श्रीमहादेवजी कहते हैं-देवि ! सुनो, अब मैं तुम्हें त्रिलोकदुर्लभ का वर्णन सुनाता हूँ. जिसके सुननेसे मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पातकोंसे मुक्त हो जाता है। स्वयंप्रकाश परमात्मा जब भक्तोंको सुख देनेके लिये अवतार ग्रहण करते हैं, वह तिथि और मास भी पुण्यके कारण बन जाते हैं। देवि! जिनके नामका उच्चारण करनेवाला पुरुष सनातन मोक्षको प्राप्त होता है, वे परमात्मा कारणोंके भी कारण हैं। वे सम्पूर्ण विश्वके आत्मा, विश्वस्वरूप और सबके प्रभु हैं। जिन्होंने बारह सूर्योको धारण कर रखा है, वे ही भगवान् भक्तोंका अभीष्ट सिद्ध करनेके लिये महात्मा नृसिंहके रूपमें प्रकट हुए थे।
देवि! जब हिरण्यकशिपु नामक दैत्यका वध करके देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् नृसिंह सुखपूर्वक विराजमान हुए, तब उनकी गोदमें बैठे हुए ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ प्रह्लादजीने उनसे इस प्रकार प्रश्न किया- 'सर्वव्यापी भगवान् नारायण ! नृसिंहका अद्भुत रूप धारण करनेवालेआपको नमस्कार है। सुरश्रेष्ठ! मैं आपका भक्त हैं अतः यथार्थ बात जाननेके लिये आपसे पूछता हूँ। स्वामिन्! आपके प्रति मेरी अभेद-भक्ति अनेक प्रकारसे स्थिर हुई है। प्रभो! मैं आपको इतना प्रिय कैसे हुआ ? इसका कारण बताइये।' भगवान् नृसिंह बोले- वत्स! तुम पूर्वजन्ममें किसी ब्राह्मणके पुत्र थे। फिर भी तुमने वेदोंका अध्ययन नहीं किया। उस समय तुम्हारा नाम वसुदेव था। उस जन्ममें तुमसे कुछ भी पुण्य नहीं बन पड़ा। केवल मेरे व्रतके प्रभावसे मेरे प्रति तुम्हारी भक्ति हुई। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने सृष्टि रचनाके लिये इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया था। मेरे व्रतके प्रभावसे ही उन्होंने चराचर जगत्की रचना की है। और भी बहुत-से देवताओं, प्राचीन ऋषियों तथा परम बुद्धिमान् राजाओंने मेरे उत्तम व्रतका पालन किया है और उसके प्रभावसे उन्हें सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं। स्त्री या पुरुष, जो कोई भी इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें मैं सौख्य, भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करता हूँ।
प्रह्लादने पूछा- देव! अब मैं इस व्रतकी उत्तम विधिको सुनना चाहता हूँ। प्रभो! किस महीनेमें और किस दिनको यह व्रत आता है? यह विस्तारके साथ बतानेकी कृपा कीजिये
भगवान् नृसिंह बोले- बेटा ! प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। एकाग्रचित्त होकर इस व्रतको श्रवण करो। यह व्रत मेरे प्रादुर्भावसे सम्बन्ध रखता है, अतः वैशाखके शुक्लपक्षकी चतुर्दशी तिथिको इसका अनुष्ठान करना चाहिये। इससे मुझे बड़ा सन्तोष होता है। पुत्र भक्तोंको सुख देनेके लिये जिस प्रकार मेरा आविर्भाव हुआ, वह प्रसंग सुनो। पश्चिम दिशामें एक विशेष कारणसे मैं प्रकट हुआ था। वह स्थान अब मूलस्थान (मुलतान) क्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध है, जो परम पवित्र और समस्त पापका नाशक है। उस क्षेत्रमें हारीत नामक एक प्रसिद्ध ब्राह्मण रहते थे, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् और ज्ञान-ध्यानमेंअत्पर रहनेवाले थे। उनकी स्त्रीका नाम लीलावती था। वह भी परम पुण्यमयी, सतीरूपा तथा स्वामीके अधीन रहनेवाली थी। उन दोनोंने बहुत समयतक बड़ी भारी तपस्या की। तपस्यामें ही उनके इक्कीस । बीत गये। तब उस क्षेत्रमें प्रकट होकर मैंने उन दोनोंको प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस समय उन्होंने मुझसे कहा- 'भगवन्! यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो इसी समय आपके समान पुत्र मुझे प्राप्त हो।' बेटा प्रह्लाद! उनकी बात सुनकर मैंने उत्तर दिया- 'ब्रह्मन् ! निस्सन्देह मैं आप दोनोंका पुत्र हूँ। किन्तु मैं सम्पूर्ण विश्वको सृष्टि करनेवाला साक्षात् परात्पर परमात्मा हूँ, सदा रहनेवाला सनातन पुरुष हूँ अतः गर्भमें नहीं निवास करूँगा।' तब हारीतने कहा- 'अच्छा, ऐसा ही हो।' तबसे मैं भक्तके कारण उस क्षेत्रमें निवास करता हूँ। मेरे श्रेष्ठ भक्तको चाहिये कि उस तीर्थमें आकर मेरा दर्शन करे। इससे उसकी सारी बाधाओंका मैं निरन्तर नाश करता रहता हूँ। जो हारीत और लीलावतीके साथ मेरे बालरूपका ध्यान करके रात्रिमें मेरा पूजन करता है, वह नरसे नारायण हो जाता है।
बेटा! मेरे व्रतका दिन आनेपर भक्त पुरुष सबेरे दन्तधावन करके इन्द्रियोंको काबू में रखते हुए मेरे सामने व्रतका संकल्प करे- 'भगवन्! आज मैं आपका व्रत करूँगा । इसे निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण कराइये। ' व्रतमें स्थित होकर दुष्ट पुरुषोंसे वार्तालाप आदि नहीं करना चाहिये। फिर मध्याह्नकालमें नदी आदिके निर्मल जलमें, घरपर देवसम्बन्धी कुण्डगे अथवा किसी सुन्दर तालाबके भीतर वैदिक मन्त्रोंसे स्नान करे। मिट्टी, गोवर, आँवलेका फल और तिल लेकर उनसे सब पापोंकी शान्तिके लिये विधिपूर्वक स्नान करे। तत्पश्चात् दो सुन्दर वस्त्र धारण करके सन्ध्या तर्पण आदि नित्यकर्मका अनुष्ठान करना चाहिये। उसके बाद घर लीपकर उसमें सुन्दर अष्टदल कमल बनाये। कमलके ऊपर पंचरत्नसहित ताँबेका कलश स्थापित करे। कलशके ऊपर चावलोंसे भरा हुआ पात्र रखे और पात्रमें अपनी शक्तिके अनुसार सोनेकी लक्ष्मीसहित मेरी प्रतिमा बनवाकर स्थापित करे।तत्पश्चात् उसे पंचामृत से स्नान कराये। इसके बाद शास्त्रके ज्ञाता और लोभहीन ब्राह्मणको बुलाकर आचार्य बनाये और उसे आगे रखकर भगवान्की अर्चना करे। पूजाके स्थानपर एक मण्डप बनवाकर उसे फूलके गुच्छोंसे सजा दे फिर वर्तमान तु सुलभ होनेवाले फूलोंसे और षोडशोपचारकी सामग्रियोंसे विधिपूर्वक मेरा पूजन करे। पूजामें नियमपूर्वक रहकर मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले पौराणिक मन्त्रोंका उपयोग करे। जो चन्दन, कपूर, रोली, सामयिक पुष्प तथा तुलसीदल मुझे अर्पण करता है, वह निश्चय ही मुक्त हो जाता है। समस्त कामनाओंकी सिद्धिके लिये जगद्गुरु श्रीहरिको सदा कृष्णागरुका बना हुआ धूप निवेदन करना चाहिये, क्योंकि वह उन्हें बहुत ही प्रिय है। एक महान् दीप जलाकर रखना चाहिये, जो अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला है। फिर घण्टेकी आवाजके साथ बड़े रूपमें आरती उतारनी चाहिये। तदनन्तर नैवेद्य निवेदन करे, जिसका मन्त्र
इस प्रकार है
नैवेद्यं शर्करां चापि भक्ष्यभोज्यसमन्वितम्।
ददामि ते रमाकान्त सर्वपापक्षयं कुरु ॥
(17062) लक्ष्मीकान्त मैं आपके लिये भक्ष्यभोज्यसहित नैवेद्य तथा शर्करा निवेदन करता हूँ। आप मेरे सब पापका नाश कीजिये।
तत्पश्चात् भगवान्से इस प्रकार प्रार्थना करे 'नृसिंह! अच्युत देवेश्वर आपके शुभ जन्मदिनको मैं सब भोगोंका परित्याग करके उपवास करूंगा। स्वामिन्! आप इससे प्रसन्न हों तथा मेरे पाप और जन्मके `बन्धनको दूर करे।' यों कहकर व्रतका पालन करे। रातमें गीत और वाद्योंकी ध्वनिके साथ जागरण करना चाहिये। भगवान् नृसिंहकी कथासे सम्बन्ध रखनेवाले पौराणिक प्रसंगका पाठ भी करना उचित है। फिर प्रातः काल होनेपर स्नानके अनन्तर पूर्वोक्त विधिसे यत्नपूर्वक मेरी पूजा करे। उसके बाद स्वस्थचित्त होकर मेरे आगे वैष्णव श्राद्ध करे। तदनन्तर इस लोक और परलोक दोनोंपर विजय पानेकी इच्छासे सुपात्र ब्राह्मणोंको नीचे लिखी वस्तुओंका दान करना चाहिये। गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, ओढ़ने-बिछौने आदिके सहित चारपाई, सप्तधान्य तथा अन्यान्य वस्तुएँ भी अपनी शक्तिके अनुसार दान करनी चाहिये। शास्त्रोक्त फल पानेकी इच्छा हो तो धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये। अन्तमें ब्राह्मणोंको भोजन कराये और उन्हें उत्तम दक्षिणा दे। धनहीन व्यक्तियोंको भी चाहिये कि के इस व्रतका अनुष्ठान करें और शक्तिके अनुसार दान दें। मेरे व्रतमें सभी वर्णके मनुष्योंका अधिकार है। मेरी शरण में आये हुए भक्तोंको विशेषरूपसे इसका अनुष्ठान करना चाहिये।
श्रीमहादेवजी बोले- हे पार्वती! इसके बाद व्रत करनेवाले पुरुषको इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये। विशाल रूप धारण करनेवाले भगवान् नृसिंह ! करोड़ों कालोंके लिये भी आपको परास्त करना कठिन है। बालरूपधारी प्रभो! आपको नमस्कार है। बाल अवस्था तथा बालकरूप धारण करनेवाले श्रीनृसिंह भगवान्को नमस्कार है। जो सर्वत्र व्यापक, सबको आनन्दित करनेवाले, स्वतः प्रकट होनेवाले, सर्वजीव स्वरूप, विश्वके स्वामी, देवस्वरूप और सूर्यमण्डलमें स्थित रहनेवाले हैं, उन भगवान्को प्रणाम है। दयासिन्धो आपको नमस्कार है। आप तेईस तत्त्वोंके साक्षी चौबीसवें तत्त्वरूप हैं। काल, रुद्र और अग्नि आपके ही स्वरूप हैं। यह जगत् भी आपसे भिन्न नहीं है। नर और सिंहका रूप धारण करनेवाले आप भगवान्को नमस्कार है।
देवेश मेरे वंशमें जो मनुष्य उत्पन्न हो चुके हैं और जो उत्पन्न होनेवाले हैं, उन सबका दुःखदायी भवसागरसे उद्धार कीजिये। जगत्पते। मैं पातकके समुद्रमें दवा है। नाना प्रकारकी व्याधियाँ ही इस समुद्रकी जल-राशि हैं। इसमें रहनेवाले जीव मेरा तिरस्कार करते हैं। इस कारण मैं महान् दुःखमें पड़ गया हूँ। शेषशायी देवेश्वर मुझे अपने हाथोंका सहारादीजिये और इस व्रतसे प्रसन्न हो मुझे भोग और मोक्ष प्रदान कीजिये।
इस प्रकार प्रार्थना करके विधिपूर्वक देवताका विसर्जन करे। उपहार आदिकी सभी वस्तुएँ आचार्यको निवेदन करे। ब्राह्मणोंको दक्षिणासे सन्तुष्ट करके विदा करे। फिर भगवान्का चिन्तन करते हुए भाई बन्धुओंके साथ भोजन करे। जिसके पास कुछ भी नहीं है, ऐसा दरिद्र मनुष्य भी यदि नियमपूर्वक नृसिंहचतुर्दशीको उपवास करता है तो वह निःसन्देह सात जन्मके पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो भक्तिपूर्वक इस पापनाशक व्रतका श्रवण करता है, उसकी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। जो मानव इस परम पवित्र एवं गोपनीय व्रतका कीर्तन करता है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंके साथ ही इस व्रतके फलको भी पा लेता है। जो मध्याह्नकालमें यथाशक्ति इस व्रतका अनुष्ठान करता और लीलावती देवीके साथ हारीत मुनि एवं भगवान् नृसिंहका पूजन करता है, उसे सनातन मोक्षकी प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं, वह श्रीनृसिंहके प्रसादसे सदा मनोवांछित वस्तुओंको प्राप्त करता रहता है।
उस तीर्थमें परम पुण्यमयी सिन्धु नदी बहुत ही रमणीय है। उसके समीप मूलस्थान नामक नगर आज भी वर्तमान है। उस नगरका निर्माण देवताओंने किया था। वहीं महात्मा हारीतका निवासस्थान है और उसीमें लीलावती देवी भी रहती हैं। सिन्धु नदीके निकट होनेसे यहाँ निरन्तर जलके प्रबल वेगकी प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती है कलियुग आनेपर वहाँ बहुत से पापाचारी म्लेच्छ निवास करने लगते हैं। पार्वती भगवान् नृसिंहके प्रादुर्भाव कालमें जैसा अद्भुत शब्द हुआ था, उसीके समान प्रतिध्वनि वहाँ आज भी सुनायी देती है। ब्रहत्यारा सुवर्ण चुरानेवाला, शराबी और गुरुपत्नी के साथ समागम करनेवाला ही क्यों न हो, जो मनुष्य सिन्धु नदीके तटपर जाकर विशेषरूपसे स्नान करता है, वह निश्चय ही श्रीनृसिंहके प्रसादसे मुक्त हो जाता है। जोमानव वहाँ दस रात निवास करते हैं, उन्हें पुण्यात्मा जानना चाहिये। जो वहाँ मांस खाते और शराब पीते हैं, वे अधर्मके मूर्तिमान् स्वरूप और महापापी हैं। भगवान्नृसिंहके नामसे प्रसिद्ध एक ही तीर्थ है, जो बहुत ही उत्तम और विस्तृत है। उसका श्रवण करनेमात्रसे मनुष्य तत्काल पापमुक्त हो जाता है।