ़ियोंका उद्धार कर सकता है। जो मनुष्य [अन्तकालमें] अपने हृदयमें भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करते हुए उत्तरायणके शुक्लपक्षमें दिनको गंगाजीके जलमें देह त्याग करते हैं, वे धन्य हैं। जो इस प्रकार भागीरथीके शुभ जलमें प्राण त्याग करते हैं, उन्हें पुनरावृत्तिरहित स्वर्गकी प्राप्ति होती है। गंगाजी में पितरोंको पिण्डदान तथा तिलमिश्रित जलसे तर्पणकरनेपर वे यदि नरकमें हों तो स्वर्गमें जाते हैं और स्वर्गमें हों तो मोक्षको प्राप्त होते हैं।
पर-स्त्री और पर-धनका हरण करने तथा सबसे द्रोह करनेवाले पापी मनुष्योंको उत्तम गति प्रदान करनेका साधन एकमात्र गंगाजी ही हैं। वेद-शास्त्रके ज्ञानसे रहित, गुरु-निन्दापरायण और सदाचारशून्य मनुष्यके लिये गंगाके समान दूसरी कोई गति नहीं है। गंगाजीमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्योंके अनेक जन्मोंकी पापराशि नष्ट हो जाती है तथा वे तत्काल पुण्यभागी होते हैं।
प्रभासक्षेत्रमें सूर्यग्रहणके समय एक सहस्र गोदान करनेपर जो फल मिलता है, वह गंगाजीमें स्नान करनेसे प्रतिदिन प्राप्त होता है। गंगाजीका दर्शन करके मनुष्य पापोंसे छूट जाता है और उसके जलका स्पर्श करके स्वर्ग पाता है। अन्य कार्यके प्रसंगसे भी गंगाजीमें गोता लगानेपर वे मोक्ष प्रदान करती हैं। गंगाजीके दर्शनमात्रसे पर धन और पर स्त्रीकी अभिलाषा तथा पर-धर्म-विषयक रुचि नष्ट हो जाती है। अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसीमें सन्तोष करना, अपने धर्ममें प्रवृत्त रहना तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति समान भाव रखना - ये सद्गुण गंगाजीमें स्नान करनेवाले मनुष्य के हृदयमें स्वभावतः उत्पन्न होते हैं। जो मनुष्य गंगाजीका आश्रय लेकर सुखपूर्वक निवास करता है, वही इस लोकमे जीवन्मुक्त और सर्वश्रेष्ठ है। उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। गंगाजी में या उनके तटपर किया हुआ यज्ञ, दान, तप, जप श्राद्ध और देवपूजन प्रतिदिन कोटि-कोटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है। अपने जन्म नक्षत्रके दिन गंगाजीके संगममें स्नान करके मनुष्य अपने कुलका उद्धार कर देता है। जो बिना श्रद्धाके भी पुण्यसलिला गंगाजीके नामका कीर्तन करता है, वह निश्चय ही स्वर्गका अधिकारी है। वे पृथ्वीपर मनुष्योंको, पातालमें नागोको और स्वर्गमें देवताओंको तारती हैं। जानकर या अनजानमें इच्छासे याअनिच्छासे गंगामें मरनेवाला मनुष्य स्वर्ग और मोक्षको भी प्राप्त करता है। सत्त्वगुणमें स्थित योगयुक्त मनीषी पुरुषको जो गति मिलती है, वही गंगाजीमें प्राण त्यागनेवाले देहधारियोंको प्राप्त होती है। एक मनुष्य अपने शरीरका शोधन करनेके लिये हजारों चान्द्रायण व्रत करता है और दूसरा मनचाहा गंगाजीका जल पीता है— उन दोनोंमें गंगाजलका पान करनेवाला पुरुष ही श्रेष्ठ है। मनुष्यके ऊपर तभीतक तीर्थो, देवताओं और वेदोंका प्रभाव रहता है, जबतक कि वह गंगाजीको नहीं प्राप्त कर लेता।
भगवती गंगे! वायु देवताने स्वर्ग, पृथ्वी और आकाशमें साढ़े तीन करोड़ तीर्थ बतलाये हैं; वे सब तुम्हारे जलमें विद्यमान हैं। गंगे! तुम श्रीविष्णुका चरणोदक होनेके कारण परम पवित्र हो। तीनों लोकोंमें गमन करनेसे त्रिपथगामिनी कहलाती हो। तुम्हारा जल धर्ममय है; इसलिये तुम धर्मद्रवीके नामसे विख्यात हो । जाह्नवी! मेरे पाप हर लो। भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम श्रीविष्णुद्वारा सम्मानित तथा वैष्णवी हो। मुझे जन्मसे लेकर मृत्युतकके पापोंसे बचाओ। महादेवी! भागीरथी! तुम श्रद्धासे, शोभायमान रज:कर्णोसे तथा अमृतमय जलसे मुझे पवित्र करो । इस भावके तीन श्लोकोंका उच्चारण करते हुए जो गंगाजीके जलमें स्नान करता है, वह करोड़ जन्मोंके पापसे निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। अब मैं गंगाजीके मूल मन्त्रका वर्णन करूँगा, जिसे साक्षात् श्रीहरिने बतलाया है। उसका एक बार भी जप करके मनुष्य पवित्र हो जाता तथा श्रीविष्णुके श्रीविग्रहमें प्रतिष्ठित होता है। वह मन्त्र इस प्रकार है-'ॐ नमो गङ्गायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः ।' (भगवान्श्रीनारायणसे प्रकट हुई विश्वरूपिणी गंगाजीको बारंबार नमस्कार है।)
जो मनुष्य गंगातीरकी मिट्टी अपने मस्तकपर धारण करता है, वह गंगामें स्नान किये बिना ही सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। गंगाजीकी लहरोंसे सटकर बहनेवाली वायु यदि किसीके शरीरका स्पर्श करती है, तो वह घोर पापसे शुद्ध होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। मनुष्यकी हड्डी जबतक गंगाजीके जलमें पड़ी रहती है, उतने ही हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। माता-पिता, बन्धु-बान्धव, अनाथ तथा गुरुजनोंकी हड्डी गंगाजीमें गिरानेसे मनुष्य कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होता। जो मानव अपने पितरोंकी हड्डियोंके टुकड़े बटोरकर उन्हें गंगाजीमें डालनेके लिये ले जाता है, वह पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। गंगा तीरपर बसे हुए गाँव, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े तथा चर-अचर - सभी प्राणी धन्य हैं। विप्रवरो ! जो गंगाजीसे एक कोसके भीतर प्राण त्याग करते हैं, वे मनुष्य देवता ही हैं; उससे बाहरके मनुष्य ही इस पृथ्वीपर मानव हैं। गंगास्नानके लिये यात्रा करता हुआ यदि कोई मार्गमें ही मर जाता है, तो वह भी स्वर्गको प्राप्त होता है। ब्राह्मणो! जो लोग गंगाजीकी यात्रा करनेवाले मनुष्योंको वहाँका मार्ग बता देते हैं, उन्हें भी परमपुण्यकी प्राप्ति होती है और वे भी गंगास्नानका फल पा लेते हैं। जो पाखण्डियोंके संसर्गसे विचारशक्ति खो बैठनेके कारण गंगाजीकी निन्दा करते हैं, वे घोर नरकमें पड़ते हैं तथा वहाँसे फिर कभी उनका उद्धार होना कठिन है। जो सैकड़ों योजन दूरसे भी 'गंगा-गंगा' कहता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको प्राप्त होता है। जो मनुष्य कभी गंगाजीमें स्नानके लियेनहीं गये हैं, वे अंधे और पंगुके समान हैं। उनका इस संसार जन्म लेना व्यर्थ है जो गंगाजीके नामका कीर्तन नहीं करते, वे नराधम जड़के समान हैं। जो लोग बद्धके साथ गंगाजीके माहात्म्यका पठन-पाठन करते हैं, वे धीर पुरुष स्वर्गको जाते और पितरों तथा गुरुओंका उद्धार कर देते हैं जो पुरुष गंगाजीकी यात्र करनेवाले लोगोंको राह खर्चके लिये अपनी शक्तिके अनुसार धन देता है, उसे भी गंगाजीमें स्नान करनेका फल मिलता है। दूसरेके खर्चसे जानेवालेको स्नानका जितना फल मिलता है, उससे दूना फल खर्च देकर भेजनेवालोंको प्राप्त होता है इच्छासे या अनिच्छासे, किसीके भेजने या दूसरेकी सेवाके मिससे भी जो परम पवित्र गंगाजीकी यात्रा करता है, वह देवताओंके लोकमें जाता है।
ब्राह्मणोंने पूछा- व्यासजी। हमने आपके मुँहसे गंगाजीके गुणोंका अत्यन्त पवित्र कीर्तन सुना। अब हम यह जानना चाहते हैं कि गंगाजी कैसे इस रूपमें प्रकट हुई, उनका स्वरूप क्या है तथा वे क्यों अत्यन्त पावन मानी जाती हैं।
व्यासजी बोले- द्विजवरी सुनो, मैं एक परम पवित्र प्राचीन कथा सुनाता हूँ। प्राचीन कालकी बात है, मुनिश्रेष्ठ नारदजीने ब्रह्मलोकमें जाकर त्रिलोकपावन ब्रह्माजीको नमस्कार किया और पूछा—'तात! आपने ऐसी कौन-सी वस्तु उत्पन्न की है, जो भगवान् शंकर और श्रीविष्णुको भी अत्यन्त प्रिय हो तथा जो भूतलपर सब लोगों का हित करनेके लिये अभीष्ट मानी गयी हो ?'
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! पूर्वकालमें सृष्टि आरम्भ करते समय मैंने मूर्तिमती प्रकृतिसे कहा-'देवि! तुम सम्पूर्ण लोकोंका आदि कारण बनी। मैं तुमसे ही संसारकी सृष्टि आरम्भ करूँगा।' यह सुनकर परा प्रकृति सात स्वरूपोंमें अभिव्यक्त हुई गायत्री, वाग्देवी (सरस्वती), सब प्रकारके धन-धान्य प्रदान करनेवाली लक्ष्मी, ज्ञान-विद्यास्वरूप उमादेवी शक्तिबीज तपस्विनी और धर्म ही सात परा प्रकृतिके स्वरूप है। इनमें गायत्री सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और वेदसे सारे जगत्की स्थिति है। स्वस्ति, स्वाहा स्वधा औरदीक्षा- ये भी गायत्रीसे ही उत्पन्न मानी गयी हैं। अतः यज्ञमें मातृका आदिके साथ सदा ही गायत्रीका उच्चारण करना चाहिये। भारती (सरस्वती) सब लोगोंके मुख और हृदयमें स्थित हैं तथा वे ही समस्त शास्त्रों में धर्मका उपदेश करती हैं। तीसरी प्रकृति लक्ष्मी हैं, जिनसे वस्त्र और आभूषणोंकी राशि प्रकट हुई है। सुख और त्रिभुवनका राज्य भी उन्हींकी देन है इसीसे वे भगवान् श्रीविष्णुकी प्रियतमा हैं। चौथी प्रकृति उमाके द्वारा ही संसारमें भगवान् शंकरके स्वरूपका ज्ञान होता है। अतः उमाको ज्ञानकी जननी (ब्रह्मविद्या) समझना चाहिये। वे भगवान् शिवके आधे अंगमें निवास करती हैं। शक्तिबीजा नामकी जो पांचवीं प्रकृति है, वह अत्यन्त उग्र और समूचे विश्वको मोहमें डालनेवाली है । समस्त लोकोंमें वही जगत्का पालन और संहार करती है। [तपस्विनी तपस्याकी अधिष्ठात्री देवी है ।] सातवीं प्रकृति धर्मद्रवा है, जो सब धर्मो में प्रतिष्ठित है। उसे सबसे श्रेष्ठ देखकर मैंने अपने कमण्डलुमें धारण कर लिया। फिर परम प्रभावशाली भगवान् श्रीविष्णुने बलिके यज्ञके समय इसे प्रकट किया। उनके दोनों चरणोंसे सम्पूर्ण महीतल व्याप्त हो गया था। उनमेंसे एक चरण आकाश एवं ब्रह्माण्डको भेदकर मेरे सामने स्थित हुआ। उस समय मैंने कमण्डलुके जलसे उस चरणका पूजन किया। उस चरणको धोकर जब मैं पूजन कर चुका, तब उसका धोवन हेमकूट पर्वतपर गिरा। वहाँसे भगवान् शंकरके पास पहुँचकर वह जल गंगाके रूपमें उनकी जटामें स्थित हुआ। गंगा बहुत कालतक उनकी जटामें ही भ्रमण करती रहीं। तत्पश्चात् महाराज भगीरथने भगवान् शंकरकी आराधना करके गंगाको पृथ्वीपर उतारा वे तीन धाराओंमें प्रकट होकर तीनों लोकोंमें गर्यो; इसलिये संसारमें त्रिस्रोताके नामसे विख्यात हुईं। शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु-तीनों देवताओंके संयोगसे पवित्र होकर वे त्रिभुवनको पावन करती हैं। भगवती भागीरथीका आश्रय लेकर मनुष्य सम्पूर्ण धर्मो का फल प्राप्त करता है। पाठ, यज्ञ मन्त्र, होम और देवार्चन आदि समस्त शुभ कर्मोंसे भी जीवको वह गति नहींमिलती, जो श्रीगंगाजीके सेवनसे प्राप्त होती है। गंगाजीके सेवनसे बढ़कर धर्म-साधनका दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिये नारद! तुम भी गंगाजीका आश्रय लो। हड्डियोंमें गंगाजीके जलका स्पर्श होनेसे राजा सगरके पुत्र अपने पितरों तथा वंशजोंके साथ स्वर्गलोक में पहुँच गये।
व्यासजी कहते हैं— मुनिश्रेष्ठ नारद ब्रह्माजीके मुखसे यह बात सुनकर गंगाद्वार (हरिद्वार)- में गये और वहाँ तपस्या करके ब्रह्माजीके समान हो गये। गंगाजी सर्वत्र सुलभ होते हुए भी गंगाद्वार, प्रयाग और गंगा सागर-संगम - इन तीन स्थानोंमें दुर्लभ हैं-वहाँ इनकी प्राप्ति बड़े भाग्यसे होती है। वहाँ तीन रात्रि या एक रात निवास करनेसे भी मनुष्य परम गतिको प्राप्त होता है; इसलिये धर्मज्ञ ब्राह्मणो! सब प्रकारसे प्रयत्न करके तुमलोग परम कल्याणमयी भगवती भागीरथीके तीरपरजाओ । विशेषतः इस कलिकालमें सत्त्वगुणसे रहित मनुष्योंको कष्टसे छुड़ाने और मोक्ष प्रदान करनेवाली गंगाजी ही हैं। गंगाजीके सेवनसे अनन्त पुण्यका उदय होता है।
पुलस्त्यजी कहते हैं- भीष्म ! तदनन्तर वे ब्राह्मण व्यासजीकी कल्याणमयी वाणी सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और गंगाजीके तटपर तपस्या करके मोक्षमार्गको पा गये। जो मनुष्य इस उत्तम परम पवित्र उपाख्यानका श्रवण करता है, वह समस्त दुःख-राशिसे पार हो जाता है तथा उसे गंगाजीमें स्नान करनेका फल मिलता है। एक बार भी इस प्रसंगका पाठ करनेपर सम्पूर्ण यज्ञोंका फल मिल जाता है। जो गंगाजीके तटपर ही दान, जप, ध्यान, स्तोत्र, मन्त्र और देवार्चन आदि कर्म कराता है, उसे अनन्त फलकी प्राप्ति होती है।