View All Puran & Books

पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 208 - Khand 5, Adhyaya 208

Previous Page 208 of 266 Next

श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा

श्रीमहादेवजी कहते हैं-देवि ! सुनो, अब मैं तुम्हें त्रिलोकदुर्लभ का वर्णन सुनाता हूँ. जिसके सुननेसे मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पातकोंसे मुक्त हो जाता है। स्वयंप्रकाश परमात्मा जब भक्तोंको सुख देनेके लिये अवतार ग्रहण करते हैं, वह तिथि और मास भी पुण्यके कारण बन जाते हैं। देवि! जिनके नामका उच्चारण करनेवाला पुरुष सनातन मोक्षको प्राप्त होता है, वे परमात्मा कारणोंके भी कारण हैं। वे सम्पूर्ण विश्वके आत्मा, विश्वस्वरूप और सबके प्रभु हैं। जिन्होंने बारह सूर्योको धारण कर रखा है, वे ही भगवान् भक्तोंका अभीष्ट सिद्ध करनेके लिये महात्मा नृसिंहके रूपमें प्रकट हुए थे।

देवि! जब हिरण्यकशिपु नामक दैत्यका वध करके देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् नृसिंह सुखपूर्वक विराजमान हुए, तब उनकी गोदमें बैठे हुए ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ प्रह्लादजीने उनसे इस प्रकार प्रश्न किया- 'सर्वव्यापी भगवान् नारायण ! नृसिंहका अद्भुत रूप धारण करनेवालेआपको नमस्कार है। सुरश्रेष्ठ! मैं आपका भक्त हैं अतः यथार्थ बात जाननेके लिये आपसे पूछता हूँ। स्वामिन्! आपके प्रति मेरी अभेद-भक्ति अनेक प्रकारसे स्थिर हुई है। प्रभो! मैं आपको इतना प्रिय कैसे हुआ ? इसका कारण बताइये।' भगवान् नृसिंह बोले- वत्स! तुम पूर्वजन्ममें किसी ब्राह्मणके पुत्र थे। फिर भी तुमने वेदोंका अध्ययन नहीं किया। उस समय तुम्हारा नाम वसुदेव था। उस जन्ममें तुमसे कुछ भी पुण्य नहीं बन पड़ा। केवल मेरे व्रतके प्रभावसे मेरे प्रति तुम्हारी भक्ति हुई। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने सृष्टि रचनाके लिये इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया था। मेरे व्रतके प्रभावसे ही उन्होंने चराचर जगत्की रचना की है। और भी बहुत-से देवताओं, प्राचीन ऋषियों तथा परम बुद्धिमान् राजाओंने मेरे उत्तम व्रतका पालन किया है और उसके प्रभावसे उन्हें सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं। स्त्री या पुरुष, जो कोई भी इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें मैं सौख्य, भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करता हूँ।

प्रह्लादने पूछा- देव! अब मैं इस व्रतकी उत्तम विधिको सुनना चाहता हूँ। प्रभो! किस महीनेमें और किस दिनको यह व्रत आता है? यह विस्तारके साथ बतानेकी कृपा कीजिये

भगवान् नृसिंह बोले- बेटा ! प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। एकाग्रचित्त होकर इस व्रतको श्रवण करो। यह व्रत मेरे प्रादुर्भावसे सम्बन्ध रखता है, अतः वैशाखके शुक्लपक्षकी चतुर्दशी तिथिको इसका अनुष्ठान करना चाहिये। इससे मुझे बड़ा सन्तोष होता है। पुत्र भक्तोंको सुख देनेके लिये जिस प्रकार मेरा आविर्भाव हुआ, वह प्रसंग सुनो। पश्चिम दिशामें एक विशेष कारणसे मैं प्रकट हुआ था। वह स्थान अब मूलस्थान (मुलतान) क्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध है, जो परम पवित्र और समस्त पापका नाशक है। उस क्षेत्रमें हारीत नामक एक प्रसिद्ध ब्राह्मण रहते थे, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् और ज्ञान-ध्यानमेंअत्पर रहनेवाले थे। उनकी स्त्रीका नाम लीलावती था। वह भी परम पुण्यमयी, सतीरूपा तथा स्वामीके अधीन रहनेवाली थी। उन दोनोंने बहुत समयतक बड़ी भारी तपस्या की। तपस्यामें ही उनके इक्कीस । बीत गये। तब उस क्षेत्रमें प्रकट होकर मैंने उन दोनोंको प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस समय उन्होंने मुझसे कहा- 'भगवन्! यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो इसी समय आपके समान पुत्र मुझे प्राप्त हो।' बेटा प्रह्लाद! उनकी बात सुनकर मैंने उत्तर दिया- 'ब्रह्मन् ! निस्सन्देह मैं आप दोनोंका पुत्र हूँ। किन्तु मैं सम्पूर्ण विश्वको सृष्टि करनेवाला साक्षात् परात्पर परमात्मा हूँ, सदा रहनेवाला सनातन पुरुष हूँ अतः गर्भमें नहीं निवास करूँगा।' तब हारीतने कहा- 'अच्छा, ऐसा ही हो।' तबसे मैं भक्तके कारण उस क्षेत्रमें निवास करता हूँ। मेरे श्रेष्ठ भक्तको चाहिये कि उस तीर्थमें आकर मेरा दर्शन करे। इससे उसकी सारी बाधाओंका मैं निरन्तर नाश करता रहता हूँ। जो हारीत और लीलावतीके साथ मेरे बालरूपका ध्यान करके रात्रिमें मेरा पूजन करता है, वह नरसे नारायण हो जाता है।

बेटा! मेरे व्रतका दिन आनेपर भक्त पुरुष सबेरे दन्तधावन करके इन्द्रियोंको काबू में रखते हुए मेरे सामने व्रतका संकल्प करे- 'भगवन्! आज मैं आपका व्रत करूँगा । इसे निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण कराइये। ' व्रतमें स्थित होकर दुष्ट पुरुषोंसे वार्तालाप आदि नहीं करना चाहिये। फिर मध्याह्नकालमें नदी आदिके निर्मल जलमें, घरपर देवसम्बन्धी कुण्डगे अथवा किसी सुन्दर तालाबके भीतर वैदिक मन्त्रोंसे स्नान करे। मिट्टी, गोवर, आँवलेका फल और तिल लेकर उनसे सब पापोंकी शान्तिके लिये विधिपूर्वक स्नान करे। तत्पश्चात् दो सुन्दर वस्त्र धारण करके सन्ध्या तर्पण आदि नित्यकर्मका अनुष्ठान करना चाहिये। उसके बाद घर लीपकर उसमें सुन्दर अष्टदल कमल बनाये। कमलके ऊपर पंचरत्नसहित ताँबेका कलश स्थापित करे। कलशके ऊपर चावलोंसे भरा हुआ पात्र रखे और पात्रमें अपनी शक्तिके अनुसार सोनेकी लक्ष्मीसहित मेरी प्रतिमा बनवाकर स्थापित करे।तत्पश्चात् उसे पंचामृत से स्नान कराये। इसके बाद शास्त्रके ज्ञाता और लोभहीन ब्राह्मणको बुलाकर आचार्य बनाये और उसे आगे रखकर भगवान्‌की अर्चना करे। पूजाके स्थानपर एक मण्डप बनवाकर उसे फूलके गुच्छोंसे सजा दे फिर वर्तमान तु सुलभ होनेवाले फूलोंसे और षोडशोपचारकी सामग्रियोंसे विधिपूर्वक मेरा पूजन करे। पूजामें नियमपूर्वक रहकर मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले पौराणिक मन्त्रोंका उपयोग करे। जो चन्दन, कपूर, रोली, सामयिक पुष्प तथा तुलसीदल मुझे अर्पण करता है, वह निश्चय ही मुक्त हो जाता है। समस्त कामनाओंकी सिद्धिके लिये जगद्गुरु श्रीहरिको सदा कृष्णागरुका बना हुआ धूप निवेदन करना चाहिये, क्योंकि वह उन्हें बहुत ही प्रिय है। एक महान् दीप जलाकर रखना चाहिये, जो अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला है। फिर घण्टेकी आवाजके साथ बड़े रूपमें आरती उतारनी चाहिये। तदनन्तर नैवेद्य निवेदन करे, जिसका मन्त्र
इस प्रकार है

नैवेद्यं शर्करां चापि भक्ष्यभोज्यसमन्वितम्।

ददामि ते रमाकान्त सर्वपापक्षयं कुरु ॥

(17062) लक्ष्मीकान्त मैं आपके लिये भक्ष्यभोज्यसहित नैवेद्य तथा शर्करा निवेदन करता हूँ। आप मेरे सब पापका नाश कीजिये।

तत्पश्चात् भगवान्से इस प्रकार प्रार्थना करे 'नृसिंह! अच्युत देवेश्वर आपके शुभ जन्मदिनको मैं सब भोगोंका परित्याग करके उपवास करूंगा। स्वामिन्! आप इससे प्रसन्न हों तथा मेरे पाप और जन्मके `बन्धनको दूर करे।' यों कहकर व्रतका पालन करे। रातमें गीत और वाद्योंकी ध्वनिके साथ जागरण करना चाहिये। भगवान् नृसिंहकी कथासे सम्बन्ध रखनेवाले पौराणिक प्रसंगका पाठ भी करना उचित है। फिर प्रातः काल होनेपर स्नानके अनन्तर पूर्वोक्त विधिसे यत्नपूर्वक मेरी पूजा करे। उसके बाद स्वस्थचित्त होकर मेरे आगे वैष्णव श्राद्ध करे। तदनन्तर इस लोक और परलोक दोनोंपर विजय पानेकी इच्छासे सुपात्र ब्राह्मणोंको नीचे लिखी वस्तुओंका दान करना चाहिये। गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, ओढ़ने-बिछौने आदिके सहित चारपाई, सप्तधान्य तथा अन्यान्य वस्तुएँ भी अपनी शक्तिके अनुसार दान करनी चाहिये। शास्त्रोक्त फल पानेकी इच्छा हो तो धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये। अन्तमें ब्राह्मणोंको भोजन कराये और उन्हें उत्तम दक्षिणा दे। धनहीन व्यक्तियोंको भी चाहिये कि के इस व्रतका अनुष्ठान करें और शक्तिके अनुसार दान दें। मेरे व्रतमें सभी वर्णके मनुष्योंका अधिकार है। मेरी शरण में आये हुए भक्तोंको विशेषरूपसे इसका अनुष्ठान करना चाहिये।

श्रीमहादेवजी बोले- हे पार्वती! इसके बाद व्रत करनेवाले पुरुषको इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये। विशाल रूप धारण करनेवाले भगवान् नृसिंह ! करोड़ों कालोंके लिये भी आपको परास्त करना कठिन है। बालरूपधारी प्रभो! आपको नमस्कार है। बाल अवस्था तथा बालकरूप धारण करनेवाले श्रीनृसिंह भगवान्‌को नमस्कार है। जो सर्वत्र व्यापक, सबको आनन्दित करनेवाले, स्वतः प्रकट होनेवाले, सर्वजीव स्वरूप, विश्वके स्वामी, देवस्वरूप और सूर्यमण्डलमें स्थित रहनेवाले हैं, उन भगवान्‌को प्रणाम है। दयासिन्धो आपको नमस्कार है। आप तेईस तत्त्वोंके साक्षी चौबीसवें तत्त्वरूप हैं। काल, रुद्र और अग्नि आपके ही स्वरूप हैं। यह जगत् भी आपसे भिन्न नहीं है। नर और सिंहका रूप धारण करनेवाले आप भगवान्को नमस्कार है।

देवेश मेरे वंशमें जो मनुष्य उत्पन्न हो चुके हैं और जो उत्पन्न होनेवाले हैं, उन सबका दुःखदायी भवसागरसे उद्धार कीजिये। जगत्पते। मैं पातकके समुद्रमें दवा है। नाना प्रकारकी व्याधियाँ ही इस समुद्रकी जल-राशि हैं। इसमें रहनेवाले जीव मेरा तिरस्कार करते हैं। इस कारण मैं महान् दुःखमें पड़ गया हूँ। शेषशायी देवेश्वर मुझे अपने हाथोंका सहारादीजिये और इस व्रतसे प्रसन्न हो मुझे भोग और मोक्ष प्रदान कीजिये।

इस प्रकार प्रार्थना करके विधिपूर्वक देवताका विसर्जन करे। उपहार आदिकी सभी वस्तुएँ आचार्यको निवेदन करे। ब्राह्मणोंको दक्षिणासे सन्तुष्ट करके विदा करे। फिर भगवान्का चिन्तन करते हुए भाई बन्धुओंके साथ भोजन करे। जिसके पास कुछ भी नहीं है, ऐसा दरिद्र मनुष्य भी यदि नियमपूर्वक नृसिंहचतुर्दशीको उपवास करता है तो वह निःसन्देह सात जन्मके पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो भक्तिपूर्वक इस पापनाशक व्रतका श्रवण करता है, उसकी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। जो मानव इस परम पवित्र एवं गोपनीय व्रतका कीर्तन करता है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंके साथ ही इस व्रतके फलको भी पा लेता है। जो मध्याह्नकालमें यथाशक्ति इस व्रतका अनुष्ठान करता और लीलावती देवीके साथ हारीत मुनि एवं भगवान् नृसिंहका पूजन करता है, उसे सनातन मोक्षकी प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं, वह श्रीनृसिंहके प्रसादसे सदा मनोवांछित वस्तुओंको प्राप्त करता रहता है।

उस तीर्थमें परम पुण्यमयी सिन्धु नदी बहुत ही रमणीय है। उसके समीप मूलस्थान नामक नगर आज भी वर्तमान है। उस नगरका निर्माण देवताओंने किया था। वहीं महात्मा हारीतका निवासस्थान है और उसीमें लीलावती देवी भी रहती हैं। सिन्धु नदीके निकट होनेसे यहाँ निरन्तर जलके प्रबल वेगकी प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती है कलियुग आनेपर वहाँ बहुत से पापाचारी म्लेच्छ निवास करने लगते हैं। पार्वती भगवान् नृसिंहके प्रादुर्भाव कालमें जैसा अद्भुत शब्द हुआ था, उसीके समान प्रतिध्वनि वहाँ आज भी सुनायी देती है। ब्रहत्यारा सुवर्ण चुरानेवाला, शराबी और गुरुपत्नी के साथ समागम करनेवाला ही क्यों न हो, जो मनुष्य सिन्धु नदीके तटपर जाकर विशेषरूपसे स्नान करता है, वह निश्चय ही श्रीनृसिंहके प्रसादसे मुक्त हो जाता है। जोमानव वहाँ दस रात निवास करते हैं, उन्हें पुण्यात्मा जानना चाहिये। जो वहाँ मांस खाते और शराब पीते हैं, वे अधर्मके मूर्तिमान् स्वरूप और महापापी हैं। भगवान्नृसिंहके नामसे प्रसिद्ध एक ही तीर्थ है, जो बहुत ही उत्तम और विस्तृत है। उसका श्रवण करनेमात्रसे मनुष्य तत्काल पापमुक्त हो जाता है।

Previous Page 208 of 266 Next

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार